Saturday, February 27, 2010

होली.......

(होली के स्नेहिल पर्व पर सभी मित्रों को रंगारंग शुभकामनायें )
# # #
धधक रही
होली
मुल्क में,
रंग हुए
बदरंग,
कौन
धमाल की
टेर लगावे,
किसके
हृदय उमंग ?

ढफ टंग गए
चौपालों में,
कोने पड़े
मृदंग;
मर्यादा को
लील रहा है,
अब खाली
हुड़दंग.

दिल
खोल कर
गले मिलें
हम,
बहे प्रेम
प्रति अंग,
खाएं खिलाएं
हंसें गायें
हम,
मिलजुल
सारे संग.....

एक चिंतन : एक प्रार्थना

# # #
प्रभु बनूँ
मैं तुल्य
कमल के,
चेतन यह
उत्पन्न हो
मुझमें,
फलीभूत
पंकज
कीचड़ में,
रहता नहीं
लिप्त है
उसमें,
रखूं पदार्थ
स्वर्ण धनादि
हेतु
जीवन निर्वाह,
नहीं बनू मैं
दास
पदार्थ का
करूँ ना
उसकी पर्वाह,
भोगुं
किन्तु
ना बनू
भोगमय,
साक्षी हो कर
रहूँ
संयमित
और
निरामय....

(जैन परंपरा के एक आख्यान पर आधारित यह रचना.मूल प्राकृत श्लोक : जहां पोमं जाले जायं नोवलिप्पयी वारिणा, एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं---राजा परदेशी का आख्यान)

छोटे छोटे एहसास....

उदासियाँ.....

# # #

घेर लेती है
उदासियाँ
किसी के
ना होने के
एहसास से
यह क्या हुआ
मुझको
पहले तो ऐसा
नहीं था.....
______________

खिलौना
# # #

पा लेना
किसीको
खुद को
खोना है,
तस्सवुर
उनका
भुलाने को
खिलौना है........
______________

तरंग....

# # #
फाल्गुनी
भंग,
तेरा मेरा
संग,
अंग
अंग
तरंग,
मानो
बाजे
जलतरंग....
___________________

नज़रें दूसरों की

छीन लाते हैं
ज़माने से
चन्द लम्हे
खुद के
खातिर,
देख
नज़रें
दूसरों की
कब तक
जीयें ?
_______________
hawa aur
jamin kee
baat ko
Kya janun yaaron !
udta hun to
lagta hai
chal raha hun main....
aur
chalte hue
kadam
uda le
jate hain.....

________________

उजड़े चमन में....

यह कैसा
मंज़र है
यारों !
अमन में
तूफाँ है,
तूफाँ है
अमन में,
कैसे खिल गए
ये फूल
इस उजड़े
चमन में......



Wednesday, February 24, 2010

ज्ञान 'स्व' का....

# # #
हो जाता
नहीं
ज्ञान
जब तक
'स्व' का,
अभिव्यक्ति
स्वयम की
बन जाती है
हठधर्मिता
समाये निज में
आक्रामकता
एवम
द्वन्द
अभीप्सा के....

Sunday, February 21, 2010

बारिश.......

$ $ $
कुदरत के
करिश्मों की
बातें
अकूत
फलक से
ललाट पर
बादलों की
भभूत.........

जोगी सागर ने
धूनी
रमायी थी
खुद को
जलाकर
बारिश
बनायीं थी.....

तरसी थी
धरती
बरसा था
गगन
बुझी थी
यूँ
विरहन की
अगन.......

(आशु प्रस्तुति)

तरंग....

# # #
फाल्गुनी
भंग,
तेरा मेरा
संग,
अंग
अंग
तरंग,
मानो
बाजे
जलतरंग....

पदचाप ( दिन-रात : तृतीय प्रस्तुति )

# # #
तिमिर तरु है
तारे जिस पर
फल जैसे है
है लागे,
सुन
पदचाप
मावस मालन की
चाँद चौरवा
भागे.......

Saturday, February 20, 2010

मेवाड़ की रानी पद्मिनी : एक शौर्य गाथा

वीर वीरांगनाओं की धरती राजपूताना.....जहाँ के इतिहास में आन बान शान या कहें कि सत्य पर बलिदान होने वालों की अनेक गाथाएं अंकित है.....एक कवि ने राजस्थान के वीरों के लिए कहा है :
"पूत जण्या जामण इस्या मरण जठे असकेल
सूँघा सिर, मूंघा करया पण सतियाँ नारेल......"
{ वहां ऐसे पुत्रों को माताओं ने जन्म दिया था जिनका उदेश्य के लिए म़र जाना खेल जैसा था .....जहाँ की सतियों अर्थात वीर बालाओं ने सिरों को सस्ता और नारियलों को महंगा कर दिया था......(यह रानी पद्मिनी के जौहर को इंगित करता है)......}

आज दिल कर रहा है मेवाड़ की महारानी पद्मिनी की गाथा आप सब से शेयर करने का.....

