Thursday, December 19, 2013

पूनम का यह चाँद देखो

# # # # # # 
पूनम का
यह चाँद 
देखो
ले कर आया 
दिव्य चांदनी,
उल्लास का 
प्रसार ऐसा 
कंचन फीका 
मलिन कामिनी...

दिवस मानो 
थम गया हो 
विस्मृत कर 
गति को ही अपनी   ,
विकल चकवी 
भूल गयी ज्यूँ  
आज अपनी 
सतत रागिनी...

स्पर्श कुछ ऐसा हुआ 
है पुलकित 
तन मन स्पन्दनी 
ध्यान ज्यूँ 
हुआ घटित हो.
तिरोहित है 
अंतर सौदामनी ...

बुझा दें हम 
दीप क्यों ना 
सुला कर लौ को 
ए सजनी, 
शीतल इंदु संग 
नहीं रहेगी 
शलभ की वो  
आकुल करनी..

मुग्ध हृदय 
स्वागत पवन का 
खोल कर 
रुद्ध वातायनी 
स्वर्ग धरा पर 
आज उतरा,
है कृपालु 
जगत जननी...

Monday, May 27, 2013

थोथा थूक बिलौना क्या ?

# # # #
दीठ से दोष 
छुपाना क्या ?
नमक की रोटी 
बनाना क्या ?

थोथा थूक
बिलोना क्या ?
भरी लुटिया 
डुबोना क्या ?

औरों के अवगुण
गिनाना क्या ?
लिखे अक्षर
मिटाना क्या ?

बीज बैर के
बोना क्या ?
मैल पराया
धोना क्या ?

दिन में दीया
जलाना क्या ?
बनती बात
बिगाड़ना क्या ?

'मैं का मलबा
ढोना क्या ?
मानव जीवन
खोना क्या ?

जगने की बेला
सोना क्या ?
सपना टूटा
रोना क्या ?

सूखे वस्त्र
निचोड़ना क्या ?
फिर से उन्हें
भिगोना क्या ?

(राजस्थानी बात चीत से प्रेरित)

सजगता छोटी..

# # # #
लबा लब
भरा था 
एक सर, 
उछलती 
कूदती
मण्डूकी 
चंचल, 
चली आई  
बाहर
बेपरवाह 
हो कर
ध्यानी  बगुला 
नज़र 
एकटक,
चोंच में 
लपक कर 
गया था 
गटक,  
अति उच्छ्रंखलता
होती है 
खोटी,
बचाती
विनाश से  
सजगता 
छोटी..

Saturday, April 27, 2013

रख कर बंसरी लबों पर .....

ज़द्दो जेहद
जिंदगी की
दे देती है थकन
रख कर
बंसरी
लबों पर अपने
बन जाता है कोई
किशुन कन्हाई..

बहने लगते हैं
नग्मात के धारे,
चहक उठते हैं
जिस्म औ' ज़ेहन
थके हारे,
बहने लगती है
फिर से जिंदगानी
साथ लिए
हमसफ़र किनारे....

बजने लगता है
रूह में
राग अनहद का.
लगता है जैसे
फिजा अमन की है छाई..

ज़िंदगी मौसिकी का
सज़ीना है
कायनात भी तो
आगाज़ और
अंजाम का ही
करीना है
मांझी हों हम
मुक्कमल जीना
बहर -ए-हयात का
सफीना है

जिंदगी नाम चलने का
बहना है
उसकी फितरत
रुका जो भी
इस सफर में
उसको है मौत आई...

Monday, February 18, 2013

बावरे !


# # #
धोखे है 
तेरी नज़रों के 
क्षितिज के 
इतने छोर,
लौट चला आ
राही पगले
अब तो 
खुद की ओर,

क्या तारेंगे 
सूरज चंदा 
बंधे काल के हाथ,
तेरे दीपक से 
ही होना
तेरा सकल प्रभात,
माने गैरों को 
क्यूँ अपना 
तेरे मन का  
चोर...

अंतर 
अनहद नाद 
समाया
वहीँ तो 
निज आलय को 
पाया 
बाहर में 
कोलाहल भीषण 
कैसा है 
यह शोर...

मिलन 
स्वयं से 
यदि करना है,
तन्द्रा से 
तुझको  
जगना है,
कर ऐसा 
कुछ जतन
बावरे !
जागृत हो 
हर पोर ...

