Friday, December 23, 2011

मिथ्या अमिथ्या....

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मन के दो रूप,
प्रतिबिंबित मन
मूल मन,
पहला छाया
दूसरा आत्मा...

जोड़ कर पहले से
किया जाता है जो
होता है
एक अभिनय
सोचा विचारा
द्वारा स्वयं के
और/अथवा
द्वारा समूह के,
विगत में
और/अथवा
वर्तमान में,
योगित दूसरे से
होता है जो
वह है
शुद्ध सत्व...

छाया है
कामना
प्रतिबिंबित
मन की
गुण प्रधान,
संचालित
विद्या अविद्या द्वारा,
मूल मन
होता है
गुणातीत
उसकी कामना
होती है
दिव्य...

प्रतिबिंबित मन
बन कर
छाया
करता है सम्पादित
समस्त
सांसारिक कर्म,
शुभ भी
अशुभ भी
अच्छे भी
बुरे भी....

निर्णय
मिथ्या अमिथ्या का
होता है सापेक्ष,
अर्थहीन
स्यात
क्रीड़ा एक
बुद्धि की,
हो जाना संलिप्त उसमें
सुसुप्तावस्था में भी
होता है कारण
जीवन के
अनेक बड़े कष्टों का..

हो अभिष्ठ हमारा
चेतन मन
देखें समझें हम
छाया के
कारणों को
विमुक्त हों कर्ता भाव से,
उतर कर
ध्यान में
इसी संकल्प के साथ,
जान पाने
सत्व निज का...

( छाया रूप में भी संस्थित है देवी माँ, कैसे नकारें छाया को भी मिथ्या समझ कर...बस साक्षी भाव से माँ के विभिन्न रूपों का दर्शन करते हुए...माँ से मिल जायें...उसके अल्टीमेट रूप में समा जायें..सत्व को प्राप्त हो.)

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