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१३०२ इश्वी में मेवाड़ के राजसिंहासन पर रावल रतन सिंह आरूढ़ हुए. उनकी रानियों में एक थी पद्मिनी जो श्री लंका के राजवंश की राजकुँवरी थी. रानी पद्मिनी का अनिन्द्य सौन्दर्य यायावर गायकों (चारण/भाट/कवियों) के गीतों का विषय बन गया था. दिल्ली के तात्कालिक सुल्तान अल्ला-उ-द्दीन खिलज़ी ने पद्मिनी के अप्रतिम सौन्दर्य का वर्णन सुना और वह पिपासु हो गया उस सुंदरी को अपने हरम में शामिल करने के लिए. अल्ला-उ-द्दीन ने चित्तौड़ (मेवाड़ की राजधानी) की ओर कूच किया अपनी अत्याधुनिक हथियारों से लेश सेना के साथ. मकसद था चित्तौड़ पर चढ़ाई कर उसे जीतना और रानी पद्मिनी को हासिल करना. ज़ालिम सुलतान बढा जा रहा था, चित्तौड़गढ़ के नज़दीक आये जा रहा था. उसने चित्तौड़गढ़ में अपने दूत को इस पैगाम के साथ भेजा कि अगर उसको रानी पद्मिनी को सुपुर्द कर दिया जाये तो वह मेवाड़ पर आक्रमण नहीं करेगा. रणबाँकुरे राजपूतों के लिए यह सन्देश बहुत शर्मनाक था. उनकी बहादुरी कितनी ही उच्चस्तरीय क्यों ना हो, उनके हौसले कितने ही बुलंद क्यों ना हो, सुलतान की फौजी ताक़त उनसे कहीं ज्यादा थी. रणथम्भोर के किले को सुलतान हाल ही में. ने फतह कर लिया था ऐसे में बहुत ही गहरे सोच का विषय हो गया था सुल्तान का यह घृणित प्रस्ताव, जो सुल्तान की कामुकता और दुष्टता का प्रतीक था. कैसे मानी ज सकती थी यह
शर्मनाक शर्त.
नारी के प्रति एक कामुक नराधम का यह रवैय्या क्षत्रियों के खून खौला देने के लिए काफी था. रतन सिंह जी ने सभी सरदारों से मंत्रणा की, कैसे सामना किया जाय इस नीच लुटेरे का जो बादशाह के जामे में लिपटा हुआ था. कोई आसान रास्ता नहीं सूझ रहा था. मरने मारने का विकल्प तो अंतिम था. क्यों ना कोई चतुराईपूर्ण राजनीतिक कूटनीतिक समाधान समस्या का निकाला जाय ?
रानी पद्मिनी न केवल अनुपम सौन्दर्य की स्वामिनी थी, वह एक बुद्धिमता नारी भी थी. उसने अपने विवेक से स्थिति पर गौर किया और एक संभावित हल समस्या का सुझाया. अल्ला-उ-द्दीन को जवाब भेजा गया कि वह अकेला निरस्त्र गढ़ (किले) में प्रवेश कर सकता है, बिना किसी को साथ लिए, राजपूतों का वचन है कि उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया जायेगा....हाँ वह केवल रानी पद्मिनी को देख सकता है..बस. उसके पश्चात् उसे चले जाना होगा चित्तौड़ को छोड़ कर.... जहाँ कहीं भी. उम्मीद कम थी कि इस प्रस्ताव को सुल्तान मानेगा. किन्तु आश्चर्य हुआ जब दिल्ली के आका ने इस बात को मान लिया. निश्चित दिन को अल्ला-उ-द्दीन पूर्व के चढ़ाईदार मार्ग से किले के मुख्य दरवाज़े तक चढ़ा, और उसके बाद पूर्व दिशा में स्थित सूरजपोल तक पहुंचा. अपने वादे के मुताबिक वह नितान्त अकेला और निरस्त्र था. पद्मिनी के पति रावल रतन सिंह ने महल तक उसकी अगवानी की.
महल के उपरी मंजिल पर स्थित एक कक्ष कि पिछली दीवार पर एक दर्पण लगाया गया, जिसके ठीक सामने एक दूसरे कक्ष की खिड़की खुल रही थी...उस खिड़की के पीछे झील में स्थित एक मंडपनुमा महल था जिसे रानी अपने ग्रीष्म विश्राम के लिए उपयोग करती थी. रानी मंडपनुमा महल में थी जिसका बिम्ब खिडकियों से होकर उस दर्पण में पड़ रहा था अल्लाउद्दीन को कहा गया कि दर्पण में झांके. हक्केबक्के सुलतान ने आईने की जानिब अपनी नज़र की और उसमें रानी का अक्स उसे दिख गया ...तकनीकी तौर पर.उसे रानी साहिबा को दिखा दिया गया था....सुल्तान को एहसास हो गया कि उसके साथ चालबाजी की गयी है, ...किन्तु बोल भी नहीं पा रहा था, मेवाड़ नरेश ने रानी के दर्शन कराने का अपना वादा जो पूरा किया था......और उस पर वह नितान्त अकेला और निरस्त्र भी था. परिस्थितियां असमान्य थी, किन्तु एक राजपूत मेजबान की गरिमा को अपनाते हुए,दुश्मन अल्लाउद्दीन को ससम्मान वापस पहुँचाने मुख्य द्वार तक स्वयं रावल रतन सिंह जी गये थे .....अल्लाउद्दीन ने तो पहले से ही धोखे की योजना बना रखी थी .उसके सिपाही दरवाज़े के बाहर छिपे हुए थे....दरवाज़ा खुला.......रावल साहब को जकड लिया गया और उन्हें पकड़ कर शत्रु सेना के खेमे में कैद कर दिया गया.
