Thursday, December 1, 2011

सोलह सिंगार.. (आशु रचना)

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हुआ अलविदा पतझड़,लौटी फिर से नयी बहार,
सुर्ख माणक दिखा कर हँसता देखो आज अनार.

बौराई कोयलिया गाती मधुरिम पंचम राग,
चन्दन महक ले आया रति का देहहीन सुहाग.

व्याकुल बेलें डाल रही क्यों पेड़ों को गलहार,
बिरहन के नयनों से झरती अश्कों की क्यूँ धार.

मधुमख्खी ने नीम-पुष्प से चूसा है मकरंद,
कड़वाहट बदली है मधु में घटित हुए ये छन्द.

बेला मोगरा से मदमस्त है सांस और निश्वास,
ह़रसिंगार बहाना है बस, धरा मिले आकाश.

शबनम मोती बन कर बरसी कुदरत पर बेबाक,
जवां हसीं जमीं पर फबती दूब की यह पोशाक.

महुए की मादक महक और पखेरुओं का गान,
उफक पर शफक को देखो क्या सिंदूरी शान.

फूट गयी कोंपलें फिर से, है भंवरों की गुन्जार,
खुशबू आएगी घट में जब और बढेगा प्यार.

फूल खिलेंगे, महकेंगे तब कण कण मधुर सुवास,
मधुप उसी पल मिटा सकेगा अपने दिल की प्यास.

झील बनी है आइना उजला, रूप निखार निहार,
देवी शिव* के संग हुई अब कर सोलह सिंगार.

*पुरुष और प्रकृति से आशय है.



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