Saturday, July 31, 2010

दादी और नानी ...

दादी और नानी...

(अमेरिका के न्युयोर्क शहर का किस्सा है यह.)

# # #
काली नेनी
गोरे बच्चे को
'प्रम' में लिए
घूमा रही थी,
एक अनोखे से
अन्दाज़ में
उसे बहला रही थी
दुलरा रही थी...

एक देसी महिला
अपनी बहू की
जचगी कराने
साथ समंदर पार
बुलाई गई थी,
लगी कहने
कितना प्यार
करती है देखो
यह कल्लो इस
गोरे गुड्डे को...

बहू बोली
नहीं समझ रही
मम्मीजी आप
यहाँ के चलन को,
नेनी है यह तो,
बेबी सिटिंग
करा रही है......

भोली सास बोली
मैं भी कहूँगी
नरेश से
जनवा मैं दूँगी,
फिर नानी को भी
बुला लेना
आखिर
समधनजी का भी
तो हक बनता है....
देखो ना
नानी के पास
गुड़ुआ कितना
खुश रहता है...

बंसी

बंसी...

# # #
तान सुनाये
मन हरसाए
कान्हा तेरी
बांसी,
बजते बजते
क्यूँ रुक जाये
ज्यूँ विरहन की
हांसी....

मुदित मन
हिरदै बसाये
सोचि सोचि
मुस्काये,
सुर-लहरी जब
चुप हो जाये,
मेह अंखियन
बरसाए...

चूड़ी साड़ी
जल नदिया का
नील बरन
दरसाए,
कान्हा की छबि
दर्पण टूटे में
कई गुणित
हुई जाए...

अनगढ़ सत्य

######

उस दिन सुबह

अचानक

वो नीलकंठ

न जाने

खो गई थी

किन सपनों में

किस मादक गंध ने

किया था मुग्ध उसको

किसकी याद सताई थी उसे ;

उड़ गई थी शाख से

उड़ती रही-उड़ती रही

कभी नीचे

कभी ऊपर

आसमान के करीब

बादलों के पार

भूल गई थी वह

घोंसले में बैठे

नन्हे शिशु नीलकंठो को

छुट गए थे वे

कोमल मासूम बच्चे

जो दिल के टुकड़े थे उसके,

कुदरत की बुलाहट

वुजूद के एहसास

होतें हैं

सब रिश्तों से परे

उस पल

वह माँ नहीं

बस एक मादा थी

बस एक मादा थी……….

(नर-मादा दोनों के लिए यह एक प्राकृतिक अनगढ़ सत्य है---a raw truth , जिसे अध्यात्म और व्यवस्था ने परिमार्जित करने का प्रयास किया;……सफल या असफल, कहना मुश्किल है.)

Thursday, July 29, 2010

तारे गगन से : खुला आकाश....(दीवानी सीरीज़)



बाहिर मुल्क में हुई एक सेमिनार में शिरकत कर जब कैम्पस लौटा तो उसका खत मेरा इंतज़ार कर रहा था.....उसमें एक नज़्म थी बहुत ही प्यारी, भावुकता और दृढ़ता से भरी हुई. मैने चुप रहना उचित समझा था. मगर दीवानी ठहरी प्रेम दीवानी, एक दिन डाक में एक पत्रिका अनायास ही मुझे मिली, जिसमें वह कविता 'कमसिन' उप नाम से साया हुई थी. लफ़्ज़ों और तखल्लुस से खेलना शायर/शायरा और मोहब्बत करने वालों का पुराना शगल है....मैने समझ लिया कि यह 'दीवानी' का reminder है.

मैने भी कलम उठाई थी और उस मैगज़ीन के एडिटर को एक खत लिखा था, और एक नज़्म भी भेज दी थी.

कितने तारे गगन से.......(दीवानी/कमसिन)

प्रतिपल तुमको अपने मन के
भाव-जगत में पाया है.
सांस-सांस व्याकुल
अधरों पर
नाम तुम्हारा आया है
मैने काटे पर्वत से दिन
नदियों स़ी लम्बी रातें
पल पल करते सदियाँ बीती
थमी ना अंसुवन बरसातें.
सतत प्रतीक्षा की घड़ियों ने
समय कल्प झुलसाया है……..

कितने तारे गिने गगन से
टूटा नहीं अकेलापन
यह मत पूछो कैसे मुझ को
छोड़ गया मन का यौवन
स्वाति चन्द्र को मन चकोर ने
क्षण भर भी ना भुलाया है.

मेरे विश्वामित्री प्रियतम !
करो तपस्या तुम पूरी
कठिन परीक्षा ही कर देगी
दूर हमारी यह दूरी
सहज मिलन वैसे भी जग को
रास भला कब आया है.

खुला आकाश.........(मेरा प्रत्युत्तर)

ना मैं विश्वामित्र हूँ
और ना ही तुम मेनका हो
तपस्या का शब्द तक
नहीं है कहीं मेरे
जीवन के शब्दकोष में…….

बहुतों ने गिने है तारे
किसी ऐसे की प्रतीक्षा में
जिसको नहीं आना था
चिरकुमारी ना रह जाओ
हे सुभागे !
छोडो यह दीवानापन
आ जाओ आब होश में.

प्रेम वह नहीं जो
तुम पर आच्छादित है
प्रतीक्षा या प्राप्ति
जिस में परिभाषित है
यह तो है एक स्थिति
जिसमें तुम्हे प्रथम
मुझको नहीं स्वयं को
चाहना होगा
कायनात की हर शै से दिल
लगाना होगा………….

यह तारे, यह गगन यह पर्वत, यह नदियाँ
यह वृक्ष, यह चंदा और चकोर
यह पवन, यह बादल , यह झरने
यह बूटे, यह पत्ते, यह फूल
सब होंगे साथी तुम्हारे
भाव जगत के…………
ना होगी पीड़ा भरी प्रतीक्षा,
दुःख से सिक्त अपेक्षा,
ना ही कोई तपस्या
ना ही कोई परीक्षा
बस होगा खुला आकाश और
प्रकृति का मृदुल हास …………

तिलिस्म...

तिलिस्म...

# # #
होती है शुरुआत
शून्य से
हर एक
तिलिस्म की,
बस शून्य को ही
होता है पाना
फिर से,
तोड़ कर
तिलिस्म को,
या गुज़र कर
उस से....
अक्सर
रह जाते हैं
हम
उलझ कर
बीच तिलिस्म के,
और
लगते हैं पुकारने,
इस अर्ध सत्य को :
"ब्रह्म सत्यम
जगत मिथ्या !"

Wednesday, July 28, 2010

गाफिल था मैं..


# # #
गाफिल था मैं
आगाज़-ए-सफ़र में,
राहें भी
अनजान थी'
खुद को
खुद की ना
पहचान थी,
मंजिल की
सोचों का क्या,
फिजायें तक
परेशान थी,
जा रहे थे
बढे कदम,
संग वो
नादान थी,
तारीकी में
लकीर थी
रोशनी क़ी वो
चाहे दुनिया मेरी
सुनसान थी,
भरोसा था
पहुँच पाने का
खुशकिस्मती मेरी
मेहमान थी,
हाथों में हाथ था
जिसका
वही मेरे
अरमान थी,
साथ उसके
हर पांव पर
राह-ओ-मंजिल
दोनों ही
आसान थी...

'ना' और 'हाँ'...


# # #
यदि नहीं
सामर्थ्य
तुझ में
'ना'
कहने का,
अर्थ हीन है
'हाँ'
तुम्हारी...
आज्ञाकारिता
और
वफादारी को
जोड़ा है
'हाँ' सिर्फ 'हाँ' से,
अपने ही
सुविधा और
अहम् पोषण
हेतु.........

प्रतिबद्धता है
अभिनय
सीखाया-पढ़ाया सा,
प्रेम है
किन्तु
खिला खिला
जंगली फूल सा,
सहज और
कुदरती...

प्रेम
प्राप्य हुआ हो
याचना से
बन जाता है
प्रतिबद्धता
और
दासत्व,
अर्पित हुआ
स्वेच्छा से जो
प्रेम,
बन जाता है
अनुपम उपहार
जगाने को
चेतना....



Tuesday, July 27, 2010

सुख स्वार्थी होने का


# # #
कहते हैं वे,
प्रेम करो
पड़ोसी से
प्रेम करो
दुश्मन से,
करो तुम प्रेम
औरों से,
मगर नहीं कहते
करो ना तुम प्रेम
स्वयं से....

बुनियादी बात है
जब करेंगे हम
असीम प्रेम
खुद से,
छलकेगा वह
और बहेगा
स्वतः ही
जानिब औरों के..

बांटना घटित होता है
तभी
जब हो कुछ
पास हमारे
जब प्याला प्रेम का
भरता है लबा लब,
छलकता है वह
घटित होता है तब
अर्पण
ना कि त्याग और दान,
कोई एहसान नहीं
देनेवाले का,
बल्कि शुक्रगुजार
हुआ जाता है
पानेवाले का,
जिसने किया
आत्मसात
उस उफनते,
छलकते,
बहते,
प्रेम के धारे को...

हो जाएँ हम
खुश
सुकूं और शांति से भरे
मौन और संतुष्ट
ताकि पहुंचे हमारा
भाव भरे पूरे होने का
सब तक..

बांटना बनता है
हर्षातिरेक,
दिया जाता है जब
बिना किसी याचना के,
बिना कुछ जताए,
बिना कुछ बताये.....

देना किसीको
होता है ज्यादा
ख़ुशी देनेवाला
पाने से,
हाँ तभी
जब हम बन कर
स्वार्थी करते हैं
खुद से
बे-इन्तेहा मोहब्बत,
असीम प्रेम.....

मासूमियत

कभी दुःख
कभी पश्चाताप
कभी संताप
चुभतें है शूल जैसे
पीड़ा की पराकाष्ठा देकर
कर जातें है व्यथित
मन तन को.

जीवन के प्रवाह में ऐसे
झाड़ झंगाढ़ आते ही रहेंगे;
मनुआ सोचता है
मासूम से बालक को
जो हँसता रोता और मुस्कुराता है
सभी होता है उस क्षण में
जब अडोलित होता है मन
वैसे भावों से
हर भावुक दौर के पश्चात
अतिशीघ्र सुकोमल बल मन
भूल जाता है हर गम को
हर ख़ुशी को
और खेलने लगता है
जैसे ना हुआ हो कुछ भी.

