Sunday, November 1, 2009

किस्से गुप्ता और मुल्ला के........

बड़े दिन हुए किस्सा कहे हुए. दो दिन से कुलबुलाहट हो रही थी की कुछ कहा जाय..... कहानी-किस्सों-कविताओं के बारे में आप जानते ही हैं कि पढने सुननेवाले से कहीं ज्यादा लुत्फ़ हम जैसे शौकिया किस्सागो लोगों को आता है, जब चार छः लोग तारीफ के कुछ शब्द कह डालते हैं. .....कभी कभी तो रूटीन प्रशंसा भी साहित्य अकादेमी पुरस्कार जैसी लगती है, जब बिना पढ़े भी कुछ लोग हमारे लिखे में कुछ पा जाने का नाटक करते हैं. गंभीर से गंभीर बात हास्य-व्यंग के माध्यम से कही जा सकती है, मगर सर धुन ने का जी करता है जब कुछ पाठक लेखक महाशय को भांड या मसखरा समझ, ज़बरदस्ती हा-ही कर लेते हैं, मगर रचना में छुपे पैगाम को आत्मसात करने का प्रयास तक नहीं करते. भगवान भला करे ऑरकुट का कई एक आईकोन भी मुहैय्या करा दिए.....बस कुंजी दबाते रहिये....आपकी हंसी का फुहारा लेखक के अंतर या गलतफहमी को भिगो देगा. ऐसे लम्हों में ग़ालिब के 'सद-वचन' जेहन में बरबस चले आते हैं, "हमें मालूम थी जन्नत की हकीक़त, दिल को बहलाने के खातिर ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है."

हालाँकि हमारे 'शफक' पर बहुत ही ज़हीन और दिलदार लिखने वाले पढ़नेवाले हैं.....मैं तो जनरल बात कर रहा हूँ।

जैसे दवाओं के निर्माता चूहों पर अपनी दवाओं का परीक्षण करके बाज़ार में उतारते हैं, इस कलमकार ने भी अपनी रचनाओं को बाज़ार में भेजने से पहले कई दफा अपने अज़ीज़ दोस्तों मुल्ला नसरुद्दीन और गुप्ताजी की मदद ली है. चाय नाश्ते पर या बाइट्स-ड्रिंक पर महफ़िल जुटती है , मासटर बकता है, मुल्ला और गुप्ता कभी जागरूकता से, कभी तंद्रा में, कभी निद्रा में सुनते है और अपनी बहुमूल्य राय किस्सा, नज़्म या ग़ज़ल पर देते हैं. मासटर उनकी प्रतिक्रियाओं को विचरता है और तदुपरांत रचना को फाईनल शेप दे देता है.

शनिवार का दिन है आज. ऐसी ही महफ़िल जमी है कब से...मगर ना जाने कुछ ऐसा हुआ है कि मुल्ला कभी prejudiced होता है तो कभी मेरी रचना गुप्ता के preoccupations की शिकार हो जाती है सुबह से ही बात नहीं बन रही है. आप तो जानते ही हैं ऐसे जमावडों में प्रोडक्ट से ज्यादा बाय-प्रोडक्ट तैयार होते हैं. मुल्ला और गुप्ता ने इस दौरान लागर बियर के सुरूर में या कहें कि चाय कि चुस्ती में कुछ गप्पे हांकी थी जिसे किस्सा बना कर अनछाना ही आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूँ......उम्मीद है आप
हमेशा कि तरहा मुझे बर्दाश्त करेंगे।

किस्सों के कंटेंट्स बासी है जैसे कि पहले के किस्सों के, बस इन्हें नए सिरे से छौंका है आपके लिए ..........शायद पसंद आये ना आये......'ओल्ड वाईन इन न्यू बोटल' समझ कर मुल्ला और गुप्ता को मुआफ कर देना..... उनकी हौसला अफजाई करना.....ताकि भविष्य में उनका उदय भी आपकी प्रशंसा पाकर अच्छे किस्सागोवों और कवियों के रूप में हो. प्रेरणा और प्रोत्साहन इन्सान को बहुत ऊँचा उठा सकते हैं....जीरो से हीरो बना सकते हैं......

और हाँ , मैं भी आजकल जरा 'लो फील' कर रहा हूँ, मुझे भी आपकी पीठ थप-थपायी की ज़रुरत है....मुझे निराश ना करियो.....

