Sunday, December 11, 2011

मूर्खों का गाँव उर्फ़ किस्सा अधपके ज्ञानियों का..


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मेरे स्टुडेंट लाईफ के दौरान हम लोग कोलेज केन्टीन या कोफी हाउस में इकठ्ठा होते थे. हमारे कुछेक साथी सूखे सूखे कामरेड टाईप्स हुआ करते थे, बिलकुल निराशा और दर्द की बातें करने वाले. आम इंसान के भूख-इलाज के अभाव-टपकती छत और ऐसे ही कई मुद्दों में पथेटिक हालात, प्रेम में मिले दर्द, प्रेम नाम की चिड़ियाँ खाली पीड़ा का भण्डार, खुदगर्ज़ संसार, अमरीका की ह़र बात अपसंस्कृति और उसकी नीतियों का साम्राज्यवादी जनविरोधी होना-ठीक उसके विपरीत चीन और रूस की लगभग वैसी ही हरक़तों को समाजवाद और जनवाद के नाम जस्टिफाई करना, ह़र सुन्दर और सुकून देनेवाली शै की भर्त्सना, ऐसे कितने ही मसले होते जिन पर उनकी जुबान की कतरनी कच कच चला करती थी. ज़िन्दगी के दुखों को मेंटेन करने में लगे ये लोग हमेशा उदास, ग़मगीन, बेतरतीब और मैले कुचेले दीखते थे.किसी की दाढ़ी बढ़ी हुई, तो हेयर कट नहीं करायी हुई, सस्ते मैले कपड़े (अलग सा दिखने के लिए) बदन पर, बात बात में झगड़ने और तर्क-कुतर्क करने की आदतें, ह़र बात पर आक्रोश और रूठ जाना...बहुत ही नाज़ुक मिजाजी, फूला हुआ अहम् का गुब्बारा, औढा हुआ स्वाभिमान (हीन भाव के कारण)...ह़र बात में खुद को महाज्ञानी और विचारवान साबित करने का ज़ज्बा..मेरे इन दोस्तों की शख्सियत की खासियतें होती थी. हमें गाली देने वाले ये लोग, हमारे पैसे की दारु, सिगरेट्स, चाय, नाश्ता उपभोग करने में हमेशा तत्पर रहते थे.....इन्हें ह़र समय अपनी बातों की मतली करने की तीव्र उत्कंठा रहा करती थी. इनमें से एक इंसान तो ऐसे हुआ करते थे जो धनी परिवारों की कल्लो कुमारियों को अपने इश्क के जाल में फंसा कर, बिस्तर तक की यात्रा करा देते थे...और उनके पैसों पर मौज-मस्ती भी कर लिया करते थे...और जब कुछ उन्नीस इक्कीस हो जाता तो पल्ला झाड़ कर अलग खड़े हो जाते थे...और अपनी इन्ही जलील हरक़तों को वर्गसंघर्ष का नाम दे दिया करते थे.

दक्षिण में जाना सटीक हों तो ये उत्तर को चलेंगे...अलग दिखने के लिए ये बन्दे पांव के पंजों से नहीं, शीर्षासन मुद्रा में हथेलियों के बल चलेंगे...उस समय और भी बहुत कुछ इन ढीठ बन्दों के लिए कहा जाता था लेकिन आज बस इतना ही.

हाँ मेरे कुछ जेनुइने सरल, सहज, कम्युनिस्ट/सोसलिस्ट ईमानदार मित्र भी थे, जिन पर मुझे गर्व है...लेकिन वे हमारी इन टाईम पास मजलिसों का हिस्सा कभी नहीं होते थे, उनका साथ पाने के लिए मैं लालायित रहता था और जब भी उन्हें सहूलियत होती उनके साथ जा बैठता था.......कुछ महत्वाकांक्षी सामान्य परिवारों से आये साथी भी थे जिनके लिए हम कह सकते थे - सिम्पल लिविंग हाई थिंकिंग के साक्षात् प्रतीक., जो आज खुद को और दुनियां को बहुत कुछ देने में सफल हुए हैं. इन भले लोगों की चर्चा फिर कभी. आज तो दिल कर रहा है, पहली केटेगरी के लोगों की खिंचाई करने का. एक किस्सा आज शेयर कर रहा हूँ...

हाँ तो सुनिए किस्सा...