ऐसी ही मासूमियत लौट के
आ रही है मेरे जीवन में
बना के नन्हा बालक
झुला रही है जिन्दगी
मुझे अपनी बाँहों में,
भुला के गम सारे
गाने लगा हूँ गीत
मैं अपनी राहों में.

Monday, July 26, 2010

राहें.....(दीवानी सीरीज)

# # #

'As usual ' उसे 'confuse' होना ही था:

जिन्दगी
भागी जा रही है
अनजान राहों पर.
खोज में
मंजिल के....

काश !
जान गई होती
अहमियत उन्ही राहों की
तो हो जाती
मंजिल आसान
कितनी.......


_____________________________________________________

काश मैं उसे समझा पाता:

कदम रखने से पहिले
राहों को
जान पायें गर
हो जाएगी
आसान मंजिल...
क्यूँ कि :
नहीं होगी
वे राहें
अनजानी स़ी,
ना जानने से
समझोगी कैसे
अहमियत उनकी...


वक़्त है
अब भी ,
प्रिये !
रुको,
सोचो और
समझो.
गर सही है
राह तो
बढ़ चलो तुम
रफ़्तार से,
और
गर हो
गलत राह पर ,
लौट आओ
जानिब मेरे,
जाती हुई
मंजिल को
और भी तो है
राहें....

Saturday, July 24, 2010

शम्मा रोशनी और बर्फ

####################

जुदा होने का एक दौर पहिले भी आया था, लाहौर से निकालने वाले एक रिसाले में जब मैने इस नज़्म को पढ़ा तो समझ गया यह उसने लिखी थी :

"सिवा तिरे
जहाँ का हर ग़म
कदम से कदम मिला
चले जा रहा है
संग मिरे,
सहरा के हरे होने की
उम्मीदों को लिए.

और तुम हो के
जलती हुई शम्मा की
रोशनी में
नहा कर 'बर्फ' हो रहे हो
यह भूल कर कि
शम्मा जल रही है
मौत की जानिब
बढ़े जा रही है
पिघल रही है
क़तरा क़तरा ।"

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मैंने भी दिल्ली की 'शम्मा' में यह लिख भेजा था:

तस्कीन है के
कोई साथ दे
रहा है तेरा
सिवा मेरे भी.
ए मेरी महबूब शम्मा !
मेरे तो फ़ित्रत-ओ-अंजाम है
मिट जाना
जल कर तेरी
लौ में.

उम्मीदों को
कायम रखना
बुझते हुए दम तक
सहरा शायद
हरा ना हो.....मगर
रोशन होगी
जिंदगी जहाँ की
तेरे जलने
और
मेरे जल जाने से.


........

Friday, July 23, 2010

तेरी मेरी भूल --(दीवानी सीरीज )

इंसानी रिश्तों की फ़ित्रत बड़ी अजीब होती है. कभी लगता है सातवें आसमां पर है, जिन्दगी का सार-तत्त्व मिल गया है, यही जिन्दगी है, तलाश पूरी हुई, ऐसे ही झूमते गाते ताजिंदगी रहेंगे. ......और कभी लगता है यह क्या हो गया ? क्यों कर हुआ ? मुझे सतर्क रहना था ? मैं भावना में बहकर गलत चुनाव कर बैठा/बैठी. मैं बहक गया था/बहक गई थी. अब क्या होगा ? ना जाने कितने अनुतरित, सार्थक/निरर्थक प्रश्न आन खड़े होते हैं.

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उसने ना जाने किस पश्चाताप बोध से यह लिखा था:

"जिस दिन शुरू हुआ था
मेरे जीवन का नया अध्याय
तब एक ही बार में
सब मौसमों से
गुजर गई थी मैं.

दरख़्त हरे हुए
और सूख भी गए
फिर सब कुछ लगने लगा था
अर्थहीन सा और
मैं प्रतीक्षा करने लगी थी
अनागत बसंत की .

____________________________________________________________________
मैं ने कहना चाहा था:

बड़ी जल्दी थी
हम को
जो पहले मिलन पर
लिए फंतासियाँ
भोग चुके थे
सब मौसमों को.

ना हुए थे यह
दरखत हरे और
ना ही सूखे थे वे कभी
अर्थहीन सा कुछ भी नहीं था
सब कुछ था समयोचित
अर्थपूर्ण.
जो हुआ नैसर्गिक था
सहज था
मानवतुल्य था.
यदि भूल भी थी
तो वह तेरी अकेली की नहीं
तेरी मेरी भूल थी.
आओ भूल कर
करें प्रतीक्षा
आगत बसंत की
प्रिये!
पतझड़ अब
जाने को है.

Thursday, July 22, 2010

प्रतीक्षा......(दीवानी सीरीज)

उसने कहा था :

# # #
कितने चित्र
बना लिए
कल्पना के रंगों से
कितनी ऋतुएं
समेट ली मैने
तुम्हारी आतुर
पुकार की
प्रतीक्षा में......

..................................................................................................................................
मेरा प्रत्यातुर :

# # #
तुम ने
जो भी
मूर्त अमूर्त
चित्र बनाये
वो मेरे ही
चित्र थे,
तुम ने
जो भी
रंग भरे
वो मेरे ही
रंग थे.....

जब जब
तुम ने
यादों में
बुलाया
मैं यहाँ नहीं
वहीँ था.
मेरी सभी ऋतुएं
तुम्हारी
तुलिका को
समर्पित थी....

आ रहा हूँ
अपने रंगों को पाने,
अपनी ऋतुओं को लेने,
प्रतीक्षा
केवल
तुम्हारी ही नहीं
मेरी भी तो है.....

अपेक्षा (दीवानी सीरीज)


उसने कहा था :

# # #
तुम्हारी
चार पंक्तियाँ
ह्रदय को
छू गयी....

तुम
प्रत्युत्तर की
मत करना
आशा,
अपेक्षा कोई
अच्छी चीज नहीं.....

.....................................................................................................................................
(एक समय था जब मैं भी कुछ इस तरहा सोच लेता था...हाँ वक़्त और तुज़ुर्बों ने बहुत कुछ बदल दिया है...अपेक्षाएं बहुत दुखी करती है...मगर ये सब भी 'phases' खुद को जानने और पहचानने के...आइये अपनी इस बहुत पुरानी बात को आप से शेयर करता हूँ, जो 'on face of it' बहुत सही लग सकती है किन्तु है नहीं।)

# # #
तुम ने
मेरे अल्फाज़ को पढ़ा
ना देखा
उन तूफानों को
जो हर लम्हा
मेरी आँखों में
उमड़ रहे थे....

शुक्र है
मेरे अल्फाज़
तेरे दिल को
छू सके,
प्रत्युत्तर तो
मिलना ही था,
वैसे तूफाँ
जवाबों का
इंतज़ार
नहीं करते....

फिर एक बार
शुक्रिया
नसीहत के लिए भी;
माना कि
अपेक्षा
अच्छी
चीज नहीं,
इन्सान के
जीने का
एक बहाना तो है....

इन्सान की
जिन्दगी का
आगाज़ भी
'अपेक्षा' है
और
आखिर भी,
यह ना हो तो
इन्सान
महज़
बेजान सा
खिलौना है एक
रबर का...


Wednesday, July 21, 2010

मोड़ रिश्तों के (दीवानी सीरीज)

न जाने क्यूँ उसके जीवन के सारे 'complications' को मेरे वजूद से जोड़ा जाता रहा था. मैं शायद उसकी जिन्दगी के सब हादसों, अनचाहे वाकयों और उदासियों का निमित था।

उसकी सारी मुश्किलात और नाकामयाबी का 'सेहरा' मेरे सर बंधता था. ऐसे ही एक दौर में उसने लिखा था:

# # #
जहाँ बाग थे
महल बन गए,
कच्चे रास्ते
सड़क बन गए
लोगों के चेहरे
बदल गए,
किन्तु
जिस मोड़ पर
छोड़ गए थे तुम
मुझ को,
वह वैसा का वैसा
ठगा सा
खड़ा है
आज तक !

_____________________________________________________________________

मेरे मनोभाव कुछ यूँ थे :

# # #
जिस मोड़ पर
जुदा हुए थे
हम-तुम
उस मोड़ को
तू ने ही
चुना था.....

महल
बाग
रास्ते
सब जुड़
जाने का ही
अंजाम होतें हैं,
चेहरे भी
बदलते हैं,
चुनांचे
बदलाव है.
फ़ित्रत
जिन्दगी की...

रिश्तों के
टूटने के
मोड़

होते हैं

मौत की
मानिंद,
तैयार
हर वक़्त
आगंतुक को
अपने
आगौश में
लेने को,
ये मोड़
कभी भी
नहीं रहते
गाफिल और
ठगे ठगे से,
तू ही बता
अब
उस मोड़ की
दास्तान-ए-हकीक़त...

Tuesday, July 20, 2010

नाटक (दीवानी सीरीज)

उसके रिश्तों के पैमाने अंगो और उनकी गतिविधियों से परे नहीं जा पाए। देखिये उस दिन उसकी मेज़ से एक तुड़ा मुडा सा कागज़ का टुकड़ा गिरा जिस पर कुछ यूँ लिखा था:

नाटक (बात दीवानी की)

# # #

"फिर वही आवाज़ !
अब तो सब
नाटक सा
लगता है
कभी बर्फ तो
कभी आग...

यह नहीं
सोच पाती कि
शरीर के किस
अवयव से
समझूँ तुम्हे...

विरक्ति स़ी
हो गयी है मुझे
इस नाटक से।"

पटाक्षेप ( प्रलाप विनेश का)

मैं पढ़ कर सिहर गया, मुझे समझ में आया उसके रूखेपन का राज़. उसी कागज़ के टुकड़े में जो बची हुई जगह थी उसमें कुछ ऐसा सा लिख डाला मैने भी:


# # #

मेरी सदायें
हमेशा तेरे
अवयवों को नहीं
तेरे वुजूद को
पुकारती थी...

बार बार
यही आवाज़ मेरे
सारे अस्तित्व से
निकलती थी
तुम मेरी हो
मैं तुम्हारा हूँ
हम बने हैं
एक दूजे के लिए,
तभी तो यह
तीन शब्द
मेरी आवाज़ बन
तुम तक
पहुंचते थे:
इ लव यू.....

मेरी हकीक़त को
तुमने
महज़ एक
नाटक समझा,
मेरी हंसी
मेरी सिसकियों को
तुमने
ज़ज्बात नहीं
अल्फाज़ समझा,

बर्फ और
आग का
यह खेल
शायद तुमने
खेला था....
मैने तो
खुद को
और
तुझ को
जिया था....

