Saturday, February 28, 2009

जज्बा-ए-कबूलियत ..रस मतलबपरस्ती का

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धूप
दुपहरी की,
ताज़ी सुबहें,
फुर्सत की शामें,
निचोड़ती है
रस
मेरी मतलबपरस्ती का,
दे कर जिसको
नाम
सोचों का
परोसे जा रहा हूँ
सब को;
जुबाँ
पीनेवालों की
कहती है :
कभी खट्टा
कभी तीता
कभी बेस्वाद सा
मगर देखो मेरी
महारत
विपणन की
बिक रहा है
सब कुछ
उदारीकरण के
दौर में......

(विपणन=मार्केटिंग)

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