Monday, May 25, 2009

मेरे मन का चाहा

यदि होता यह वश में मेरे
क्यों फिरता मैं मारा मारा
लिए छड़ी कलम की हाथों
पीछे पीछे
बेकाबू बैलों के,
जिन्हें कहा जाता है शब्द
चाहे अनचाहे जिनसे
मैं हो गया हूँ प्रतिबद्ध ………

बन जाता मैं एक किसान
जोतता हल अपनी जमीं पर
करता पैदा गेहूं, चावल.
चना, मकई, बाजरा,
जो आते काम खाने में सब के
या करता खेती गन्ने की
जिसका मिठास हर मुंह को मीठा करता
और उनके आदमी से ऊँचे
बूटों की ओट में
जाना अनजाना प्यार भी फलता…………

बहा कर पसीना
खुले गगन के नीचे
जब थक कर चूर हो जाता
किसी शजर के साए में
बैठ तनिक में सुस्ताता
घर से लायी रोटी को मैं
गुड़ और प्याज के संग खाता
हरी दूब के कोमल बिस्तर पर
जब अपने बदन को फैलाता
औढ़ अंगोछा चेहरे पर
न जाने किन सपनों में खो जाता………

पाकर रुखसत खेतों से
जब चौपाल पर मैं लौट आता
अपने जैसे यारों से मैं
वहां बैठ खूब गपियाता
अनछनी डींगे मार मार
मित्रों का दिल मैं बहलाता
या लगा होठों पर अलगोजे को
छेड़ तान मगन हो जाता
ठंडी चांदनी रातों में
मैं किन किन गीतों को गाता
आल्हा, हीर, तेजा गाकर में
सब कष्टों को दूर भगाता
प्रभु के गुण गाता मौज मनाता
या किसी अनजान सुंदरी की यादों में
वक़्त बेवक्त खुद ही खो जाता…………..

नाच मोर का हरदम
मुझको खूब नाचता
कलरव पंछियों का मुझको
किसी और लोक में यूँ ले जाता
कुदरत के नजदीक रह कर मैं
खुद को पास खुदा के पाता
भगा-दौड़ी की जिन्दगानी से
काश दूर मैं खुद को पाता………..

है होनहार सब लिखा भाग्य का
क्या करता मैं क्या न करता
यदि शब्दकार न होता यारों !
कौन यह खाली कागज़ भरता……….

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