विरक्ति
हो गई है
तुझ को
नाटक से नहीं
खुद से शायद...

मेरे बीते हुए लम्हे !
अब इस
एकांकी का
हो चुका है
पटाक्षेप......



सफल भूमिका....

# # #

होतें है महसूस
एहसास के रिश्ते
बिन देखे
बिन बोले
बिन पहचाने
थोड़े से जाने
थोड़े अनजाने...

एक अंश प्रभु का
तुझ में है
मुझ में भी
हैं इसलिए हम सगे
जुड़े एक दैविक संबंध से
हुआ आगमन पूर्व तुम से
मेरा इस जनम में
कह रहा हूँ
भाषा इस जहाँ की
मैं हूँ पिता तुम्हारा
मैं हूँ माँ तेरी भी....

जिस मग पर बढ़े हैं
डग दृढ़ हो तुम्हारे
ज्ञात है तुम को भले से
उसकी जीवन-सार्थकता
कोई अधूरी यात्रा;
कहीं कर दे ना
यूँ ही पैदा
ग्रंथि अधूरेपन की
भ्रांति असहाय होने की
समझनी है तुझ को ही
व्यापकता इस आशय की
महत्ता इस विषय की...

परदेश गये
अपनों का एहसास भी
जगाता है भाव
स्नेह और स्मृति का
संयोग और नियती का
अदृश्या अपनत्व का
समग्र अस्तित्व का
विस्तार है यह जीवन
बस इसी का…इसी का....

मिलते रहेंगे संगी
बनते रहेंगे कारवाँ
जीवन-यात्रा में
साथ होंगे तुम्हारे
एहसास अपनों के हमेशा
करेंगे स्वागत तुम्हारा
मंज़िल के मुकाम पर
वह प्राणधिक प्रिय
जो हैं अदृश्य किंतु
अजर है अमर है
निकट है बहुत
चाहे हम से दूर है....

मृदुल स्मृतियाँ
प्रेरक भाव
स्नेहिल स्पर्श
होते है अति -शक्तिमान
देते हैं हर पल साथ
समयातीत हो कर
पाने उस लक्ष्य को
जो सांझा था संग उनके
जो बिछड गये हैं
देकर दायित्व तुझ को
उसे अपनाने का
उसे पूर्णरूपेण पाने का.....

विराट की कृपा
रहेगी सदैव संग तुम्हारे
सपने होंगे साकार
यथावत तुम्हारे
शक्तिपुंज बन तुम
करोगे धूमिल सब सहारे
पाओगे पूर्ण व्यक्तित्व
चमकेंगे सब सितारे
लड़ कर तेज़ तूफान से
पहुँचोगे तुम किनारे
पहुँचोगे तुम किनारे.....

आत्मा है सत्य
और शरीर
सीमित तथ्य
ब्रहम है सत्य
जगत एक कृत्य
दो सच्चाइयों के
दरमियाँ
पिरोना है सूत्र तुझ को
यही होगी-भूमिका !
तुम्हारी सफल भूमिका ......

Monday, July 19, 2010

कविता......(दीवानी सीरीज)

अनायास ही उसके सुसुप्त मन की बात शब्दों में ढल कर सामने आ गई:

# # #

"जब अंतर को

छूता है कोई
तब आती है
कविता...

कहती है
आओ
ले चलती हूँ
तुम्हे
उस छोर
जहाँ
नहीं जाती
नाव कोई..."

__________________________________________________________________

मेरे मन का चोर था या ईर्ष्या या अंतर-दृष्टि या साफगोई या 'प्रलाप'...... कह बैठा था:

# # #

हर कोई के
छूने से
भ्रम हो सकता है,
छू रहा है
अंतर को कोई....

और होना
कविता का
किसी के
छूने से
ज्यादा,
खुद के
एहसासों का
उभर
आना होता है...

कविता
कभी कभी
नहीं
ले जाती है
उस छोर पर,
बहा ले जाती है
जानिब
भंवर के,
जहाँ
हर इन्सान
हर नाव
डूब जाते हैं....

Sunday, July 18, 2010

औढ ली चादर आत्म-विश्वास की (दीवानी सीरीज)

उसकी कृतियों के साथ मेरे शब्दों को भी इस पटल पर जगह मिली. किसी ने दर्द को महसूस किया, किसी ने साथ दिया, किसी ने इस आईने में खुद का अक्स निहारा, कुछ भी हो उसके लिखे को मेरे कलाम से ज्यादा पसंद किया गया.....लाजिमी भी है, उसने पूरी ईमानदारी से खुद के एहसासों को अल्फाज़ दिए थे.

उसने पढ़े होंगे यह सब पोस्ट्स तभी तो अचानक उसका लिखा एक ख़त ...ना ना ख़त नहीं...पैगाम...शायद वह भी नहीं...चलिए उसके पेन से निकली एक तहरीर मुझ तक पहुंची है, आप से शेयर करने की इज़ाज़त चाहता हूँ.
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# # #

मैंने
आत्म विश्वास की
चादर औढ ली है.

स्मृतियाँ
सूर्यास्त के बाद
गौधुली में चिपकी
धुंधली पड़ रही है...
स्वाभाविक धरातल
पा रही हूँ मैं....

निस्पंद धडकनें
मीठी गति से
लौट आयी है...

मैंने
आत्म विश्वास की
चादर औढ ली है...

मेरी बात....

आज भी वो वैसी की वैसी है, दिल में कुछ जुबाँ पर कुछ, इसे उसकी बेईमानी या पाखंड नहीं समझिएगा, एक अभिव्यक्ति का अनुपम ढंग है...उसका विशिष्ठ सा.
स्वाभाविक सहजता से उसने स्वयं की पहचान पा ली है, उसने स्वयं को चाहना आरंभ कर दिया है....आत्म विश्वास आ रहा है तभी तो गौर करिए पहली और आखरी पंक्तियों पर:

"मैंने आत्म विश्वास कि चादर औढ ली है."

मेरे मन में उपजे भाव यहाँ लिख रहा हूँ, शायद चुपके से वो भी पढले……..
______________________________________

# # #
क्यों
औढा है
तुमने
उपरी
आवरण,
स्वयंस्फूर्त
आत्म विश्वास
देखा है
सदैव मैंने
तुम्हारे
हरएक
स्पंदन में....

स्मृतियाँ अब
और
उभर कर
आ गई है
सन्मुख
तुम्हारे,
नकारात्मकता
होने को है
तिरोहित
धुन्धलाकर
शनै शनै
धरातल,
और
मीठी धड़कने
उपहार तुम्हारा है
तुमको....

मेरी परछायीं !
तुम मुझ से
बड़ी बन कर
पा रही हो
विस्तार
जीवन में....

यही तो मेरा
स्वप्न है
तू जीये
स्वयं के लिए
चाहे
मैं रहूँ
ना रहूँ....

बस प्रेम की
एक ही
सुर-सरिता
बह रही है
ह्रदय में,
ओंस की आस
मुझे अब
नहीं रही...


ज़ब्त-ए-गम के इम्तेहान...

# # #
मेरे ज़ब्त-ए-गम के बहोत इम्तेहान हो गए
बिना किये ही कुछ भी बस एहसान हो गए.

जो लिखते रहें है दास्ताँ-ए-बर्बादी उनकी
जिस्म-ओ-जेहन उनके के मेहमान हो गए.

चुरा चुरा के बेचते रहें सरमाया जो उनका
न जाने क्यों वो उनके निगहबान हो गए.

रुलाया करते हैं बात बे-बात उनको रात दिन
उनकी ग़ज़लों के वो जालिम उन्वान हो गए.

पहचाना ना जिन्होंने खुद को आईने में यारब
हाथों में उन्ही के उनके सब मीजान हो गए.

तपिश में तपाने से मिलता था सुकूं जिनको
न जाने कैसे वो सहरा में नखलिस्तान हो गए.

बर्बाद करने को तुले थे जो खुदगर्ज़ी के सौदाई
इजलास-ए-ज़ुल्मत में वो उनसे पशेमान हो गए.

उनकी तवस्सुम और ख़ुशी जलाती हैं जिनको
वो ही उनकी नज़रों में क्यूँ यजदान हो गए.

न समझे कभी उनकी चाहत-ओ-आहट को
वो ही उनके अरमानों के तर्जुमान हो गए.

कहते रहे हम नज्मो-ग़ज़ल यादों में उनके
देखा तो पाया जाने कितने दीवान हो गए.

क्यों बहायें अब अश्क सूरत-ए-हाल उनके पर
जब झूठ भी ज़माने के उनके इमकान हो गए.

(निगहबान=रक्षक, उन्वान=शीर्षक, मीजान=तराजू , नखलिस्तान=oasis , यजदान=नेकी का भगवान्, तर्जुमान=अनुवादक,पशेमान=लज्जित.)

कठपुतली......(दीवानी सिरीज)

ना जाने उसे क्यों तरह तरह के एहसास होते रहते थे. अपने को निरीह मजबूर और मुझे दमनकारी साबित करना उसका शगल बन गया था......ना ना कमजोरी बन गया था.
मुझे मालूम था वह मुझ से बहुत प्यार करती थी, और शायद झूठ-मूठ के शिकवे कर के बार बार मुझसे मोहब्बत में भी 'तसल्ली लेने' की मुहीम छेड़ती रहती थी।देखिये उसके शिकवे कि एक बानगी.

खंडित स़ी (दीवानी उवाच)

# # #

रंगमंच के
पुतले तो
हम सभी हैं,
किन्तु
मुझ
कठ-पुतली की डोर
तुम्हारे हाथों में है.

जहाँ घूमते हो
चली आती हूँ
अविचल स़ी
शीतल स़ी,
किन्तु
अब
हो गई हूँ
खंडित सी.....

अबूझ प्रश्न (बात विनेश की)

बखूबी चुप रह सकता था. हर शिकवे का, हर सवाल का कोई जवाब नहीं होता. मगर बुद्धिजीविता कि खुजली बड़ी अजीब होती है, जब एक ने खुजलाया तो दूसरा खुद-ब-खुद खुजलाने लगता है. बस कह बैठा:

# # #

रंग-मंच के
पुतलों के
खेल को
देखना और
समझना है
आसान,
क्योंकि
जो कुछ होता है
घटित
बस होता है
अभिनय मात्र
दर्शकों के
सम्मुख.

