Friday, August 27, 2010

अशीर्षक..... ...

# # #
दो जागरूक इंसान,
एक मानव
एक मानवी,
गहन प्रेम,
होता है महसूस
दो नहीं अब
हो गए हैं एक,
होते हैं वे
दो स्तम्भ
दो ध्रुव,
एवं
होता है कुछ
बहता हुआ
मध्य दोनों के...
यह प्रवाह
बनता है निमित
आनन्द अनुभूति का,
देता है यह प्रेम
आनन्दोपहार
क्योंकि
उस पल के लिए
गिरा चुके होते हैं दोनों
अपने अपने अहम् को...
'दूसरा' हो जाता है
तिरोहित
पल भर को,
होता है घटित
आनन्द
एक उत्सव,
और
यही क्षण
बदल सकता है,
जीवन,
बना कर ध्यानमय
सब कुछ,
होता है घटित
एकत्व
मात्र नहीं किसी
एक के संग,
मात्र नहीं किसी
एक 'अन्य' के संग,
गिर जाता है अहम्,
होता है प्रतीत
हर कण अस्तित्व का
'निज' सा,
और
बन जाता है
सब कुछ बस
'स्वयं'......
शब्दातीत
ज्ञानातीत
कर्मातीत......
कोई कहता है इसे
भक्ति
कोई
प्रेम
कोई
कैवल्य.....
किन्तु
एक स्थिति
अपरिभाषित
''शून्य" की,
होते हुए - ना होने क़ी,
ना होते हुए - होने क़ी..

Wednesday, August 25, 2010

दो बातें बारिश की...........

# # #
(१)
तेज़ हवा है कि
भोंके जा रही है
आवारा कुत्ते की तरह,
बारिश है कि
बरसे जा रही है
रुके बिना ,
पानी है कि
खेतों
गाँवों
शहरों से
बन कर धाराएँ
मिल रहा है
नदी में,
पंछी देखो
बैठ गए हैं
छुप कर
घोंसलों में,
औलाद आदम की
इंसान है कि
झूझ रहे हैं,
करने पूरे
फ़र्ज़ दुनियावी
पहन कर
बरसातियां
तान कर
छतरियां,
बढे जा रहे हैं,
खेतों
कारखानों
दूकानों
दफ्तरों की जानिब
ताकि रुक ना जाए
चक्का
ज़िन्दगी का...

(२)

या खुदा !
नदी लगी है
उफनने,
दोनों मोहब्बतबाज़
ज़मीं और आब
हो गए हैं बेताब
समा जाने को
एक दूसरे में,
टूट गया है
सब्र उनका,
छोड़ कर
लिहाज़ और हया,
देखो ना
किस बेशर्मी से
किया है शुरू
खेलना खुलकर
खेल निगौड़ा इश्क वाला,
होगी जल्द ही
बाहें दोनों की
गले में
एक दूजे के,
और
यह उबलता इश्क
ना जाने
लायेगा
कैसी तबाही ?
कहते तो हैं
मोहब्बत बनाती है
बिगाड़ती नहीं,
मगर
मगर......?????????????

निश्चय.....


# # #
निश्चय
अनिश्चय के
पेशोपेश में
समय गँवा
देते हैं लोग,
राहें भटक
जाते हैं
राही,
मिट जाते हैं
सब संयोग...
रिश्तों का
जंजाल जटिल है,
कहतें उसको
इश्क का रोग....
सुविधा में
प्रेमी दूर
रह रहे,
किन्तु नाम
दिया है
वियोग...

बांस.......(आशु रचना )


# # #
कटा
छंटा
छिद्रित हुआ
बन गया
बांस से
बांसुरी,
पाकर
कान्हा के
अधरों का स्पर्श
समा कर
स्वयं में
उनके श्वास,
गुज़र जाने
देकर उन्हें
निज देह से,
हो सकी
उत्पन्न
संगीत लहरी,
सुन कर जिसे
झूम उठा
आसमान,
खिल उठी
धरा,
दौड़ी
गोपिकायें
घटित हुआ
महारास
पुलक उठी
दिशाएँ....
हो गया
विस्मृत
पोंगरा सा
शुष्क बांस,
बनकर
मुरलिया
मधुसुदन की......