Tuesday, November 6, 2012

अनायास...(आशु रचना)


# # #
आस
और
प्यास
हुई थी
घटित
अनायास,
गिर गए थे
आवरण
जीते थे
एहसास,
तुम और मैं
बन गए थे
हम,
नीचे थी
जमीं
ऊपर
आकाश !

Thursday, November 1, 2012

सम्पूर्ण विलय .....


# # #
मिलना होता है 
नदिया को
अपने प्रीतम से
समा के उसी में 
बन जाती है 
'वो' ही, 
होता है 
प्रवाह उसका 
उसी दिशा में 
जहाँ होता है 
स्थिर सा 
व्याकुल प्रेमी 
उसका, 
किन्तु आकर 
समीप उसके 
बाँट लेती है 
स्वयं को 
कई धाराओं में, 
लेना चाहती हो स्यात 
थाह उस अथाह की 
पूर्व सम्पूर्ण विलय के..

Sunday, October 14, 2012

सर्वोपरि उपलब्द्धि ...


# # # #
कहाँ गए 
वाद्य और संगीत
कहाँ गए 
वो मधुर बोल,
थक सी गयी है 
गीत की पांखें 
मुंदने लगी है 
थकी हारी आँखें,
रूठ से गए हैं 
स्वप्न सुहाने,
घेरने लगे हैं 
कोलाहल के बहाने, 
चल उड़ चल 
ओ वाणी के पक्षी 
करले बसेरा 
मौन के वन में,
होंगे तेरे संगी,
मौन की ध्वनि लिए 
लहरहीन सरिता, 
धरती को स्पर्श करता 
निशब्द सवेरा, 
शिशु तारे की अंगुली थामे 
चाँद को ढूंढती 
यह गूंगी सी 
सुरमई संध्या
और 
इन सब के बीच 
वो अनकहा सत्य 
जो है तुम्हारी 
सर्वोपरि उपलब्द्धि ...........

Friday, October 5, 2012

भ्रम.....


# # #
ओ विजेता
जीवन समर के,
एक पराजित योद्धा है तू,
पाल लिए हैं
भ्रम जिसने
अचूक निशानेबाजी के,
उदारमना वीरता के,
विलक्षण मेधा के,
प्रभावी व्यक्तित्व के,
कितना मिथ्या है
तेरा अस्तित्व बोध,
सुन जरा !
सिसक रही है
इन शोर भरे
जयकारों के बीच
तेरी अपनी ही
चेतना
और
सम्वेदना,
रख दी है तुम ने
जिनके उदगम स्रोत पर
भारी भरकम
चट्टानें
अपने ही अहम् की....

रणछोड़....


# # #
नग्न खड़ी
युवा समस्याएं
अब नहीं
जगा रही कौतुहल
मेरे परिपक्व हुए
चिर युवा मानस में,
जानने लगा हूँ
अब
आमने सामने खड़ी
जीवन की विसंगतियों का सच,
ले ली है जगह
उत्तेजना
चुनौतियों
और
संघर्षप्रियता की,
शांति
सहनशीलता
और
मौन ने,
कायर नहीं
अजेय योद्धा हूँ
आज भी,
बस बन गया हूँ
स्वयं सचेत
रणछोड़
श्रीकृष्ण की
तरह......

Sunday, September 16, 2012

हाफिज खुदा तुम्हारा ....


# # # #
रह रह कर
चली आती है
तेरी कोई सदा ,
याद आ जाती
यकायक
तेरी ह़र इक अदा ,
हां ! यह कैसा
बुलावा है
तेरा है कि वक़्त का
फिर कोई
भुलावा है...

चला आया हूँ
बहोत दूर
अब
आवाज़ ना दे,
दुनिया को
अपने माजी के
भूले बिसरे
राज़ ना दे,
ताश के पत्तों सी
बेगानी ये
महफ़िल है
बेआवाज़ नगमों को
फिर से
कोई साज़ ना दे...

डगमगाती कश्ती को
कब मिल सका
किनारा ,
बनना होता है
आखिर में
खुद ही
खुद का सहारा,
गुज़रा हुआ जमाना
आता नहीं
दोबारा,
हाफिज़ खुदा
तुम्हारा
हाफिज़ खुदा
तुम्हारा...

Thursday, August 30, 2012

कैसे ......?

# # #
ह़र शै लगती
अजीब जैसे,
आ गया ऐ दिल
ये मक़ाम कैसे ?

जुबां चुप है
अल्फाज़ बोलते हैं
मुंह में फिर कसैला
जायका कैसे ?

खुशबू भरा है
गुलशन मेरा,
फूल कहीं दूर फिर
खिला कैसे ?

