Friday, January 29, 2010

मुल्ला नसरुद्दीन और पजेसिवनेस

मेरे दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन से तो आप वाकिफ ही हैं . मुल्ला हैं 'सर्वगुणसंपन्न' शख्सियत. इतवार कि अलसाई सुबहें हम अक्सर साथ गुजरते हैं चाय कि प्यालियों के साथ. ऐसे भी वक़्त बेवक्त मुल्ला मेरे गरीबखाने पर तशरीफ़ ले ही आते हैं, बुलाये-बिनबुलाये. हाँ जब मुल्ला बेहद खुश होते हैं या बेइन्तेहा गमगीन और परेशान तो बिना घड़ी देखे मुंह उठाये चले आते हैं. आखिर यही तो दोस्ती का तकाजा होता है. मुल्ला और मासटर का बेमेल दीखनेवाला याराना इस छोटे से मोहल्ले में बड़ा मशहूर है.

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन अचानक आ टपका. बड़ा उदास था, चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी, लगता था कि किसी बड़े हादशे से दो चार हुआ है. बहुत घबराया हुआ था मुल्ला. मैं किसी 'सायिकोलोजी' की किताब में सर गडाए बैठा था, किसी पाकिस्तानी इश्किया ग़ज़ल का जायका तरह तरह के ख़यालात तसव्वुर में लिए, लिए जा रहा था. गरमा गरम अदरक वाली चाय ने मिजाज़ भी जरा खुशनुमा किये हुआ था. ऐसे में मुल्ला की मुहर्रमी सूरत देख कर मेरे सारे पोजिटिव सोचों की ऐसी-तैसी हो गयी थी. फिर भी दोस्त आखिर दोस्त होता है, गुस्सा के साथ साथ हमदर्दी का ज़ज्बा भी मुझ में करवट ले चुका था.
मैने पूछा, "यार मुल्ला ! बता मुआमला क्या है ? मियाँ इतने उदास ? क्या बीवी ने फिर नौकरानी के साथ पकड़ लिया ?"
मुल्ला ने कहा, "मासटर ! आज हद हो गयी. आज बात और उलटी हो गयी."
मैने कहा, "क्या हुआ ? इस से और क्या बुरा हो गया ?"
मुल्ला नसरुद्दीन चुपा गया, बगले झाँकने लगा...आँखे उसकी भर आयी. मैने प्यार से पुचकार के कहा, "अमां यार कुछ कहोगे भी, या टसुये बहाते रहोगे. बताओगे तभी तो जानेंगे ना कि और क्या बुरा हो गया."
मुल्ला ने खंकार कर गला साफ़ किया और बोला " मासटर ! कुछ पिलाओ. मूड जरा बिगड़ा बिगड़ा सा है."
मैं जानता था कि पीनेवालों को तो पीने का बहाना चाहिए. मैं ने दारू छोड़ ड़ी तो ज़रूरी तो नहीं कि जनसाधारण इस पर अमल करे. उस दिन मेरे एक रिश्तेदार सूबेदार दुर्जनसिंगजी आये थे छावनी से और थ्री एक्स रम की एक बोत्तल छोड़ गए थे किसी रिश्तेदारन ने अपने खाविंद से छुपा कर मंगवाई थी, शायद केक बनाने में इस्तेमाल करने के लिए या अपने किसी खासमखास कि खातिर-तवज्जा करने के लिए. सूबेदार साहब ने मुझे सेंट्रल पोस्ट ऑफिस समझते हुए मेरे जिम्मे लगाया था कि वक़्त मिलने पर उन तक पहूंचा दूँ बोतल को.

मैने मियां को बाटली पकडाई और खुद नहाने घुस गया, असल में मैं रम कि गंध बर्दाश्त नहीं कर सकता, मुझे उसमें अस्तबल जैसी बू आती है. बाहर आया तो मुल्ला कोई चौथाई बोतल थम्सअप में मिला कर हलक से उत्तार चुका था और बेतकल्लुफी से मेरे दामी बादाम-पिश्तों का भोग भी लगा चुका था, उसका कार्यक्रम जारी था. मैने देखा कि मुल्ला में अब कांफिडेंस आ गया है, रम का असर था ही और मेरे साथ का भी, मुल्ला पुराने मुरदे सा अकड़ा अकड़ा सा बैठा था.
खैर मैने कहा, "मुल्ला अब तो बता यार क्या हुआ ?"
मुल्ला ने कहा, " मासटर, आज नौकरानी ने मुझे बीवी के साथ पकड़ लिया. बीवी तो फिर भी तमीजवार है, नौकरानी तो निपट गंवार और झगड़ालू. उसने इतना हंगामा मचाया कि मोहल्ले भर को इकठ्ठा कर लिया. बडी बेज्जती हुई, मासटर. आज समझ में आया, क्या कहते हो तुम फसायिक्लोजी में उसे, अरे वो 'पजेसिवनेस' कितनी बुरी होती है. काश सब समझते कि हरेक को अपना स्पेस चाहिए होता है."

मैं पजेसिवनेस पर एक केस-स्टडी पाकर अपना भेजा पीट रहा था.

Thursday, January 28, 2010

बस एक नज़र ही काफी है........

वो हमेशा 'क्वांटिटी' से ज्यादा 'क्वालिटी' पर पकड़ रखती थी. छोटी छोटी बातों में अप्रतिम प्रसन्नता को खोज निकलना उसकी विशेषता थी. मेरे जैसा व्यक्ति शायद शब्दों द्वारा अतिशयोक्ति दर्शाता रहता था अपने संवादों में, अपने पांडित्य का ढोल पीटता हुआ. उसकी एक बहुत ही गहरी रचना मैं यदा कदा पढ़कर स्वयम को संबोधित करता हूँ. बस...आज मात्र उसीको आपसे शेयर करना है.
____________________________________________________________________

"तुम कहते हो कि
तुम सागर हो
मुझे तो बस एक
बूंद ही काफी है.

तुम कहते हो
मैं तुम्हारी उम्र हूँ
मुझे तो बस एक
सांस ही काफी है.

तुम कहते हो
देखना चाहते हो
निर्निमेष
मुझे तो बस एक
नज़र ही काफी है."


.......और इसका प्रत्युतर मेरी ओर से मात्र मेरा "मौन" था.....उसको बस एक दृष्टि, एक नज़र से देखते हुए, जहां समय थम सा जाता था।

नाज़ुक......

# # #

तेरे मिजाज़ नाजुक है
मेरी परवाज़ नाज़ुक है
चलो हम चाँद से कह दें
हमारी रात नाज़ुक है.

के मेरे साज़ नाज़ुक है
तेरी आवाज़ नाज़ुक है
ना कोई तान अब छेड़ो
के ये लम्हात नाज़ुक है
चलो हम चाँद से कह दें
हमारी रात नाज़ुक है.

मेरे एहसास नाज़ुक है
तेरी हर सांस नाज़ुक है
कैसी बाज़ी है शतरंज की
शेह और मात नाज़ुक है
चलो हम चाँद से कह दें
हमारी रात नाज़ुक है.

फूल की ज़ात नाज़ुक है
मेरी हर बात नाज़ुक है
ज़माने से जुदा है ये
हमारा साथ नाज़ुक है
चलो हम चाँद से कह दें
हमारी रात नाज़ुक है.

हमारा इश्क नाज़ुक है
महकती मुस्क नाज़ुक है
अब बस करो जाना
तुम्हारे अश्क नाज़ुक है
चलो हम चाँद से कह दें
हमारी रात नाज़ुक है.

तेरे मिजाज़ नाजुक है
मेरी परवाज़ नाज़ुक है
चलो हम चाँद से कह दें
हमारी रात नाज़ुक है.

{"अरे मल्लाह बुला कश्ती हमें उस पार जाना है " की तर्ज़ पर गुनगुना के देखिये जरा)

मौन.......

...
मौन से भी
होते
अभिव्यक्त
भाव हृदयों के
प्रभु
शब्द शक्ति दे
कि ना दे,
हमें
भेंट
विश्वास की
दे दे......

(एक भावानुवाद)

Tuesday, January 26, 2010

थी अपूरित मेरी आशा.........

# # #
हुई पूर्ण मेरी
साधना
थी अपूरित
मेरी आशा,
किये थे
योग ध्यान सारे
पढ़ी थी
शास्त्रों की
प्रचलित भाषा
थी अपूरित
मेरी आशा....

स्तोत्र सब
कंठस्थ थे
सूत्र
मानो
हृदयस्थ थे
ज्ञान ने
घेरा था
अहम् को
होती रही
हताशा,
थी अपूरित
मेरी आशा......

शब्द जाल
बुनता रहा
नित्य
पुष्प
चुनता रहा
पूजा अर्चना में
स्तुतियों को
कहता और
सुनता रहा
डगमगाते
कदम
कहते
मन नहीं
विकाशा,
थी अपूरित
मेरी आशा....

स्वयम में
झाँका नहीं
बाह्य में
उलझा रहा
असमंजस में
था सदैव
कहने को
सुलझा हुआ
आशा की
बातें करता था
घेरे थी मुझे
निराशा,
थी अपूरित
मेरी आशा....

प्रेम में
खोया नहीं
अपनी नींद
सोया नहीं
जागना
क्या जागना
करुणा से
रोया नहीं
पाखंड के संग
डग मिला
चलती रही
प्रत्याशा
थी अपूरित
मेरी आशा........

मोह भंग हुआ
जग से
तिमिर
छंट गया था
मग से
प्रेम के
प्रादुर्भाव ने
थी बदली हर
परिभाषा,
गिर गयी थी
मित्रों ! सारी
आशा और निराशा
थी अपूरित
मेरी आशा ....

(एक साधक से हुई वार्ता पर आधारित)

Monday, January 25, 2010

पवन....

$ $ $
मदमस्त
पवन ने
छूकर
तुम को
आहिस्ता से
छुआ था
मुझ को......
एहसास
तुम्हारे
महसूस
हुए थे,
अंतर की
गहरायी में
नैसर्गिक सा
प्रिये !
खिलखिलाते हुए
पाया था
तुझको.....

Sunday, January 24, 2010

मुलाकात ना हुई

(एक आरम्भिक रचना है आपसे शेयर करने का दिल कर रहा है, तकनिकी दृष्टि से जरा कमज़ोर है)

मंजिल पे गिरी खाक-ए-कदम मुलाकात ना हुई
नज़रें तो मिल गयी थी मगर बात ना हुई.

महसूस हुआ हसीं मंज़र खुद-ब-खुद
देखा किये चमन को महक साथ ना हुई.

आईने में देखा गया मुस्काता सा अक्स उनका
रूबरू उनके हो पायें यारों मेरी औकात ना हुई.

गरज
बादलों की सुनते रहे थे हर इक लम्हा
तशनगी बे-इन्तेहा थी कोई बरसात ना हुई.

चाहत में लिखे गए थे अल्फाज़ अनगिनत
मनाये उनको वो नज़्म-ए-करामात ना हुई.

सोचा किये थे कहेंगे कुछ और पूछेंगे मुझ से
हुए उनके
मुखातिब तलब-ए-सवालात ना हुई.

हाल-ए-तंगदिल हमारा कहते सुने गए थे वो
हो जाये
असीर मोहब्बत कोई हवालात ना हुई.

उनके लिए जीते हैं मरते हैं या-रब खातिर उनके
अलावे हस्ती-ए- महबूब
कोई कायनात ना हुई.

(मंज़र=दृश्य,बे-इन्तहा=प्रकाष्ठाहीन,तलब=इच्छा असीर=कैद)

Friday, January 22, 2010

आबशार....

# # #
बागों में छाई
बसंत बहार
मस्ती की डोली
मौसम कहार
मनुआ भिगोये
प्रेम फुहार
तन है तपता
ऐ गुलरुखसार
मंज़र है रोशन
फैला अनवार
आज है अपना
रोज़-ए-शुमार
नहीं है कोई
चरोनाचार
बस तुम पर
मेरा मदार
रूह-ओ-जिस्म
तुन्दरफ़्तार
बुझा दे प्यास
मेरे आबशार !
बुझा दे प्यास
मेरे आबशार !

(गुलरुखसार=सुन्दर , अनवार= प्रकाश, रोज़-ए-शुमार=क़यामत का दिन,चारोनाचार=विवशतापूर्वक,मदार=निर्भरता,तुन्दरफ़्तार= वेगवान/rapid-fast, आबशार=झरना)

Tuesday, January 19, 2010

पलकें..........

# # #
भीगी पलकों पर
रखे थे
ज्यों ही
अधर,
जन्मों से
बिछुड़े होने के
एहसास
और
उस पल
मिलन का
अमृत,
घुल गए थे
संग संग......

मुंदती पलकों के
स्वप्न
लगे थे
पुकारने
और
झुकती पलकों के
निमंत्रण ने
खिला दिया था
अंग अंग.......

वो झूले सी
पलकें
तन-मन को
झुला कर
मूंद गयी थी
फिर
बिखरा कर
हर ओर
रंग रंग.......

Sunday, January 17, 2010

लिंगरिंग' (Lingering)..........

(दोस्तों ! उन्वान के लिए मुझे 'लिंगरिंग' लफ्ज़ को ज़ाहिर करने के लिए कोई उर्दू/हिंदी लफ्ज़ सुझाएँ )
$ $ $

एहसास
मीठास के
रहते हैं
कायम
जुबाँ-ओ-दिल में,
खुशबू
अतर की
बडी देर
हवाओं को
महकाये
जाती है...

बाद महफ़िल
छुए जाती है
तर्रन्नुम
मोसिकी की,
'अलविदा'
होकर भी
मुलाक़ात
रिझाये
जाती है.....

Saturday, January 16, 2010

बसंत......(आशु रचना )

*****
गौर तन
गौरी को
भयो
एक रंग,
लिपट कै
वांके पीत
परिधान में..
पीत
चन्द्रद्युति मांही
चमक रह्यो
वर्ण,
निहारै
मधुसख
भयो मगन ज्यूँ
सुरा अनुपान में...
नूतन भयो
तन मन
पुष्प- पौधन को
ऋतु
बसंत
आयो
यौवन उद्यान में....

फूट आयी है कोंपलें .......(आशु रचना)

*****
फूट आयी है
कोंपलें
फिर
शाख पर,
आलम सारा
'श्याम' रंग
हो आया है,
साँसों में
छुपा है वो
धडकनों में
समाया है ,
बरस रहा है
प्रेम रस
हरसू ,
बना
इश्क मेरा
सरमाया है,
खुशबू ही
खुशबू है
मेरे गुलशन में
मेरा हर लम्हा
महकाया है.....