Monday, August 23, 2010

निगाह ...

# # #
निगाह ने
आगाह किया,
ना माना
मन चंचल,
झूठला दिया
उसने
"आँखों देखा सच
कानो सुना झूठ",
ललचाया
इठलाया
इतराया और
कह दिया :
नहीं मानता
मैं तो
आँख की
कान की
मस्तिष्क की
ह्रदय की,
सब का पता है
तुम्हें
मेरा नहीं
दम है तो
दिखाओ
पकड़ के
मुझ को.....!

Sunday, August 22, 2010

दर्पण...

# # #
दिखा रहा हूँ
दर्पण
एक अरसे से
औरों को,
कहे जा रहा हूँ
पहचान तो लो
कौन हो तुम ?
कैसी है शक्ल
तुम्हारी ?
मिला सको
ताकि
तुम औरों से
सूरत तुम्हारी
जो बिखरे-फैले हैं
आसपास है तुम्हारे...
देखता नहीं मैं
बिम्ब अपना
दर्पण में,
कहते हो ना तुम
"तुम नहीं हो औरों से ..."

Friday, August 20, 2010

निर्लिप्त हुए हो तुम योगी !

#######

निर्लिप्त हुए हो तुम योगी !
या हुआ पलायन है तुम से
आनन्द से अति दूर हुए
रहते हो हर पल गुम गुम से....

अभिलाषाओं का दमन किया
तू ने सदा वृथा प्रवचन दिया
वास्तविकताओं से दूर रहा
आकाँक्षाओं का शमन किया.

कुंठा के बीजों से क्या तुम
उद्यान फलित कर पाओगे
एकांगी सोचों से क्या तुम
अभिष्ठ प्राप्त कर पाओगे ?

साक्षी भाव अपना कर तू
जान स्वयं को सकता था
संसार में ही रह कर भी तू
भवसागर से तर सकता था.

हेय श्रेय के चक्कर में तू
ना जाने क्योंकर भटक गया
चुनने को अपना कर तू
आधे में यूँ ही अटक गया.


खोल चक्षु तू देख जरा
सुन्दर है कितने नभ व् धरा
अस्तित्व समाया कण कण में
प्रभु बसता है मन मन में.

उतार आवरण को जी ले
प्रेम की मदिरा को पी ले
भुला सत्य मिथ्या के भ्रम
फटी चदरिया को सी ले.

मंगल प्रभात बुलाता है
सूरज पलना झुलाता है
चाँद तुम्हारा साथी है
प्रीतम से मिलवाता है.

कर समग्र स्वीकार जियो
आनन्द अंगीकार जियो
जीवन लबा लब है भरा हुआ
अमृतपान करो और खूब जियो

Thursday, August 19, 2010

तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

######

अवरुद्ध ना हो अविरल धारा
ना व्यर्थ बहे अमृत सारा
नेह प्रवाह ना रोक प्रिये !
निशा बावरी मदमाती यह
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

चन्दन सा सौरभमय ये तन
प्रेषित नयन अभिसार निमंत्रण
हृदयन स्पंदन आतुर है
फिर क्यों झूठे संयम का चित्रण,
संतप्त बदन, नैसर्गिक बन
पूरे करलें सब शौक प्रिये !
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

व्याकुल तुझ में मिल जाने को
है रोम रोम खिल जाने को
भ्रमर बना गुन्जार करूं
ना चिंतित मैं मिट जाने को
अब छोड़ अदा, सुन ले यह सदा
संयोग बना दे योग प्रिये !
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

अंतर्मन में बस बसी है तू
मेरे कण कण में रची है तू
तुझ बिन मेरा अस्तित्व नहीं
प्रीतम बिन कोई सतीत्व नहीं
प्रेम है यह, नहीं भोग प्रिये !
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

चाहत का कैसा हुआ यह असर है.


# # #

मेरी मन्नतें अब हुई बेअसर है
ज़माने को इसकी पूरी खबर है .

मुझे देख कर मुस्कुराते नहीं वो
चाहत का कैसा हुआ यह असर है.

