Thursday, July 8, 2010

सर-ए-बज़्म....

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सर-ए-बज़्म मिले हम से वो, ज़ज्बात उभर आये

नज़रों में ज़माने के चन्द सवालात नज़र आये.


बेपरवाह बनते थे बस कहने को ज़माने से

पड़ा वास्ता जो खुद से, एहतियात दीगर आये.


बनते थे पारसा शेखजी मिल्लत के सामने

लगी तलब दिल में कूए-खराबात नज़र आये.


आँखें थी मुन्दी मुन्दी स़ी और रात अँधेरी थी

जुबां आलम की पे यारब, इल्ज़ामात ठहर आये.


हुआ था बहोत पीना पिलाना तेरी महफ़िल में

शाना -ए-साकी पे सर रक्खे, सादात मगर आये.


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(सर-ए-बज़्म= भरी सभा में बे-पर्वाह=निश्चिंत, एहतियात=सावधानी, दीगर=दूसरा/अन्य, पारसा=संयमी, शेखजी =धार्मिक नेता,मिल्लत=धर्मं सभा, कूए-खराबात=मधुशाला की गली,आलम =दुनिया, इल्ज़ामात =आरोप, शाना=कन्धा, साकी=शराब पिलाने वाली/प्रेमिका, सादात =श्रेष्ठ/माननीय, तलब=desire )

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