बयान गुप्ताजी का

एक दफा गुप्ती मायके चली गयी.....रूठ कर.....मुझे सुखी दाम्पत्य जीवन के सूत्र बताकर अपना वक़्त मत जाया करियेगा....मैंने 'शोभा डे' की पुस्तक 'स्पाउस' हा हिंदी अनुवाद पढ़ लिया है. अब आप से क्या छुपाना, गुप्ती का इंटर-फेअर जरा बढ़ने लगा था.....मान लिया- मैंने प्राथमिक तक शिक्षा पाई है.....और गुप्ती ने राजनीति शास्त्र और इतिहास में एम.ए किया है.....पति तो मैं ही हूँ ना ....अब बार बार वो पब्लिकली मुझे ड़ीफाई करने लगी....आखिर मेरी भी कोई इमेज है मासटर.....आप भी सुनिए जरा और बताइए इस में मेरा क्या दोष.....मेरे भी तो अपने नोर्म है एक पति के रूप में भी, एक मानव के रूप में भी....और आप जानते ही हैं मैं कारण अकारण कितना व्यथित रहता हूँ.....मेरा मूड आजकल कितना ऑफ रहता है.
उस दिन मैं बाज़ार से सब्जी खरीद कर लौट रहा था. देखा कि हमारे पारिवारिक मित्र शर्माजी का नौकर रामू मेरे घर से चला आ रहा है....मुडा तुडा सा उदास सा.......मानो कुछ ऐसा हुआ हो जो नहीं होना चाहिए....

रामू ने मुझे रस्मी नमस्ते तक नहीं की मुल्ला तो मेरा माथा ठनका, ज़रूर कुछ अनहोनी हुई है, रामू के चेहरे पर यूँ कभी बारह नहीं बजे देखे थे मैनें। रामू को उदास देख कर सोचने लगा मैं कि शर्मा परिवार पर क्या गुजरेगी जब रामू को मेरे घर से इतना व्यथित हुआ आया देखेगा वह परिवार. ना जाने शर्मा जी मुझ से पुरानी उधार का तकादा कर बैठे...मेरे बच्चों के लिए मांग कर लायी शर्मा के बच्चों कि पाठ्य-पुस्तकें लौटानी पड़े....शर्मा मेरी आलोचना दुनिया भर में करता फिरे....मेरे घर से रामू उदास होकर निकला....इसमें मेरी बीवी का ही दोष होगा....क्या समझती है वो अपने आपको...इत्यादि इत्यादि दुश्विचार मेरे मस्तिष्क में घुमड़ने लगे.
मेरे बगल से चौधरी गुज़रा उस ने भी पूछ लिया- "अरे रामू आज उदास क्यों है....सब ठीक ठाक तो.....श्रीमती शमा का बर्ताव तो ठीक है."
रामूवा दबी जुबान से बोला ,"भईया आज तो गुप्ताजी के यहाँ से बड़े बेज्जत होकर लौटे हैं." मेरी तो बांछे खिल गयी- क्या अधिकार था श्रीमती सावित्री गुप्ता MA (Pol Sc & History) को रमुआ कि इज्ज़त पर हाथ डालने की, लुटने के लिए क्या मेरी इज्ज़त कम पड़ गयी- मुझे पॉइंट मिल गया था....चौधरी ने भी तसदीक कर दी थी. रही सही कसर मासटर ! कपूर ने पूरी कर दी जो चौधरी को कंपनी दे रहा था. लगा कहने, "गुप्ते सब कुछ तुम्हारी कमजोरी के कारण हो रहा है....हम तो पहले ही कहते थे मत कर शादी इतनी पढ़ी लिखी से.....घर बिगाड़ देगी....मगर तू तो ठहरा लालची कहने लगा घर की तहजीब सुधर जायेगी.....बच्चों के संस्कार सुधरेंगे....पढ़ लिख कर कुछ बन जायेंगे....उनके बाज़ार भाव बढ़ जायेंगे.....आखिर परिवार के विकास के लिए ही तो आदमी जीता है. अब भी चेत गुप्ता, रस्सियाँ कस ले....मर्द बन नहीं तो आज रामू कि बेज्जती हुई है, कल हमारी और चौधरी की होगी " कपूर मेरे मुंह में आदतन अपने शब्द घुसा रहा था, भड़का रहा था, मैं भी भड़क रहा था क्योंकि मुझे सूट कर रहा था. सब बोले जा रहे थे....रामू चुप....खैर मैने चौधरी और कपूर से कन्नी काटी और रामू को मेरे साथ चलने का इशारा किया.....
रामू से पूछा था मैने-"क्या हो गया ?"
रामू बोला- "साहब हमारे पड़ोसी के यहाँ गैस सिलेंडर ख़त्म हो गया. हमारी भाभीजी ( श्रीमती शर्मा) ने शेखी बघार दी की चुटकी में व्यवस्था हो जायेगी और मुझे आपके यहाँ गैस सिलेंडर लाने भेज दिया. आपके वाली भाभीजी ने कहा की हमारा सिलेंडर जो लगा हुआ है ख़त्म होने को है और जो घर में रखा है उसकी दरकार होगी....बुकिंग भी लम्बी चल रही है.भाई साब के यहाँ ज़रुरत होती तो देना ही होता. अब परोपकार के लिए कैसे खुद को संकट में डाला जाय. जाओ कह दो भाभीजी ने कहा की सिलेंडर नहीं होगा. साहब बड़े अरमान से हमारी भाभीजी ने हमें आपके यहाँ भेजा था...यहाँ हमारी इज्ज़त का फालूदा हुआ और वहां पडोसन के सामने हमारी मालकिन का, हम तो कहीं के ना रहे."
रामुवा टीवी सीरियल देखते देखते बहुत भावुक और dialoguebaz हो गया था.....श्रीमती शर्मा भी खुद को कभी तुलसी तो कभी पारवती समझने लगी थी.....शर्मा परिवार की संस्कृति में सतही भावुकता विद्यमान थी। खैर, रामू 'हर्ट' हुआ था, वह शर्माजी के यहाँ से काम छोड़ सकता था, और शर्मा भाभी शर्माजी को तलाक तक दे सकती थी की कैसे दोस्त रखते हो.....या डिप्रेसन में आ सकती थी कि एक पडोसन के लिए सिलेंडर कि व्यवस्था नहीं कर पाई. बहुत ही दूरगामी परिणाम हो सकते थे इस बात के. किन्तु इस से ज्यादा मुझे अपनी अथॉरिटी का चैलेन्ज होना सता रहा था. मैं आगे और रामुवा पीछे पीछे आशा के दीपक जलाये हुए कि गुप्ती को डांट मिलेगी, रामुवा को सिलेंडर, शर्मा भाभी की इज्ज़त की रक्षा,समस्त आदर्शों का रखाव.
रास्ते में मैने प्रोस और कोंस सोचे और पाया कि सावित्री का कहना वाजिब था, मगर मेरी अथॉरिटी.....?