(श्याम रंग से आशय कृष्ण प्रेम में रंग जाने से है)

Friday, January 15, 2010

घाव.....(आशु रचना)

मत
कुरेदो
मेरे घाव पे
जमी
परत को
यारों !
दरिया-ए-दर्द
अब भी
बहे
जा रहा है.....


Mat
kuredo
Mere ghaav pe
Jamee
Parat ko
yaaron !
Dariyaa-e-dard
Ab bhi
Bahe
Jaa rahaa hai....

Tuesday, January 12, 2010

Scribblings : Journey

MASTER gave
Four words :
Pleasure,
Happiness,
Joy and
Bliss..
To
Meditate and
Assimilate

PLEASURE :
Physical Pleasures
God gifted to us
Body
And
Sexual desire, longing and energy
To
Enjoy
But
No stopping
No clinging
There is greater
Potential
And
Higher possibility
Let this be
The Beginning,
Not the end
Of journey........

HAPPINESS :
Mental pleasures
Listening to music
Reading n creating
Poetry
Paintings
Sculptures
Enjoying nature
Rivers, ocean, greenery
Singing birds
Roaming colorful creatures
Enjoying them to fullest....


JOY :
Joys of soul
Pleasures of spirit
Meditation
Silence
Prayer.......

BLISS :
The ultimate
To go beyond
The self ;
'Turiya'
Nothingness,
Inexpressible
Ultimate
Unfolding of
Our being.......

The First Three
Are foundations
Stepping stones
For reaching
The Fourth......

THESE :
The four planes
IHigher we go
Richer we become
Higher is not
Against lower
Higher always
Contains lower
No repression
No indulgence........

Don't stop
There is more
To life
Explore
Move
From Body to
The Mind,
From Mind to
The Self
AND
From Self to
The 'NO-SELF'.........

शुभा..:. पहली किश्त)

एक दफा मुझे लगा कि मैं भी उन छद्म बुद्धिजीवियों में से ही एक हूँ जो अच्छी अच्छी बातें कहते हैं, आधा अधूरा सोच भी लेते हैं किन्तु करने में ठीक उस से उलट हरक़तों को अंजाम देते हैं. दुनिया भर का साहित्य पढ़ कर दिमाग को नए पुराने खयालातों से भर लेते हैं, उनकी मानसिक यात्रा पुरे विश्व की हो चुकी होती है, इतिहास की हर छोटी बड़ी राजनीतिक-सामाजिक क्रांतियों से उनका परिचय पूरे विवरण के साथ हुआ होता है. क्रांति-पुरुषों और क्रांति-नारियों का जीवन वृतांत उन्हें मुखस्थ होता है, यदा कदा उसे जीने का भी पाखण्ड करते हैं, मगर जब भी कोई सवाल आन खडा होता है उनकी कसौटी समाज, परिवार और आसपास का वातावरण हो जाता है. उनकी संकीर्णता, कायरता और भोंडापन अनायास ही सामने आ जाता है, चाहे उनके भारी भरकम शब्द और पैने तर्क उसको सही साबित करने की कितनी ही कोशिश क्यों ना करे. फिर सोच आया कि बात ऐसी नहीं, इसे देखने परखने के लिए सम्यक दृष्टि चाहिए........ चलिए यह अधूरी सी भूमिका काफी है फ़िलहाल, आपको 'बायस(bias)' क्यों करूँ ? आपसे पूरी बात शेयर क्यों ना करूँ ?
शुभा और मैं सेठ मंगनीराम बांगड़ पीजी कॉलेज में एक साथ पढ़े थे. बीए हम लोगों ने साथ साथ किया था. फिर मैं में फिलोसोफी में एम्.ए. कर रहा था और उसने एम्.ए. के लिए इंग्लिश लिटरेचर लिया हुआ था. दोनों ही अपनी अपनी विधा में अव्वल रहने वाले स्टूडेंट्स थे. दोनों ही पढाकू, कॉलेज की एक्स्ट्रा करिकुलर गतिविधियों में भाग लेने वाले. मैं स्पोर्ट्स में अपना डंका बजवा चुका था और शुभा अपने मधुर गायन के लिए कॉलेज में कोयल कहलाती थी. मेरे पिता ठाकुर सवाई सिंह पुराने जमींदार और रियासत के राजघराने का हिस्सा थे और शुभा के पिता डॉ. योगेश्वर पाण्डेय सरयुपारीय ब्राहमण जो अपने प्रक्टिस के सिलसिले में राजस्थान आकर बस गए थे. दोनों ही परिवार बहुत परम्परावादी, दकियानूस, और अपने अपने परिवारों के रुतबे के घमंड से भरे हुए थे. चूँकि उस कसबे का यह एकमात्र पीजी कॉलेज सहशिक्षा वाला था और पारिवारिक कारणों से अपनी अपनी औलाद को मातापिता नज़रों के सामने चाहते थे, मजबूरी में हम लोगों को इस छोटे से कॉलेज में 'पढ़वाया' जा रहा था.

खैर शुभा और मैं किसी ना किसी बहाने करीब आते गए. कहने को इस 'दोस्ती' को बनाया था हमारे सामान स्तर पर सोचने ने , मेरे उसके पसंदीदा शेक्सपियर और मिल्टन में रूचि लेने ने , उसके मेरे फेवेरिट सार्त्र और रुस्सेल के दर्शन में अभिरुचि दिखाने ने , उसके गाने के कौशल और मेरी बजाने की महारत ने, मेरे रौबीले राजपूती व्यक्तित्व ने-उसके आभिजात्य सौंदर्य और शारीरिक गठन ने, और भी ऐसे अच्छे कारणों कि फेहरिस्त थी मगर शायद हकीक़त में हम लोगों के ज़रुरत से ज्यादा बंदिशों वाले घरेलू माहौल ने नेपथ्य में रह कर हमारे रिश्ते को आगे बढाया था.....थोड़ा उम्र का तकाज़ा भी था.
'जस्ट फ्रेंड्स' 'प्लेटोनिक रिलेशनशिप' 'सोल-मेट्स' जैसे कई खिताब हम अपने इस रिश्ते को गाहे बगाहे दे देते थे. यहाँ तक कि आदर्शवाद के चक्कर में पड़ एक रक्षाबंधन पर हम लोगों ने सोचा था, "वोह अफसाना जिसे अंजाम तक लाना हो नामुमकिन उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा." खैर कभी बायोलोजी कभी सायकोलोजी, कभी दोनों अपने अपने चरम रूपों में हम पर हावी होती रही और हम ने इस सच को मान लिया कि हम प्रेमी-प्रेमिका है----हम बने तुम बने इक दूजे के लिए. स्पर्श की सीमाओं का भी निर्धारण समय समय पर होता था, कुछ 'अब' के लिए 'अलाउड' और कुछ 'तब' के लिए 'पेंडिंग'. कस्बाई कहिये, माध्यमवर्गीय कहिये ऐसे ही ऊहापोह में हमारा प्रेम का यह पौधा बड़ा हुआ था.
जैसा कि होना था, जब रिश्ता चौडे-छाने बढ़ता रहा तब तक कोई कुछ नहीं बोलता था, क्या हुआ कभी कभार घर के बड़े-बूढों ने दबी जुबान में कुछ बड़-बड़ा दिया हो या पीठ पीछे कसबे के लोगों ने हमारी प्रेम लघुकथा का कुछ चटपटा नमकीन संस्करण सीमित मात्रा में प्रकाशित किया हो. आखिर ठाकुर साहब और डॉ साहब अच्छे दोस्त जो थे. दोनों के परिवारों का एक दूसरे के घर आना जाना जो था. मगर जैसा होता है मेरे सम्बन्ध के लिए भी 'घरानों' से 'कुहावे' आने लागे....और डॉ. साहब को भी भारत/विश्व में फैले उनके सम्बन्धियों से पात्रों के सुझाव शुभा के लिए मिलने लगे. शुभा को देखनेवाले आने लगे, उसे जयपुर-दिल्ली-लखनऊ आदि जगहों पर भी किसी ना किसी बहाने उम्मीदवारों/उनके परिवारों से मिलाने के लिए ले जाया जाने लगा. ऐसे ही कार्यक्रम हमारे 'गढ़' (हवेली) में मेरे लिए होने लगे.....कुलमिलाकर ऐसा लगने लगा मानो 'प्रदर्शनी-सह-बिक्री' का आयोजन हमारे बाबत हो रहा था.
एमए फाईनल के इम्तेहान सर पर थे, हम लोगों का कॉलेज जाना बंद हो चुका था, मिलने पर लगाये घरवालों के 'प्रतिबन्ध' को हम लोग पढाई कि आवश्यकता समझते हुए,'रेशन्लायिज़' कर के खुद को भरमा रहे थे.
(क्रमशः.......)

शुभा.:. दूसरी किश्त

नहीं मिलने से ऐसा लगता था दुनिया हमारी उलट गयी हो. मोबाइल फ़ोन उस ज़माने में नहीं होते थे, लैंड लाइन सरकारी फ़ोन होते थे, जो कस्बों में आधे से ज्यादा वक़्त निष्क्रिय रहते थे. फ़ोन का चौंगा बैठक में स्थापित होता था और एक परेलेल घर के मुखिया के कमरे में होता था. फ़ोन होने के कितने आयाम होते थे उपयोगिता के अलावा, जैसे सामाजिक प्रतिष्ठा, घर से होनेवाले संवहन (कम्युनिकेशन) पर मुखिया का नियंतरण, आस पड़ोस के लोगों को रात बेरात इमर्जेंसी में मदद, कोई भी खास खबर किसी के बाबत हो लोगों से पहले खबर हो जाना, मंत्री-एम एल ऐ -एम पी- सरकारी अफसरों से संपर्क. फ़ोन एक दुर्लभ सुविधा होती थी उस समय. फ़ोन गढ़ में भी था और डाक्टर साहब के बंगले पर भी, मगर इस राजसी विलासिता का लाभ बिछडे प्रेमियों को कहाँ. मैं ऊँची दीवारों वाले किलेनुमा गढ़ में प्रकट रूप से पुस्तकों में डूबा हुआ था मगर मन मेरा हर पल- शुभा शुभा पुकारता था. दीवारों पर टंगी देशी विदेशी पेंटिंग्स की नायिकाओं में मुझे शुभा दीखती थी. मूर्तियों में भी चाहे वो वीनस की हो, सीता की या राधा की मुझे बस यही लगता था कि वह शुभा ही है. दादीसा जब भी राधाकिशन की लीला वाले

भजन गाती मुझे लगता उनमें मेरा और शुभा का वर्णन है. उधर डाक्टर साहब के खुले बंगले का हाल भी कुछ ऐसा ही था. शुभा थी साहित्य की विद्यार्थी, समय समय पर कुछ प्रेम प्रसंग पढने के दौरान आ ही जाते थे जिन्हें वह हम दोनों से जोड़ कर खुश होती थी , दुखी होती थी, व्याकुल होती थी, आकुल होती थी, आह्लादित होती थी. कभी कभी अवसाद के रोगी कि तरह गाल पर हाथ रख विचारों में डूब जाना, शून्य में खो जाना, तो कभी मंद मंद मुस्कुराना.....ऐसे ही तो होता है ना आज भी. शुभा भी हर पल मेरी यादों में खोयी रहती थी......लॉन कि नरम घास पर टहलते टहलते वह नोट्स पढ़ती मगर आँखें बाहर कि तरफ ताकती कहीं मैं दिखाई दूँ चलता फिरता. यह बात और थी और उसे भी मालूम थी कि मेरा उसकी गलियों में आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा था.

डाक्टर साहब और ठाकुर साहब के खासमखास नुमायिंदे मेरे आने जाने पर नज़र रखते थे. आप सब ने भी प्रेम किया ही होगा, अगर ना किया हो तो प्रेम-सक्रिय लोगों के राजदार होने का अवसर आपको ज़रूर मिला होगा और यदि कुछ भी नहीं हुआ है आपके साथ तो चलिए अब अपना ज्ञान बढा लीजिये, प्रेम कि तड़फ किसी ना किसी तरहा ' means of communication' खोज ही लेती है. मोहब्बत एक ऐसा व्यक्तिगत आन्दोलन है जिसमें शिरकत करने बहुत ही सयाने और वफादार निस्वार्थ स्वयंसेवक बिना खोजे ही चले आते हैं.....जो काशिद का काम करते हैं, शोक अब्जोर्बेर के रूप में अपनी सेवाएं देते हैं, अपने तन-मन-धन से आपकी प्रेम यात्रा में अपना सहयोग देते हैं. . आपकी प्रेम भरी, तड़फ भरी बकवास सुनने वे अपने कान आपको समर्पित करते हैं.....एक ही सुर में आप अपने प्रेमपात्र कि प्रशंसा और भर्त्सना करते हैं, लेकिन यह श्रोता तटस्थ भाव से सुनते हैं.....रूचि लेकर, यह जानते हुए कि उसकी बात कर आप उसे याद फार्म रहे हैं, सुकून पा रहे हैं....चाहे तारीफ हो या कुछ और. ज़रुरत पड़ने पर बिना अपना निरादर समझे वे आपको मौका भी देंगे अकेले में मिलने का, बस आपको एस्कोर्ट किया और खुद दरकिनार. कवियों, कथाकारों, साहित्यिकों ने प्रेमी प्रेमिका और खलनायकों पर जी भर के अपनी कलम को घुमाया है, मगर ना जाने क्यों, प्रेम यज्ञ के इन पुरोहितों के योगदान में सम्बन्ध में सब मौन रह गए. मुझे मौका मिला तो एक बड़ा सा ग्रन्थ इन के लिए लिखूंगा. हाँ तो ऐसे ही मित्रों का सहयोग हमें भी मिल गया......मेरी चचेरी बहन तेजल और उसका चचेरा भाई रविकांत हमारे लिए ' ब्लू डार्ट' बने थे , हमारे खतों के आदान प्रदान के लिए.
हाँ तो आपस में पत्रों का आदान प्रदान बहुत सुकून देता था. तेजल शुभा के घर के पास गिटार सीखने जाती थी. ऐसे भी तेजल और शुभा में बहुत पटड़ी खाती थी, तेजल उम्र में शुभा से कोई पॉँच साल छोटी थी. वह भी बांगड़ कालेज में अंग्रेजी साहित्य लेकर बीए कर रही थी., इस नाते दोनों की करीबियों को एक और बहाना मिल गया था. रवि का आना जाना हमारे यहाँ लगा ही रहता था, कभी क्रिकेट क्लब के सिलसिले में, तो कभी किसी रिकॉर्ड, केसेट या नाविल के लेने देने के लिए. तेजल मेरे ख़त शुभा तक पहुंचाती और रवि ने संभाल रखा था शुभा के पत्रों को मुझ तक पहुँचने का जिम्मा. मुझे हर दिन रवि के आने का इन्तेज़ार रहता....मेरा अति विशिष्ठ अतिथि हो गया था रवि. उधर तेजल के भाव भी ऊँचाइयों पर थे.....रवि और तेजल, दीदी (शुभा) और भैय्या (मैं) के स्नेह और विश्वाश के पात्र बने हुए थे, उनके अंतर और अहम् का खूब पोषण तो हो ही रहा था, प्रेमकौशल का पूरा प्रशिक्षण भी उनका हो रहा था. कभी कभी तो लगने लगता था कि कहीं तेजल और रवि का भी चक्कर ना चल जाये, माहौल जो प्रेममय हो गया था. दोनों बहुत ही खूबसूरती से अपने काम को अंजाम दे रहे थे. लगातार एक दूसरे की अभिव्यक्ति हम दोनों तक पहुँच जाने से मन एवं प्रेम कि बेल हरी हो रही थी और निरंतर विकासमान थी.
आप से कुछ प्रेम पत्रों को शेयर करने का इच्छुक हूँ ताकि आपकी जानकारी कथानक के विषय में और बढ़ सके.

