Wednesday, March 28, 2012

मेरी ही परिधि ने....

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मेरी ही परिधि ने
मनुआ !
बारम्बार
तोड़ा था
मुझ को,
इति की
अज्ञात सम्बोधि से
उसने
जोड़ा था
मुझको,,,,,

बाँधा था
उसने मुझ को
स्नेहसिक्त अनुरोध से
या किसी अवरोध से
या किसी प्रतिरोध से
या किया था
विचलित मुझको
स्थिर अस्तित्व बोध से,,,,,,,

ढाला था
उसने मुझको
थोड़ा सच्चा ,
थोड़ा झूठा
देकर कोई आकार अनूठा
सर्वमान्य प्रतिरूप में
या किसी अनुरूप में
या किसी प्रारूप में,,,,,,,

तोड़ दी है
परिधि मैने
बिना किसी प्रतिकार के,
जोड़ा है
अब स्वयं को
विराट से
विस्तार से
समग्र के स्वीकार से,,,,,,,,

मेरा तिरोहित जब
'तू' हुआ,
अंधकारमय
जीवन में मेरे
चहुँ ओर आलोक हुआ
निखर गया
ह़र कोना कोना
पूर्ण ने ज्यों
मुझ को छुआ,,,,,,,

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