रावल रतन सिंह दुश्मन की कैद में थे. अल्लाउद्दीन ने फिर से पैगाम भेजा गढ़ में कि राणाजी को वापस गढ़ में सुपुर्द कर दिया जायेगा, अगर रानी पद्मिनी को उसे सौंप दिया जाय. चतुर रानी ने काकोसा गोरा और उनके १२ वर्षीय भतीजे बादल से मशविरा किया और एक चातुर्यपूर्ण योजना राणाजी को मुक्त करने के लिए तैयार की.
अल्लाउद्दीन को सन्देश भेजा गया कि अगले दिन सुबह रानी पद्मिनी उसकी खिदमत में हाज़िर हो जाएगी, दिल्ली में चूँकि उसकी देखभाल के लिए उसकी खास दसियों की ज़रुरत भी होगी, उन्हें भी वह अपने साथ लिवा लाएगी. प्रमुदित अल्लाउद्दीन सारी रात्रि सो न सका...कब रानी पद्मिनी आये उसके हुज़ूर में, कब वह विजेता की तरह उसे भी जीते.....कल्पना करता रहा रात भर पद्मिनी के सुन्दर तन की....प्रभात बेला में उसने देखा कि एक जुलुस सा सात सौ बंद पालकियों का चला आ रहा है. खिलज़ी अपनी जीत पर इतरा रहा था. खिलज़ी ने सोचा था कि ज्योंही पद्मिनी उसकी गिरफ्त में आ जाएगी, रावल रतन सिंह का वध कर दिया जायेगा...और चित्तौड़ पर हमला कर उस पर कब्ज़ा कर लिया जायेगा. कुटिल हमलावर इस से ज्यादा सोच भी क्या सकता था.
खिलज़ी के खेमे में इस अनूठे जुलूस ने प्रवेश किया......और तुरंत अस्तव्यस्तता का माहौल बन गया...पालकियों से नहीं उतरी थी अनिन्द्य सुंदरी रानी पद्मिनी और उसकी दासियों का झुण्ड......बल्कि पालकियों से कूद पड़े थे हथियारों से लेश रणबांकुरे राजपूत योद्धा ....जो अपनी जान पर खेल कर अपने राजा को छुड़ा लेने का ज़ज्बा लिए हुए थे. गोरा और बादल भी इन में सम्मिलित थे. मुसलमानों ने तुरत अपने सुल्तान को सुरक्षा घेरे में लिया. रतन सिंह जी को उनके आदमियों ने खोज निकाला और सुरक्षा के साथ किले में वापस ले गये. घमासान युद्ध हुआ, जहाँ दया करुणा को कोई स्थान नहीं था. मेवाड़ी और मुसलमान दोनों ही रण-खेत रहे. मैदान इंसानी लाल खून से सुर्ख हो गया था. शहीदों में गोरा और बादल भी थे, जिन्होंने मेवाड़ के भगवा ध्वज की रक्षा के लिए अपनी आहुति दे दी थी.
अल्लाउद्दीन की खूब मिटटी पलीद हुई. खिसियाता, क्रोध में आग बबूला होता हुआ, लौमड़ी सा चालाक और कुटिल सुल्तान दिल्ली को लौट गया.
उसे चैन कहाँ था, जुगुप्सा का दावानल उसे लगातार जलाए जा रहा था. एक औरत ने उस अधिपति को अपने चातुर्य और शौर्य से मुंह के बल पटक गिराया था. उसका पुरुष चित्त उसे कैसे स्वीकार का सकता था....उसके अहंकार को करारी चोट लगी थी....मेवाड़ का राज्य उसकी आँख की किरकिरी बन गया था. कुछ महीनों के बाद वह फिर चढ़ बैठा था चित्तौडगढ़ पर, ज्यादा फौज और तैय्यारी के साथ. उसने चित्तौड़गढ़ के पास मैदान में अपना खेमा डाला. किले को घेर लिया गया......किसी का भी बाहर निकलना सम्भव नहीं था...दुश्मन कि फौज के सामने मेवाड़ के सिपाहियों की तादाद और ताक़त बहुत कम थी. थोड़े बहुत आक्रमण शत्रु सेना पर बहादुर राजपूत कर पाते थे लेकिन उनको कहा जा सकता था ऊंट के मुंह में जीरा. सुल्तान की फौजें वहां अपना पड़ाव डाले बैठी थी, इंतज़ार में. छः महीने बीत गये, किले में संगृहीत रसद ख़त्म होने को आई. अब एक ही चारा बचा था, "करो या मरो." या "घुटने टेको." आत्मसमर्पण या शत्रु के सामने घुटने टेक देना बहादुर राजपूतों के गौरव लिए अभिशाप तुल्य था,.........ऐसे में बस एक ही विकल्प बचा था झूझना.....युद्ध करना.....शत्रु का यथासंभव संहार करते हुए वीरगति को पाना.