किन्तु
काठ की पुतली
जब भी
नृत्य करती है
क्यों हिल उठता है
अंग-प्रत्यंग
नेपथ्य में खड़े
उस सूत्रधार का
जिसके सधे हाथों में
थमी होती है
डोर
उस कठ-पुतली की....

प्रश्न है
विचित्र और
जटिल....
मस्तिष्क को हिला
देनेवाला,
क्या डोर जोडती है
कठपुतली को
सूत्रधार से.....
या जोडती है
अभागे सूत्रधार को
उस टूटी हुई
गुडिया से
जो ना जाने
कितनी बार
तोड़ चुकी है
निरीह
सूत्रधार के
ह्रदय को ?
डोर किस-से
किसको नचवाती है ?
बस यही
अबूझ प्रश्न
अधूरे उत्तर को
साथ लिए
मुंह बाये खड़ा है
आपकी इस
महफ़िल में....


तस्वीर से आती आवाज़...

(I respectfully acknowledge the contribution of my loveliest reader, who has made this poem beautiful....i am re-posting the poem in new version...hope you would enjoy this more.)

# # #

चंचल लहरों के
मध्य ,
सजन
प्रकट
हो जायेगा,
होले से
आकर
वो अचानक
मेरे
निकट
हो जायेगा...

व्याकुल हूँ
आतुर हूँ
तड़फ मेरे
रौं रौं में है
छू ले मुझे
अंग लगाले
चाहत यही
अंतर में है..

निष्ठुर ऐसा
नज़र ना डारे
कसक फिर भी
तन मन में है,
बदन है भीगा
उमंग शिखर पर ,
दिखता वो
कन कन में है..

बहते धारे में
सिमटी हूँ
जैसे आगोश
तुम्हारा है,
जुग जुग से हूँ
संग तुम्हारे
आलम अपना
सारा है ...

कल-कल में
हैं
बातें तेरी,
ठंडक में भी
बसा है तू,
हवा है तुझको
छूकर आती
तू ही छाया है
हर सू...

बसता
धडकन
धडकन
तू ही ,
हर अंग
तुझी को
अर्पण है,
समझ सका ना
दे ना पाया
कैसा तू
निर्दय
कृपण है...

मुस्कान मेरी के
बाशिंदे तुम,
नज़रों में
समाये हो
हर पल,
तुम दूर रहे
प्रियतम तो
क्या
मैं पास
तुम्हारे हूँ
प्रति पल...

Friday, July 16, 2010

पन्ने (दीवानी सीरीज)

जब हम साथ थे तो एक दिन उस ने कहा था:

# # #

"मन की किताब के
हजारों अध्याय
उलट दिए मैने
किन्तु अभी तक
यह नहीं हो पाया
एहसास कि
पहला
और
आखरी
पृष्ठ
कौन सा है ?"

___________________________________________________

मैने उससे विमर्श करते हुए, गरम चाय की प्यालियों में उठती हुई भापों कि सौरभ के बीच कुछ ऐसा सा मंतव्य व्यक्त किया था:

# # #

तुम किताब को नहीं
शायद किताब
पढ़ रही है
तुम को,
मगर तू ने
ठीक ही कहा
तुम कहाँ पढ़ रही हो
किताब को
तुम तो
पलते जा रही हो
महज़ पन्ने.....

ऐसे में क्या
फर्क पड़ता है
कौनसा सफा
आगाज़ है
और
कौनसा आखिर.....

बंद करो यह
खिलवाड़
किताब को
पढने वाले
सफे नहीं
पलटते
सफे नहीं
गिनते
आगाज़
और
आखिर को
नहीं देखते
बस पढ़े जाते हैं,
बस पढ़े जाते हैं.....

घर परिवार...

# # #

कैसी यह
कंटीली स़ी
चारदीवारी है
यारों !
जिसे
कहते हो घर
तुम सब....

उदासी के
घाव लिए
जब जब
मैने
रखा था
कदम इसमें
खुले दिल से
छिड़का था
नमक
मेरे अपनों ने.....

जब जब मैं
होकर गया था
खुश
गुनगुनाता सा
झूमता सा
सलीकों का खारा
काढ़ा पिला कर
तोड़ डाला था
मेरी मुस्कानों को....

खून के
रिश्तों को
चुना नहीं
जा सकता,
बाज़-वक़्त
महज़
जाता है
झेला उनको....

शुक्रगुजार हूँ
परवारदीगार तुम्हारा,
कम से कम
तुमने मुझे
नवाज़ा
आज़ादी से
दोस्त
चुनने के
खातिर....

तभी तो
मेरे खुदा
पा रहा हूँ
हौसला
जीने का
इस
चार दीवारी के
बाहिर,
जिसे कहती है
तेरी दुनिया
घर-परिवार....

Thursday, July 15, 2010

अतीत की श्रृंखला (दीवानी सीरिज)

अतीत से दूर भागना, छोड़ना, भूलना यह सब प्रयास हमें और ज्यादा अतीत से जोड़ते हैं...क्यों ना हम अतीत को 'विटनेस' बन कर देखें और वर्तमान की हकीक़तों को जीयें। मगर उसको यह बात कभी पसंद नहीं आती थी, अतीत का मोह उसे हमेशा बोझिल बनाये रखता था. पेश है उसकी एक रचना:

दीवानी उवाच

# # #
भूत
और
वर्तमान के बीच
एक सेतु
बड़ी आशा
और
प्रयासों से
बनाया हुआ...
एक एक तार
जोड़ कर !

कितना
पीछे छूट गया है
सब कुछ
रेलगाड़ी में
जाते समय
छूटते हुए
स्टेशन की तरह
छूट रहा है
एक एक कर
अतीत के
गर्भ में...

ना जाने
कितने आकार
सामने
आने लगते हैं
और
इतिहास के
बोझ तले
दबे रहते हैं....

अतीत की श्रंखला
होती ही है ना
कुछ ऐसी....

वर्तमान: 'हियर एंड नाऊ' (विनेश उवाच)

कितनी बार उस-से चर्चा हुई थी, बात उसको जमती थी मगर...........
अच्छा मैं कुछ ऐसा सोचता और कहता था:


# # #

नहीं जानता
अस्तित्व
किसी
भूत को
किसी
भविष्य को,
इसे बस
ज्ञात है
केवल मात्र
वर्तमान.....

जो कुछ है
बस अभी है
यहाँ है,
समय भी
अंतराल भी,
मैं भी
तुम भी
संसार भी...

मत उलझाओ
स्वयं को
विगत
और
आगत के
गोरखधंधे में....

विगत
तुम्हे धकेलेगा
पीछे
और
खींचेगा
आगत
अपनी ओर......

और
इसी छीना झपटी की
क्रीड़ा में
या
खींच-तान की
प्रक्रिया में
हो जाओगी तुम
भंगित
विखंडित
और
विक्षिप्त....

विगत को कर
आलिंगन
ना पा सकोगी
परमानन्द या
हर्षातिरेक को
(क्योंकि)
विगत का
कोई नहीं है
अपना
अस्तित्व,
वो तो
होता ही नहीं,
उसका होना तो
हो चुका है
विलीन
खेल समापन में....

क्यों
बोझिल होती हो
पाल कर भ्रम
जीने का
विगत
स्मृतियों में
या
समागत की
परिकल्पनाओं में,
एक
बीत चुका है
दूसरा
नहीं है अभी
और
दोनों के
मध्य जो है
विद्यमान
साकार
क्यों
गँवा रही हो उसे
जो है
"HERE & NOW"
वर्तमान,
वर्तमान,
वर्तमान ! ! ! ! !


पन्ने किताब के : (दीवानी सीरीज)


मेरे पिछले जन्मदिन पर DHL से एक packet आया था उस से, उसमें मनिल सूरी का नोवेल “AGE OF SHIVA” था उसकी तरफ से एक ‘surprise gift’ और उसके आखरी पन्नो में एक लिफाफा दबाया हुआ था…..surprisingly लिफाफे के ऊपर लिखा था, “साल-गिरह मुबारक, अपना ख़याल रखना---दीवानी” और उसके नीचे एक लाइन-“इसे अगले सन्डे खोलना.”

दोस्तों, अगले सन्डे खोला उसको----एक कविता थी चिर परिचित अक्षरों में।

गुज़रे लम्हे............(दीवानी)

# # #

कालांतर में
तुम्हारे बिना
हर दुःख
दुनिया का
हो लिया था
साथ मेरे....

आंसुओं की
आंच में
झुलस कर
नीलकमल से
नयनों के कोये
सुर्ख पत्तों सरीखे
हो गए है…

गुज़रे लम्हे
किताब के पन्नो
की तरहा
रहते हैं सामने...

मैं जड़ मूक स़ी
पन्ने पलटती
ढूंढ रही हूँ
राह जीने की....

देह्तर से करता प्यार........ (विनेश)

उसको गिफ्ट के लिए शुक्रिया भी लिखना था, क्योंकि उसे ख़याल था की मुझे मनिल की पहली किताब “The Death of Vishnu” खासी पसंद आई थी, और ‘Time’ में उसकी समीक्षा लिखने के बजाय, एक सामान्य पाठक की तरह मैने उसकी शान में कसीदे पढ़ दिए थे.

दीवानी ने उस बात को मद्दे नज़र रखते हुए यह ‘गिफ्ट’ भेजा था, जो मेरे दिल को छू गया था। मैने बहुत ‘थैंक्स’ दिए थे बुक के लिए और अपने ज़ज्बातों को भी मेल किया था .

# # #

तुम में
एक और
तुम है
उसे रहा हूँ
पुकार....
प्रिये !
मैं
नहीं
देह से
देह्तर से
करता प्यार……..

माना कि
मार्ग
पृथक थे
अपने,
जुदा तुम से थे
मेरे सपने,
(पर)
प्रेम सेतु
मध्य था
अपने……

फिर क्यों
किया
तुम ने
मुझ पर
वह प्रहार,
तन को लेकर
करती रही
तुम सदा
मेरी मनुहार,
जीत जीत कर
तुम को
मैं जाता था
खुद से हार…

उन्ही क्षणों के
अतिरिक्त
तुम ने
काश मुझे
जाना होता
सात समंदर पार
तुम्हे वह
घर नहीं
बसाना होता....

माना कि
सुख साधन
मानव को
वांछित होते हैं
किन्तु
इसी बिना पर
क्यों
आदर्श किसी के
बार बार
लांछित होते हैं…..

