Saturday, July 3, 2010

फूल और कांटे....(दीवानी सीरीज)

जिंदगी के कुछ अहम् फैसले दिल से नहीं दिमाग से करने होते हैं, ऐसा ही कुछ वह कहा करती थी। मैं जानता था यह एक वक्ती बात है, मगर इसी बात ने मेरी-उसकी ज़िन्दगी बदल डाली थी....उसके एक अहम् फैसले में इस सोच का बहुत बड़ा असर हुआ था। वक़्त के साथ उसने अपने उदार विचारों से तौबा कर ली थी, औरों की तरहा उसकी सोच भी घड़े हुए 'मापदंडों'और 'clergy' के सुर में सुर मिलाने जैसी हो गई थी....लगता है कुछ राख अंगारे से हटी है, उसका एक मेल जो एक 'common friend' के यहाँ आया कुछ ऐसा था :

बात दीवानी की

# # #

"इसका
क्या
सोच के
हम
फूल थे !

सोच तो
इसका है के
अब
हम
क्यों बौ रहे हैं
कांटे ? "

बात विनेश की

सोचों का सफ़र कहाँ से कहाँ ले जाता है...बात उसकी और मेरी व्यक्तिगत नहीं, ना जाने कब पूरे मुल्क की सी लगने लगी. मैं कुछ ऐसा सोच रहा हूँ इस इबारत को पढ़ कर:
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# # #
देर आयद
दुरुस्त आयद !
मगर बहुत देर हो
चुकी है
खैर
"जब जागे तब सवेरा"
इस स्वीकारोक्ति से
बढ़ी है उम्मीदें मेरी .....
कह दो उनको
कैसी जेहाद है यह,
फहराना है परचम
किस खुदा का,
क्या उसका
जो रहता है
दिलों में हमारे
अजान की आवाज़ में
मस्जिद की मीनार में
सूफियों की कवाल्ली में
रक्स -ए-बिस्मिल में
आफताब में
महताब में
दरिया में
समंदर में
गुल में
गुलशन में
बच्चे की मुस्कान में
माँ के दुलार में
सुरों की सरगम में
इन्सान की इन्सान के लिए
मोहब्बत में,
वह जो सबका है
महज़ तुम्हारा नहीं,
जिसने दी है सिर्फ
मोहब्बत !
मोहब्बत !
मोहब्बत !
काश ! तुम
अपने घर
अपने अंतर की जानिब
लौटकर
महसूस करते उसको,
झाँक कर भीतर अपने......

पूछना और बताना उन्हें:

क्या कर रहे हो
खिदमत
और
इबादत उस शैतान की
लिए हाथों में
खून भरा
परचम उसका
और
चला रहे हो कारखाने
नफ़रत के,
बरगला रहे हो
नयी पौध को
मज़हब के नाम पर
चढ़ा के रंगीं ऐनक
तंग-दिली के
तंग-जेहनी के...

खुदा की कायनात
कर चुकी है
तरक्की कितनी और तुम ?
दोहरा रहे हो
आज भी वही बातें
जो साथ वक़्त के
हो चुकी है बातिल...

क्यों देखते हो
अपने इमकान को उनमें;
ज़ुल्मत का वजूद रोशनी की
गैर मौजूदगी में है,
क्या होगा
जब जलवा होगा
सूरज सच का,
पहचाने जाओगे
तुम,
और तब शायद

यह नयी पौध
देगी 'रिटर्न गिफ्ट'
तुम्हे
उसी नफरत का
जो भरी है
कूट कूट कर
इनमें तुम ने,
बहादुर और जहीन
मासूमों में
खेल कर
ज़ज्बात से उनके
और......
ज़ज्बा लिए
अपने नापाक इरादों को
जाने अनजाने
तामीर की शक्ल देने का ...

बंद करो
दहशत गर्दी का
यह नंगा नाच.
ऐसा ना हो
अवतार ले फिर
श्रीकृष्ण
और
सुन कर
‘गीता वचन’ उनके
भूल जायें हम कि
तुम हो हमारे भाई,
सगे हो हमारे,
खून हो हमारे...

सूंघो अपनी तरफ की
माटी को
महसूस करो
उस हवा को
जो बह रही है
दोनों तरफ
सरहद के
जहाँ आज भी
अशीर है
कहानियां कई
बहादुरी की
मुआफी की
हकीक़तों की
इश्क की...

वक़्त अभी भी बचा है,
फूलों के खिलने का,
गुलशन को मह्काने का,
खुदा की पनाहों में होने का
शैतान से रुखसत लेने का....

बदल जाओ
अपने लिए भी
और
धृतराष्ट्र,भिष्म, द्रोण, विदुर
जैसे कई बुजुर्गों के लिए भी,
हीर राँझा
शीरी-फरहद
सोहनी-महिवाल
जैसे नौजवानों के लिए भी,
उन करोड़ों बेगुनाह लोगों के लिए भी
जो बदकिस्मती से
रह रहे हैं
तुम्हारे यहाँ
और
आतुर है
गले मिलने अपने
बिछुड़े भाइयों से........

यह जमीनी हकीक़त है कि
रह सकते हैं
दो भाई बेहतरी से साथ
अपने अपने वजूद के
प्यार और मोहब्बत से,
अगर बाज़ आओ
तुम
साजिशों से अपनी...

सिखाया है पंचतंत्र ने हमे
उसूल
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का,
अमन के संग
अपने अपने
वुजूद को जीने का......

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