कदम से कदम मिलाते नहीं वो
वफ़ा का कठिन ये कैसा सफ़र है.

अक्स देखते रकीब आते जाते
नदी में न उठती कोई लहर है.

खड़ा हूँ मैं कब से खुद को सँवारे
ना जाने किस पे उनकी नज़र है.

पिया के बिना...(आशु कविता)


# # #
पिया के बिना
जिया तो
क्या जिया ?

जल जमना के सिवा
पिया तो
क्या पिया ?

नाम 'श्याम' के इलावा
लिया तो
क्या लिया ?

दिल अपने से जुदा
दिया तो
क्या दिया ?

जिसमें ना हो भला
किसी का
काम ऐसे के सिवा
किया तो
क्या किया ?

फटे दिलों के
लिबास को छोड़
सिया तो
क्या सिया ?

कल ख्वाब में जाने क्या महसूस हुआ था.......


# # # # #

कल ख्वाब में जाने क्या महसूस हुआ था
पहली स़ी मोहब्बत का एहसास हुआ था.

नज़रें थी झुकी उनकी आँखों में हया थी
रंगीं-ओ-हसीन मंज़र मेरे पास हुआ था.

हिले थे होंठ उनके अल्फाज़ निकल ना पाए
पैगामे मोहब्बत का हमें एहसास हुआ था.

दुनिया की हर शै में फैली थी खुशियाँ ही
अदाओं पे उनकी कुरबां हर सांस हुआ था.

छुआ था जो उनको रौं रौं में रवानी थी
हम को ना होने का क़ेयास हुआ था.

Wednesday, August 18, 2010

भक्ति...


# # #
(१)

मौत ही है भक्ति
जिस में
मिट जाता है
बन्दा......
साँसे उसकी
जीना उसका
सोना और उठना उसका
नींद भी उसकी
ख्वाब भी उसके
चलना भी उसका
ठहरना भी,
हर नफस में
वही वही
सब गलत
बस वही है सही...

(२)

भक्ति मीरा ने की
भक्ति सूर ने की
बुल्लेशाह ने लगायी
लौ उस से
रबिया ने मिटाई
हस्ती उसमें
रैदास ने बसाई
बस्ती उसमें
मोहब्बत की
ऊँचाई है भक्ति
जमीं की नहीं
आसमां की ताक़त है
भक्ति....
(३)

भगवान भक्त का
मुरीद बन जाता है
आगे आगे बन्दा
पीछे वो चले जाता है
अरे अनजाने में बन्दा
मालिक बने जाता है
कुछ भी हो मगर
बस नाम परवरदिगार का
लिए जाता है...

भक्ति दिखाती है सब में
नूर उसका
भक्त मुआफ कर सकता है
कुसूर किसी का
पाक हो जाता है
जमजम के आब की तरहा
बहता रहता है बन्दा
गंगा के बहाव की तरहा
देना होता है कठिन
इम्तेहान भक्तों को
भूलना होता है उन्हें
दुनियावी नुक्तों को
भक्त शराब उसके नाम की पीता है
धरती पर वो उसके लिए जीता है,
वही रिंद वही साकी
वही मयखाना है
शम्मा वही
वही तो परवाना है
सच है बस मौला
बाकी सब आना जाना है...

भक्ति में डूबकर इंसान
खुदा को पाता है
इंसानियत की रोशनी से
कायनात को
जगमगाता है
रुक नहीं रही है कलम
भक्ति की बात लिखते
अलविदा यारों
थक ना जाओ तुम
पढ़ते पढ़ते...

Tuesday, August 17, 2010

औझल.......


..
# # #
मन होता है
बौझिल
जब हो जाता
कोई इन
नयनन से
ओझल,
एक सतही सा
एहसास है
महसूस
होता है जो,
तुम्ही बताओ
क्या झूठ है
यह :
जब नहीं होते
साथ तो
क्या 'साथ' नहीं
होते हैं
हम ?????????

कौन सा भाई ?