बहता है दरिया
मेरे ही घर से,
मेरा मन फिर भी
प्यासा कैसे ?

एक है या के
दो हैं हम,
अजनबी साया
दरमियां कैसे ?

जल रही शम्माएं
फानूस हैं रोशन
फिर भी मकाँ में मेरे
अँधेरा कैसे ?

Sunday, August 19, 2012

सूरज निकलता है क्या ?

# # # # #
हो कितनी ही बेताब
भीड़ सितारों की,
वक़्त से पहले कभी
सूरज
निकलता है क्या ?

अच्छा होगा
काट ले तू
हथेलियाँ अपनी,
हो कर हताश उनको यूँ
मलता है क्या ?

थमी थमी है
हवाएं भी कुछ,
देख लो माहौल में
कोई तूफान कहीं
पलता है क्या ?

हो गया कैसे
बेफिक्र तू
सरे राह चलते
अनहोना
ऐसे सफ़र में
टलता है क्या ?

चल बाँट लेते हैं
गम औरों के
अपने ही
दुखों में यूँ
गलता है क्या ?

जले दिल से
निकली है
फिर भड़ास कोई,
ऐसी चिंगारियों से
कभी पर्वत
जलता है क्या ?

Sunday, August 12, 2012

बोये अर्थ -उगाए अक्षर......

# # # # #
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है ,
अनुवादों के
जंगल में कब
मौलिकता
ठहरी है....

नचा रही
जग मंच पे
मुझ को
राग द्वेष की
डोर,
निज की मैं
सुन नहीं पाता
असमंजस है
घोर.....

झर झर आंसू
झरे नयन से
अनुभूति
मूक बधिरी है ,
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है ....

भावुकता के
क्षणिक असर को
माना था
संन्यास,
अनजाने में
मूल सत्व का
किया मै ने
परिहास..

मिथ्या भ्रम
अधिकोष के बाहर
अहम् मेरा
प्रहरी है,
बोये अर्थ
उगाये अक्षर
शब्द फसल
उभरी है...

Thursday, August 9, 2012

बस बीज ही है.....

# # #
बीज बोया
फसल
लहलहायी,
क्रम की
परिणति
पत्र,पुष्प,फल नहीं
बस बीज ही है.....

शाख, कोंपल
फूल पत्ते
आवरण
बस आवरण ,
जो समाया
सब में प्रतिपल
बीज है
बस बीज ही है...

युग संवत्सर
दिवस घड़ी क्षण
बस समय के
माप ही हैं,
कल की कोई
नहीं है हस्ती,
आज है
बस आज ही है...

बूँद बनी
बादल कभी तो,
कभी समंदर
ओंस भी है,
हिम बनी
नदिया बनी वो,
बूँद है
बस बूँद ही है..

चलती राहें
या चरण चलते
कहने को
मंजिल को छूते,
है सफ़र अनवरत
यह तो ,
प्रगति भी
बस गति ही है...

Sunday, August 5, 2012

लिखता रहूँ.....

# # #
टांग दिये
झरोखों पर
मोटे परदे,
फुहारें बारिश की
मगर
दिये जा रही
दस्तक
अब भी...

ना देख पाए
कोई रात के
अँधेरे में ,
उभर आएगी
सिलवटें ज़िन्दगी की
होगी रोशनी
थोड़ी सी
जब भी...

चला जाऊंगा
एक दिन
मैं यकायक,
महसूस
शिद्दत से
दीवारों को
मिरा साथ
तब भी...

बच भी जाऊँ
एक मदहोशी से
ये किस्मत मेरी,
बिखरे पड़े हैं
मगर
दुनियां में कितने
तर्गीब
अब भी...

छिन भी जाए
कागज कलम
ओ-रोशनाई मुझ से,
लिखता रहूँ
आसमाँ पर
तेरा नाम
तब भी...

तर्गीब=प्रलोभन

Saturday, July 28, 2012

मूल्यांकन .....

########
है कैसी विडम्बना !
हो रहा है
राग के सन्दर्भ में
विराग का
मूल्यांकन,
राजपुत्र थे
बुद्ध और महावीर
अकूत दौलत थी
बहुमूल्य वस्त्र
अनगिनत आभूषण
राजमहल
हाथी घोड़े,
हम गिनाते नहीं थकते
वह वैभव और सम्पदा
जो उन्होंने छोड़े ,
परोसते रहेंगे
कब तक
भोग की चाशनी में
पगा कर
त्याग की बातें,
बन्द करो
ऐ अनुयायियों
यह प्रलाप,
कहीं दोनों की
अनुभूत देशनाओं को
अनजान में
अबाध भोग की
प्रतिक्रिया तो नहीं
बना रहे है आप,
नहीं था त्याग उनका
भोग से उत्पन हुई
विरक्ति कोई,
परे गए थे वे
भौतिक ऐन्द्रिक सुखों से,
हो कर चेतन,
है सत्य यही कि
संसारिकता की नीव पर ही
लहराता है
धर्म का केतन....