मेरा एक ख़त शुभा के नाम.......

'S'

यूँ लगता है जैसे मेरी दुनिया तुम में सिमट कर रह गयी हो. हर पल मेरी साँसों में तुम्हारा प्यार लहराता है. जाने अनजाने कुछ भी कहता हूँ महसूस करता हूँ कि तुम्ही को संबोधित कर के कह रहा हूँ. दादीसा कहती है कि अज्जू ! दिन कि शुरुआत करणीजी (हमारी कुलदेवी) के नाम से होनी चाहिए मगर सच कहता हूँ मैं जब भी कोई नाम लेता हूँ , लबों पर बस तुम्हारा ही नाम आता है. सोचों और भावनाओं में केवल तुम ही समा गयी हो. पढने के लिए जब भी किताब खोलता हूँ, सफों पर लिखे हर लफ्ज़ के हिज्जे तुम्हारे नाम के हिज्जे दिखाई देते हैं. कल ही की लो, मैं सार्त्र के अस्तित्ववाद को पढ़ रहा था.....पेज के पेज पलट गया मगर जो मैंने पढ़ा और सोचा वह था कि मेरा अस्तित्व तुम बिन नहीं. किताब में रखी तुम्हारी तस्वीर को जब देखता हूँ एक बार नहीं बार बार तब जा कर कुछ पढ़ पाता हूँ. तुम से मिलने पर जो ताज़गी हासिल होती थी, जो स्फूर्ति मिलती थी वह मुझे बहुत कुछ करने कि ताक़त मुहैय्या कराती थी. आज तुम्हे देखे बिना मैं शक्तिशून्य हो गया हूँ. मुझे लगता है मैं परीक्षा में जब बैठूँगा तो 'answer sheets' में कहीं तुम्हारा नाम, तुम्हारा नाम और सिर्फ तुम्हारे नाम ना लिख दूँ. बीए में युनिवेर्सिटी को टॉप कर 'गोल्ड मैडल' पाया था, इस बार कहीं असफल ना हो जाऊँ. या अलगाव इतना कुछ कर देगा मेरे लिए सोचा नहीं था. कहतें हैं प्यार में इंसान मज़बूत बनता है मगर मैं तो कमज़ोर हो गया हूँ. जुदाई का गम और भविष्य कि चिंताएँ बारी बारी से मुझे सता रहे हैं, तुम्ही बताओ मैं क्या करूँ ?

मेरे जीसा और तुम्हारे पापा कि जिद्द है कि हमारी राहें अलग अलग हो. येन केन प्रकारेण उनकी कोशिश रहेगी कि मैं किसी ठिकाने की राजकंवरी का हाथ थाम लूँ और तुम्हारा जीवन साथी कोई उच्च कुलीन ब्राहमण पुत्र हो. दोनों का दावा है कि "हमने दुनिया देखी है, समाज नाम कि कोई चीज भी होती है जिसके रिवाजों का पालन करना हम कुलीन लोगों का परम कर्त्तव्य होता है. आखिर समाज का सञ्चालन हमारे जैसे वंश ही करते हैं." मुझे उनके सारे तर्क और विवेचनाएँ लकीर के फ़कीर बनने की एक मनोवृति मात्र लगतें है. तुम्ही बताओ, हम दो व्यक्ति हैं, जिन्होंने एक दूसरे के होने का फैसला किया है....हम पिछले पांच वर्ष से समझ रहे हैं एक दूसरे को. हम ने अनुभव किया है भगवान ने हमें धरती पर जीवन साथी बनने के लिए भेजा है, ना जाने क्यों हमारे 'अपने' ही परमात्मा की इच्छा के खिलाफ क्यों जाना चाह रहे हैं ? shubha, I am totally confused......क्या होगा हमारा ? हमें जल्द ही कुछ सोचना होगा. दुनिया कि कोई भी ताक़त मुझे अपनी शुभा से जुदा नहीं कर सकती. इसके लिए जो भी करना पड़ेगा मैं करूँगा, बस तुम्हारा साथ मुझे सम्बल देगा. तुम साथ दोगी ना शुभा ?
तुम्हे इतना लिख कर, मैं स्वयम को शांत पा रहा हूँ. अब पढ़ सकूँगा. तुम अपना ख़याल रखना. तुम्हे और मुझे मास्टर्स में अपनी अपनी स्ट्रीम में टोप्पर्स होना है. हमारा प्यार हमें यह पाने की ताक़त देगा. ख़त का जवाब ज़रूर देना. मुझे इन्तेज़ार है मेरी शुभा के हाथों लिखी पाती का.
लव !
'A'

शुभा की पाती मेरे नाम

'A'
तुम्हारा ख़त मानो एक ताज़ा हवा का झोंका हो.पढने से पहले ही मैंने तुम्हारे सन्देश को ह्रदय से लगा लिया था ताकि ह्रदय से निकली हर बात सीधा ह्रदय को स्पर्श कर ले..... और सच में मैंने महसूस कर लिया तुम किस मनस्थिति में हो.
तुमने दिल की हर बात को कागज़ पर उतार दिया है. सोचों में विरोधाभास होना स्वाभाविक है. हम या तो 'consistent' हो सकते हैं, या प्रेम भरे जीवन को जी सकते हैं. धैर्य रखो मेरे 'हिये के हार' ! समय पाकर सब ठीक हो जायेगा. कुछ दिनों के अलगाव को तुम ने पूरी ज़िन्दगी कि जुदाई समझ लिया है. कितनी खुशकिस्मत हूँ मैं कि मुझे तुम सा प्यार करनेवाला महबूब मिला. विरह कि अगन हमें तपा कर सोने से कुंदन बना रही है. हमें फ़िलहाल अपनी परीक्षा की तैय्यारियों की तरफ ध्यान देना है ताकि हम वो पा सकें जो हम ने सोचा है और जिसका जिक्र तुम ने अपने ख़त में किया है. मैं दोहराती हूँ कि M.A.(Philosophy) के टोप्पर का नाम होगा कुंवर अजय सिंह और M.A. (English Literature) में सब से ऊपर होगी कु. शुभा पाण्डेय. जैसे अर्जुन को चिडियां की आँख दिखाई दे रही थी, उस वक़्त, जिसका निशाना उसे साधना था, हमें भी बस अपना यह लक्ष्य दिखाई दे रहा है.

जीसा और पापा जिस पीढी और परिवेश से हैं वे ऐसा ही तो सोचेंगे. परिवर्तन जीवन का नियम है. इन दोनों से कहेंगे हम कि आप अपने रहन सहन और सोचों के सामने आज से चार पीढी पहले के बुजुर्गों को ले आईये.....और देखिये कितना अंतर आ गया है. समय का यह धारा तो लगातार बहता जाता है. देखना दोनों पढ़े लिखे हैं, ज़िन्दगी देखी है....ज़रूर सचाई को अपनाएंगे. फिलहाल हमें इन बातों को लेकर बोझिल नहीं होना चाहिए. यथासमय जो उपयुक्त होगा करेंगे.
तुम्हारे साथ बिताये गए पलों को याद कर मैं हमेशा नयी ताक़त पाती हूँ, तुम्हारे प्रेम, तुम्हारे स्पर्श के सुखद एहसास मुझे स्फूर्ति देते हैं......मैं बहुत अच्छे से परीक्षा की तैय्यारियों में जुटी हुई हूँ. मुझे अच्छा लगा, तुम ने जो कुछ मेरे लिए लिखा. बस यही कहूँगी कि प्रातः का प्रारम्भ प्रभु स्मरण से हो तो, प्रभु तक हमारा सन्देश पहुंचेगा और वह हमें अवश्य मिलाएगा. तुम मेरी प्रेरणा के स्त्रोत हो....तुम अगर मायूसी में डूब गए तो मेरा क्या होगा ? थोड़े दिनों कि बात है, तुम अपनी सारी शक्ति, जो सामने है उस उद्देश्य के लिए झोंक दो.....मुझे बहुत नजदीकी का एहसास होगा.
हाँ मुझे किताब में छुपी तुम्हारी तस्वीर को बार बार नहीं देखना होता, क्यों कि तुम तो मेरे रौं रौं में बसे हो, हर समय मेरे साथ हो.....मेरा जर्रा जर्रा तुम्हे महसूस करता है, कभी मृदु, कभी मादक, कभी प्रेरक. अपना ख़याल रखना, समय पर खाना पीना सेहत के लिए ज़रूरी है, और अच्छी सेहत.....
लव
'S'

शुभा : तीसरी किश्त

आप समझ ही गए होंगे मेरी और शुभा कि मानसिकता इन खतों को बतौर सैम्पल मानते हुए. मैं उतावला उद्विग्न और थोड़ा सा निराशावादी रहा हूँ. जब कि शुभा हमेशा गंभीर, आशावादी और सकारात्मक सोचों वाली. भला हो तेजल और रवि का, उनके ज़रिये हमारा लगातार कम्युनिकेशन बना रहा. पत्रों ने हमें और खासकर मुझे बहुत सपोर्ट दिया उन अलगाव के महीनों को व्यतीत करने में. हमारी परीक्षा के परिणाम जब आये, शुभा ने टॉप किया था, मुझे फर्स्ट डिविजन मिली थी मगर टोप्पर कोई और ही था. पाण्डेय अंकल ने शुभा के शानदार रिजल्ट को सेलेब्रेट करने के लिए एक 'गेट-टुगेदर' रखा था जिसमें हमारा पूरा परिवार शरीक हुआ था. शुभा के रिजल्ट से मैं बहुत खुश था, मगर खुद के अपेक्षा से कम पाने की खुन्द मन में थी. शुभा को देखते ही मेरा चेहरा खिल उठा था. मैंने उसे कोंग्रेचुलेट किया, नज़रों से एक दूसरे पर प्यार कि बौछार की. जीसा और डाक्टर साहब अपने तौर पर बहुत खुश थे और बातों में मशगूल थे. पार्टी के दूसरे दिन पाण्डेय परिवार नैनीताल चला गया...जहां उनकी पुश्तेनी कोठी थी. मालूम हुआ कि लम्बा प्रोग्राम ले कर गए हैं, शुभा के साख-सम्बन्ध के लिए भी प्रयास होने हैं. जाते जाते शुभा ने एक पाती मुझ तक पहुंचाई, जिसमें उसने लिखा था, "दूरियां आत्मा के रिश्तों को नहीं मिटा सकती. तुम बेफिक्र रहना. हम को मिलने से कोई नहीं रोक सकता. मन-चित्त शांत रखना, जीसा से मत उलझना. मैं हर पल अपने ह्रदय में तुम्हारे नाम का दिया जला कर रखूंगी."
कोई दो सप्ताह बीते थे कि फ्रांस से जीसा के अभिन्न मित्र प्रोफ़ेसर प्रदीप सान्याल हमारे यहाँ मेहमान बन कर आये, साथ में उनकी फ्रांसीसी बीवी मार्गरेट भी थी. मार्गरेट फ्रांस में फैशन डिजाइनर थी. सान्याल अंकल कि यह तीसरी और मार्गरेट की चौथी शादी थी. जीसा और सान्याल अंकल बहुत गहरे दोस्त थे, इंग्लैंड में दोनों ने साथ साथ पढाई की थी. बहुत सी डिग्रीयां बटोर सान्याल अंकल अन्तराष्ट्रीय स्तर के मैनेजमेंट गुरु के रूप में ख्याति पा चुके थे. फिलहाल वे फ्रांस के INSEAD नमक मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में फेकल्टी थे. चूँकि हमारे यहाँ धन की कमी नहीं थी, जीसा कि इच्छा थी कि मैं जमींदारी के गोरख धंधे में ना पड़ कर किसी व्यवसाय में अपना मुक्कद्दर और काबलियत आजमाऊं. तय हुआ कि मैं सान्याल अंकल के साथ ही फ्रांस चला जाऊँ, वहां वे मेरे दाखिले का इन्तेजाम INSEAD में करवा देंगे. मैंने ना नुकुर की मगर ठाकर सवाई सिंहजी के रौब और प्रोफ़ेसर प्रदीप सान्याल के अकाट्य तर्कों के सामने मेरी एक ना चली. दिल में बस एक तमन्ना थी कि जाने से पहले शुभा से मुलाक़ात हो सके, मगर ऐसा ना हो सका. अगला सेसन बस अगले महीने से ही शुरू होनेवाला था, एड्मिसन बंद हो चुके थे, सान्याल अंकल के रसूख से मुझे इस वर्ल्ड क्लास इंस्टी में अपने को परिमार्जित करने का अवसर मिल रहा था. यह भी आश्वासन दिया गया था कि तीन महीने बाद मैं एक दफा भारत आ सकूँगा. इस प्रकार मैं फ्रांस में लैंड कर गया था बस उसी सप्ताह. इंस्टी में पढाई का इतना प्रेशर था, एक से एक महत्वपूर्ण लेक्चर, प्रेसेंताशन्स, केस स्टडीज और वर्कशॉप में हिस्सा लेना उस समय कि प्रिओरिटी थी. मैं बस २१ महीने बाद कोर्स कन्क्लूड कर भारत लौट सका. इस बीच शुभा कि कोई खबर मुझे नहीं मिल सकी सिवा इसके कि डॉ. पाण्डेय एम्स दिल्ली को ज्वाइन कर लिया था, पाण्डेय परिवार दिल्ली चला गया था. जब वापस लौटा तो सुना कि डॉ. पाण्डेय को दिल को दौरा पड़ा था और वे एम्स से रुखसत पा कर अपने बेटे के पास अल्मोडा में शिफ्ट हो गए थे. उनका अता पता मुझे किसी भी तरहा से नहीं मिल सका. जीसा ने कई कुहावों की बात बताई, कई राज कांवरियों के स्नेप्स भी दिखाए, मगर सब कोई मेरी शुभा के सामने फीके थे.
मेरे संस्कार अपने पिता से कुछ भी नहीं कहने दे रहे थे. मैंने मन ही मन बहुत कुछ सोच लिया था. मैं वापस फ्रांस आ गया था. वहां सान्याल अंकल ने मुझे अपने किसी भूतपूर्व स्टुडेंट के ग्रुप में जॉब दिला दिया था. मार्गरेट आंटी मेरी राजदार थी. उन्होंने समझाया कि ज़िन्दगी में बहुत कुछ बदलाव आते हैं, हमें वक़्त के साथ चलना होता है.....शुभा ने शायद तुम से रिश्ता नहीं रखना चाहा हो, तभी तो उसने तुम्हारी कोई खोज खबर नहीं ली. शुभा और तुम डिफरेंट स्पेसी थे, दोनों की सोच और स्वभाव अलग, शायद निभाव नहीं होता. शादी के मामले में मार्गरेट चची का सात शादियों का अनुभव था सान्याल अंकल और खुद कि शादियों को मिलाते हुए. रेलाशन्शिप्स के भोगे हुए यथार्थों ने मार्गरेट चाची को मानवीय सम्बन्ध विशेषज्ञ बना डाला था. उनकी संगत का असर था कि मैं उनकी सहयोगी फैशन डिजाइनर रोजमेरी से प्रेम सम्बन्ध, फिर विवाह और उसके बाद विवाह विच्छेद कर बैठा था. हमारा एकलोता पुत्र जगत सिंह समझौते के तहत मेरे साथ रह गया था, जिसे मैंने अपने एक अभिन्न मित्र के पास कोलकाता में पढने के लिए रख छोडा था. मेरा संपर्क जीसा से लगभग टूट चुका था, दादीसा के देहांत के समय भी मैं भारत नहीं आया था, 'ठिकाने' 'गढ़' और जमींदारी से मैंने खुद को अलग कर लिया था. माँ मेरी बचपन में ही बिछड़ गयी थी, जीसा के राजसी स्वभाव ने उनकी ज़िन्दगी में ऐसी कई स्त्रियाँ भर दी थी जिन्हें मैं मां नहीं कह सकता था. मेरी कनपटियों के बाल सफ़ेद हो चुके थे. मेरे काले फ्रेम के टोमी हिल्फिगेर के ऐनक में शीशों में बहुत पॉवर आ गया था, दूर से देखने का भी और नज़दीक से देखने का भी. जगत सिंह छुट्टियों में मेरे पास फ्रांस आ जाता था. उसने भी प्रेसिडेंसी कॉलेज से फिलोसोफी में एमए कर लिया था और आगे की पढाई ह्यूमन रेसौर्सस मैनेजमेंट की करने के लिए TISS मुम्बई में दाखिला ले लिया था.