# # #

(१)
बहना का भाई
जिसकी
कलाई में
बाँध कर
धागा
देकर
गिफ्ट
आश्वस्त हो
जाती है
बहन
भैय्या
मेरा प्यारा भइय्या
हर दुःख में
साथ देगा,
विपदाओं से
रक्षा करेगा,
हाय !
मजबूरी भाई की
देकर लिफाफा एक
पा लेता है
निजात,
इस फ़र्ज़ से,
बहन की भाभी
'प्रिओरिटी' में
आ जाती है,
इक्कीसवी सदी में
हर रिश्ते की
सीमायें
आड़े
आजाती है...

(२)

सलीम भाई
राजू भाई
विक्टर भाई
ऐसा ही कोई भाई
जो नहीं होता
किसी का भाई...
लूट कर
फरेब कर
सता कर
खुद की जेबें भरता है
अपनी दारु और
ऐयाशी का सामान
जुटाने सब कुछ
करता है,
खौफ को
इज्ज़त में
करके तब्दील,
मुल्क
इंसानियत
मोहब्बत
रिश्तों को
भूल,
ताक़त का
खेल खेलता है
हम आप से
कलमकारों की
थोथी कल्पनाओं में
नायक बन
आदर्शवाद के दंड
पेलता है.....

(३)

शब्दों के मायने
बदल जाते हैं
वक़्त के साथ,
एक समय था जब ;
"रघुपति कीन्ही
बहुत बडाई,
तुम मम प्रिय
भारत सम भाई."
कृतज्ञता
अवतारी के मुंह
बोल रही थी
खून के रिश्तों के समान
मैत्री के रिश्तों की
गठरी खोल रही थी...
आज सहोदर भी
पीठ में
कटार भौंकता है,
ऐसा क्या हो गया
एक मित्र दूसरे के
उपकार से चौंकता है..
अविश्वास
स्वार्थपरता की
बातें मनों में
इतनी समायी,
एक निरर्थक सा
शब्द
बन कर
रह गया है
'भाई'.....

Monday, August 16, 2010

बातें महावीर की..

परम वैज्ञानिक धर्म जिन धर्मं
अनेकान्त शांति का मंत्र प्रमुख
स्वसाधना-महाव्रतों जनित शुद्धि से
संभव प्राप्य भगवतता का सुख

कर्मकांड,पाखंड अंधविश्वास
इत्यादि अतियों में जनता जब भरमाई थी
पुरुषार्थ की शिक्षा सक्रिय
वर्धमान महावीर ने फरमाई थी

विवेकपूर्ण जीवन से हम
स्व-कल्याण स्वयं कर सकते हैं
शुद्ध भावना को अपना क़र
संभव विश्व-मैत्री कर सकते हैं.

अपने सद्कर्म, त्याग, तपस्या, स्वाध्याय से
कर्म क्षय कर सकते हैं
विशुद्ध व्यक्तितव का निर्माण करें तो
स्वयं भगवान हम बन सकते हैं.

ऊँच नीच, वृहत-लघु, नर-नारी भेद मिटाए थे
आध्यात्म उच्चता हेतु समान अवसर सुझाये थे
सूक्ष्म जीव को कर परिभाषित
“जीवो और जीने दो” के उदघोष जगाये थे.

शादमां ...


# # #
'शादमान' को
देखा
जर्सी सिटी की
ग्रोव स्ट्रीट पर,
लगा है
एक बोर्ड
दरवाज़े पर :
'पाकिस्तानी'
'इंडियन'
फ़ूड,
फैली हुई थी
मिली जुली
खुशबू
उस मसालों की
उन खानों की
जो उतने ही
हिन्दुस्तानी है
जितने कि
पाकिस्तानी,
बात बात में
यही जुमला
दोनों ही देशों से
आये 'देसियों' के
मुंह से निकलता है :
'हमारे' यहाँ
ऐसे होता है,
ना कि 'तुम्हारे' यहाँ
या
''मेरे यहाँ ,
महसूस होता है
बिन बोला
'अपनापन',
शादमां हूँ मैं,
सात समंदर पार
दोनों का साँझा
गुलशन खिलते देख,
क्योंकि वही तो
सांझी हकीक़त है
इस पार और
उस पार के
लोगों की,
एक ही तो है
हमारे स्वाद,
हमारे भाव,
हमारे आंसू ,
हमारी खुशियाँ,
हमारे लहजे
हमारी गालियाँ..