Sunday, July 15, 2012

सावन...

# # #
विरह मिलन
दोनों ही के,
एहसास लिये है
सावन...

बदरा उमड़े
हैं नयनों में,
रिमझिम रिमझिम
बरखा,
धुल गए हैं
मैल अंतस के
दिल ने दिल को
निरखा,
आगोश में लेकर
सूरज को
की है बादल ने
छावन,
विरह मिलन
दोनों के,
एहसास लिये है
सावन...

झर झर झरना
है नयनन में,
मन है
चंचल हिरना,
बांध रहा
सावन हरियाला
शांत
रवि की किरना,
प्रेम का मौसम
ऐसा मौसम
क्या ठंडक क्या
तापन,
विरह मिलन
दोनों ही के,
एहसास लिये है
सावन...

धरती के
मुखड़े मलिन को
सावन जल ने
धोया,
वृथा हुए
प्रपंच जगत के
ना पाया
ना खोया,
उजला सा
अस्तित्व सामने
सब कुछ है
मनभावन,
विरह मिलन
दोनों ही के,
एहसास लिये है
सावन...

Sunday, July 8, 2012

कोई और...

# # # #
भाव और बोल
गीतों के
मेरे ही थे
गा रहा था
कोई और...

बैठ कर
सुर-पंख पर
उड़ रहे थे स्वर
वेदना के,
आंसू मेरे ही थे
बहा रहा था
कोई और...

मैं फूल चमन का
खुशबू मेरी ही थी,
फिजाओं में
बाँट रहा था
कोई और..

रख दी थी नाव
नदिया पर
मै ने ही,
पतवार
चला रहा था
कोई और...

बिन देखे
बिन सुने
कर रहा था
साज श्रंगार
स्वप्न मेरे ही थे
देख रहा था
कोई और....

Friday, June 29, 2012

मौन स्वर..

# # #
प्रेम की अगन
मगन ह्रदय में
ह़र पल जो दहकेगी...

राख से ढकी हुई
चिंगारी,
तेज़ हवा की है
बलिहारी,
नभ पर चढ़कर
इठलाऊं मैं
चाह यही रखती
मतवारी,
बुलंद इरादे रहे
अगर तो
निश्चित वह लहकेगी...

आती रहती खिज़ा
बेचारी
हरियाली पर होकर
भारी,
माली जो गर
देखे सींचे
खिलती जाती
हर फुलवारी
हो मौजूद
वुजूद बहार का
कोयल तो चहकेगी.....

थक गयी है यह घोर
निराशा
चुस्त दुरुस्त मगर है
आशा,
पी कर अमृत
निज विश्वास का,
रहेगी कायम
उसकी भाषा,
चाहे जुदा हो
डाल फूल से
बगिया तो महकेगी...

आँखें अश्कों से है
भरती
हंसी होठों पर फिर भी
सजती
चाहे कड़के
तड़ित बिछोह की
मिलन वृष्टि तो होती
रहती
सच तो यह कि
मौन स्वरों में
रागिनी तो गह्केगी...

Thursday, June 21, 2012

किस्सा भलमनसाहत का

किस्सा भलमनसाहत का उर्फ़ दास्ताने मच्छर और खटमल..
# # # # # # # # #

# भलमनसाहत कभी कभी बेवकूफी भी हो जाती है.

# अपने तथाकथित आदर्शों और उसूलों के चलते कभी कभी हम इतनी थ्योरिटिकल अप्रोच अपना लेते हैं कि वह जानलेवा हो जाती है.

# लोग हमें 'फॉर ग्रांटेड' लेने लगते हैं, और हम हैं कि लोगों की निरर्थक और स्वार्थपूर्ण मांगों को पूरा करने में ही रिश्ता निबाहने के भ्रम को जीये जाते हैं.

# रिश्तों को जीना एक आर्ट भी है तो सांईस भी.

# हम बचे रहें जरूरी है इसके लिए कि स्टीयरिंग का कंट्रोल अपने हाथ में रखें,यथासमय यथोपयुक्त एक्सलेटर और ब्रेक का इस्तेमाल करते रहें तो सफ़र अच्छे से पूरा हो सकता है.