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भाई यह मेरी अपनी सोची समझी और कही बात नहीं, एक सुनी सुनाई कहानी है. किसी ज़माने में एक छोटा सा गाँव हुआ करता था मूर्खों का.
वे ना तो कुछ जानते समझते थे और ना ही किसी चीज को पहचानते थे. एक दफा ऐसा हुआ कि बारिश के दिनों एक मेंढक उस गाँव के एक घर में घुस आया. उस से पहले गाँव के आदमियों ने कभी मेंढक नहीं देखा था.

घर जिस मूर्ख का था उसने चिल्ला चिल्ला कर इस नये प्राणी के उसके घर में आने को प्रोपेगेट किया. बहरहाल इस अजूबे को देखने गाँव की सारी आबादी इकठ्ठा हो गयी.

ह़र कोई अपनी अपनी ओपीनियन दिये जा रहा था, कि यह कौन जाती प्रजाति का जन्तु है..इसके आगमन से क्या हुआ है...इसका क्या होगा..वगेरह वगेरह. कोई कह रहा था यह तो हरिण है, किसी ने मिमियाया अरे यह तो बगुला है, तो कोई कहने लगा अरे यह तो मेरे घर में ''वो" जो आया था ना वैसा है. इतने में पीछे से एक मूर्ख-महाज्ञानी की आवाज़ सुनाई दी : अरे भई बिना सोचे समझे कयास लगाने से क्या फायदा ? सियार होगा..बारिश के मौसम में जंगल से इधर निकल आया होगा..हमारे यहाँ की अलौकिक सुख सुविधा का लुत्फ उठाने.

इतने में भीड़ में से एक समझदार 'रायचंद' का उवाच हुआ, "मेरी सुनो..मेरी सुनो तो..दादाजी को बुला लो. वो बुजुर्ग हैं, उन्होंने जमाना देखा है, वे जो भी बताएँगे सौ टका सही होगा, अपन लोग नातुज़ुर्बेकार क्या जाने ?"

तो जनाब दादाजी चारपाई पर बैठे हुक्का गुडगुडा रहे थे ताकि कब्ज़ी की पकड़ कुछ ढीली हो और वे राहत-ए-रूह पा सकें. ऐसे में दौड़ता हुआ एक गाँव वला उनके इजलास में हाज़िर हुआ..

फटी अंगरखी, मुड़ातुड़ा साफा और घुटनों तक की मैली कुचैली धोती पहने चाचा चौधरीनुमा दादाजी की बन आई, बड़ा 'इगो सेटिसफेक्सन' हुआ, जब उन्हें इस मसले को हल करने के लिए सादर अनुरोध किया गया और उनकी बहुमोली राय मांगी गयी. जनाब, जो अधोमुखी थी, वह अचानक उधर्वमुखी हो गयी...याने फिर से ऊपर चढ़ गयी. फिर क्या था, दादाजी ने लठ उठाया, नथने फूलाते हुए,टेढ़े मेढे कदम रखते हुए..घटनास्थल की तरफ कूच करने लगे.

बुढऊ याने दादाजी हांक रहे थे, "अरे तुम लोग भी कुछ सीखो समझो, मैं कब तक जिंदा बचा रहूँगा...आज कल देखते नहीं मेरी तवियत भी नासाज है."

जनता को धकियाते हुए दादाजी मेंढक के पास गए.

टूटे चश्में को जरा सेट करते हुए धीमी आवाज़ में बोले, "अरे मूर्खों यह कौन सी बड़ी बात है. इसके आगे तनिक दाना डाल कर देखो. अगर चुग लिया तो चिड़ियाँ नहीं तो सांप."

गाँव के सब लोग बुढऊ की अक्लभरी बात सुन कर गदगद हो गए.

ऐसे ज्ञानी बुढऊ थोड़े बिंदास या कहें कि बेशर्म भी होते हैं ना, दादाजी बोले, "अरे किसनिया, तनिक लौटा ले आओ तो, बड़ा दिल हो रहा है..धोरे पास ही हैं, तनिक निपट लेते हैं."

किसनिया सविनय पेस्टीसाईड के दो पोंड वाले पुराने टेनिये में गन्दला सा पानी लिए हाज़िर था. दिशा मैदान में जो भी हो जैसा भी हो पानी चल जाता है, ऐसी मान्यता थी उस गाँव में.





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