(शादमान एक मोडरेट सा पाकिस्तानी रेस्टोरेंट है...जहां 'हमारा' सा 'देसी' खाना मिलता है.)

Saturday, August 14, 2010

परीक्षा.....(आशु रचना )


# # #
प्रतीक्षा
अपेक्षा
समीक्षा
परिभाषा
परीक्षा से
उकता गया हूँ
प्रिये ,
आओ ना
कुछ पल जी लें
बिना इनके !

नक्षत्र भी है तू ही...


# # #
मेरा कातिल
मेरा मुंसिफ है
तू ही,
सबब मेरी बर्बादी के
मेरे हर नफस में
हाज़िर है
तू ही.....

हक है तू
हकूमत है
तू ही,
मेरी इबादत
मेरी फ़रियाद है
तू ही...

अज़ब रिश्ता है
यह मेरा और तेरा
नफरत भी तू
मोहब्बत भी है
तू ही......
मेरी ज़िन्दगी में
समाया है
इस कदर तू
मेरी रोशनी भी है तू
ज़ुल्मत भी है
तू ही...

अधूरा हूँ मैं
बिन तेरे
मेरी गुरवत तू
सरमाया है तू ही,
जुदा भी है
तू मुझ से
हमसाया भी है
तू ही....

मेरा आसमां है तू
मेरी जमीं है
तू ही
मेरा रकीब
मेरा हमनशीं है
तू ही....

नजूमी नहीं मैं
माप लूँ
चाल सितारों की,
मेरी कुंडली है तू
नक्षत्र भी है
तू ही...

मैं हूँ "मैं"
और तू है "तू "
जब तक,
जंजाल
बदगुमानी का
कायम है
तब तक,
भटका हूँ मैं
राह अपनी,
मिले कोई रहबर
पहुंचाए मुझे
घर तक.....


Friday, August 13, 2010

अवलंबन...


# # #
नन्हा बालक,
लड़खड़ाते
कदम
टेढ़े मेढ़े,
लेकर
अवलंबन
सीखता है
चलना
और
चलता रहता है
निरंतर
जीवन भर,
स्वभाविक
स्वतंत्र,
सम्बल
स्वयं का
पाकर...

अवलंबन
समस्त
होते हैं
समर्थन
मात्र
प्रारम्भिक,
निर्भर रहते
अनवरत
जिन पर
आलसी
अपाहिज
निर्बल और
कायर....

Thursday, August 12, 2010

मंथर...(आशु कविता)

#######
कोई
उभरा था
क्षितिज से,
वर्ण था
ताम्र सा,
खनक थी
पायल में,
स्वर था
मंथर सा...

होठों पे
बोल
मधुरिम,
संगीत था
पवन में,
छन्द थे
चपल से,
आनन्द था
गगन में...

मुग्ध था
अन्तरंग,
व्याप्त
स्पंदन
पिपासु तन में ,
चक्षु खुले थे
मेरे,
पर था मैं
कोई
स्वप्न में.....

रीछ .....(आशु रचना)


# # #
मदारी बना
समाज
नचाता है
व्यक्ति को
बना कर
रीछ...
बजा कर
थोथे
रस्मों
रिवाजों और
नियमों की
डुगडुगी.....
बनाये गए थे जो
किसी समय
विशेष पर
हेतु सुचारू
व्यवस्था.....
नहीं बदला गया
जिन्हें
बदली जब जब
अवस्था,
लकीर के
फ़कीर बन
थोपते हैं
अंध रूढ़ियाँ,
घुटन और
विद्रोह को
देते हैं न्योता
कस कर
झूठी बेड़ियाँ...

रोशनी और अँधेरा ..... (आशु रचना)


# # #
आते ही तेरे
समा जाता हूँ
तुझ में
ऐ रोशनी !
लोगों का
होता है
गुमां क्यूँ
क़ि अँधेरा
मिट गया ...

Wednesday, August 11, 2010

दाता...

