Thursday, August 30, 2012

कैसे ......?

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ह़र शै लगती
अजीब जैसे,
आ गया ऐ दिल
ये मक़ाम कैसे ?

जुबां चुप है
अल्फाज़ बोलते हैं
मुंह में फिर कसैला
जायका कैसे ?

खुशबू भरा है
गुलशन मेरा,
फूल कहीं दूर फिर
खिला कैसे ?

बहता है दरिया
मेरे ही घर से,
मेरा मन फिर भी
प्यासा कैसे ?

एक है या के
दो हैं हम,
अजनबी साया
दरमियां कैसे ?

जल रही शम्माएं
फानूस हैं रोशन
फिर भी मकाँ में मेरे
अँधेरा कैसे ?

Sunday, August 19, 2012

सूरज निकलता है क्या ?

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हो कितनी ही बेताब
भीड़ सितारों की,
वक़्त से पहले कभी
सूरज
निकलता है क्या ?

अच्छा होगा
काट ले तू
हथेलियाँ अपनी,
हो कर हताश उनको यूँ
मलता है क्या ?

थमी थमी है
हवाएं भी कुछ,
देख लो माहौल में
कोई तूफान कहीं
पलता है क्या ?

हो गया कैसे
बेफिक्र तू
सरे राह चलते
अनहोना
ऐसे सफ़र में
टलता है क्या ?

चल बाँट लेते हैं
गम औरों के
अपने ही
दुखों में यूँ
गलता है क्या ?

जले दिल से
निकली है
फिर भड़ास कोई,
ऐसी चिंगारियों से
कभी पर्वत
जलता है क्या ?

Sunday, August 12, 2012

बोये अर्थ -उगाए अक्षर......

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बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है ,
अनुवादों के
जंगल में कब
मौलिकता
ठहरी है....

नचा रही
जग मंच पे
मुझ को
राग द्वेष की
डोर,
निज की मैं
सुन नहीं पाता
असमंजस है
घोर.....

झर झर आंसू
झरे नयन से
अनुभूति
मूक बधिरी है ,
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है ....

भावुकता के
क्षणिक असर को
माना था
संन्यास,
अनजाने में
मूल सत्व का
किया मै ने
परिहास..

मिथ्या भ्रम
अधिकोष के बाहर
अहम् मेरा
प्रहरी है,
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है...

Thursday, August 9, 2012

बस बीज ही है.....

# # #
बीज बोया
फसल
लहलहायी,
क्रम की
परिणति
पत्र,पुष्प,फल नहीं
बस बीज ही है.....

शाख, कोंपल
फूल पत्ते
आवरण
बस आवरण ,
जो समाया
सब में प्रतिपल
बीज है
बस बीज ही है...

युग संवत्सर
दिवस घड़ी क्षण
बस समय के
माप ही हैं,
कल की कोई
नहीं है हस्ती,
आज है
बस आज ही है...

बूँद बनी
बादल कभी तो,
कभी समंदर
ओंस भी है,
हिम बनी
नदिया बनी वो,
बूँद है
बस बूँद ही है..

चलती राहें
या चरण चलते
कहने को
मंजिल को छूते,
है सफ़र अनवरत
यह तो ,
प्रगति भी
बस गति ही है...

Sunday, August 5, 2012

लिखता रहूँ.....

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टांग दिये
झरोखों पर
मोटे परदे,
फुहारें बारिश की
मगर
दिये जा रही
दस्तक
अब भी...

ना देख पाए
कोई रात के
अँधेरे में ,
उभर आएगी
सिलवटें ज़िन्दगी की
होगी रोशनी
थोड़ी सी
जब भी...

चला जाऊंगा
एक दिन
मैं यकायक,
महसूस
शिद्दत से
दीवारों को
मिरा साथ
तब भी...

बच भी जाऊँ
एक मदहोशी से
ये किस्मत मेरी,
बिखरे पड़े हैं
मगर
दुनियां में कितने
तर्गीब
अब भी...

छिन भी जाए
कागज कलम
ओ-रोशनाई मुझ से,
लिखता रहूँ
आसमाँ पर
तेरा नाम
तब भी...

तर्गीब=प्रलोभन