जुटा लिया हैं
मैने सब कुछ
छीन काल के
दशनों से,
किन्तु नहीं हूँ
मुक्त
आज भी
उन अनुतरित
प्रश्नों से………

पलट रही हो
मूक जड़ स़ी क्यों
पृष्ट पुस्तक
पुरानी के,
आओ मिल कर
जियें साथ में
लिखें काव्य
जिन्दगानी पे......


Wednesday, July 14, 2010

कृतज्ञता......

# # #
कृतज्ञता
होती है
अभिव्यक्ति
संवेदनशीलता की
दूसरे के
अंतर्मन को
छूने की
किसी के
भावों को
समझने की………

कृतज्ञता के लिए
वांछित है
मन की
उदारता,
होती है
अनुभव
प्रसन्नता
देने में
बस देने में
क्योंकि :
विस्तार है देना
संकुचन है लेना…..

कृतज्ञता ज्ञापन
प्रतिफल है
आत्मविश्वास का
स्वयं-आस्था का
विनम्रता का
अन्तः बाह्य की
एकात्मकता का…….

कृतज्ञता है
एक स्थिति
जहाँ नहीं है
अपेक्षा
नहीं है
आसक्ति
नहीं है
विरक्ति
है बस प्रेम
प्रेम ही प्रेम……….

मेरे अहंकारी मन !
जो भी हुए हैं
कृतज्ञ
तर गए,
प्रेम के निशाँ
कोटि हृदयों में
रख गए,
मेरे ह्रदय में
बसे परमात्मन !
दे मुझे भी
आलोक
कृतज्ञ होने का……..

Tuesday, July 13, 2010

क्रोध : तारतम्यता मात्रा की

(जैनाचार्य सोमप्रभ के ग्रन्थ सिन्दूर प्रकर को पढ़ते कुछ मोती मिले आप से शेयर कर रहा हूँ )

# # #
अमिट
जो होता है
भांति
चट्टान की
दरार के
जो रह सकती है
विद्यमान
सहस्र वर्ष पर्यन्त
होता है वह
तीव्रतम
अनन्तानुबन्धी क्रोध...

भूमि की रेखा
सद्र्श होता है
वह क्रोध
गहन,
मिटाना जिसको
होता है
अति कठिन,
होता है वह
तीव्रतर
अप्रत्याखान क्रोध...

बालू पर बनी
लकीर से
होते हैं
लक्षण जिसके,
हवा के झोंके से
मिट जाते
चिह्न जिसके,
होता है वह
मंद
प्रत्याखान क्रोध...

जल पर बनी
रेखा
मिट जाती
तत्काल,
सब हो जाता
सहज
समय-परिस्थिति-काल,
होता है वह
संज्वलन क्रोध...

(शरीर शास्त्री क्रोध उत्पति के लिए ग्रंथियों के स्राव को उत्तरदायी मानते हैं. एड्रेनल ग्रंथि का स्राव समुचित नहीं होता तो भय चिन्ता और क्रोध की उत्पति होती है. कर्मशास्त्र में क्रोध की मात्र के तारतम्य पर भी गहनता से विश्लेषण हुआ है..उप्रयुक्त रचना जैन परंपरा में क्रोध के वैज्ञानिक अध्ययन की findings पर आधारित है....यह आपकी सोचों के लिए अच्छी खुराक हो सकती है.)

प्रकार क्रोध के...

(स्थानांग सूत्र (जैन परंपरा) में क्रोध के चार प्रकर बताये गए हैं, सहज शब्दों में कह रहा हूँ..)
# # #

अपने ही
निमित
होता
घटित
आत्मप्रतिष्ठित क्रोध..

अन्यों के
निमित
होता
घटित
परप्रतिष्ठित क्रोध..

स्व-पर
निमित द्वय के
होता
घटित
तदुभय प्रतिष्ठित क्रोध..

क्रोध-वेदनीय
कर्मों का होता
जब उदय,
अकारण
अनिमित
होते प्रबल
परमाणु
असह्य,
शांत तिष्ठ
मानव को
करता उत्तेजित
अप्रतिष्ठित क्रोध..

क्रोध दर्शन....

(आइये क्रोध को साक्षी भाव से देखें)

# # #
क्षण भर हेतु
होता है
क्रोध
उत्तम पुरुष का...

प्रहर द्वय
ठहरता
क्रोध
मध्यम पुरुष का..

एक दिवस-निशा
पर्यंत
जीवित रहता
क्रोध
अधम पुरुष का..

जीवन भर
तपाता
जलाता
विनाशता
अन्यों एवं स्वयं को
क्रोध
निम्नतम पुरुष का...

(जैनाचार्य सोमप्रभ कृत सिन्दूर प्रकर ग्रन्थ के विवेचन पर आधारित)

इंतज़ार........(दीवानी सीरीज)

उसके ख़त का मजमून कुछ ऐसा था :

उसका ख़त (बात दीवानी की)

# # #

एक अरसा बीत गया
इस इंतज़ार में कि
एक दिन तुम आओगे
आओगे
और
मेरी आँखों में
भरे बरसों के
आंसुओं को
पी लोगे.....

एक अरसा
बीत गया है
इस इंतज़ार में कि
समुद्र सा ज्वर
कभी तो
बनेगा बर्फ
और तुम
अनुभव करोगे
शीतलता को.....

क्या होता
यदि ह्रदय के किसी
एक कोने में
पड़ी रहती मैं
और
तुम कहते कि
मैं साथ हूँ
तुम्हारे....

मेरा जवाब (बात विनेश की)

मैंने उसके ख़त को बार बार पढ़ा और जवाब भी लिखा, मगर उसे भेज ना सका, आप से शेयर करना चाह रहा हूँ......

# # #
तुम्हारा ख़त
मिला,
प्रिये !
प्यास मेरी
बढ़ गई है
पाके खुशबू
तेरे अश्कों की,
इरादा है
डूब जाने का,
तेरी झील स़ी
आँखों में
समा कर......

पलकों को
ना झुकाना
नज़रों में
डाल कर
नज़रें
कह डालना
जो भी है
शिकवे
तुम्हारे....

आंसू ना
बहा देना
कहीं मैं
प्यासा
तपता
बाहर ही ना
मर जाऊँ.....

मेरे सागर का
ज्वार
बन गया था
भाटा
जब लगने लगा था
मुझ को कि
तुम बिन है सब
सूना सूना सा...

तेरे मौन और
मेरे अहम् ने
दे डाली थी
यह जुदाई...

प्रिये !
गरजो
बरसो
झगड़ो
पिघलाने
बर्फ को
मुझे दरकार है
गर्मी की
ना कि
शीतलता की....

दिल के
हर जर्रे में
समायी है तू
सिर्फ तू....

इज़हार
ना कर सका कि
तुम हो साथ मेरे
हर घड़ी
हर पल
जागते भी
ख्वाब में भी....

(और जैसा कि मैंने कहा, यह अधूरा सा ख़त मैं उसे नहीं भेज सका और वह भी इंतज़ार ना कर सकी........बाकी हाले-दिल फिर कभी.)


Monday, July 12, 2010

एक सवाल मौसम-ए-बहार से....

# # #

ऐ रुतों के शहन्शाह
बसंत !
अच्छा होता
शिव-शम्भू की
तीसरी आँख से निकले
धधकते शोले
तुम्हारे जिगरी दोस्त
मदन के संग
तुझे भी फूंक देते....

रति के दर्द भरे
नालों ने
पिघला दिया था
भोले को
मिल गई थी फिर से
साँसों की खैरात
रति के घर-वाले को;
मगर तुम तो ठहरे
अल्हड से मर्द एक कुंवारे,
कौन रति
बचाती तुम को.....?


ऐ मौसमे बहार !
देखो क्या हस्र हुआ है
तुम्हारी यारी का ?
कहीं भी नहीं दिखते
तुम दोनों दोस्त संग-संग...
तुम्हारा लंगोटिया
कामदेव
आज भी अकेला
अटखेलियाँ करता है,
डांस-बारों में
पञ्च सितारा सरायों में
नीली फिल्मों में
नए नए खेल रचाने वाले
रिसालों और किताबों में
हुस्न और खूबसूरती के
मुकाबलों में
यहाँ वहां
सब जगह फैले
नंगेपन और
जूनून-ए-जवानी में.....

मगर हे ऋतुराज !
तुमको उजाड़ा जा रहा है
मंसूबों के तहत
खुद-परस्त तहजीबदानों के हाथों,
आज तेरी छत
खुला आसमां भी
ज़हरीले धुवें से ढका है,
‘न नास-ते’ का
वरदान पाकर भी
कुदरत कुम्हला रही है,
कट रहे हैं शजर
जो होते है
आशियाँ तेरे…

रोपे जा रहे हैं
कंक्रीट
और
सीमेंट के जंगल
जिन्हें शहर कहतें है वे,
और
वही पेड़
तुझे पनाह देनेवाले
बनकर दरवाजे ,
फर्श,
सोफे
वार्डरोब ,
शो-केस,
मेज़-ओ-कुर्सी,
सजा रहे हैं
इन ख्वाबगाहों को....

हे बसंत !
क्या चाह कर भी तुम
उतर पाओगे
इन बदले बिगड़े
दरख्तों पर...... ?

Sunday, July 11, 2010

एक प्रश्न स्वयं यक्ष से....

# # #

यक्ष !
तुम को तो
हुआ करती थी
आदत
प्रश्न करने की,
तुम ही तो थे,
प्रणेता प्रश्नों के
नेतृत्व देनेवाले
प्रश्नवाद को
किन्तु
कोई
पॉँच हज़ार
सालों से
हो गए हो मौन तुम
और
हम सब बन गए हैं
अनुगामी तेरे;

हे महाकाय यक्ष !
तुम्हारी चुप्पी का
संक्रमण
हो गया है व्याप्त
चहुँ-ओर
यहाँ…वहां…
जहां…तहां
गौर, ताम्बई या काला,
हर अधरों के
जोड़ों पर
लग गया है
अंगुली का ताला,
गाँधी जी के
तीन बन्दर भी
गए हैं बदल
जो बुरा नहीं
देखता था
वह देखना
बंद कर
बन गया है
राजनेता,
जो बुरा नहीं
सुनता था
वाह कानों में
कीलें ठोंक
बन गया है
सरकारी अफसर,
और
बचा बुरा ना
बोलनेवाला
वह भी होटों को
सी कर
बन गया है
आम आदमी
कर दिया है बंद
उसने भी
प्रश्न करना...

