Tuesday, July 27, 2010

मासूमियत

कभी दुःख
कभी पश्चाताप
कभी संताप
चुभतें है शूल जैसे
पीड़ा की पराकाष्ठा देकर
कर जातें है व्यथित
मन तन को.

जीवन के प्रवाह में ऐसे
झाड़ झंगाढ़ आते ही रहेंगे;
मनुआ सोचता है
मासूम से बालक को
जो हँसता रोता और मुस्कुराता है
सभी होता है उस क्षण में
जब अडोलित होता है मन
वैसे भावों से
हर भावुक दौर के पश्चात
अतिशीघ्र सुकोमल बल मन
भूल जाता है हर गम को
हर ख़ुशी को
और खेलने लगता है
जैसे ना हुआ हो कुछ भी.

ऐसी ही मासूमियत लौट के
आ रही है मेरे जीवन में
बना के नन्हा बालक
झुला रही है जिन्दगी
मुझे अपनी बाँहों में,
भुला के गम सारे
गाने लगा हूँ गीत
मैं अपनी राहों में.

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