# # #
देनेवाला
लेनेवाले की
काबिलियत का
फ़िक्र नहीं करता,
देता रहता है
हर दम,
अफ़सोस
नहीं करता,
देने में होती है
ख़ुशी उसको
इतनी,
मेरा दाता कभी
सहूलियत
खुद की को
महसूस
नहीं करता......

Tuesday, August 10, 2010

मंत्र मुग्ध...

# # #
हो जाना
मंत्रमुग्ध
अभाव है
चैतन्य का,
हो जाए
यदि
विस्तार
इस बेहोशी स़ी
मुग्धता का....

अचेतनता
होती है
एक ओढी
हुई सी
शांति
जिसका
चीर हरण
करने
कायम हैं
दुशासन
विकार
अवस्थित
हम खुद में...

देखा तुमको,
मुग्ध हुआ
मैं,,,,,,,
दग्ध हुआ
तन,
मन
किन्तु
जुड़ के
मन से
तुम्हारे
अभिशांत हुआ
परितृप्त हुआ,
होश ने ली
अंगडाई
तुम से मिली
उर्जा ने
दे दी गति
कदमों को मेरे...

यह देना
यह पाना
करता है
द्विगुणित
ऊर्जाओं को
ले आता है
करीब
हम को
स्वयं
हम से,
उठता है
स्वतः
कदम
जागरूकता की
दिशा में,
जहां होतें हैं
मुग्ध हम
स्वयं
स्वयं पर

Saturday, August 7, 2010

तपिश...

# # #
चाहत
तपिश की थी
या के
ठंडक की
चली आई थी
बेताब वो
महबूब की
प्यासी
बाहों में,
लगा था
मेला
ख्वाहिशों का,
मोहब्बत की
हसीं
राहों में...
सुरूर था के
दीवानगी
छलके
जा रहा था
निगाहों में,
प्यार था के
फल रहा था
आसमाँ की
पनाहों में...

Friday, August 6, 2010

चन्द अशआर यूँ ही .....

# # #
(१)

जिन्दा रखने इस जिस्म को चन्द सांस होते हैं,
रूह को कायम रखने को बस एहसास होते हैं,
चाहत को राहत नसीब, मुश्किल है ऐ दोस्त !
बेचैनियों के मंजर तो हमारे आसपास होते हैं..

(२)

यारों इंतज़ार हमारा उनका सरमाया है
जेहन अपना तो ना जाने क्यूँ भरमाया है,
यादें तो आती है जो होते दूर हैं हम से,
जब भी सोचा उनको अपने पास पाया है.

(३)

आहट किसी की पे थम से जाते हैं वो,
अचानक ना जाने क्यूँ सहम जाते हैं वो,
सहूलियत उनकी जब होती है मुबारिक,
खुद ब खुद महफ़िल में ज़म से जाते हैं वो.

(४)

शिकवे करना किसी से कितना आसान होता है,
सुना है ये इजहारे मोहब्बत का सामान होता है,
सुनते रहो यारों उनके बयान-ए-जुदाई को
यही तो हुस्न का इश्क पे एहसान होता है.

कोमल कोमल...

# # #
हंस के पंख सी
छुअन
कोमल कोमल,
जगा गई थी
तमन्नाएँ
रौं रौं में,
फिजा रंगीं रंगीं थी
माहौल था
मस्त मस्त,
मौका भी था
दस्तूर भी,
लग गया था
गले वो
कोमल कोमल,
भर के मुझे
बाँहों में अपनी,
रोशनी भी थी
कोमल कोमल,
खुशबू ही खुशबू थी
हर सूं,
संगीत था
मधुरिम मधुरिम,
थिरक रहे थे
कदम
सधे सधे से,
नशा था
सुरूर था,
होश भी था
कायम कायम,
थकन ने
दे डाला था
लुत्फ
नायाब नायाब सा,
रात ढले जा रही थी,
जिस्म पिघल रहे थे,
रूह मिल रही थी
रूह से...
सब कुछ हुए
जा रहा था
कोमल कोमल,
आँख खुली थी
और
दे गया था ख्वाब
चन्द एहसास
कोमल कोमल...