बहुत बड़ी विडंबना थी कि शत्रु के कोई नैतिक मूल्य नहीं थे. वे न केवल पुरुषों को मारते काटते, नारियों से बलात्कार करते और उन्हें भी मार डालते. यही चिंता समायी थी धर्म परायण शिशोदिया वंश के राजपूतों में. .......और मेवाड़ियों ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया.....किले के बीच स्थित मैदान में लकड़ियों, नारियलों एवम् अन्य इंधनों का ढेर लगाया गया.....सारी स्त्रियों ने, रानी से दासी तक, अपने बच्चों के साथ गोमुख कुन्ड में विधिवत पवित्र स्नान किया....सजी हुई चित्ता को घी, तेल और धूप से सींचा गया....और पलीता लगाया गया. चित्ता से उठती लपटें आकाश को छू रही थी......नारियां अपने श्रेष्ठतम वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित थी.....अपने पुरुषों को अश्रुपूरित विदाई दे रही थी....अंत्येष्टि के शोकगीत गाये जा रही थी. अफीम अथवा ऐसे ही किसी अन्य शामक औषधियों के प्रभाव से प्रशांत हुई, महिलाओं ने रानी पद्मावती के नेतृत्व में चित्ता कि ओर प्रस्थान किया.....और कूद पड़ी धधकती चित्ता में....अपने आत्मदाह के लिए....जौहर के लिए....देशभक्ति और गौरव के उस महान यज्ञ में अपनी पवित्र आहुति देने के लिए. जय एकलिंग, हर हर महादेव के उदघोषों से गगन गुंजरित हो उठा था. आत्माओं का परमात्मा से विलय हो रहा था.
अगस्त २५, १३०३ कि भोर थी, आत्मसंयमी दुखसुख को समान रूप से स्वीकार करनेवाला भाव लिए, पुरुष खड़े थे उस हवन कुन्ड के निकट, कोमलता से भगवद गीता के श्लोकों का कोमल स्वर में पाठ करते हुए.....अपनी अंतिम श्रद्धा अर्पित करते हुए.... प्रतीक्षा में कि वह विशाल अग्नि उपशांत हो. पौ फट गयी.....सूरज कि लालिमा ताम्रवर्ण लिए आकाश में आच्छादित हुई.....पुरुषों ने केसरिया बागे पहन लिए....अपने अपने भाल पर जौहर की पवित्र भभूत से टीका किया....मुंह में प्रत्येक ने तुलसी का पता रखा....दुर्ग के द्वार खोल दिए गये. जय एकलिंग....हर हर महादेव कि हुंकार लगते रणबांकुरे मेवाड़ी टूट पड़े शत्रु सेना पर......मरने मारने का ज़ज्बा था....आखरी दम तक अपनी तलवारों को शत्रु का रक्त पिलाया...और स्वयं लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये. अल्लाउद्दीन खिलज़ी की जीत उसकी हार थी, क्योंकि उसे रानी पद्मिनी का शरीर हासिल नहीं हुआ, मेवाड़ कि पगड़ी उसके कदमों में नहीं गिरी. चातुर्य और सौन्दर्य की स्वामिनी रानी पद्मिनी ने उसे एक बार और छल लिया था.