आज यहाँ
कोई नहीं करता है
किसी से
कोई प्रश्न...

देखो ना तनिक मेरे
यक्ष बन्धु !
जवान औलाद
रंगरेलिया मना
घर लौटती है
और
माँ के जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न....

शौहर डग-मगाते
कदमों से
शराब के नशे में
हो कर चूर
होता है दाखिल
आशियाँ में
बीवी की जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न.....

सियासतदान
भरते हैं
तिजोरियां
अपनी
लबों पर
जनता के
नहीं होता है
कोई प्रश्न....

शागिर्द
इम्तेहान में
करता है
सिर्फ नक़ल
उस्ताद की
जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न....

धर्म गुरु
बरसाते हैं
थोथे लफ़्ज़ों की
बौछारें
मुरीदों के
जेहन-ओ-जुबाँ पर
नहीं होता है
कोई प्रश्न...

हे मेरे
हम-कलाम यक्ष !
कब तोड़ेगा तू
मौन अपना ?
कब उठेंगे ये
ढेर सारे प्रश्न ?
बस बार बार
मेरा मन
करता है
तुम से
यही प्रश्न,
तुम से
यही प्रश्न...

Saturday, July 10, 2010

प्रश्न द्रौपदी के......

(पांडवों का शिकार होना मामा शकुनी और कौरवों द्वारा रचित षड्यंत्र का या राजसी दुश प्रवर्तियों से जनित दुष-परिणामों का. उनका हार जाना अपना सर्वस्व जुवे में यहाँ तक कि अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जिसे वह एक सम्पति के मुआफिक दांव पर लगा बैठे थे. दुशासन का द्रौपदी को केश पकड़ कर कौरव सभा में निर्दयता और निर्लज्जता पूर्वक ले आना,,, चीर हरण कि असफल चेष्टा और पांचाली की लाज बचाने हेतु पूर्णपुरुष श्रीकृष्ण का मैत्रीपूर्ण अवदान..
इस कविता में क्रिंदन करती द्रौपदी के उन प्रश्नों को समाहित किया गया है जो उसने सभा से और वहां उपस्थित महापुरुषों से किये होंगे)

# # #

स्वर में था
आर्त्त,
करनेवाला
विदीर्ण
हृदय को,
प्रश्न कर रही थी
द्रौपदी
उस सभा
श्रधेय को.....

आचार्य गुरु द्रोण,
कृपाचार्य,
गुरुपुत्र अश्वथामा !
क्यों हो मौन,
नहीं पहुँच रहा
कृन्दन मेरा
क्यूँ
आप सब तक ?
सहना होगा
नारी को
आत्याचार
पुरुष का
कब तक ?

नारी की वत्सल
कोख से उत्पन्न
हे शक्तिशाली पुरुषों !
नारी का
यह करुण विलाप
क्यों नहीं करता
जागृत आपके
पुरुषत्व को ?
दुग्धपान
मातृ स्तनों से
करके भी
कर रहे है आप
क्यूँ
लज्जित
मातृ रूप
नारीत्व को ?

हे अंगराज कर्ण !
इस सती को हरा
आप सम
किसी पुरुष ने
कपटी द्युत
घृणित की
गोट में,
क्या मिलेगा
सद्य स्थान उसे
आपके
अजेय अभेद्य
अभिन्न
कवच की
औट में ?

हे धर्म राज !
हे कुरु सभा !
मेरा यह प्रश्न है
दोनों को
संबोधित,
हारा है जिसने
निज जीवन इसी
द्युत पटल पर
वह नर स्वपत्नी को
रखे
किसी दांव पर
क्या है ऐसा
अधिकृत ?
पति खेले
पत्नी को कर
प्रस्तुत
मानो
वस्तु हो कोई,
जघन्य कृत्य
ऐसा किसी का
क्या है धर्म से
सम्मत ?

हे पितामाह !
परशुराम शिष्य
भीष्म दृढ प्रतिज्ञ !
ज्ञात मुझे है
छवि आपकी है
अति-पवित्र,
किन्तु क्यों मौन आप है
मस्तक अपना नीचे कर ?
हुआ है कैसे
स्वीकार्य आपको
यह पराजित
जीवन चारित्र ?

हे सुधि सभासदों !
सभागृह
यह होता
प्रयुक्त
विमर्श अश्वमेघ
दिग्विजय
वरण करने को,
प्रतिबद्ध
आज क्यों है यह
अबला सम्मान
हरण करने को ?


एक प्रश्न नील कंठ शिव शंभू से.......

# # #
समुद्र मंथन में
देव-असुरों के गठबंधन का
साध्य था पाना अमृत को
साधन बनाया था
विषधारी शेषनाग को
मथानी की रस्सी की तरह;
उगला था हलाहल विष
उस नाग-राज ने…………

हे शिव कल्याणकारी !
छल कपट और स्वार्थ
भरे उन क्षणों में भी
पी डाला था स्वेच्छा से
तुम ने उस घातक गरल को
बचाने संपूर्ण सृष्टि को
सर्वजन हिताय
सर्वजन सुखाय …..

हे विश्वनाथ अक्रूर !
देवों ने पाई थी
बहुमूल्य निधियां
इंद्र ने ऐरावत ,
विष्णु ने लक्ष्मी
अन्य देवों ने
रत्नाभूषण और
अलौकिक शक्तियाँ
असुर अपनी
वासना की कमज़ोरी से
छले गये थे
मोहिनी की मुस्कान से.

हे दिगंबर कालेश्वर सोमनाथ !
इस उहापोह, कपट और
स्वार्थमय स्थिति में भी
तुम रहे थे जागरूक
निस्वार्थ एवं निस्पृह
उड़ेलने कालकूट
को अपने कंठ में
और सती पार्वती ने पकड़ा था
कस कर गला तुम्हारा
रोकने उस जहर को
और बनाया था तुम को
नील कंठ……

हे भोले भस्मेश्वर !
महिमा मंडन से
अनवरत मिथ्या स्तुति से
भ्रमित या प्रभावित हो
तुमने भी स्वीकार लिया था
खिताब महादेव का.

हे अंधकेश्वर अघोर !
उठ गया है एक प्रश्न मन में मेरे:
क्यों नहीं स्थापित किया तुमने कोई
गुरुकुल या विश्वविद्यालय
बन कर आचार्य
करने कायम परंपरा
विषपायी,
निस्वार्थ
कल्याणकारी
शिष्यों की ?

Thursday, July 8, 2010

सर-ए-बज़्म....

# # #

सर-ए-बज़्म मिले हम से वो, ज़ज्बात उभर आये

नज़रों में ज़माने के चन्द सवालात नज़र आये.


बेपरवाह बनते थे बस कहने को ज़माने से

पड़ा वास्ता जो खुद से, एहतियात दीगर आये.


बनते थे पारसा शेखजी मिल्लत के सामने

लगी तलब दिल में कूए-खराबात नज़र आये.


आँखें थी मुन्दी मुन्दी स़ी और रात अँधेरी थी

जुबां आलम की पे यारब, इल्ज़ामात ठहर आये.


हुआ था बहोत पीना पिलाना तेरी महफ़िल में

शाना -ए-साकी पे सर रक्खे, सादात मगर आये.


___________________________________________________

(सर-ए-बज़्म= भरी सभा में बे-पर्वाह=निश्चिंत, एहतियात=सावधानी, दीगर=दूसरा/अन्य, पारसा=संयमी, शेखजी =धार्मिक नेता,मिल्लत=धर्मं सभा, कूए-खराबात=मधुशाला की गली,आलम =दुनिया, इल्ज़ामात =आरोप, शाना=कन्धा, साकी=शराब पिलाने वाली/प्रेमिका, सादात =श्रेष्ठ/माननीय, तलब=desire )

Wednesday, July 7, 2010

घर और नदिया ..(दीवानी सीरीज)


मेरा उस शहर के एक इंस्टिट्यूट में 'एज ऐ गेस्ट प्रोफ़ेसर' जाना हुआ, जहां हम ने कुछ हसीन साल बिताये थे। एक theatre के बाहर उस से मुलाकात हो गई अचानक (सच में तो मैं उसे तलाश कर रहा था॥मगर अन्दर से, ऊपर से 'i don't care attitude' ही ओढ़ रखा था), हम दोनों मुस्कुरा दिए, साथ चलने लगे उस ने कहा :

बात दीवानी की...

# # #
चलो,
आज तुम्हे
अपना
घर
दिखा लाऊं....

दीवार पर लगी
काली पड़ गयी
अर्ध नग्न नारी की
पेंटिंग
धूल से भरा
और शायद
महीनों तक
पलटा नहीं गया
कैलेंडर
ऊपर रोशन-दान में
चिड़ियाँ का
घोंसला
जिसमें चिड़ियाँ
आज भी
अपने बच्चों के
साथ रहती है....

शायद
यही पल
तुम्हारे
पथरीले दिल
और
जिस्म पर
हरी दूब
उगा जाये.....

बात विनेश की...

मेरा दिल तो कर रहा था... साथ चल दूँ, मगर शायद मेरा मेल इगो मुझे रोक रहा था, और अकेले रहने की आदत भी...और यह आशंका भी की कहीं कोई नया सोपान ना शुरू हो जाये। मैने उसके हर लफ्ज़ को ध्यान से सुना, उसके बताये हुए के अनुसार घर की कल्पना भी की, और कहने लगा:

# # #
बहुत देर
हो गई
मुझे अब
जाना है
अपने घर
दूर देश में
जहां रहना
तुझको
गवारा ना हुआ था.

अर्ध-नग्न नारी की
तस्वीर
आज भी क्यों
मौजूद है
(तेरे) घर में
जिसको
तुम ने एक
सौंदर्यमूलक
कलाकृति
कभी ना
माना था
समझा था
मेरी
यौन-विकृति का
एक प्रतीक,
चिड़ियों की
दूसरी पीढ़ी
रह रही है
उसी
तिनकों से बने
घर में
जिसको मैं
बचा कर
रखता था
और
तुम उसे मेरे
छद्म आदर्शों का
दिखावा
समझती थी,
क्यों ना बदला
तुमने
वह पुराना कैलेंडर
जिसमें मेरे
लेक्चर्स की नोटिंग्स है
डिजिटल डायरी के दिए
तुम्हारे उपहार के
बावजूद.