मेरी ज़िन्दगी के पचपन साल कितने उतार चढाव के साथ बीत गए थे. शुभा के ख़त यदा कदा पढ़कर पुरानी यादों को ताज़ा कर लेता था, मगर दिल को बींध देती थी ये यादें. मेरी व्हिस्की का इंटेक बढा देती थी ये यादें. मैं शुभा को भूलना चाहता था मगर भूल नहीं पा रहा था. उसकी मोहिनी सूरत, शालीन स्वभाव, विचारों की ऊँचाई, कोमल स्पर्श........(क्रमशः)

शुभा : चौथी किश्त

उस दिन मन कुछ खोया खोया सा था. मायूसी का कारण मालूम नहीं था मगर मन बहुत खिन्न था. मेरे काकोसा का फ़ोन आया कि जीसा की तवियत नासाज़ है, डाक्टरों ने जवाब दे दिया है....बार बार मुझे याद कर रहे हैं, जगत से मिलने की ख्वाहिश ज़ाहिर कर रहे हैं. काकोसा कह रहे थे, "अजीत, भाईसा का साथ कितना है हमारे साथ, बोलना मुश्किल है, यह वक़्त और कुछ सोचने समझने का नहीं, जितना जल्दी हो सके घर चले आओ. जगत को भी फ़ोन कर दो कि बिना देर किये पहुँच जाये. मुझे लगता है हम लोगों के पास वक़्त बहुत कम है. "
बहुत सी पुरानी बातें अनचाहे भी जेहन में आ जा रही थी. मैंने तुरत जगत को फ़ोन किया.उसे उसके दादोसा के बहुत बीमार होने की बात बताई और उसको कहा कि वे उसे बहुत याद कर रहे हैं. जगत ने जीसा के बारे में सुना था मगर उनसे मिला कभी नहीं था......मगर उसने कोई भी हिचकिचाहट ज़ाहिर नहीं की. जगत ने कहा, "मैं अभी अगली उपलब्ध फ्लाईट से जयपुर के लिए बुकिंग करता हूँ. आप जयपुर में कुछ ऐसी व्यवस्था करवा दें कि मुझे वहां रिसीव किया जाये और सुजानगढ़ तक ले जायें. फ्लाईट डिटेल आपको तुरत देता हूँ." थोड़ी देर बाद जगत ने बताया कि उसकी फ्लाईट दो घंटे बाद है, मेरे एक जयपुर के दोस्त ने बाकी सारे इन्तेजामात संभाल लिए थे. जयपुर से हमारे घर तक पहुँचने में कोई चार घंटे लगते हैं....इस तरहा मेरे से बात होने के ८ घंटे के अन्दर जगत जीसा के पास सुजानगढ़ में था. मैंने भी तुरत अपनी यात्रा का इन्तेजाम किया, मैंने लुफ्तांसा कि पेरिस-बॉम्बे फ्लाईट से टिकेट बुक किया था जो लगभग दश घंटे का सफ़र था. बॉम्बे से मुझे कोई दो घंटे बाद जयपुर कि फ्लाईट मिलनी थी.
पेरिस एअरपोर्ट पर मैंने विमान में बोर्ड किया .....एयर होस्टेस ने मुझे अपनी सीट तक गाइड करके कम्फर्टेबल कर दिया था. मैंने "हेराल्ड अंड ट्रिब्यून' के पेज पलटने शुरू किये....मन नहीं लगा....'फोर्चून' मेग्जिन भी ना जाने क्यों मेरे मस्तिष्क को केन्द्रित नहीं करा सकी थी....मैं बिलकुल अस्तव्यस्त सा था....दिमाग में खयालों के झंझावत बेतरतीब आ जा रहे थे. मेरी सोचें एक आवारा इंसान कि मानसिकता की मानिंद डांवाडोल सी थी. मुझे जीसा की बीमारी को लेकर कोई फ़िक्र नहीं हो रहा था, उनको मैंने अपने दिल और दिमाग से निकाल जो दिया था. वो जियेंगे या दुनिया चले जायेंगे इसका मुझ पर कोई असर नहीं हो रहा था. आखरी वक़्त वे मुझे और जगत को याद कर रहे हैं, यह भी मेरी भावनाओं को कहीं नहीं छू रहा था....फिर भी मैंने क्यों जगत को तुरत जाने को कह दिया, मैं भी रवाना हो गया सात समंदर पार से....इसका कोई भी लॉजिक मेरे पास नहीं था. रोजमेरी के साथ बिताये अच्छे बुरे दिन खयालों में घूम रहे थे....रोजमेरी और मेरे सम्बन्ध क्रिया थे या प्रतिक्रिया..... जगत का जन्म एक संपूर्ण तन-मन-आत्मा के मेल का परिणाम था अथवा एक जैविक घटना.....मेरे मनोमस्तिष्क को मार्गरेट चची के अनुभव क्यों प्रभावित कर सके.....मैंने शुभा कि खोज इमानदारी से क्यों नहीं की......मैंने पल पल शुभा को क्यों याद किया, रोजमेरी और मैं जब भी साथ होते मेरे अचेतन अवचेतन में शुभा होती.....उसकी हर बात-उसकी हर हरक़त मैं शुभा से तुलना करके देखता .....मैं ने शादी ज़रूर की थी रोजी से मगर मेरे खयालों में हमेशा शुभा ही रहती थी....ऐसे में अगर रोजी ने मुझे छोड़ दिया तो क्या गलत किया. एक नारी पुरुष के स्पर्श मात्र से उसकी मानसिकता की पूरी पत्री समझ जाती है....यह स्पर्श तन से ज्यादा स्पंदनों और मन का होता है.....हो सकता है रोजी समझ गयी हो कि उसका और मेरा साथ महज़ एक खानापूर्ति है......
क्या मैं पलायन कर गया था .....मैं भगौड़ा हूँ.....मैं शुभा से भाग गया था .....मैं कायर हूँ...मैं अपने पिता के दंभ और परम्परावादी उसूलों के सामने झुक गया....उनसे अलगाव मेरी कुंठा है....अपनी असमर्थता से उपजी कुंठा.....बाप, वंश, जायदाद से दूर होकर कौनसा एहसान मैंने शुभा पर कर दिया.....और मेरी इस मनोवृति में कौनसा राजपूती औज झलकता है.......अपने मरुधर के धोरों से दूर फ्रांस की सजावटी दुनिया में खुद को छुपा कर मैंने खुद को कितना गिरा दिया.....मैं संघर्ष से हमेशा भागता रहा.....मैंने हमेशा यही अपेक्षा रखी कि संघर्ष कोई दूसरा ही करे....मैं तो हमेशा रणछोड़दास बना रहा......जगत की देखभाल करने में भी मैंने खुद को कमज़ोर महसूस किया था और उसको कोलकाता अपने अज़ीज़ दोस्त के पास भेज दिया था....शायद मस्तिष्क के पृष्ठ में यह चिंतन हो कि जगत के 'फोर्मेटीव फेज' में जो 'इनपुट्स' चाहिए वे उसे मेरे उस कामयाब हिन्दू दोस्त और उसकी मुसलमान बीवी से मिल सकेंगे जो भारतीयता के अनुपम उदाहरण थे ......जिन्होंने साथ होने के लिए समाज और परिवार से टक्कर ली थी. आत्मग्लानि के भाव मेरी मानसिकता पर बार बार आक्रमण कर रहे थे.....मुझे लग रहा था कि मैं कुंवर अजीत सिंह सिर्फ एक शरीर हूँ....मेरी आत्मा.... मेरा सारतत्व मुझ से बहुत दूर चला गया है.....मैं ढोए जा रहा हूँ यह नाम और यह नामधारी हाड़ मांस का पुतला.....मेरे श्वास -निश्वास एक यांत्रिक प्रक्रिया बन गए थे....मैं स्वयम को एक प्राणहीन पुतला पा रहा था....ना जाने किस सुसुप्तावस्था में यह आकांक्षा हो रही थी कि अब भी कोई प्राण-प्रतिष्ठा कर दे.....मुझे एक ज़िंदा इंसान बना दे..... (क्रमशः)

शुभा : पांचवी किश्त : वह कौन ?


विमान कब रनवे पर दौड़ा, कब उड़ान भरी मुझे कुछ भी होश नहीं था. मैं तो मानो खुद से खुद की एक ना ख़त्म होनेवाली बातचीत में गुम था. राजस्थान से पेरिस आने से लेकर आज तक मानो जो ज़िन्दगी मैंने जी वह मेरी नहीं थी.....जो शख्स इस अरसे में जिया वह कुंवर अजीत सिंह नहीं कोई और था. खुद के जमीर को ना जीने से इंसान कैसा हो जाता है....उसकी मिसाल मैं था जो इस दौरान बस साँसे ले रहा था, खा रहा था, पी रहा था, जग रहा था, सो रहा था..मगर एक मशीन की तरहा. शायद मैं खुद ही खुद की नज़रों से गिर गया था. मेरे सारे रिश्ते यांत्रिक थे. मैंने दिल के एहसासों को नहीं जिया था, मैंने तो बस सब कुछ 'मेनेज' किया था. आज मैं उन २०० से ज्यादा यात्रियों के बीच..... धरती और आसमान के बीच खुद को अकेला...... नितांत अकेला पा रहा था. अकेलापन शायद भौतिक नहीं होता, यह तो एक एहसास होता है. भीड़ में भी हम अकेले पा सकते हैं खुद को और अकेले होने पर भी हमें अपने अंतर की भीड़ अकेले नहीं होने देती. कुछ लम्हे शायद ऐसे भी गुजरे तब मैं कुछ नहीं सोच रहा था.....शायद होश गँवा बैठा था......अचानक मेरी नज़र अपने पास बैठी युवती की ओर गयी.....मुझे लगा मैं तीस साल पीछे चला गया हूँ. मेरे बिलकुल करीब बैठी थी शुभा, वही नाक नक्श, वही मुस्कुराता सा चेहरा, वही दीप्ति, वही सब कुछ.....बस जींस और टीशर्ट पहने थी, कानों में बहुत बड़े बाले थे, कलाई पर मोटी सी घड़ी और कुछ धागे या रस्सियाँ भी जिन्हें फ्रेंडशिप बेंड कहा जाता है शायद. आँखों पर रीमलेस चश्मा था, कनखियों से देखा उन प्रोग्रेसिव लेन्सेस के पीछे वही हिरनी जैसी आँखे थी.....मैं देख तो नहीं सकता था मगर मैंने अपनी कनपटियों पर हाथ फेरा और अपने सफ़ेद बालों को महसूस किया. अचम्भा हो रहा था ऐसा कैसे हो सकता है....मैं तो उम्र के पचपन साल पूरे करके खुद को बूढा महसूस कर रहा हूँ.....और यह शुभा आज भी वैसी ही खिली खिली है. क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ ? क्या मैं पागल हो गया हूँ ? इलुजन और डिलुजन नमक असामान्य मनोवैज्ञानिक अवस्था में आ गया हूँ ? मैंने अपना काले फ्रेम वाला चश्मा उतार कर भी देखा (यद्यपि चश्मा उतारने पर मुझे सब कुछ धूमिल दिखाई देता है) ...मगर शुभा को मैं उस धूमिल दृष्टि से भी पहचान सकता था. फिर वैसे ही स्पंदन मुझे महसूस हो रहे थे.....मैं लौट आया था उन लम्हों में जो मेरे स्टुडेंट लाइफ का हिस्सा थे.