रामुवा को लिए मैं घर के दरवाज़े पर पहूंचा. कहा सावित्री से, "तुम्हारी यह मजाल कि रामू जो मेरे लंगोटिए शर्माजी का वफादार सेवक है, को इस तरहा इन्कार कर देना.....जानती हो इसके नतीजे क्या क्या हो सकते हैं, तुम्हारे कहने से रामू का दिल टूट सकता है वह दरभंगा लोट सकता है, शर्माजी का तलाक हो सकता है या भाभी डिप्रेसन में आ सकती है, पढ़ी लिखी हो मगर जानती नहीं कि 'ए फ्रेंड इन नीड इस ए फ्रेंड इन डीड'......हिम्मत कैसे हो गयी इतने गंभीर परिणामों को दरकिनार रखते हुए तुम्हे रामू से सिलेंडर के लिए इन्कार करने की."

रामू के चेहरे पर ओज आ रहा था.....उसे सात्विक आनंद्जनित प्रकाश एवम हर्ष कि प्राप्ति हो रही थी.
कह रहा था--"हमें मालूम था भैय्या ही न्याय करेंगे.....आखिर भैय्या कि बराबरी कहाँ ? हमारी मलकानी हमेशा ही कहती है सयाना हो तो गुप्ताजी जैसा, सब आगे पीछे कि सोच कर करता है....दुनिया देखी है.....किस बात को किस तरीके से कहा जाय अच्छी तरह जानता है।"
मुझे आत्मतोष हो रहा था रामू के बेन सुन कर. सावित्री की बोलती बंद हो गयी थी.
मैने सोचा भाई मुल्ला और मासटर कि सिलेंडर देने से तीन बातें होगी. एक मेरे घर में खाना कैसे बनेगा. दो शर्मा सिलेंडर कि कीमत उधार में एडजस्ट कर लेगा तीन शर्मा भाभी यदा कदा फिर सिलेंडर मँगाने लगेगी.
मैने कहा -"रामू इस घर का मुखिया कौन ?"
रामू बोला, "भैय्या आप."
मैने कहा, "भाभीजी को हाँ या ना कहने का अधिकार है रामू ?"
रामू बोला, "कतई नहीं."
मैने पूछा, "रामू मैं समझदार हूँ या बेवकूफ ?"
रामू बोला, "भैय्या बिलकुल समझदार."
मैने कहा, "मेरी जगह तुम होते तो क्या करते."
रामू बोला, "सिलेंडर नहीं देता."
मैने कहा," रामू में तुम से सहमत हूँ. जाओ शर्मा भाभी को जैसे तैसे समझाओ मेरे भाई सिलेंडर नहीं हो सकता."
कन्फ्यूज्ड सा रमुआ महाप्रस्थान कर गया गुप्ता खाणे से.

मैं भगवान को कह रहा था, "चाय बनाओ." और वो थी कि रूठ गयी थी, अपना सामान पेक कर रही थी. अब बताओ मेरी क्या गलती थी.....घर के मुखिया के नाते मैने मुआमले को ठीक से डील किया तब भी सावित्री रूठ गयी. भई 'ना' कहने का अधिकार मेरा, बात तरीके से कहना मुझे आता है उसे नहीं. और इतने बड़े बड़े हादसों की आशंका, नाज़ुक मसलों को समझदारी से निपटाया जाता है.

(मुल्ला गुप्ता की गिलास भर रहा था और मैं अपनी कविताओं के बारे में सोच रहा था.)




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