Wednesday, August 3, 2011

सब कुछ क्यों परिभाषित है ?


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जन्म लिया,
लिया माँ ने
जो नाम
कहलाया वो
जीवन भर बाप,
जाति बन गयी,
धर्म बन गया,
युक्ति बिना
सब भाषित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

यूँ चल
यूँ बोल
यूँ खेल
यूँ उठ
यूँ बैठ
यूँ सो
यूँ जाग
सब कुछ ज्यों
आदेशित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

तुम्हे यही तो
पढना है
ऐसा अपने को
गढ़ना है,
पोल पे चमड़ा
मंढना है
यह बनना है
यह ना बनना है
सब कुछ दूजों से
शासित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

(क्रमश:) : आगामी पंक्तियाँ जब 'मूड' आएगा लिखूंगा और पोस्ट करूँगा)

स्वीकार...


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जो भी विषय विकार है
मुझे समस्त स्वीकार है,
घृणा कि बातें क्यों होती
देह बिन सब बेकार है...

आदर्शों के बोझ तले
राई को पहाड़ बनाते हैं,
कृत्रिम पुतलों से मित्रों हम
महल अपना सजाते हैं..

आत्मा के सत्य को हमने
देह से दूर परिभाषा है,
अध्यात्म की एकांगी बातें
दमन-शमन की भाषा है..

हिंसा आक्रमण जो भी होता
दमन के प्रतिकार है
जो भी विषय विकार है
मुझे समस्त स्वीकार है...

(इस रचना में भी जो मूड हुआ लिख दिया, आगे कभी मन होगा तो और पंक्तियाँ जोड़ दूंगा..आप में से कोई इसे आगे बढा सकें तो कृतज्ञ रहूँगा.)