Friday, February 19, 2010

बसंत.....

* * *
हुआ है
घटित
अरण्य के
प्रांगण में
महोत्सव...

कर रही है
नृत्य
चहुँ ओर
सुगंधमय
सुमधुर
पवन...

गा रहे हैं
पंछी
मधुर रागिनियाँ
प्रेम उमंग की.....

नाच रही है
सूरज की
सोनल किरणें....
पीपल पे
झूल रही है
ताम्रवर्ण
कोंपलें....

गुन्जार
कर रहे हैं
खिलती कलियों के
कानों में
तरसते
मतवाले
भंवरे....

भर रहे हैं
उड़ान
हरियल तोते
चोंचों में लिए
माणिक
अनार दानों के.....

चौकड़ियाँ
भर रहे हैं
चंचल
हरिन-हरिनियाँ
दबाये
मुंह में
हरी दूर्वा को.....

मांड रहा है
रंगीला चैत्र
वन-उपवन की
हथेलियों में
सुरंगी
मेहंदी.........

रुपहली रातों में
छेड़ें है
किसी ने
बांसुरी पर
गीत
प्रीत के.......

सुन सुन
बिलख रही है
धरा.......

आहें
भर रहा है
नील निरभ्र
गगन....

आंधी......

# # #
मत जला
फजूल में
तीलियाँ
माचिस की
यह आंधी
निगौड़ी
सखी
अँधेरे की
जलाने
नहीं देगी
दिया
एक नन्हा सा,
मिल जाये
इसको
महज़
एक शरारा
बदल देगी उसे
बस चन्द
लम्हात में
आग की
डरावनी
लपटों में,
हर शै
दहशतगर्दी की
शुमार है
फ़ित्रत में
इसके
होने नहीं देगी
बदजात :
अमन
सुकून और
तखलीक*.....

*तखलीक=सृजन

Wednesday, February 17, 2010

मुल्ला नसरुद्दीन का 'उल्टा' सफ़र........

मेरे यार मुल्ला नसरुद्दीन को बहुत सुकून मिलता है अपनी गलतफहमियों को जीने में. उनसे छूटने का कोई ज़ज्बा नहीं रखते. उनके पास उनकी हर बात का जस्टिफिकेशन रहता है. जब भी मैं कहूँगा, "अमां यार मुल्ला, कुछ ऐसा भी तो कर सकते थे." मुल्ला कहेगा,"तुम पढेलिखे लोग एकदम थ्योरिटिकल होते हो. तुम क्या जानो ज़िन्दगी की असलियत को. हम ग्रासरूट वाले जानते हैं कि ज़िन्दगी की हकीक़तें क्या होती है." कोई ऐसा दोस्त जिसकी स्कूली तालीम की अपनी सीमायें होती है, और अगर वो टोके मुल्ला को तो कहेंगे, "माना कि हम भी तुम्हारी तरहा बहुत तालीम नहीं हासिल कर पाए मगर मासटर के साथ रहते रहते हमें चीजों को संजीदगी से सोचना आ गया है,अमां ऐसे हालात में ऐसा ही करना 'बेस्ट' था." जुबान है बिना हड्डी की, जब चाहे मुल्ला--- जैसा उसे 'सुइट' करे कहे ड़ालता हैं.
अब उस दिन की ही बात लीजिये. मुल्ला कहीं से लौट रहा था ट्रेन से. सन्डे का दिन था, हम को खबर की थी कि मासटर आज तो तेरे पास करने धरने को कुछ नहीं है, सुबह सुबह अखबार-रिसाले कुछ कम चाट लेना, हम को लिवा लाने स्टेशन ज़रूर चले आना. तो साहिबान हम पहुँच गए थे स्टेशन. मुल्ला उतरा था ट्रेन से. चक्कर खाता हुआ सा लग रहा था. पूछ लिया था हम ने, "मुल्ला थोड़े बीमार से लगते हो." नसरुद्दीन ने कहा, "मासटर तुम तो जानते ही हो, जब भी ट्रेन में सवार होता हूँ और कभी कभार मुझे उल्टा सफ़र करना होता है याने जिस तरफ ट्रेन जा रही हो उस तरफ मुझे पीठ रखना पड़ती है---तो मुझे सर दर्द, चक्कर और उलटी सी होने लगती है.बैचैन हो जाता हूँ मासटर-बहुत परेशान.'
"भले इंसान सामने बैठे आदमी से पूछ लिया होता कि भई मैं जरा तकलीफ में हूँ, जगह बदल लें." मैने अपनी मास्टरी दिखाई थी याने आदतन अपना 'ज्ञान' दे दिया था.
नसरुद्दीन ने कहा, "मासटर क्या समझते हो खुद को ? हम ने भी ऐसा ही सोचा था, मगर क्या करते हम--मजबूर थे---सामने की सीट खाली जो थी--वहां कोई भी नहीं था, किस से पूछते ?"
मैने मुल्ला से कहा-- "चलो सन्डे की सुबह है-फुर्सत में हूँ, मेरे फ्लैट पर चलो, मुझे चाय नाश्ते पर तुम्हारी कंपनी मिल जाएगी." (कैसे कहता तुम्हारी तवियत बहल जाएगी.)

