Wednesday, July 28, 2010

गाफिल था मैं..


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गाफिल था मैं
आगाज़-ए-सफ़र में,
राहें भी
अनजान थी'
खुद को
खुद की ना
पहचान थी,
मंजिल की
सोचों का क्या,
फिजायें तक
परेशान थी,
जा रहे थे
बढे कदम,
संग वो
नादान थी,
तारीकी में
लकीर थी
रोशनी क़ी वो
चाहे दुनिया मेरी
सुनसान थी,
भरोसा था
पहुँच पाने का
खुशकिस्मती मेरी
मेहमान थी,
हाथों में हाथ था
जिसका
वही मेरे
अरमान थी,
साथ उसके
हर पांव पर
राह-ओ-मंजिल
दोनों ही
आसान थी...

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