Tuesday, March 23, 2010

कब अपने मन की होती है.....

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तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

पीड़ा
जलधि की
व्यक्त
हुई
लहरों के
हिलते
अधरों में,
सीपें
बेचारी
क़त्ल हुई
पीकर के
आंसू
उदरों में,
सागर के
दारुण
आंसू को
कहती
दुनियां
यह
मोती है,
तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

शलभ
अमर
क्या
हो पाया
प्यारे
दीपक के
चुम्बन से,
धुआं
क्या
बच के
रह पाया
जा परे
दीप
आलिंगन से,
सुख
मिलन में
निहित
कहाँ,
स्वातंत्र्य
विमुख
दुःख से है
कहाँ,
बिछोह
मिलन की
कथा
विचित्र
आदि कहाँ
और
अंत कहाँ,
सोच सोच
ये बातें सब
जीवन
सीमायें
रोती है,
तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

सोयी
कलियाँ थी
हर्ष
निमग्न,
जग कर
हुई
पुष्प
जो झरा
भग्न,
सन्नाटे के
पहरों में
किन्तु
काँटों की
टीसें
सोती है,
तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

निवेदन :

(अ) दूसरा स्टेंज़ा अन्य स्टेंजों से लम्बा है.....अभिव्यक्ति के प्रवाह में ऐसा हो गया है.. छन्द, मात्रा या इसी तरहा के तकनीकी बिन्दुओं की दृष्टि से यह सटीक नहीं है...

(ब) लगभग ऐसे ही रूपक अन्य कवियों के लेखन में मिल सकते हैं...क्योंकि शलभ,दीपक, धुआं, कली, फूल, सागर, लहरें, सीपी और मोती को लेकर लाखों कवितायेँ रची गयी है...हाँ अनुभूतियाँ और प्रस्तुतीकरण मौलिक है.....

(स)चलते चलते : मेरा तकियाकलाम है, जिसे महक खूब बखानती है-"सब सापेक्ष है..."

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