Tuesday, February 16, 2010

आगोश....

# # #
हो गए थे
हमसफ़र
अनगिनत तारे
बताने राह
रात बेचारी को,
सोचें थी
जुदा जुदा
सबकी
मंजिल-ए-मक़सूद के
मुतअल्लिक,
छूट भागे थे
खुदपरस्त
हमसफ़र सारे
बाद वक़्त गुज़ारी के
देखा किया था जब
सूरज को
ज़ल्वा हुए,
और.... दर्द के
बिस्तर पर
सो गया था
बेसुध सा कोई,
मिल जाये
आगोश
सिर को
किसी का
ज़रूरी तो नहीं.....

[मंजिल-ए-मक़सूद=अंतिम उद्देश्य/goal, मुतअल्लिक=सम्बन्ध में/बारे में, ज़ल्वा=उदय, आगोश=गोद /Lap -यहाँ आगोश लफ्ज़ को आलिंगन (embrace) के रूप में नहीं इस्तेमाल किया गया है.]

Monday, February 15, 2010

अस्तव्यस्त

# # #
मत जला
दीया
भरी दोपहर में
पगली .....!
प्रेम भी
थक जायेगा
सांझ ढलने से
पहले......
जानता हूँ
कर रखा है
अस्तव्यस्त
तुमको भी
विरह वेदना ने
किन्तु
तुम और
यह दीया
दोनों ही
हो एक से...
बिना बंद हुए
सूरज के नयन
आ नहीं पायेगा
दीवाना शलभ....

मुल्ला और उसके दोस्त रेलवे स्टेशन पर....

एक शाम कुछ ऐसा हुआ, मेरा अज़ीज़ मुल्ला नसरुद्दीन अपने दो दोस्तों के साथ रेलवे स्टेशन पर दौड़ता हुआ देखा गया.
सुना है तीनों ही नशे में धुत्त थे. दोनों दोस्त ट्रेन में सवार हो गए, मुल्लासाहिब का पांव फिसल गया. दोस्त लोग थे ट्रेन में और मुल्ला प्लात्फोर्म पर.
छोटा सा स्टेशन, सब वाकिफ एक दूसरे से, सब जानते हैं कि क्या हो रहा है ? स्टेशन मास्टर ने मुल्ला को उठाया, और कहा, "नसरुद्दीन अफ़सोस की बात है कि तुम चूक गए, ट्रेन नहीं पकड़ सके, तुम्हारे दोस्त कामयाब हो गए."
मुल्ला बोला, " अरे वे तो मुझे पहुँचाने आये थे, मैं तो अगली गाड़ी पकड़ लूँगा. फ़िक्र है तो उनकी, क्या होगा उनका, जो भयंकर नशे में धुत्त है,"
यह बात और थी मुल्ला कि साँसों से भी मय की खुशबू लहरा रही थी.

(कुछ ऐसा ही होता है हम सब के साथ.यह नहीं समझा जा सकता कि जो चढ़ गया वह सफल हो गया....वह कहीं पहुँच जायेगा........ जो नहीं चढ़ पाया वह असफल हो गया...उसका कुछ खो गया. यहाँ चढ़नेवाला- ना चढ़नेवाला, कामयाब- नाकामयाब, जीता हुआ-हारा हुआ, सब एक से बेहोश है. ज़िन्दगी के आखीर में सब का हिसाब बराबर हो जाता है. अमीर गरीब, ज्ञानी-अज्ञानी सब एक से हो जाते हैं. मौत सबको बिलकुल कोरी स्लेट की तरहा कर देती है. बस जो होशमंद है उनके लिए संभावनाएं है, )

