Sunday, July 11, 2010

एक प्रश्न स्वयं यक्ष से....

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यक्ष !
तुम को तो
हुआ करती थी
आदत
प्रश्न करने की,
तुम ही तो थे,
प्रणेता प्रश्नों के
नेतृत्व देनेवाले
प्रश्नवाद को
किन्तु
कोई
पॉँच हज़ार
सालों से
हो गए हो मौन तुम
और
हम सब बन गए हैं
अनुगामी तेरे;

हे महाकाय यक्ष !
तुम्हारी चुप्पी का
संक्रमण
हो गया है व्याप्त
चहुँ-ओर
यहाँ…वहां…
जहां…तहां
गौर, ताम्बई या काला,
हर अधरों के
जोड़ों पर
लग गया है
अंगुली का ताला,
गाँधी जी के
तीन बन्दर भी
गए हैं बदल
जो बुरा नहीं
देखता था
वह देखना
बंद कर
बन गया है
राजनेता,
जो बुरा नहीं
सुनता था
वाह कानों में
कीलें ठोंक
बन गया है
सरकारी अफसर,
और
बचा बुरा ना
बोलनेवाला
वह भी होटों को
सी कर
बन गया है
आम आदमी
कर दिया है बंद
उसने भी
प्रश्न करना...

आज यहाँ
कोई नहीं करता है
किसी से
कोई प्रश्न...

देखो ना तनिक मेरे
यक्ष बन्धु !
जवान औलाद
रंगरेलिया मना
घर लौटती है
और
माँ के जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न....

शौहर डग-मगाते
कदमों से
शराब के नशे में
हो कर चूर
होता है दाखिल
आशियाँ में
बीवी की जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न.....

सियासतदान
भरते हैं
तिजोरियां
अपनी
लबों पर
जनता के
नहीं होता है
कोई प्रश्न....

शागिर्द
इम्तेहान में
करता है
सिर्फ नक़ल
उस्ताद की
जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न....

धर्म गुरु
बरसाते हैं
थोथे लफ़्ज़ों की
बौछारें
मुरीदों के
जेहन-ओ-जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न...

हे मेरे
हम-कलाम यक्ष !
कब तोड़ेगा तू
मौन अपना ?
कब उठेंगे ये
ढेर सारे प्रश्न ?
बस बार बार
मेरा मन
करता है
तुम से
यही प्रश्न,
तुम से
यही प्रश्न...

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