शुभा : छठी किश्त : शिवांगी

मैंने कनखियों से देखा वह अयन रैंड का उपन्यास ' Atlas Shrugged' में डूबी हुई थी. शुभा भी तो 'ओब्जेक्टिविज्म' की फेन थी. उसके सोच का तरीका इस विचारिका से बहुत प्रभावित था.....थोथी भावुकता की बातों को वह अपने 'discounting factor' से समायोजित कर गृहण करती थी. उसका 'emotional IQ' मुझ से कहीं अधिक था. सच बात तो यह थी, की मैं उससे प्रेम करता था, मगर डरता और जलता भी था. तभी तो उसका मेरा प्रेम फलीभूत नहीं हो सका. कहने को हमने जन्म-जन्मान्तर की क़समें खायी थी, किन्तु हम अंतस से शायद एक पल भी नहीं जुड़ पाए थे. बहुत से पति-पत्नियों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की कहानी बस यही होती है. अधिकांश रिश्ते अपने अहम् अथवा हीन भावनाओं के खेल खेलने के साधन मात्र होते हैं, उन्हें बस आवरण दे देते हैं हम प्रेम का, भरी भरकम नाम देकर उन्हें 'intellectual' श्रेणी में ले आते हैं अथवा पारंपरिक रूप देकर गर्वान्वित हो जाते हैं. शब्दकोष के शब्द मिल कर सतही तौर पर सब कुछ साबित कर जाते हैं. हम दावा करते हैं एक दूसरे को समझने का किन्तु सच तो यह है की हम शायद समझ की वर्णमाला का 'अ' तक नहीं जान पाते.
आज तटस्थ भाव से विचार कर रहा था मैं और अपने और शुभा के रिश्ते के खोखलेपन को समझ पा रहा था. देखा कि युवती ने पुस्तक बंद कर के रख दी थी. उसने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा, कहा : "आप भी भारत जा रहे हैं." मैंने कहा : "हाँ" इच्छा थी कि बात आगे बढे. मैंने पूछ लिया, "आप भी भारतीय हैं ?" सवाल बेमानी था, तर्क के लिए वह पाकी भी हो सकती थी, मगर यह विमान लाहौर-कराची-इस्लामाबाद नहीं मुंबई जा रहा था. उसने मेरे सवाल कि बेवकूफी को नज़रंदाज़ किया, जैसे शुभा करती थी, कहा : "जी, मैं मुंबई जा रही हूँ, और शत प्रतिशत भारतीय हूँ." दिल-ओ-दिमाग में बहुत से प्रश्न घुमड़ रहे थे....उसकी पूरी जन्म-पत्री जानने की इच्छा हो रही थी....मगर पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी, ठीक वैसे ही जब मैं बहुत कुछ जानने की इच्छा होते हुए भी शुभा से नहीं पूछ पाता था.
एक चमत्कार सा हुआ....उसने शुरू किया बताना अपने बारे में, "मैं शिवांगी, वाराणसी मेरा घर है, मैंने वहीँ से दर्शन शास्त्र में मास्टर्स किया, और एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत डोक्टोरल प्रोग्राम के लिए फ्रांस आई थी. मेरी थीसिस पूरी हुई, अनुमोदित हुई, और अब मैं भारत लौट रही हूँ." मैंने पूछा, "आपके माता पिता ?"
उसने कहा, और मुस्कुराते हुए कहा, "मैं अकेली हूँ, मेरे मातापिता जब मैं १६ साल कि थी तब एक कार दुर्घटना में चले गए, उसके बाद मैंने सब कुछ खुद पर ही किया...." उसके शब्दों और आँखों में आत्मविश्वास टपक रहा था जैसा कि शुभा से प्रस्फुटित होता था.
ढीठ बन कर कह बैठा, "बनारस के तंत्र अनुसन्धान आश्रम से मैं भी जोडित हूँ, उसका साहित्य पढता हूँ, मेरे बहुत से मित्र वहां रहते हैं, दो तो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं, एक का साडियों का एक्सपोर्ट का कारोबार है..." यह सब भूमिका थी, असल बात जो पूछी आवह थी, " आप के मातापिता का क्या नाम था, बहुत वर्ष पहले मेरे भी एक रिश्तेदार दम्पति दुर्घटना में अपने बहुमूल्य प्राण खो बैठे थे." युवती की समझ शक्ति और शालीनता पर मैं चकित था, उसने नहीं पूछा कौन थे आपके यह रिश्तेदार, क्या नाम थे उनके. उसने सहजता से कहा, " जी मेरे पापा का नाम प्रोफ़ेसर श्याम द्विवेदी था और मम्मी प्रोफ़ेसर शुभा द्विवेदी. दोनों ही BHU में पढ़ते थे....हाँ पापा के खानदान का पुश्तेनी रुद्राक्ष का व्यवसाय था, चूँकि पापा व्यावसायिक बुद्धि के नहीं थे, और इकलौते वारिस थे....बस निर्भर करते थे अपने विश्वाशी कर्मचारियों पर.....आज भी व्यवसाय को चन्द्र शेखर गुप्ताजी और हनीफ बही देखते हैं......मैं भी अपने मम्मी पापा पर गयी हूँ, मुझे बस पढने लिखने, सोचने से मतलब है......" शुभा का नाम सुन कर जो भाव मुझ में आये, उन्हें आश्चर्य, विस्मय, आघात कुछ भी कह सकते हैं.....शुभा चली गयी किन्तु उसकी उपस्थिति मैं अपने करीब महसूस कर रहा था.....मेरे पास शिवांगी नहीं मानो शुभा ही बैठी थी. (क्रमशः)

शुभा सातवीं किश्त : मैं ही मुजरिम मैं ही मुंसिफ......

एक दफा तो दिल में आया कि उसे सब बता दूँ....शुभा से मेरा क्या रिश्ता रहा था....कैसे हम लोग जुदा हुए इत्यादि. किन्तु एक तरफ मुझे यह जानकर बहुत दुःख हो रहा था कि शुभा असमय इस दुनिया से चली गयी, किन्तु कहीं अवचेतन में एक अजीब सा सुकून भी था. मुझे बुरा और अच्छा साथ साथ लग रहा था....किसी अपने के चले जाने का दुःख किसी ना किसी प्रकार व्यक्त हो जाता है., किन्तु उसके बिछुड़ने से मिली राहत के कुछ और भाव विभाव भी अंतर में घटित होते हैं जिन्हें हम ताजिंदगी नहीं कह पाते, खुद से भी नहीं.
मैं यहाँ आपसे बिना माशा रत्ती का फर्क किये सब कुछ कह रहा हूँ. आपको भी जिज्ञासा होगी कि शुभा जिसे मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहता था, उसकी दर्दनाक मौत ने मुझे सुकून कैसा दिया ? आप सोच सकते हैं, मैं उसे कैसे फेस करता..... मैं उसके लिए कुछ नहीं कर सका था, मैं हमारे प्रेम के लिए कुछ नहीं कर सका था, भाग गया था मैं, कभी भी उसके अंतस को नहीं जान पाया था मैं, उसकी महानता के सामने मेरी क्षुद्रता उसी तरह थी जैसे एक महल के सामने एक झोंपडा, उसके सत्व (essence) को कभी नहीं पहचान पाया था, सपने लिए थे ज़रूर मैंने उसके साथ जीने के लेकिन उसकी जीवंतता के सम्मुख मेरी मुर्दानगी सिर्फ मर्दानगी के नाम पर कायम रह सकती थी.....मेरा प्रेम एक मर्द कि आधिकारिकता का प्रेम था, किसी ना किसी बहाने उस पर अपना स्वामित्व कायम करने का प्रेम था, अरे कालांतर में तो मैं उस कल कल करती सरिता को बांध देता परम्पराओं का एक बाँध बना कर...आज वह होती तो मेरे इन गुनाहों की एक मूक गवाह जो होती, मुझे अपने ही कटघरे में खडा कर मुझे ही मुंसिफ बना मुझे ही मुजरिम करार करने वाली होती.....मेरा सुकून वैसा ही था जैसा की एक हत्यारे को महसूस होता है, सबूत की कमी के कारण या 'बेनेफिट ऑफ़ डाउट' देकर रिहा कर दिए जाने पर . बार बार उसके आमने सामने होने की कल्पना से उपजे भय से मैं मुक्त हो गया था. किन्तु कुछ क्षणों के बाद मेरे अंतर में उसी भय मिश्रित हीनता का पुनर्जन्म हो गया था.
मेरी सारी शक्ति जैसे निचुड़ सी गयी थी. अपराध बोध मानव को एक ही झटके में शक्तिहीन कर दता है.....चाहे यह बोध भ्रमजनित हो अथवा तथ्य और सत्य पर आधारित. मेरा अपराध बोध तो गहरायी तक पैठा हुआ कीचड़ था, जो समय समय पर मुझे बौना बना मुझे बदबू से भर देता था, जिसे मैं हर पल महसूस करता रहता था. जिन सब बातों का जिक्र मैंने आप से किया वे मुझमें विद्यमान थी, बस शिवांगी के संयोगवश सामने आ जाने पर उस पात्र का ढक्कन खुल गया था. मैंने एयर होस्टेस से एक जिन-टोनिक ले आने का कहा. शिबंगी ने भी अपने लिए एक जिन टोनिक मंगा लिया था. यह नहीं कि मैंने उस उम्र कि लड़कियों को मद्यपान करते नहीं देखा था, किन्तु शिवांगी का जिन मांगना मेरे लिए नागवार गुज़र रहा था. सुसुप्तावस्था में कहीं ना कहीं आधिकारिकता मौजूद थी. एयर होस्टेस ने दोनों को मुस्कराहट के साथ ड्रिंक सर्व कर दिया था. शिवांगी ने एक सिप ली और कहने लगी, "आप क्या लेडीज ड्रिंक लेते हैं ? जिन तो अमूमन औरतें पिया करती है."
बहुत पैना था शिवांगी का प्रश्न....तीर की तरहा चुभ गया था.....मैंने इग्नोर करते हुए कहा, " अरे मैंने अपना परिचय तक आपको नहीं दिया."
"इट्स ओलराईट....अब बता दीजिये." फिर शुभा जिंदा हो गयी था...वही पैनापन. "मैं कुंवर अजीत सिंह....राजस्थान से हूँ.....यहाँ फ्रांस में बसा हुआ हूँ....आम तौर पर मैं व्हिस्की या रम पीता हूँ, आज जिन इसलिए पी रहा हूँ कि खुद को कमज़ोर पा रहा हूँ.....महसूस किया है कि जिन-टोनिक कुछ एनेर्जी देता है."
"ओह तो आप बाहरी सोर्स से एनर्जी पाते हैं....." शिवांगी कह रही थी.
मैंने बात बदली, " मैंने भी दर्शन शास्त्र में मास्टर्स किया था.... बहुत पहले..."
शिवांगी चहकी, " क्वायट इंटरेस्टिंग, तब तो हम बहुत कुछ पर बात कर सकते हैं. आखिर हमारे सब्जेक्ट्स जो कोमन है."
मैंने धीरे से कहा, "क्यों नहीं."
शिवांगी ने शुरुआत कि, " आपके फेवरिट कौन कौन थे."
मैंने कहा, " वैसे तो दर्शन शास्त्र अपने में बहुत विस्तृत विषय है, किन्तु मैं बर्ट्रेंड रस्सेल से बहुत प्रभावित रहा हूँ. "
शिवांगी पूछ रही थी, " विवाह संस्था (marriage institution) को आप कैसे देखते हैं ?"
मेरे चेहरे को अपने चश्में के पीछे छुपी आँखों से वह घूर रही थी और उस लम्बे से गिलास से टोनिक शिप कर रही थी.