मुल्ला नसरुद्दीन कि आदत : अपनी टांग ऊपर रखना

हम में से बहुतों की यह आदत हो जाती है जिसे आम भाषा में कहते हैं, "अपनी टांग ऊपर रखना." मामूली सी मामूली बात को जस्टिफाई करना, चाहे वह साफ तौर पर गलत ही क्यों ना हो. जो भी गलत हुआ है उसका ठीकरा दूसरे के सिर पर फोड़ना, अपने को हमेशा पाक साफ़ बताना. अपनी गतिविधियों को शब्दजाल से सही साबित करना. ऐसे लोग अक्सर दूसरों को 'undermine' करते हैं, अपने को 'assertive' या 'attitude' वाला साबित करते हैं. दुसरे बेवकूफ नहीं होते, अक्सर समझ कर भी चुप्पी साध लेते हैं और situation का मज़ा लेते हैं या यह सोच लेते हैं कि हमारा क्या जाता है,जीने दो इसे भ्रम में इसको. कभी कभी तो ऐसे लोग आपके मुंह में शब्द डाल देते हैं....अपने गलत कामों को आपके द्वारा प्रेरित बता देते हैं. कुछ गलत होता है तो कह डालते है हम तो पहले से ही जानते थे इत्यादि. हम में से कमोबेश सभी ऐसे लोगों/हरक़तों से दो चार होते हैं. हो सकता है हम भी ऐसे ही हों कहीं कहीं.
मेरे जिगरी दोस्त मुल्ला नसरुद्दीन भी बहुत बड़े कलाकार है. अपने आपको हमेशा पूर्ण पारंगत सिद्द्ध करने में उन्हें मज़ा आता है. बरसात का मौसम है, बारिश हो रही है, मुल्ला बिना छाते सड़क पर चल रहे हैं, भीग रहे हैं. कोई पूछता है, "अमाँ मुल्लाछाता नहीं ले रखा है, भींग रहे हो
जुखाम हो जायेगा." मुल्ला कहेंगे, " भैय्या, हमें तो सावन कि फुहारें सुकून देती है, हम तो इनका लुत्फ़ लेने के मकसद से छाता घर पर रख कर बाहर आये हैं." मुल्ला के बेटे का दाखिला नहीं हो पाया 'मेडिकल' में, मुल्ला कहते हैं , "जी हमें तो एलॉपथी पर कभी भरोसा ही नहीं रहा, हम तो अपने फजलू को यूनानी इलाज का इल्म कराएँगे, उसे हमदर्द मदरसे में तालीम दिलाएंगे, ताकि कौम की खिदमत किफायती और साइड एफ्फेक्ट ना पैदा करने वाली दवाओं से कर सके." ऐसी ही कई मिसालें मुल्ला के बर्ताव में आप नोटिस कर सकते हैं.
आ गया एक किस्सा ख़याल में. मुल्ला ने एक दफा साइकिल खरीदी, पैडल लगाना सीख लिया था किसी तरह मुल्ला ने, मगर चढ़ना उतरना साइकिल पर नहीं आता था उन्हें. किसी ने मुल्ला को सवार कर दिया साइकिल पर, मुल्ला पैडल लगाते लगाते लगाने लगे चक्कर पूरे बाज़ार के, गांव के.....आखिर कब तक पैडल मारते....थक से गए, साइकिल गिर पड़ी और उसके साथ मुल्ला भी. मुल्ला ने मुस्कुराते हुए धूल झाड़ी खड़े होकर.....साइकिल को भी उठाया अंगडाई मोड़ते हुए...लगे देखने आसपास के लोगों को.....चेहरे पर एक अजीब किस्म के घमंड का एहसास ओढे हुए.....
किसी ने पूछा, "मुल्ला गिर पड़े, ख़याल से उतरा करो..तुमको चोट लग सकती है...साइकिल को भी नुक्सान हो सकता है."

"अमां अपने तो उतरने का स्टाइल है यह.", मुल्ला ने जवाब दिया.

