Sunday, July 18, 2010

ज़ब्त-ए-गम के इम्तेहान...

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मेरे ज़ब्त-ए-गम के बहोत इम्तेहान हो गए
बिना किये ही कुछ भी बस एहसान हो गए.

जो लिखते रहें है दास्ताँ-ए-बर्बादी उनकी
जिस्म-ओ-जेहन उनके के मेहमान हो गए.

चुरा चुरा के बेचते रहें सरमाया जो उनका
न जाने क्यों वो उनके निगहबान हो गए.

रुलाया करते हैं बात बे-बात उनको रात दिन
उनकी ग़ज़लों के वो जालिम उन्वान हो गए.

पहचाना ना जिन्होंने खुद को आईने में यारब
हाथों में उन्ही के उनके सब मीजान हो गए.

तपिश में तपाने से मिलता था सुकूं जिनको
न जाने कैसे वो सहरा में नखलिस्तान हो गए.

बर्बाद करने को तुले थे जो खुदगर्ज़ी के सौदाई
इजलास-ए-ज़ुल्मत में वो उनसे पशेमान हो गए.

उनकी तवस्सुम और ख़ुशी जलाती हैं जिनको
वो ही उनकी नज़रों में क्यूँ यजदान हो गए.

न समझे कभी उनकी चाहत-ओ-आहट को
वो ही उनके अरमानों के तर्जुमान हो गए.

कहते रहे हम नज्मो-ग़ज़ल यादों में उनके
देखा तो पाया जाने कितने दीवान हो गए.

क्यों बहायें अब अश्क सूरत-ए-हाल उनके पर
जब झूठ भी ज़माने के उनके इमकान हो गए.

(निगहबान=रक्षक, उन्वान=शीर्षक, मीजान=तराजू , नखलिस्तान=oasis , यजदान=नेकी का भगवान्, तर्जुमान=अनुवादक,पशेमान=लज्जित.)

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