शुभा :बच्चे : कुतर्क ( ?) शिवांगी के (आठवीं किश्त)

मुझे लगा मानो इस कम उम्र की लड़की ने मुझे घेर लिया हो. एक कायर सिपाही जो भागना चाह रहा हो....भाग भी रहा हो.....अचानक दुश्मन की फौज के सिपाही उसे घेर ले...या उसकी अपनी बटालियन के सिपाही उसे अपनी गिरफ्त में ले ले.
मैं ने विवाह को चाहा था, विवाह को झेला था.....मगर कभी भी गंभीरता से सोचा नहीं था.....कि मेरे विचार इस युगों पुरानी सामाजिक संस्था के लिए कैसे फोर्मुलेट हुए थे. मैंने कहा. " बेसिकली विवाह एक मर्द और एक औरत को ज़िन्दगी भर के लिए जोड़ता है....."
"ओह तो विवाह ना हुआ फेविकोल हो गया........कैसे जुड़ सकते हैं कैसे बंध सकते हैं दो जिंदा इंसान जिनके मस्तिस्क और स्नायु तंत्र अलग अलग हो, शरीर के अंग-प्रत्यंग अलग अलग हो, स्वभाव अलग हो, पालन पोषण का परिवेश अलग हो ?" बात बढाई थी शिवांगी ने.
"मेरे कहने का मतलब विवाह एक पवित्र बंधन है जिसे समाज और धर्म की मान्यता प्राप्त है." मैंने स्वयम को स्पष्ट करना चाहा था.
"तो किसी भी बात को पवित्र होने के लिए समाज और धर्म की मान्यता प्राप्त होना ज़रूरी है....अपने आप में पवित्र होना कुछ नहीं." कमेंट्स दागे थे उस ने.
"मेरे कहने का मतलब नर और नारी के रिश्ते को सामाजिकता देने से है." मैं बोला था
" तो अन्यथा नर और नारी का सम्बन्ध असामाजिक होता है ना ?" उस ने ना जाने सवाल किया था या तर्क.
"अगर समाज कि मान्यता ना हो तो ऐसे रिश्ते अनैतिक और अवैध होते हैं....." मैंने कहा था.
"क्यों ?" वह पूछ रही थी.
"भई व्यवस्था चलानी होती है, समाज को.....बच्चों को नाम देना होता है बाप का......संतान को कानूनी अधिकार और विरासत के हुकूक दिलाने होते हैं, फिर यह सब तो भगवान की मर्ज़ी से होता है.....कहतें हैं ना-'Marriages are made in heaven." मैंने बुजुर्गाना अंदाज़ में कह दिया था.
किन्तु उसके लिए यह कहाँ कन्विंसिंग हो सकता था, "सर ! ईश्वर कि मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं होता ऐसा माना जाता है, धर्म भी कहता है समाज भी इसी बात के ढोल पीटता है, फिर आप बताएं क्या शादी ना की हो उनके बच्चा नहीं हो सकता ? अगर भगवान कि मर्ज़ी से विवाह का संपादन होता तो भगवान क्या बिना शादी के मर्दों कि नसबंदी और औरतों का बंध्याकरण नहीं कर देता ... और आजकल तो गर्भाधान के लिए सदेह पुरुष की भी आवश्यकता नहीं होती, कृत्रिम गर्भाधान की भी कई प्रणालियाँ विकसित हो गयी है.....पहले भी नियोग प्रथा में ऋषि मुनि विवाहित महिलाओं को संतान दान देते थे....फिर बहुत सी शादियों में बच्चे नहीं पैदा होते तो क्या वे शादियाँ उदेश्यहीन हो जाती है. इसलिए बच्चों वाली बात पर पुनर्विचार करें. ."
मैंने दूसरे ड्रिंक का आर्डर दे दिया था.....शिवांगी अपने उसी गिलास से हौले हौले चुस्कियां ले रही थी....
मुझे भी अपने दर्शन शास्त्र कि पढाई के दौरान पढ़े पाठ याद आ रहे थे, भोगे हुए यथार्थ की विडम्बनाएँ भी.....मगर फिर भी जी नहीं मान रहा था की इस 'पवित्र संस्था' के लिए कुछ ऐसा कहूँ या स्वीकारूँ जो समाज और उसकी व्यवस्था के अनुकूल ना हो.....लग रहा था धरती और आसमान के बीच एक मुसाफिरी बात चीत के दौरान भी मैंने ऐसा कर लिया तो समाज जो आस पास कहीं भी नहीं, तबाह हो जायेगा, बर्बाद हो जायेगा.

कुछ और कुतर्क शिवांगी के

"सर फिलोसोफी आपका सब्जेक्ट रहा है और रस्सेल आपका फेवरिट, आपने मेरिज इंस्टीटयूसन पर उसके विचार ज़रूर पढ़े, जाने और समझे होंगे." शिवांगी के शब्द मेरे ड्रिंक को कमज़ोर बना रहे थे.
"हाँ रस्सेल को मैंने पढा है मैं नहीं सहमत उसकी बात से कि मेरिज कुछ नहीं एक समाज स्वीकृत वैश्या वृत्ति है, रस्सेल के सोच पश्चिम के अनुभवों पर आधारित थे, जहां विवाह एक संस्कार कम और करार अधिक होता है. वे क्या जाने इस पवित्र रिश्ते कि गरिमा, हमारे यहाँ तो कहा है यज्ञ नहीं हो सकता पत्नि के बिना, पुरुष स्वर्ग में प्रवेश नहीं पा सकता पत्नि के बिना." मैंने उत्तर दिया था.
"सर, यज्ञ में कितने दम्पति आज के दिन शरीक होते हैं, आज तो बेसिक याने यज्ञ तक बेमानी हो गया है....और स्वर्ग ? होता होगा मगर क्यों ना जो ज़िन्दगी सामने है उस पर विचार किया जाय... इन बेमानी बातों से कोई पॉइंट प्रूव नहीं हो पाता....आम हिन्दुस्तानी की ज़िन्दगी में विवाह और उसमें औरत कि हालत को जरा सोचें रस्सेल कि इस बात में कटु सत्य का अनुभव होगा. मैं नहीं कहती उसकी बात कोई वेदवाक्य है, वाह पश्चिम का था तो कुदरतन उसने वहां के माहौल को ज्यादा देखा परखा था किन्तु उसके विचारों को सिर्फ इसी बिना पर तो नहीं ठुकराया जा सकता....आज भी पुरुष दांपत्य जीवन में यह सोचता है कि उसके बदौलत ही घर चलता है वाह कमाता है इसलिए ज़िन्दगी या कहें की औरत की हर चीज पर उसका हक है.....यहाँ तक कि औरत अगर कमाए भी तो पुरुष अपना अधिकार समझता है उसेक तन पर उसके मन पर....चाहे जो सुन्दर वाक्य बोले जायें...'एंड ऑफ़ द डे'
यही देखा जाता है मानो औरत मर्द कि जरखरीद हो.....कितने शादीशुदा लोग है जो यज्ञ और स्वर्ग की बात तक जानते हैं ?......रेस्तरां भी ले जाते हैं बीवी को तो कहते हैं आज उसे खिलाने ले गया था...मूवी अगर जाना हो तो खाविंद नहीं कहेगा 'बीवी' के साथ गया था, कहता रहेगा- आज उसको फिल्म दिखा के लाया...आज उसको शौपिंग करायी....यहाँ तक कहेगा-मैं काम पर ना जाऊँ तो घर का चूल्हा ना जले....पति को परमेश्वर कह कर उसे चढा दिया गया....सामाजिक वैश्या वृत्ति वाला पहलू अव्यक्त है....
पर 'एंड ऑफ़ द डे' कुछ भी मुल्लमा चढाएं, हकीक़त से आँख नहीं मूँद सकते." शिवांगी ने कुतर्क करना जारी रखा था.

मेरे ड्रिंक का स्वाद ख़राब हो रहा था, मेरे सर में अजीब सा दर्द हो रहा था मगर मैं फिर भी उस से बातें करना चाह रहा था.

"मैंने कहा ये सब तो हमारी विपन्न आर्थिक स्थिति और नारी शिक्षा के आभाव में हो रहा है...देखा नहीं जमाना कितना बदल गया है....आज नारी पुरुष के कंधे से कन्धा मिला कर भारत का नव निर्माण कर रही है." मैं नारे लगा रहा था.

"सर ! नारे बहुत सुन्दर लगा लेते हैं आप, विषय को सरका देना कोई आप से सीखे. आपने रस्सेल की यह बात ज़रूर पढ़ी होगी-Marriage is for women the commonest mode of livelihood, and the total amount of undesired sex endured by women is probably greater in marriage than in
prostitution. ( विवाह औरतों के लिए आजीविका का एक आम साधन है, और औरतों द्वारा अवांछित सेक्स को सहन करने की मात्रा संभवतः विवाह में वैश्यावृति से कहीं अधिक होती है.) क्या कहना है आपका इस पर."

लग रहा था शिवांगी ने ताज़ा ताज़ा रस्सेल को पढ़ा हुआ था.....कितनी बेबाक हो रही थी वो, कोई लिहाज़ नहीं.... अपने से बड़े से कैसे बातें कर रही थी. मैंने सोचा मेरे अन्दर से ऐसा लग रहा है कि मैं शुभा के साथ हूँ, मुझे इसकी बातों को बर्दाश्त कर लेना चाहिए-मैंने रेसन्लायिज़ कर लिया था....अहम् को लगी चोट पर मरहम लग गयी थी...आराम सा महसूस हो रहा था.
"शुभांगी अरे नहीं शिवांगी......." मैंने मुंह खोला था.

"आप मुझे शुभांगी ही कहिये अच्छा लग रहा है, ना जाने क्या सोच कर मेरी माँ ने मेरा नाम शिवांगी रखा होगा....शायद वाह नीलकंठ के सामान थी जिसने ज़िन्दगी का गरल पिया था....वह शिव थी और मैं उसका अंग शायद इसीलिए शिवांगी मगर उपमा के अनुसार क्योंकि मैं तो शुभा का ही अंग हूँ इसलिए मैं हूँ शुभांगी.....सर आप मुझे इसी नाम से संबोधित कीजिये प्लीज़.."
वह कह रही थी. उसके कहने का अंदाज़ और इसरार बिलकुल शुभा की तरहा ही था. मुझे लगा मानो शुभा कह रही हो, मेरे मन की बात को अपना बताकर मुझ पर एहसान कर रही हो.....नहीं नहीं ! शायद मुझे खुश देखना चाह रही हो.
"हाँ तो शुभांगी तुम जो कुछ कह रही हो वह भौतिक बातों से सम्बंधित है चाहे वह जीवन निर्वाह याने आर्थिक बात हो या यौन याने शारीरिक बात. विवाह केवल भौतिक पहलू पर ही आधारित नहीं अरे यह तो हमारी आत्मा से सम्बंधित है......दो शरीर नहीं दो आत्माएं मिलती है इसमें और मिल कर एकाकार हो जाती है." मैं बहला रहा था उसे.
ज़िन्दगी में भौतिक और मानसिक या कहा जाय कि अध्यात्मिक आवश्यकताओं को अलग होते हुए भी एक कर के देखना होता है, क्योंकि वही सम्पूर्णता है...सामान्य तल पर इस दोनों को अलग नहीं किया जा सकता.....अंतरनिर्भर है ये. फिर भी मैं आप ही की बात के अनुसार एक दफा सोचती हूँ.....बात नैतिकता की करते हैं. यौन और प्रेम को विवाह के दायरे में कैद कर आपने एक आचार संहिता सी बना दी है....यौन को तो बहुत ही घृणा की दृष्टि से देखा गया है, विवाह में भी संतानोत्पति के लिए ही सेक्स करने की बात हमारे शास्त्र कहते हैं....कामेच्छा को पापेच्छा ही माना जाता है....शरीर के अंग जिनसे कामक्रीड़ा संपादित कि जाती है गंदे अंग समझे जाते हैं....जहां विवाह में आप आत्मा की बात करते हैं, इन प्राकृतिक क्रियाओं को कहीं भी आत्मा से नहीं जोड़ा गया है...बस शारीरिक क्रियायें मान लिया गया है...मल-मूत्र विसर्जन के सदृश,इन सब के बावजूद यह पहलू इतना अहम् कि आपसी संबंधों और वफादारी का का आकलन केवल इन्ही क्रियाओं पर होता है.....एक पत्नि किसी अन्य पुरुष के लिए नहीं सोच सकती उससे रिश्ता नहीं बना सकती और एक पति भी किसी और औरत के साथ अपने सो शेयर नहीं कर सकता.....अगर ऐसा हो जाये तो मानों आसमां टूट गया....शादी जैसी संस्था की नीवें हिल गयी.....
ये सारी पाबंदियां इसलिए लगायी गयी कि ऐसा होना स्वाभाविक लगता था इसलिए पाबंदियों के बौल्डेर्स से फ्लो को रोका गया....मैं नहीं कहती ऐसा होना चाहिए या ऐसा नहीं होना चाहिए. हम बात विसंगतियों की कर रहे हैं.....रस्सेल कहते है :
I am not suggesting that there should be no morality and no self-restraint in regard to sex, any more than in regard to food. In regard to food we have restraints of three kinds, those of law, those of manners, and those of health. We regard it as wrong to steal food, to take more than our share at a common meal, and to eat in ways that are likely to make us ill. Restraints of a similar kind are essential where sex is concerned, but in this case they are much more complex and involve much more self-control. Moreover, since one human being ought not to have property in another, the analogue of stealing is not adultery, but rape, which obviously must be forbidden by law. The questions that arise in regard to health are concerned almost entirely with venereal disease. ........एक तरफ समाज नैतिकता की आत्मिकता कि बात करता है दूसरी तरफ इस तथाकथित नैतिक पक्ष को भोजन सा समझा गया है."
शुभांगी कुछ रुकी. उसने जारी रखा, " adultery के मनोविज्ञान को पारंपरिक नैतिकता ने झुठलाने की मनोवृति ली है, एक क्तित्रिम धारणा बना ली है कि एक व्यक्ति के प्रति आकर्षण का सह अस्तित्व नहीं हो सकता किसी दूसरे के प्रति गंभीर अनुराग और मनोभाव के साथ, हम सब जानते है कि कितना असत्य है यह प्रतिपादन मानव मनोविज्ञान की दृष्टि से ......किसी ने मान्यताओं के परे के सत्यों को देखने का प्रयास नहीं किया और विवाह के व्यवस्था पक्ष से अधिक नैतिकता के नाम पर इस पहलू को तवज्जो दे डाली......सर जरा सोचिये ना इन सब में आत्मा,अंतर्मन, मनोभावों, सहजता आदि आयामों को कितना तोडा मरोड़ा गया है......वफादारी के नाम पर....मैं नहीं कहती शादी की संस्था नहीं होनी चाहिए....मेरे लिए यह एक वैयक्तिक बात है, दो वयस्कों को ईमानदारी से एक दूसरे कि शारीरिक और मानसिक ज़रूरतों को समझते हुए तय करना है कि उन्हें कैसे रहना चाहिए, क्या करना चाहिए.....कोई ज़रूरी नहीं कि वे घुटन के साथ जिये ....समाज के बनाये नियमों के लिए खुद की लगातार आहुति देते रहें.....मानती हूँ प्रश्न बहुत कठिन है किन्तु इन बातों पर आँख मुन्द कर अँधेरा तो नहीं किया जा सकता......किसी ने लीक से हाथ कर कुछ किया तो आपकी स्मृतियों की किताबें खुल गयी और उसे व्यभिचारी/व्यभिचारिणी के खिताब से नवाज़ दिया गया....जब इस संस्था के आधार में आत्मा की बातें भी है तो आत्मा की बात को क्यों ना स्वीकार ली जाय ?"
शिवांगी अभी भी उसी गिलास से हौले हौले पी रही थी और मेरा ड्रिंक ख़त्म होने को था.
जिन-टोनिक ने मेरी उत्तेजित और चोट खाए स्नायुओं को सूथ कर दिया था, या मुझे कुछ शांति का अनुभव हो रहा था किसी अनजाने कारण कि बदौलत कह नहीं सकता मगर मैं स्वयम को सकारात्मक पा रहा था. मुझे शुभांगी कि तर्कों में कुछ तथ्य नज़र आ रहे थे..... खुले दिमाग से उसकी बातों पर मेरा सोचना आरम्भ हो गया था. मुझे लग रहा था शुभा कह रही है और मैं सुन रहा हूँ...जैसा कि होता आया था.

