Thursday, July 29, 2010

तिलिस्म...

तिलिस्म...

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होती है शुरुआत
शून्य से
हर एक
तिलिस्म की,
बस शून्य को ही
होता है पाना
फिर से,
तोड़ कर
तिलिस्म को,
या गुज़र कर
उस से....
अक्सर
रह जाते हैं
हम
उलझ कर
बीच तिलिस्म के,
और
लगते हैं पुकारने,
इस अर्ध सत्य को :
"ब्रह्म सत्यम
जगत मिथ्या !"

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