एक सोच..(गोपनीयता और निजता)

# # #
अनिवार्य बीज को
तिमिर और गोपन
धरा गर्भ में,
वांछित हैं
सघन अंतरंगता
गहन एवं निकटतम
सम्बन्ध में..

प्रेमी द्वय
होते हैं स्पंदित
संग एक दूजे के
जैसे अभिन्न प्रकार,
पिघल पिघल
विलय हो जाते
होने एकाकार....

संभव किन्तु होता
तब ऐसा
ना हो जब
कोई दर्शक
और
पर्यवेक्षक जैसा...

हेतु पल्लवन
प्रेम संबंधों के
अत्यावश्यक है
गोपनीयता
एवं
निजता,
अंतर का यह योग
मात्र अंतरंगता में
फलता....

नहीं रहना
वांछित किन्तु
साथ अनवरत
अन्धकार का,
बीज भी करता वरण
मृत्यु का
यदि नहीं पाता
प्रकाश सूर्य का....

हेतु अंकुरण ,
सामर्थ्य जुटाने,
पुनः जन्मने,
'होना'होता उसको
गहन अन्धकार में,
हाँ आ जाता है
बन कर सक्षम
फिर तले आकाश
खुले बाहर में....
करने हेतु
सामना
कायनात का,
प्रकाश,
तूफान और
बरसात का....

मित्र !
उठा पाता वह
इस बीड़े को,
यदि पकड़ी हो
जड़ें
गहरी उसने
अंधकार में,
निजत्व,
गोपन,
स्वीकार समग्र में...

Wednesday, August 4, 2010

नया जन्म ...

नया जन्म...
# # #

ज़िन्दगी
चलती नहीं
एक ढर्रे पर
आता रहता है
बदलाव
जर्रे जर्रे पर...

सोचो जरा
क्या थे
क्या हो गए हैं हम,
स्वयं के
विकास का
आज भी
जारी है क्रम...

असीम अनुकम्पा
अस्तित्व की,
खुद को
जानने लगे हैं
हम,
अपने अन्तरंग को
लगे
पहचानने हैं
हम...

'पहचान'
अस्तित्व का
पर्याय नहीं है ,
अस्तित्व से
अलग हों हम
यह कोई
उपाय नहीं है .....

एक नन्हे से
हिस्से हैं
हम विराट के,
है बस यही
अस्तित्व हमारा,
सोचो
हो सकता है
यह कैसे
समग्र
कृतृत्व हमारा....

स्व-पहचान के
पश्चात भी
देखा करते हैं
खुद को
होकर जुडित
औरों से,
पार होने की
लिए तमन्ना
अफ़सोस !
रुके रहते हैं
हम
छोरों पे...

अंतर की
बातों का
जवाब
बाहर
नहीं मिलता,
मरुभूमि में
साथी !
गुलशन
कभी नहीं
खिलता....

निज को ही
देना है
लेना भी है
स्वयं को,
छोटी है
दुनियावी बाते
रखना है
लक्षित
बस
परम को .....

हुआ है
नया जन्म
मना लो
उत्सव इसका,
रस्मो रवाज कायदे,
जानो
होते हैं
बर्चस्व किसका...?

Tuesday, August 3, 2010

स्वयं एवं अहम् (Self And Ego)-आशु रचना


# # #
'स्वयं' तो
जीवन है,
मौत है अहम्,
जीवन है
सुकोमल
मृत्यु
कठोर...कठोरतम...

जन्म पर
होता तन
कोमल एवं नम्र,
मृत्यु पर
तना तना और
समान बज्र...

जीवित वृक्ष
कोमल और
स्निग्ध,
पाकर मृत्यु
हो जाता
शुष्क और
ठूंठ...

काटा जाता
तरु कठोर,
नहीं पाता
अहम्
कहीं ठौर...

पहचान
स्वयं की
करे
अहम्
तिरोहित,
प्रभु मिल जाते
बिना
पुरोहित...

आश्रित.

# # #

मैने किया
सर्वस्व अर्पित,
समझा तू ने
आश्रित,
ना समझा तू
बात ह्रदय की,
कर दिया
सब कुछ
विस्मृत...

परिभाषाओं के
इस अंतर ने,
कैसा खेल
रचाया,
भ्रम के परदे ने
अपने को
बना दिया
पराया...