" बात तो तुम ठीक ही कह रही हो, लगता है आत्मा और अध्यात्म का जमा पहना कर इस संस्था को भौतिक तल पर चलने की स्कीम हमारे कर्णधारों ने सर्वजन हिताय सर्वजन हिताय की हो.....बुरा मत मानना शुभांगी मुझे तुमको सुनना अच्छा लग रहा है, समहाउ मुझे लग रहा है कि मैं अधिक कहूँगा कुछ तो तुम्हारा फ्लो रूक जायेगा.....तुम कहो ना मैं सुन रहा हूँ, विचार भी कर रहा हूँ...." मैं बोल उठा था और अगले ड्रिंक कि प्रतीक्षा भी कर रहा था.
"सर ! लगता है आप ने हथियार डाल दिए हैं.....और मुझे ऐसा भी महसूस हो रहा है आप मेरी बात सुन कर अंतर्मन में ख़ुशी पा रहे हैं.....चलिए मैं और कहूँगी इस विषय पर.....मुझे भी कहना अच्छा लग रहा है." इतनी सीढ़ी सच्ची बात शुभांगी कह रही थी बिलकुल शुभा की तर्ज़ पर भी कि मुझे बार बार लगातार एहसास हो रहा था...शुभा के पास बैठा हूँ, उसे सुन रहा हूँ.

"चलिए थोड़ा सा बात का क्रम बदलते हैं, आपने बर्नार्ड शा की यह बात तो पढ़ी/सुनी होगी, जिसका सारांश है- all reasonable men adapt themselves to world. Only a few unreasonable ones persist in trying to adapt the world to themselves. All progress in the world depends on these unreasonable men and their innovative and often nonconformist actions. (सभी युक्तिसंगत व्यक्ति स्वयम को संसार के अनुकूल/समरूप बनाते हैं. केवल थोड़े से अव्युक्तिसंगत/अपवाद व्यक्ति विश्व को स्वयम के अनुकूल/समरूप बनाते हैं. विश्व का समस्त विकास इन अपवाद व्यक्तियों एवम उनके अभिनव और मान्यताओं का अनुसरण नहीं करनेवाले कार्य-कलापों पर निर्भर करता है.)"

ना जाने क्या कहना चाह रही थी वह, शायद मुझे हराने का यह भी कोई उसका पैंतरा रहा हो.... मैं सावधान हो गया था. उसके इस सवाल का जवाब केवल 'हाँ' में हो सकता था.

मैंने नए गिलास से एक घूँट भरा और कहने लगा, " पढ़ा हुआ तो ख़याल में आ रहा है, किन्तु शुभांगी यह दुनिया अपवाद पुरुष स्त्रियों से तो नहीं बनी है....हम सब साधारण मनुष्य है जो किसी व्यवस्था के तहत जी रहे हैं. हमें इन अभिनव और विद्रोही कार्यकलापों से क्या लेना देना....रोज़ी रोटी कमाना, थोड़ी मौज मस्ती करना, सामाजिक जिम्मेदारियों को निबाहते हुए अपना विकास करते हुए जीवन व्यतीत करना .....इसी में सुकून पाना ....यही सब तो हैं हम जैसे लोगों के जीने के सबब."
" हियर यू आर.....बात जब ना संभले तो साधारण मानुष बन जायें....कोई ज़रूरी नहीं कि साधारण मानुष बन कर जीने के क्रम में हम अपने सोचों के दरवाज़े बंद कर के रखे.....यह भी ज़रूरी नहीं कि अपवाद नर-नारी बन कर खुद को साबित करें....मुद्दे को समझने के क्रम में हम विषय से हट कर भरमाने वाले बिंदु उभार लातें हैं जिस से हम अपने आपको जैसे तैसे बचा लेते हैं कंट्रोवर्सी से....लेकिन दिस इस नोट डन...बात निकली है तो दूर तलक जायेगी....या तो आप विवाह संस्था और उसमें नर नारी की स्थिति पर स्पेसिफिक बोलिए या मुझे सुनिए."
"मैं तो सुन ही रहा हूँ शुभांगी.....मैंने कहा ना....." कहा मैंने. मन की बात पढ़ लेती थी यह भी शुभा की तरह, मैंने शब्दों को चबाते हुए जो कहा था समझ गयी थी तभी तो इस तरह रिएक्ट कर रही थी.
"ईमानदारी से दिमाग खोल कर सुनिए." अधिकारपूर्ण था उसका कहना. कह रही थी :
" विवाह एक बहुत बड़ी सीख है. यह तो जानने सीखने का एक अवसर है. सीखना कि निर्भरता प्रेम नहीं है, निर्भर होने के मायने है-वैमनस्य, क्रोध, घृणा, जलन, पजेसिवनेस, हुकूमत करने की प्रवृति. इसमें यह सीखा जाना होना चाहिए कि बिना निर्भर हुए कैसे जिया जाये....किन्तु यहाँ तो निर्भर होने का नाम विवाह है. यह तो दो व्यक्तियों के बीच मैत्री होनी चाहिए....इसे विवाह का नाम ना देकर मैत्री अथवा मित्रता कहना होगा...क्योंकि 'विवाह' शब्द विषाक्त हो चुका है. दो व्यक्तियों का परस्पर प्रेम हेतु मिलन होना चाहिए...शेष सब बातें तो स्वतः ही घटी हो जाती है यथानुरूप. आनेवाले कल के लिए कोई प्रतिज्ञा नहीं, वर्तमान में जो क्षण है वह यथेष्ट है. यदि दो व्यक्ति इस क्षण एक दूजे से प्रेम में हैं, अपने आपको तह-ए-दिल से एक दूसरे से शेयर करते हैं तो यह क्षण संपूर्ण है और इसी संपूर्ण क्षण से ऐसे ही आगामी क्षणों का जन्म होगा. मानती हूँ नर-नारी का संग होना एक हर्षपूर्ण स्थिति है किन्तु यह स्थिति ज़रुरत का सौदा नहीं प्रेम कि उपज होना चाहिए, यह ज़रुरत को पूरा करना नहीं आपसी ख़ुशी का स्रोत होना चाहिए, यह गुरवत का नतीजा नहीं धनी होने का परिणाम होना चाहिए, इसका आधार देना होना चाहिए--लेना-देना नहीं. इस साथ कि तुलना में फूल से करती हूँ जो महक से इतना भरा होता है कि उसे हवा में सुगंध का विसर्जन करना ही होता है......इसकी तुलना मैं एक जल से भरेपूरे बदल से करना चाहती हूँ जिसे जल की बौछारें करनी ही होती है.....मेरी नजर में शादी एक जरूरतों कि तिजारत नहीं...प्रेम का संगीत है..."
शुभांगी की पैनी बातें क्रमशः कोमल होते जा रही थी....उसकी बातें मेरे घायल दिल को अमृत सा स्पर्श दे रही थी. मैंने कहा, "शुभांगी चुप क्यों हो गयी, और कहो...मुझे अच्छा लग रहा है. मैं गिलास को छू तक नहीं रहा था....मानो शुभांगी के शब्द ही टोनिक बन गए थे.
"शादियाँ या तो एक सेक्सुअल अरेंजमेंट होती है या क्षणिक रूमानी प्यार का साधन. रूमानी प्यार बीमार होता है. चूँकि हम बहुतों से प्रेम नहीं कर पाते हमारे प्रेम करने की क्षमता एकत्र होती जाती है. तब हम प्लावित हो जाते हैं प्रेम से....जब भी कोई मिल जाता है अथवा ऐसा अवसर मिल जाता है, हमारा प्लावित (over-flooded) प्रेम प्रक्षिप्त (projected) होता है. एक सामान्य नारी परी हो जाती है और एक सामान्य नर दिव्य......किन्तु जब बाढ़ उतर जाती है और हम सामान्य हो जाते हैं, हमें लगता है हमारे संग धोखा हुआ है.....हम ठगे गए हैं.....वह एक साधारण पुरुष हो जाता है और वह एक साधारण स्त्री....
यह रूमानी पागलपन हमारी एक-विवाही प्रशिक्षण का नतीजा है, यदि व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक प्यार करने दिया जाय तो ऐसे कोई भी तनाव नहीं उपजेंगे जिन्हें समय समय पर रूमानियत, कुंठा, क्रोध आदि के नाम पर प्रर्दशित किया जाय......एक बीमार समाज में ही रूमानियत संभव है....एक स्वस्थ समाज में प्रेम होगा रोमांस नहीं......और जब प्रेम है रोमांस नहीं तो विवाह एक गहरे स्तर पर होगा और वह कुंठा नहीं होगा. विवाह केवल प्रेम के लिए नहीं बल्कि और अधिक अन्तरंग संग के लिए हो---'मैं-तुम' को हम बनाने के लिए हो.....तब कहा जा सकता है कि विवाह अहम्-हीन होने का प्रशिक्षण पाने का एक अवसर है. किन्तु विवाह संस्था के तहत हम ऐसे उदाहरण नहीं पाते हैं.
"प्रेम कि उत्कंठा बहुत तीव्र होती है किन्तु प्रेम के लिए अत्यधिक बोध और चेतना की आवश्यकता होती है. ऐसा हो तभी प्रेम अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच सकता है.....और यह पराकाष्ठा होती है विवाह....विवाह दो हृदयों का संपूर्ण विलय है.... यह दो व्यक्तियों का full synchronity में क्रियाशील होना होता है.....चाहे वे एक छत के नीचे रहे अथवा नहीं......सर सुना है आपने ऐसे किसी विवाह के बारे में ? ऐसे किसी प्रेम के बारे में ?"

शुभांगी बातों के सफ़र को कहाँ से कहाँ ले गयी थी.मैं निर्निमेष उसके चेहरे को गौर से देख रहा था....उसके शब्द मेरे मन का कलुष धो चुके थे ......उसकी उपस्थिति मात्रा से मैं स्वयम को हल्का महसूस कर रहा था.....मुझे ऐसा लग रहा था किसी ने मुझ मुरदे को जीवनदान देकर फिर से जिन्दा किया हो. मेरे निर्जीव शरीर में प्राण फूंके हो, मेरे मन को जागृत किया हो. मेरे मन में अनगिनत जल तरंग बजने लगे थे. मुझे शुभा के पास होने के एहसास हो रहे थे.....शुभांगी मुझे शुभा ही दीख रही थी. मैंने शुभांगी को अपने करीब खींच लिया था.....उसने भी कोई आपति नहीं की थी. मैं उसे गहरे प्रेम के एहसासों के साथ चूम रहा था.....मुझे लग रहा था आज मैं पूर्ण था.......शुभा/शुभांगी का स्पर्श मुझ लोहे के लिए पारस के समान हो गया था.....मैं खरा सोना बन गया था . (क्रमशः)



अंतिम किश्त......


एयर होस्टेस की आवाज़ ने मुझे जगा दिया था.....हमारा विमान अब मुंबई उतारने के क्रम में था....मैंने अपने पास की सीट को देखा खाली थी......मैंने पूछा था एयर होस्टेस से कि जो यहाँ बैठी थी वह कहाँ है ? उसने कहा था सर, पूरी यात्रा के दौरान आप गहरी नींद में सो रहे थे, यहाँ तो कोई नहीं था.....तो क्या मैंने सपना देखा था ?
मुझे अपने में एक नयी उर्जा का प्रादुर्भाव अनुभव हो रहा था. मुझे लग रहा था कि मेरी प्राण प्रतिष्ठा हो गयी है, मैं एक मुर्दा था जिसमें जान फूंक दी गयी है. किसने किया यह ? शिवांगी उर्फ़ शुभांगी ने जिसको मैंने स्वप्न में अपने साथ पाया था और ना जाने कितनी बातें की थी उस से ? शुभा के साथ की यादों ने जो शुभांगी से बातचीत के दौरान सुसुप्त मन में जाग रही थी ? अपने आप के शोधन से जिसका निमित सपने में आई वाह युवती बनी थी ? मुझे लगा जो भी हुआ था स्वयम से स्वयम के वार्तालाप का हिस्सा था. हम बाहर सब से बातें करते हैं, झूठा-सच्चा शेयर करते हैं, खुद से भी आधा अधूरा कहते रहते हैं---कभी कभी तो खुद को भी डायलोग्स के सहारे मेनेज करते हैं----मगर जागरूक हो कर खुद खुद से ईमानदारी भरा संवाद कभी भी नहीं स्थापित करते. प्रकृति अथवा कोई दैवी शक्ति कभी कभी ऐसे चमत्कार घटा देती है, खुद से खुद का सामना करा देती है....मन की गांठे खुल जाती है, भ्रम के बदल छाँट जाते हैं और हम उर्जावान हो जाते हैं. मुझे आज ऐसा ही सौभाग्य मिला था....मैं अस्तित्व के प्रति कृतज्ञ था.....यह कृतज्ञता मेरे चेहरे पर मुस्कान और सुकून बन कर दिख रही थी, मुझे लग रहा था मैं कोई ३० साल का नौजवान हूँ........मन-चित्त-आत्मा के इन रहस्यों कि परतें कुछ हद तक मनोविज्ञान ने खोली है.....फ्रायड और जुंग ने काफी कुछ शोध की थी और इस पर लिखा था. हाँ हमारे प्राचीन ऋषियों ने, बौद्ध और जैन परंपराओं ने, सूफियों ने इस पर बहुत काम किया था जो मैंने यदा कदा पढ़ा था, यद्यपि शुभा का अध्ययन इस बाबत बहुत गहरा था, और उसके चर्चा के विषय अधिकाशतः ये ही हुआ करते थे.- अध्यात्म, मानव मनोविज्ञान और परामनोविज्ञान. मैंने 'कनकलुड' किया था कि ये शुभा के मेरे सुसुप्त मन को दिए गए सुझाव और उसके अपने स्पंदन थे जो अन्तरिक्ष और वायुमंडल में विद्यमान थे/है. मुझे यह महसूस हो रहा था कि शुभा कहीं आसपास है.
कस्टम की औपचारिकतायें पूरी कर मैं मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से बाहर निकला तो मेरी आँखें आश्चर्य से भर गयी. शुभा खड़ी थी, हाथों में वायलेट रंग के ओर्किड्स लिए, अपनी गुलाबी मुस्कान के साथ. उसने डेनिम की नीली जींस और सफ़ेद टीशर्ट पहने हुआ था....चेहरे पर एक कान्ति विराजमान थी, और उसने जो ग्लास्सेस पहने हुए थे वे ठीक वैसे ही थे जैसे कि मैंने शुभांगी के चेहरे पर देखे थे....ऐसा लग रहा था शुभांगी सामने हो. शुभा ने बाहें फैला कर मुझे अपने आगोश में ले लिया था....मैं उसका स्पर्श पाकर अपने को उत्सव में पा रहा था. वक़्त मानो थम गया था, मौन बहुत कुछ कह रहा था....
"चलो ! हम थोड़ा फ्रेश हो लेते हैं, फिर 'डोमेस्टिक' चलेंगे....जहां से हम जयपुर कि फ्लाईट लेंगे."
शुभा कह रही थी. उसका यहाँ होना और कहना "हम" जयपुर की फ्लाईट लेंगे...अच्छा लग रहा था किन्तु बहुत सी जिज्ञासाएं मुझ में उमड़ रही थी. स्कोडा के बूट में सूटकेस और बैग को रखा हम ने. शुभा स्टीयरिंग पर थी और मैं उसके पास.....ड्राईवर को कह दिया था कि ठीक समय केब से डोमेस्टिक एअरपोर्ट चला जाये और वहां हमारी प्रतीक्षा करे.
"कैसी हो तुम", "कैसे हो तुम" वाक्य दोनों ही नहीं कह पा रहे थे शायद.
"तुम तो बहुत बड़े हो गए हो अजय, सर को देख कर लगता है बदली में चाँद चमकने लगा है....और काले में यह सफ़ेद बाल लग रहा है सिल्वर लाईनिंग हो.....जी करता है कहूँ 'बुड्ढा !' या "बड़े मियां दीवाने"....मैंने पाया यह कहते हुए उसके चेहरे पर एक शैतानी खिल गयी थी.
" और तुम ? तुम तो लगता है च्यवनप्राश खाकर हृष्ट पुष्ट हो गयी हो....अभी भी जोश-ए-जवानी उज़ आउट हो रहा है हर जर्रे से.....अरे तुम को मैंने देखा था फ्लाईट में." मैंने कहा था.
"सनक गए हो.....मैं और फ्लाईट में......झूठे रोमांटिक डायलोग बोलने की आदत.... लगता है अब तक नहीं गयी....इतना घिस गए हो तब भी." शुभा हावी हो रही थी.
"फ्लाईट की बात भी बताऊंगा थियरी और प्रेक्टिकल दोनों में, मगर यह बताओ तुम्हारा अचानक यहाँ पुनर्जन्म कैसे हो गया ?" मैंने अपने घुमड़ते सवाल को दाग दिया था और उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था.
उसने गाड़ी को होटल के पोर्च में रोका, बेल बॉय को चाभी पकडाई और हम लोग लोबी में एलेवेटर के सामने थे. शुभा ने वहां कमरा बुक किया हुआ था.....