Sunday, February 14, 2010

प्रेम : एक विधि आत्म साधना की

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(देवी के संशय निर्मूल होने हैं, शिव को उत्तर देने हैं, हाँ उनके उत्तर दर्शन नहीं बस विधियाँ हैं केवल विधियाँ, जिनमें सभी संभावनाओं का समावेश है. ये प्राचीन भी हैं अर्वाचीन भी, शाश्वत हैं ये टेक्निक्स इसलिए प्राचीन हैं और सवेरे के सूर्य के सामने पड़ी ओस कि भांति ताज़ा भी है इसलिए नवीन. मेरा सौभाग्य है कि उनमें से कतिपय को आप से शेयर करते समय स्वयम भी जान सकूँगा. हमें इन विधियों का साक्षात्कार सावचेत मन से करना है, तर्क को कोई स्थान नहीं देकर, विवाद को प्रश्रय नहीं देकर. )
(१)
शिव ने कहा :
देवी !
प्रेम किये जाने के
क्षण में
प्रेम में
करो प्रवेश
ऐसा कि
वही नित्य जीवन हो.....
(२)
अतीत को छोडो
आगत की
चिंताओं से
स्वयम को
मत तोड़ो
नित्य जीवन है
वर्तमान जो है
साश्वत......
(३)
गहरे उतरो ना
प्रेम में
करने विसर्जित
अहंकार को
प्रेम है एक
सहज मार्ग
हो जाओ
तुम भी
प्रेम.....
(३)
जब होते हो
आलिंगन में
हो जाओ
आलिंगन
होते हो जब
चुम्बन में
हो जाओ
चुम्बन
भूल जाओ
स्वयम को
पूर्णतः
कह दो:
"अब मैं नहीं"
है तो केवल प्रेम
बस प्रेम.......
(४)
हो सकता है
घटित
एकत्व
प्रेम ही में केवल
हो जाओ तुम
कृत्य
भूल कर कर्ता को
जब हो तुम
प्रेम में
हो गए हो तुम
अंतर्धान
रह गए हो
बन कर
मात्र एक
ऊर्जा प्रवाहवान......
(५)
प्रेम है
महाद्वार
काम है बीज
प्रेम है पुष्प
बीज हो यदि
निन्दित
पुष्प भी होता है
पतिबन्धित
बन सकता है
बीज
एक पुष्प
बन सकता है
काम भी
प्रेम,
यदि नहीं
होता ऐसा
पंगु है वह,
निन्दित है
पंगुता
ना कि
काम,
खिलाना है
प्रेम को
बन सकेगा वही
सर्वोच्च
आध्यात्म.....

Saturday, February 13, 2010

खैरात मायनों की....

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अनगिनत सोचों को
बसा कर
अपने हमल में
रह गयी
बाँझ
खातून एक
एहसास नाम की...

इज़हार के बहाने
बदला है
उन्हें
अल्फाज़ में
जो
हो कर
बरहना
मांग रहे हैं
खैरात
मायनों की....

(हमल=गर्भ, खातून=महिला , एहसास=अनुभूतियाँ, इज़हार=अभिव्यक्ति, अल्फाज़=शब्दों, बरहना=नग्न/दिगंबर, खैरात=भिक्षा, मायने=अर्थ.)

Friday, February 12, 2010

हो संशय निर्मूल मेरा........

१२.२.२०१०

(महाशिवरात्रि के सक्रिय अवसर पर प्रेम ! )

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होकर प्रेममय
देवी ने
किया था समर्पित
अपने संशयों को
स्वयम को
बिना शर्त
अपने ही अर्धांग
शिव को......

ऐसे थे वे
अप्रश्न प्रश्न
संभव नहीं थे
जिनके
कोई भी
दार्शनिक
प्रत्युत्तर......

देवी ने किया था
संबोधित :
हे शिव !
क्या सत्य है आपका ?
क्या है यह विस्मय भरा विश्व ?
क्या है बीज इसका ?
क्या है धुरी जागतिक चक्र कि ?
प्रतिमाओं पर आच्छादित किन्तु
प्रतिमाओं के परे....
क्या है यह जीवन ?
स्थान, समय, पहचान, मान्यता,विचार के
जाकर परे
कैसे करे
पूर्णतः प्रवेश इसमें ?

तड़फ थी शक्ति की
कुछ विचित्र सी,
नहीं करना था
शान्त उसे
बौद्धिक
जिज्ञासाओं को,
घटित होना ही था
वांछित
शांति थी
अभीष्ट
प्रेम था
इष्ट
उपदेश नहीं
तक़रीर नहीं......

कहा था देवी ने :
हे शिव !
जानना नहीं है
उद्देश्य मेरा
बस हो संशय
निर्मूल मेरा........

ज़रुरत क्या होगी ?

* * *
पैगाम जो आये खुद-ब-खुद
कासिद की ज़रुरत क्या होगी ?

खुद के दम पे खड़े हैं हम
ताईद की ज़रुरत क्या होगी ?

सच बात हुए आसानी से
ताकीद की ज़रुरत क्या होगी ?

हर शै पै गर दिल आ जाये
वाहिद की ज़रुरत क्या होगी ?

सुन्दरता बसी हो आँखों में
नाहिद की ज़रुरत क्या होगी ?

मुंसिफ गर सब कुछ देख सके
शाहिद की ज़रुरत क्या होगी ?

मनमानी से गर सब कुछ हो
जाहिद की ज़रुरत क्या होगी ?

अल्लाह अगर यूँ मिल जाये
आबिद कि ज़रुरत क्या होगी ?


(कासिद=सन्देश देने वाला, ताईद=समर्थन, ताकीद=जोर देना, वाहिद=विलक्षण -unique, नाहीद=सुन्दर, मुंसिफ=न्यायाधीश, शाहिद=गवाह, जाहिद=संयमी, आबिद=उपासक )