Saturday, July 30, 2011

सब कुछ क्यों परिभाषित है ?

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जन्म लिया,
लिया माँ ने
जो नाम
कहलाया वो
जीवन भर बाप,
जाति बन गयी,
धर्म बन गया,
युक्ति बिना
सब भाषित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

यूँ चल
यूँ बोल
यूँ खेल
यूँ उठ
यूँ बैठ
यूँ सो
यूँ जाग
सब कुछ ज्यों
आदेशित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

तुम्हे यही तो
पढना है
ऐसा अपने को
गढ़ना है,
पोल पे चमड़ा
मंढना है
यह बनना है
यह ना बनना है
सब कुछ दूजों से
शासित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

(क्रमश:) : आगामी पंक्तियाँ जब 'मूड' आएगा लिखूंगा और पोस्ट करूँगा)


Friday, July 15, 2011

तरल...(आशु रचना)

# # #
आसान है
ठोस होना,
होती है
वांछा
सभी की
कुछ ठोस
बन जाने की,
ताकि
बार बार
साबित हो सके
अस्तित्व एक
पृथक सा,
दिखें हम
खड़े अलग से
और
ना बदले जा सकें
आसानी से
बिना तोड़फोड़
और
गलाने के,
झुकते नहीं
टूट जाते हैं
हम बहुधा
ठोस बन कर...

सहजता है
हमारी
हो जाना तरल,
हो कर सरल
ढल पाये हम
किसी भी प्रारूप
और
अनुरूप में,
झारी में समाया
जल
बन जाता है
झारी,
भरा जाकर
प्याले में
ले लेता है
आकार
प्याले का,
सरोवर वही
वही सागर
वही तो है
नदिया चंचल,
मूल में रहता है
वह
जल तरल
नैसर्गिक
सहज
सरल...

Thursday, July 14, 2011

निर्धन...

# # #तैरते तैरते
सुख के
सागर में
डूब जाता है
मन,
फंस जाता है
वह
दुःख के
कीचड़ में,
छटफटाता है
अकुलाता है
झुंझलाता है
हो जाता है
आतुर
उठ जाने के लिए
ऊपर ,
और इसी
उहापोह में
अनायास
मिल जाता है
आत्मा का
अनमोल रतन,
हो जाता है
अनावरण रहस्य:
नहीं है
दुःख भी
निर्धन !

Saturday, July 2, 2011

और बणगी फूटरी (Beautiful) सी ग़ज़ल...


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मं ह़र म्हारो आइनों, कोर कागद सा रेह गया.
नक़ल ना कोई मंड पायी,मूळ जिनगाणी रेह गयी.. (विनेश सर)

(मैं और मेरा आइना कोरे कागज़ से रह गए. कोई भी प्रतिलिपि उस पर नहीं उभरी, जीवन में मौलिकता का अस्तित्व बना रह गया)

परनिंदा करतां करतां जीभड़ली थांरी घस गयी,
कडुवी बात्यां पैठ गयी, मधरी बाणी रेह गयी... (महक)

(परनिंदा करते करते तुम्हारी जिव्हा घिस गयी. कडवी बातें मन के भीतर पैठ गयी और मधुर वचन बाहर ही रह गये.)

सीरो खावंता दांत घिस्या हुणी अणहूँणी हो गयी,
ख़तम हुयो कद को औ खेलो, बाकी का'णी रह गयी. (मधु)

(हलुआ खाने से दांत घिस गये, जो होनी थी वह अनहोनी हो गयी. जो भी हुआ कभी का ख़त्म हो गया बस अब तो कहानी ही बाकी रह गई)

जण जण रा मन राखती बैश्या बाँझड़ी रेह गयी,
बळद बापड़ो थक मरग्यो, सूनी घाणी रेह गयी... (अर्पिता-नजमा)

(नाना प्रकार के मर्दों को खुश करने की 'स्प्री' में बेचारी वैश्या माँ नहीं बन पायी* : *यह एक राजस्थानी कहावत का रूपांतरण है. अरे ! कोल्हू का बैल चक्कर लगाते लगाते थक कर मर गया और कोल्हू सूना रह गया.)

खुद रो लैणे घरे बैठगी, म्हासूँ भी हिस्सो काट्यो,
जो बच गी म्हारै हिस्से री, वा भी थाणी रै(रह) गयी ! (विमलसा)

(एक कहावत है - मेरा तो मेरा, तेरे में भी मेरा हिस्सा !!
अपना तो ले कर घर बैठ गयी और मेरे में से भी हिस्सा काट लिया !
यानि जो मेरे भाग का था, वो भी कब्ज़ा लिया !)

कोई तुझको चलाएगा कब तक.(तरही :जुलाई २०११)

# # #
आग में यूँ तपाएगा कब तक
तू मुझे आजमाएगा कब तक.

साथ अपना है रुहो जिस्म का
तू मुझसे शरमायेगा कब तक.

दे दे के दुहाई रस्मो रवाजों की
तू खुद को भरमायेगा कब तक.