"एयर इंडिया की फ्लायिट्स आज नहीं उड़ रही है क्योंकि पायलोट्स का एजिटेसन चल रहा था, हमने 'जेट' की फ्लाईट जो पांच घंटे बाद उडेगी, उसमें सीट्स बुक कर दी है." कह रही थी वो, "फ्रेश हो जाओ, ब्रेकफास्ट ले लेते हैं.....कुछ देर आराम के बाद एअरपोर्ट चले चलेंगे."
कोई पंद्रह मिनट में मैं एक दम तरोताजा हो कर बाथ रूम से बाहर आया था. लगता था शुभा स्नान कर के आई थी. ब्लेक चाय और बिस्किट हमारा इन्तेज़ार कर रहे थे. शुभा अब तक नहीं भूली थी कि मेरी सुबह की शुरुआत काली चाय से होती है. हाँ उसकी सुबह सफ़ेद दूध से शुरू होती थी ...

"मैं यहाँ TISS में पढाती हूँ ह्यूमन रेसौर्सेज मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट, जगत को पहले दिन जब क्लास में देखा तो तुम्हारे ख़याल और ज्यादा उमड़ने लगे.....जगत मेरा बेटा और दोस्त बन गया है....मेरे से उसकी शेयरिंग 'वन टू वन' है.उसी से जीसा की गंभीर हालत और तुम्हारे आने का प्रोग्राम मुझे मालूम हुआ." शुभा ने संक्षेप में सब कुछ कह दिया था. "और हाँ, मैं अब तक सिंगल हूँ, खुश हूँ."

चाय और दूध के साथ बेतरतीब बहुत बातें हुई.....जिनमें ज्यादातर बातें हम दोनों के फॅमिली मेम्बर्स और जगत के इर्द गिर्द थी. उसका सिंगल स्टेट्स जान कर मैं खुश हो रहा था.....अवचेतन में उम्मीदों की शम्माएं जलने लगी थी......जीसा के बीमार होने के सोच दोयम स्थान ले चुके थे.....शुभा का नज़दीक होना मेरे लिए मानो दुनिया की सब से बड़ी ख़ुशी था. सुबह की ताज़गी, एकांत और तन-मन-आत्मा के स्पंदन उथल पुथल मचा रहे थे. दिल कुछ कह रहा था, मगर दिमाग कह रहा था....ऐसा सोचना उचित नहीं....तेरा बाप मरण शैय्या पर है, तुम उनके आखरी दर्शनों के लिए सात समन्दर पार से आये हो और अपने मन को ऐसे विकारग्रस्त कर रहे हो, अनैतिक है यह.
शुभा ने जाने मेरा मन पढ़ लिया हो, जो अपने आप में एक चमत्कार था. वह कह रही थी, "अजय, तुम्हे याद है हम लोग गांधीजी की आत्म कथा पर चर्चा करते थे, जिसमें उन्होंने बहुत इमानदारी के साथ खुल कर लिखा है, अपने पिता की बीमारी और उनके अंतिम दिनों के बारे में, उनके मन में आने वाली सम्भोग इच्छा के विषय में और पिता की मौत के समय उनके पिता के पास ना हो कर कस्तूरबा के साथ बिस्तर में होने के बारे में.....गाँधी जैसा सत्य को समर्पित व्यक्ति ही यह बातें सब से शेयर कर सका था......हो सकता है कुछ मायनों में उनके विचार परम्परावादी थे किन्तु वह शख्स कितना डायनेमिक था..... वह हिपोक्रिट नहीं था जैसे कि तुम.....तुम ने हर मौके पर अपनी हर इच्छा का दमन किया है जिसके कारण तुम अपराध/पाप बोध से भर गए हो.....ये अंतर के कांटे तुम्हे एक मनुष्य की तरह जीने नहीं दे रहे हैं......तुम ने खुद को एक ऐसा स्टफ्ड पुतला बना दिया है जिसमें रुई कि जगह थोथे आदर्श, अधूरी मान्यताएं और गिल्ट भरा है.....तुम्हे खुद ही अपने सवालों के जवाब नहीं मालूम.....इंसान या तो जी सकता है या हर तरह से मशीन कि तरह सुसंगत (consistent) हो सकता है." शुभा ने जारी रखा था कहना, " इस पल तुम सोच कुछ और रहे हो और मुझ से डाक्टर्स, बीमारियों, तुम्हारे खानदान के गौरव, भारत में उदारीकरण के बाद से आये परिवर्तनों की गडम-गड बातें किये जा रहे हो.....कभी मेरे रूप लावण्या की दबी जुबाँ में प्रशंसा कर रहे हो, कभी मेरी मेधा और ज्ञान का बखान कर रहे हो.....या.... जगत के लिए जो किया-- तुम्हारे लिए अपने प्रेम को एक्सप्रेस करने के लिए किया-अपनी ख़ुशी के लिए किया-जगत को खुश देख कर खुश होने के लिए किया--उन सब को मेरे एहसान समझते हुए शुक्रिया अदा कर रहे हो."
तुम्हारे सामने वो है जिसने तुम्हे दिल-ओ-दिमाग की गहराइयों से प्रेम किया......तन्हाई है.....हम और तुम हैं .....मन में उमड़ते अरमान है और तुम खुद को भगा ले जा रहे हो...........अब तो खुद को इस 'सेल' से निकालो...."

शुभा : अंतिम किश्त II

मैं कांप गया था. शुभा ने मुझे बाँहों में भर लिया था.......जमीं-आसमां एक हो गए थे.....वृतुल पूरा हो गया था....युग युग के प्यासों को अमृत मिल गया था.
हम लोगों ने होटल की कॉफी शॉप में ब्रेक फास्ट लिया. शुभा ने मेरे लिए मेरा मनपसंद मसाला ओम्लेट बनवाया था, मैंने स्लायिसेस पर मख्खन और जेम लगाया था, शुभा ने मेरे लिए चाय बनायीं थी, मैंने उसके लिए प्याले में कोर्न्फ्लेक्स डाले थे और दूध उडेला था. मेरी आदत के मुताबिक खाते समय होटों के बाहर अनायास ही मैंने जेम लिपटा लिया था-जिसे शुभा ने हौले से नैपकिन से पोंछा था.....कमरे और ब्रेकफास्टटेबल पर हम ने एक ज़िन्दगी जी ली थी.

होटल से एअरपोर्ट, मुंबई-जयपुर फ्लाईट, जयपुर-सुजानगढ़ की इन्नोवा से यात्रा, सब कुछ मानो क्षण मात्र में पूरा हो गया था. प्रेम का साथ कितना सुखद होता है, मैंने बहुत अरसे बाद महसूस किया था. बातें बहुत हुई, किन्तु कहाँ तक कह पाउँगा.....
सुजानगढ़ पहुंचे तो मानो जीसा मेरा ही इन्तेज़ार कर रहे थे.........हम दोनों को साथ देख कर उनके चेहरे पर एक दिव्य ओज दिखाई दिया, हलके से कह रहे थे -"शुभा-अजय मैं जा रहा हूँ.....एक बोझा था दिल पर---मैं तुम दोनों का मुजरिम हूँ----क्या मुझे मुआफ कर सकोगे----तुम्हारी मुआफी मुझे शांति से संसार से चले जाने में मदद करेगी---करणी माताजी की कितनी कृपा है मुझ पापी पर कि अंतिम क्षणों में तुम दोनों मेरे पास हो--और मेरा पोता जगत मुझे कन्धा देने के लिए हाज़िर है." ठाकुर साहब बीमार ज़रूर थे लेकिन रुआब अब भी चेहरे पर कायम था...रुआब के साथ पश्चाताप-प्रायश्चित से भरी विनयशीलता ने भाव भंगिमा को ईश्वरीय बना दिया था. उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए थे. शुभा कह रही थी, "मुआफ आपने खुद को कर दिया है जीसा, बस इतना ही प्रयाप्त है....हम लोगों ने बहुत कुछ पाया है आप से....आज उसका आभार व्यक्त करने का समय है मुआफी की तो प्लीज़ बात ही ना कीजिये....अपने आर्शीवाद से हमें नवाजें." मैं मौन था, कुछ भी नहीं बोल पा रहा था.
जीसा कह रहे थे, "तुम दोनों मेरी तेहरवीं के बाद परिणय सूत्र में बंध जाना....जगत का ख़याल रखना."
शुभा कह रही थी, "जीसा हम ने आप से आर्शीवाद माँगा है कि बिना किसी सामाजिक बंधन के हम एक दूजे को प्रेम कर सकें....जगत की जिम्मेदारी मेरी है अजय की नहीं...अजय कैसा है वह आप अच्छे से जानते ही हैं."
जीसा कह रहे थे, "बेटा ! ज़िन्दगी ने मुझे सिखाया है प्रेम किसी बंधन और आचार संहिता का मोहताज़ नहीं होता....सिद्धांत और व्यवहार की बातें तुम दोनों मुझ से अधिक जानते हो--पढ़े लिखे जो हो...शुभा बेटी मुझे तुम्हारी हर क्षमता पर विश्वास है.....तुम लोगों के प्रेम मय जीवन के लिए मेरे सारे आशीर्वाद तुम लोगों के साथ है....डोकरी(करणी माता) तुम लोगों को सदा सुखी रखे. मेरी आँखों से आंसुओं की झड़ी लगी थी, शुभा और जगत की आँखें नम थी.....बाकी सब भी नम आँखों के साथ इस आनन्दमय विदाई के साक्षी थे.....कमरा एक दैविक उर्जा से भरा हुआ था.

शुभा रिवाजों से परे ( महिलाएं शामिल नहीं होती) जीसा के दाह संस्कार में शामिल हुई थी, उनके आदेशानुसार चिता कि पहली लकड़ी शुभा ने सजाई थी. शुभा पंद्रह दिन गढ़ के जनान खाने में घर की महिलाओं के साथ रही थी....

दाह संस्कार के बाद हम जयपुर जाने के लिए इन्नोवा में सवार होते समय ही मिले थे.
मैं शुभा के साथ दो सप्ताह उसके अपार्टमेन्ट में रहा था, शामें हमारी बाहर गुजरती थी....कभी समंदर किनारे, कभी किसी ला-उंज या रेस्तरां में, कभी कोई मल्टीप्लेक्स में मूवी देखने में, जगत भी हॉस्टल से चला आता था इन शामों में शरीक होने.

आज मैं पेरिस लौट रहा था. शुभा और जगत एअरपोर्ट पर मुझे विदा करने आये थे. शुभा और मैं आलिंगनबद्ध थे....जगत ने उसी स्थिति में दोनों के पांव छुए थे. मेरा यह कहना बेमानी था कि शुभा तुम जगत का ख़याल रखना. शुभा ने कहा था, "अपना ख़याल रखना, ध्यान कि जो पद्धतियाँ मैंने बताई उनका अभ्यास करना.....जो सीडियां मैंने दी है उनको सुनने में समय लगाना....बस यह पल ही सच्चाई है....."
मैंने कहा था, "छुट्टियों में तुम और जगत पेरिस चले आना."

जगत से गले मिल कर मैं, सिक्यूरिटी एरिया में प्रवेश कर रहा था....और मुड़ कर दोनों के प्यार भरे हाथों का हिलना देख रहा था. तमन्ना थी कि इस बार भी फ्लाईट में डूब जाऊँ खवाब में और शुभांगी चली आये. ................