मुझे मालूम है
तुम मुझसे आज भी
प्यार करती हो
और
मैं आज भी
चाहता हूँ तुझको,
मगर
हम दोनों
नदी के
दो किनारे हैं
जिन्हें दूरी बनाये रखने
और
एक दूजे से
जुड़ने को भी
जरूरत होती है
एक नदिया की....

शायद हम
साथ रहने के लिए
ना बने है
क्योंकि नदिया
सूख गई है.....





Tuesday, July 6, 2010

अश्रु जल (दीवानी सीरीज)

आप जानते ही हैं, प्रेम में ज्यादा से ज्यादा साथ होने कि चाहत हमेशा कायम रहती है. जितना भी साथ मिले कम ही लगता है. यह चाहत की प्यास नए नए अंदाजों को अख्तियार कर बहुत ही प्यारी प्यारी स़ी बोलती है.
मेरे साथ को महसूस करने और उसको और ज्यादा चाहने की भावनाओं के साथ कई दफा वह खुद के अकेलेपन को अपनी नज्मों में जाहिर करती थी...ऐसी कि एक नज़्म उसकी आप से शेयर करताहूँ:

_____________________________________________

# # #

आंसू मेरा
आँख से
निकला.
रुखसार पर
ठहरा,
फिर
गिरा
पायल पर,
और
अपने ही
पांव तले
माटी में
समा गया.
____________________________________________________

अब मुझे कैसे गवारा हो, उसके आँख का आंसू किसी 'और' में समाये....हो सकता है यह नज़्म मुझ से कुछ कहने के लिए उस ने लिखी हो...बस मैने भी कह दी अपनी बात:

# # #

यही
होनी है
नियति
उस आंसू की
जो
निकलता है
नयनों से
और
फांद कर
ह्रदय को
गिर पड़ता है
पांव में.

काश !
तेरा यह
उष्ण आंसू
भिगोता
कन्धा मेरा,
रख कर सर
जिन पर
भूल जाती
तुम
दुःख अपना...

पल्लू में बंधा विश्वास...(दीवानी सीरीज)

अपनी मान्यताओं को गौरवान्वित करना या महिमा-मंडित करना उसकी सहजता में शुमार था. उसका बडबोलापन मुझे अच्छा लगता था, अपनत्व होता है वहां शब्दों के उपरी मायने 'मायने' नहीं रखते, उनमें छुपे एहसास को महसूस करना होता है.कहा करता था मैं, "मैं या तो जी सकता हूँ, या विश्लेषण कर सकता हूँ." अत्यधिक विश्लेषण अपेक्षाओं का गर्भाधान है....क्यों नहीं स्वीकार लेते हम जो अभी
'अपना' 'जैसा' है, उद्यान में रंग रंग के फूल खिलें तो उसका सौंदर्य कई गुना हो जाता है। काश ऐसा हो पाता. वो ठीक ही कहती थी,"तुमको तो बस बात करने का मौका मिले, बहक जाते हो." मैं भी कहाँ से कहाँ पहुँच गया....चलिए उसकी एक कविता को पढ़ा जाये:

बात दीवानी की...

# # #

अपने पल्लू में
बांध रखा है
तुम्हारा विश्वास,
पल्लू फटता है
सी देती हूँ
सुई से.

लेकिन कभी सुई
खो जाती है,
कभी धागा,
मैं खोज लेती हूँ
फिर सी देती हूँ.....

इसी
प्रक्रिया में
विश्वास और
पल्लू
बिंध कर
हो गए हैं
छलनी की
तरहा,
लेकिन तब भी
जुड़े हुए हैं वे
सुई और
धागे की
तरहा.....

मेरी अपनी बात

मैं भी कटाक्ष करने में कम नहीं हूँ, दर्शन कि पढ़ाई की तो तर्क शास्त्र पढ़ा और मैनेजमेंट साईंस में जब रोज़ी रोटी के चक्कर में खुद को डुबोया तो 'लोजिक' पढ़ा, और बचपन में लड़ते हुए लोग/लुगाईओं को देखना मेरा पास टाइम रहा था, सो भाषा में 'एसिड' का पुट हमेशा लगा रहता था (इसी का तो नतीजा है, अब उसकी बातों को याद करता हूँ और ऑरकुट कम्युनिटीज में कवितायेँ पोस्ट करता हूँ..)
फिर बहक गया....हाँ तो गुनी जनों ! मेरा बयान भी थोड़ा सा बर्दाश्त करें:

# # #
क्यों बांधा है
मेरे विश्वास को
अपने पल्लू में
पडोसी से
उधार लिए
आटे की
तरहा
या
दया से मिली
भीख की
तरहा,
विश्वास की
जगह तो
हुआ करती है
दिल में....

बता कोई
कभी
पल्लू में
इतनी बड़ी
दौलत को
रख पाया है
महफूज़....?

रखलो ना
मेरे
विश्वास को
अपने दिल की
गहराई में
शायद
खोज तुम्हारी
सुई धागे की
हो जाये
ख़त्म....

तेरा पल्लू तो
उस दिल
और
विश्वास के
अकूत
खजाने को
बचाने के लिए है
गैरों की 'निगौड़ी'
नज़रों से.
पल्लू तुम्हारा
ढांपे रखता है ना
उस दिल को,
जहाँ
मेरे तेरे
प्यार का
आशियाँ है
और
ख्वाबगाह है
विश्वास की
हमारे...

क्यों आने देती हो
'पाजी'
अविश्वास को
दिल-ओ-जेहन में,
हमारी
ज़िन्दगी में,
सुई की
चुभन की तरहा
धागे की
गांठों की
तरहा.....


Monday, July 5, 2010

दो पंछी एक डाल के.......(दीवानी सीरीज)

उसकी एक 'published' कविता छोटी स़ी मगर बहुत ही पीड़ा-सिक्त स़ी:

# # #
आँखें
अभी भी
टिकी रहती है
दरवाजे पर
शायद
तुम
लौट आओ.

स्मृतियों के
चक्रव्यूह में
फंसी मैं,
तुम्हारे
लौट आने के
झूठे एहसास को
पाले
जी रही हूँ.
___________________________________________________________________
और यह है मेरी 'unpublished' रचना, उसकी उप्रयुक्त कविता से प्रेरित:

# # #
प्रतीक्षा
मुझ को भी है
तुम्हारी
किन्तु
तुम छोड़ आने की
अपेक्षा
जो रही हो
बाट मेरी
बैठ कर
किसी और की
चौखट पर.

स्मृतियों से
निकलने के
मार्ग का
मुझे भी नहीं
संज्ञान,
तथापि
मानता नहीं मैं
चक्रव्यूह उसको.
मैं तो यादों के
आकाश में
स्वछन्द
विचरण करता हुआ
हूँ एक पखेरू,
देखता हूँ
हर पल:
कहीं तुम
किसी शाख पर
स्वतंत्र बैठी
मिल जाओ
और
मैं भी
नीचे उतर
हो जाऊँ
सन्निकट तुम्हारे;
और
बन जायें हम
दो पंछी
एक डाल के.
खुले आकाश के
नीचे.

Saturday, July 3, 2010

स्वर और सजिन्दा (दीवानी सीरीज)

अचानक उसका सन्देश आया है:

प्रश्न दीवानी के...
# # #
स्वर कहाँ खो गए ?
कितना
कलरव
करती
और
अपने गीतों से
रिझाती……
कहाँ गया
वह उत्साह ?
अब तो बस
आहें हैं
गुम-सुम
चीन्ठ्ती स़ी.....

किसने
कंठ में
धुआं सा
भर दिया
मानो
किसी ने
कंकर
खिला दिए मुझे
छाले
भर दिए मेरे
कंठ में.
कैसे गीत
सुनाऊं ?

लौटाना
चाहते हो
तो लौटा दो
मेरे स्वर
मुझ को....

प्रत्युत्तर विनेश का

निशब्द कर दिया है इस संवाद ने……कुछ उत्तर देते नहीं बन पड़ रहा है.वह स्थिति तो अब नहीं रही कि…प्रिये ! मैं लोटाउंगा तुम्हारे स्वर..तुम्हारे लबों से निकला एक एक लफ्ज़ मेरे लिए( ?????) है इत्यादि.

जो सोचें और भाव मन में हैं आप से शेयर कर लूँ….आप भी सलाह दे सकतें है ना कि क्या लिखूं जवाब में.
__________________________________________

# # #
संबंधों और
रिवाजों का
प्रदुषण
घेरे हुए है
तुमको
जब तक,
धुआं
कंकड़ और
छाले ही
आते रहेंगे
राहों में,
उस स्वर-लहरी के
जिसकी बोछारें
कभी
मुझ को
तुझ को
हम को
सब को
भिगोती थी
प्रेम की बारिश बने हुए.

बस हो जाओ
मौन
कुछ
समय के लिए
डुबो लो
स्वयं को
गहरे ध्यान में
पहचान होगी
तुझको
अपने सामर्थ्य की
अपने वजूद की
मेरा क्या
मैं तो
एक साजिंदा हूँ
महज़ साथ देने
तेरे स्वरों को…….
कर रहा हूँ

प्रतीक्षा
पुनः प्रस्फुटित
होने वाले
दैविक संगीत की
स्वरों की
सरगम की
और
आठवें सुर की…..

फूल और कांटे....(दीवानी सीरीज)

जिंदगी के कुछ अहम् फैसले दिल से नहीं दिमाग से करने होते हैं, ऐसा ही कुछ वह कहा करती थी। मैं जानता था यह एक वक्ती बात है, मगर इसी बात ने मेरी-उसकी ज़िन्दगी बदल डाली थी....उसके एक अहम् फैसले में इस सोच का बहुत बड़ा असर हुआ था। वक़्त के साथ उसने अपने उदार विचारों से तौबा कर ली थी, औरों की तरहा उसकी सोच भी घड़े हुए 'मापदंडों'और 'clergy' के सुर में सुर मिलाने जैसी हो गई थी....लगता है कुछ राख अंगारे से हटी है, उसका एक मेल जो एक 'common friend' के यहाँ आया कुछ ऐसा था :

बात दीवानी की

# # #

"इसका
क्या
सोच के
हम
फूल थे !