मोल चाहत का करना है मुश्किल
दाम दिल का लगाएगा कब तक.

आदत लौटाने की रख कुछ तो
कोई तुझ पे लुटायेगा कब तक.

खुद ब खुद चल पावों पे अपने
कोई तुझको चलाएगा कब तक.

हो गयी है इंतज़ार की इन्तेहा
तू मुझे तरसाएगा कब तक.

हसीं जिंदगानी हो गयी..(तरही मुशायरा -जून २०११ )


# # #
मिट गया वो जिसपे तेरी, मेहरबानी हो गयी
जो भी हुआ अच्छा हुआ ख़त्म कहानी हो गयी.

ठोकरें खायी हजारों,मायूस हुआ जो दिल ही था
सरे राह कोई मिल गया, ऐसे जौलानी हो गयी.

अश्क तेरे गिर पड़े थे, हुए जुदा थे हम जिस पल
सफ़र मेरे उस बेमंज़िल में, एक निशानी हो गयी.

संग रकीब का रास आया तो खुश थे तुम बेइंतेहा
क्या हुआ जब देखा हम को नम पेशानी हो गयी.

छुप छूप कर आना वो तेरा लखना मेरी बदहाली
कहने को बर्बाद हुए हम, हसीं जिंदगानी हो गयी.

(जौलानी=फुर्ती/चपलता)

देखा अब संसार... (रचनाकार :शिवम्)


[शिवम् (८ वर्ष) कल मेरे साथ था. उसकी एक रचना यहाँ शेयर करते हुए प्रसन्नता हो रही है.]

# # #
प्राण दिये/ ईश्वर ने मुझ को,
मैने पाया घर अपने का
अंडे सा आकार,
आँख खुली तो मैं ने देखा
और कोई प्रकार...

तिनके/ जोड़ जोड़ बना था
मेरा घर संसार,
चुग्गा लाती मम्मी मेरी
देती मुझको प्यार....

पंख मिले/ आई थी ताक़त
उड़ने को तैयार,
मापी थी आकाश की दूरी,
देखा अब संसार...

भंवरा तू भरमाया......


# # #
(यह एक राजस्थानी रचना का रूपांतरण/भावानुवाद है )

यहाँ कहाँ है कोई कमल सा
भंवरा तू भरमाया
पवन महक के पीछे क्यों तू
बांस वनों में आया..

फल फूलों की बात भूल जा,
यहाँ पतों का नहीं काम,
छिद्र कर रहा तू रस खातिर
नहीं मिलना तुझे आराम...

चेत अरे ओ भ्रमर बावरे,
रसिया कुल तू जाया,
नहीं मिलेगा तुझे कमल सा
भंवरा तू भरमाया...

कूट कूट कर भरा है इनमे
गुरूर ऊँच होने का,
खाए रगड़ उपजे अंगारे
ना सोच मेहमां होने का..

मन हिरण के पीछे पीछे
क्यों 'काले कोसां' तू आया,
नहीं यहाँ है कोई कमल सा,
भंवरा तू भरमाया...

भन्न भन्न क्यों करता तू पागल
कर अंतर-अनहद अनुभूत,
भंवरी तेरी है उदास
तू विषय भोग वशीभूत..

कोड़ी के बदले में तू ने
हीरा जनम गंवाया,
यहाँ कहाँ है कोई कमल सा,
भंवरा तू भरमाया...

(काले कोसां राजस्थानी का एक चामत्कारिक एक्स्प्रेसन है..काले याने ब्लेक और कोसां याने दूरी का मील या किलोमीटर जैसा माप : २ मील= १ कोस, इस का प्रयोग दूर दुरूह अनजानी जगह को इंगित करने के लिए किया जाता है..इसे मैने रचना में 'as it is' रखा है.)

ज़रा सी बात..


(एक पत्रिका में इस कविता को पढ़ा, भाव और सहज अभिव्यक्ति अच्छी, लगी शेयर कर रहा हूँ. रचियता अनाम है.)

# # #
समझ में आती नहीं ये,
इक जरा सी बात क्यों !
अपना रोना और हँसना,
दूसरों के हाथ क्यों !

गैर के हाथों में अपनी,
कश्ती की पतवार है.
किस तरफ ले जायेंगे,
यह सोचना बेकार है.
ह़र कदम पर बन के रहबर
रहते अपने साथ क्यों !

प्यार की नज़रों से देखा,
और हंसकर रख दिया.
बेरुखी अपनी दिखाई,
और रुला कर रख दिया.
है भला औरों के बस में
अपने दिन और रात क्यों !

अपने पावों से चले
क्यों दूसरों के रास्ते ?
अपनी सारी ज़िन्दगी क्यों
दूसरों के वास्ते ?
बदले में मायूसियों की
मिलती है सौगात क्यों !

दूसरों के हाथ में
तकदीर अपनी देखना.
दूसरों की आँख में,
तस्वीर अपनी देखना.
बन्धु अपने आप से
होती नहीं मुलाक़ात क्यों !