सोच तो
इसका है के
अब
हम
क्यों बौ रहे हैं
कांटे ? "

बात विनेश की

सोचों का सफ़र कहाँ से कहाँ ले जाता है...बात उसकी और मेरी व्यक्तिगत नहीं, ना जाने कब पूरे मुल्क की सी लगने लगी. मैं कुछ ऐसा सोच रहा हूँ इस इबारत को पढ़ कर:
____________________________________
# # #
देर आयद
दुरुस्त आयद !
मगर बहुत देर हो
चुकी है
खैर
"जब जागे तब सवेरा"
इस स्वीकारोक्ति से
बढ़ी है उम्मीदें मेरी .....
कह दो उनको
कैसी जेहाद है यह,
फहराना है परचम
किस खुदा का,
क्या उसका
जो रहता है
दिलों में हमारे
अजान की आवाज़ में
मस्जिद की मीनार में
सूफियों की कवाल्ली में
रक्स -ए-बिस्मिल में
आफताब में
महताब में
दरिया में
समंदर में
गुल में
गुलशन में
बच्चे की मुस्कान में
माँ के दुलार में
सुरों की सरगम में
इन्सान की इन्सान के लिए
मोहब्बत में,
वह जो सबका है
महज़ तुम्हारा नहीं,
जिसने दी है सिर्फ
मोहब्बत !
मोहब्बत !
मोहब्बत !
काश ! तुम
अपने घर
अपने अंतर की जानिब
लौटकर
महसूस करते उसको,
झाँक कर भीतर अपने......

पूछना और बताना उन्हें:

क्या कर रहे हो
खिदमत
और
इबादत उस शैतान की
लिए हाथों में
खून भरा
परचम उसका
और
चला रहे हो कारखाने
नफ़रत के,
बरगला रहे हो
नयी पौध को
मज़हब के नाम पर
चढ़ा के रंगीं ऐनक
तंग-दिली के
तंग-जेहनी के...

खुदा की कायनात
कर चुकी है
तरक्की कितनी और तुम ?
दोहरा रहे हो
आज भी वही बातें
जो साथ वक़्त के
हो चुकी है बातिल...

क्यों देखते हो
अपने इमकान को उनमें;
ज़ुल्मत का वजूद रोशनी की
गैर मौजूदगी में है,
क्या होगा
जब जलवा होगा
सूरज सच का,
पहचाने जाओगे
तुम,
और तब शायद

यह नयी पौध
देगी 'रिटर्न गिफ्ट'
तुम्हे
उसी नफरत का
जो भरी है
कूट कूट कर
इनमें तुम ने,
बहादुर और जहीन
मासूमों में
खेल कर
ज़ज्बात से उनके
और......
ज़ज्बा लिए
अपने नापाक इरादों को
जाने अनजाने
तामीर की शक्ल देने का ...

बंद करो
दहशत गर्दी का
यह नंगा नाच.
ऐसा ना हो
अवतार ले फिर
श्रीकृष्ण
और
सुन कर
‘गीता वचन’ उनके
भूल जायें हम कि
तुम हो हमारे भाई,
सगे हो हमारे,
खून हो हमारे...

सूंघो अपनी तरफ की
माटी को
महसूस करो
उस हवा को
जो बह रही है
दोनों तरफ
सरहद के
जहाँ आज भी
अशीर है
कहानियां कई
बहादुरी की
मुआफी की
हकीक़तों की
इश्क की...

वक़्त अभी भी बचा है,
फूलों के खिलने का,
गुलशन को मह्काने का,
खुदा की पनाहों में होने का
शैतान से रुखसत लेने का....

बदल जाओ
अपने लिए भी
और
धृतराष्ट्र,भिष्म, द्रोण, विदुर
जैसे कई बुजुर्गों के लिए भी,
हीर राँझा
शीरी-फरहद
सोहनी-महिवाल
जैसे नौजवानों के लिए भी,
उन करोड़ों बेगुनाह लोगों के लिए भी
जो बदकिस्मती से
रह रहे हैं
तुम्हारे यहाँ
और
आतुर है
गले मिलने अपने
बिछुड़े भाइयों से........

यह जमीनी हकीक़त है कि
रह सकते हैं
दो भाई बेहतरी से साथ
अपने अपने वजूद के
प्यार और मोहब्बत से,
अगर बाज़ आओ
तुम
साजिशों से अपनी...

सिखाया है पंचतंत्र ने हमे
उसूल
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का,
अमन के संग
अपने अपने
वुजूद को जीने का......

Friday, July 2, 2010

तन : शिव का मंदिर

यह रचना बसवन्ना कि लिखी है और 'Speaking of Shiv:By A.K. Ramanujan' पुस्तक में उधृत है। यह उसका हिंदी अनुवाद है.
____________________________________________________________________
# # #
धनी
बनायेंगे
शिव का मंदिर !

मैं
निर्धन
क्या बनाऊंगा ?

पांव मेरे
स्तम्भ हैं,
काया है भवन
मंदिर का,
सर मेरा है
छाजन.
स्वर्ण का....

सरित संगम के
देव सुनो !
गिर जायेंगे
सारे मंदिर, किन्तु
सदैव रहेगा
तन का मंदिर,
यह शिव का मंदिर....

राम नाम है प्राणायाम....

# # #
'रा' उचारण से
खुले मुख-द्वार
हो निष्कासित
अतिशय विकार.

संचित कर
महाप्राण शक्ति को
पूरक प्राणायाम
हो प्राप्य व्यक्ति को.

'म' अक्षर जब
बोला जाये
मुख-द्वार तब
बंद हो जाये.

विश्वशक्ति
आत्मसात हो जाये
बाह्य कुम्भक का
प्रतिफल पाए.

Thursday, July 1, 2010

दर्द....

# # #
दर्द
बचाता है मुझे
जीवन की असंगतियों से
मिथ्या मैत्री से
झूठी सहानुभूति से
थोथे सामाजिक सम्मान से
मेरे आत्मिक शोषण से,
उन लोगों से जिनके लिए
रिश्ते केवल समय बिताने के साधन है

दर्द
रखता है निकट
मुझ को मुझ से
दिखाता है राह फिर
निज तक लौट आने की
निबाहता है निशि दिन साथ
इसीलिए मैंने उस-से
उम्र भर की मित्रता
निभाने की
प्रतिज्ञा की है.

कोई नाता मुझसे
जुड़ता है ‘दर्द’ का नाता बन
मैं झूमता हूँ
आह्लाद से
पाता हूँ स्वयं को
स्वयं के सत्व के सन्निकट
देखता हूँ परछाई अपनी उस दूसरे में
जो जुड़ जाता है मुझ से
मेरे आँसुओं में
अपने आँसू मिलाकर

.....

एक सहज सी अभिव्यक्ति...

# # #
अल्फाज़
नहीं कह पाते
जानम !
जो भी
हम को
कहना है,
दिल उनका
सुन लेता है
जो अनकहा
इस दिल को
कहना है..

आंसुओं का
कहें क्या
हमदम !
बरबस
उन्हें तो
बहना है,
दिल-ए-नादाँ
ही है
ऐसा
जिसको
सब कुछ
सहना है,
वज़ह यही
दिलबर मेरे !
हमने
मजबूरन,
लिबास
मौन का
पहना है..

बंधन.......(दीवानी सीरीज)

सोचों की जड़ में क्या होता है, जिन्दगी के जानिब हमारा नजरिया उसी का नतीजा हो जाता है। दो या दो से ज्यादा इन्सान जब एक दूसरे से जुड़ते हैं तो इसे साथ चलने का ज़ज्बा भी समझ सकते हैं और 'बंधन' भी.......रिश्तों की गुणवत्ता इस पर निर्भर करती है कि हमारी उनको देखने कि शुरुआत कैसे हुई , हमने उन्हें साथ चलने का एक शुभ अवसर, साथ रह कर खुद को बढ़ाने का एक सौभाग्य, प्रभु की कृपा, एक नैसर्गिक घटना समझा या समझा की यह है एक बंधी हुई शै....एक बंधन ....एक मजबूरी....एक निभाना.....एक फ़र्ज़ अदाई.

जाल : दीवानी की बात

# # #
देखिये वह क्या कहती थी :

"जीवन के
इस बंधन में
इतने जकड़े हुए हैं
हम लोग
कि कुछ और
नज़र ही
नहीं आता.

ज्यों ज्यों
बढ़ते हैं आगे
फंसते ही चले जाते है
अपने ही बुने
जाल में
मकड़ी की
तरहा. "

क्यों हो गया ऐसा ? : विनेश की बात :

"क्यों हो गया ऐसा ? यह सवाल मेरे दिलो-जेहन को झकझोर रहा था...वह 'बेडरूम' में करवटें बदल रही थी और मैं 'स्टडी' में अपनी 'रोक्किंग' चेयर पर बैठा सिगार के धुवें में कुछ ऐसा सा देख रहा था:
__________________________________________
# # #
जब हम उड़े थे
खुले आकाश में
कोई भी बंधन
नहीं था
बीच
तुम्हारे और
मेरे.

बरसों की
जमी धूल
अचानक
तूफाँ बन कर
आ गई थी
सामने
तुम्हारी असुरक्षा ने
खोल दी थी,
किताब एक
नियमों-उपनियमों की
करणीय और
अकरणीय की,
दिल की सच्चाई से
महान
समझा था
हमने
अग्नि की साक्षी को,
जो हमारे दिलों में बसी
प्रेम की अगन से
बहुत मंद थी,
सिंदुर कि लालिमा से
अधिक चमकते थे
चेहरे हमारे
होते थे जब हम करीब
इक-दूजे के,
वेदमन्त्रों से कहीं ज्यादा
तेजोमय और
मधुर थे वे स्वर
जो बिना गूंजे
गूंजते रहते थे
तेरे होने में,
मेरे होने में,
हमारे होने में.
यही नहीं तुमने
जामा पहनवाया था
निकाहनामे का भी
इस रूहानी रिश्ते को
ताकि खुश हो सकें
वे लोग,
जिनमें तू पली बढ़ी थी,
रजिस्ट्रार की
किताबों में करे
तुम्हारे मेरे
दस्तखत
इस मकसद से थे कि
यह रिश्ता होगा और
मुक्कमल
और ज्यादा मज़बूत,
इतने बड़े बौझों को कैसे
उठा पाते
यह नाज़ुक से
एहसास
जो फूलों से भी
बढ़कर
कोमल थे,
नाम दे कर
बंधन का
बे मौत
कर दिया था
क़त्ल
हमी ने
उन खुली सांसों को
जिनकी
बुनियाद पर
हमारी
मोहब्ब्त का महल
हुआ था खड़ा.

सच कहती हो तुम:
ज्यों ज्यों
आगे बढ़ते हैं
फंसते ही
चले जाते हैं
अपने ही बुने
जाल में
मकड़ियों की
तरहा....

_____________________