# हम सावचेत हो कर जीने का ज़ज्बा रख सकते हैं, दुर्घटनाएं तो आकस्मिकता है. हाँ जैसा कि हम हाईवेज पर लगे होर्डिंग्स पर पढ़ते हैं--सावधानी हटी दुर्घटना घटी.

# एक किस्सा आ गया ख़याल मे..... आसान कर देगा वह ऊपर लिखी बातों को.

# एक था बादशाह .सोया करता था अपने रेशमी पर्दों वाले, मखमली गद्दों वाले ख्वाबगाह में.

# एक था मच्छर. लगा था वहीँ एक कोने में रहने. सो जाता था जब बादशाह गहरी नींद, तो निकलता था वह भी बाहिर...और चला जाता था अपनी जगह फिर से चूस कर शाही खून अहिस्ता से.

# गुजर रहे थे मच्छर के दिन यूँ खूब मजे मज़े में.

# एक दिन बादशाह के ख्वाबगाह में आ गया था एक खटमल. कहा था मच्छर ने, "अरे खटमल इस ख्वाबगाह पर तो है सिर्फ मेरा ही अख्तियार, अरे चला जा यहाँ से, होगा यही तेरे लिए बेहतर अरे ओ बेमुरव्वत खाकसार."

# खटमल खिलाड़ी , बोला बहुत मोहब्बत से, घोल कर मीठी मीठी मिसरी जुबाँ पर, "मच्छर दोस्त ! घर आये मेहमान का नहीं करते ना अपमान, मैं तो आया यहाँ एक छोटे से टेम्परेरी मकसद के साथ, समझ लो है कोई दो तीन दिन की बात, चला जाऊंगा मैं, मेरे दोस्त उसके तुरत बाद."

# मच्छर ने रखी जिज्ञासा, " रे खटमल, सब ठीक..मगर मकसद तो बता अपना."

# बोला खटमल, " दोस्त मच्छर ! खूब पिया खून तरह तरह के इंसानों और जानवरों का..मगर नहीं मिला पीने को लहू किसी राजे महाराजे बादशाह का. बस हो जाये मेहरबानी तेरी और ले लूं यह एक्सपीरियंस भी दो एक दिन. चल दूंगा फिर मेरे अज़ीज़ मैं भी राह अपनी.दे दो ना मुझे इज़ाज़त, बात है बस दो एक दिन की ."

# लगी थी मच्छर को लोजिकल बातें खटमल की.. इमोशनल भी, इगो बूस्टिंग भी. सोचा था उस ने अपने उसूलों के फ्रेमवर्क के तहत और हो गया था अग्री वह.

# बस रख दी थी महज शर्त एक जनाब मच्छर खान 'भिनभीने' ने..."रे खटमल तुम करोगे अपना काम जब सोया होगा बादशाह गहरी नींद में."

# बोला शरीफजादा खटमल हुसैन, भाई मच्छर मैं तो अपने काम को दूंगा तभी अंजाम, जब पी चुके होंगे तुम भी खून बादशाह का. अरे तुम कहते हो सरासर वाजिब, वैसे भी पहल तुम्हारी और सिर आँखों पर पालन तेरी इस शर्त का.

# रात हुई, चमके थे आसमान में सितारे..चली थी हवा ठंडी ठंडी और सो गया था बादशाह सलामत.

# खटमल तो खटमल, नहीं रख सका था काबू या यूँ कहें कि मच्छर साहब ' टेकेन फॉर ग्रांटेड 'हो गए उसके लिए . लग गया था ज़ालिम बादशाह के बदन पर.और लगा था चूसने खून उसका. रोकता रहा मच्छर... मगर मिल गया था खटमल को एक नया लुत्फ..जारी रखा था उसने काम अपना करके मच्छर के नालों को अनसुना.

# हुई थी चुभन बादशाह को. चिल्ला उठा था आलमगीर......और सुन कर उसकी आवाज़ दौड़े आये थे कारिंदे.

# छुप गया था खटमल. नज़र पड़ी थी सब की बस मच्छर पर.

# मारा गया मच्छर और खिसक गया था होले से खटमल......

Tuesday, June 19, 2012

आनी जानी...

# # # #
होते हैं कुछ पंछी ऐसे,
नहीं होता जिनका कोई बसेरा
होती है कुछ रातें ऐसी
नहीं होता जिनका सुखद सवेरा,,,,,

नयनों के परिचय का क्या है,
दोहराये निश्चय का क्या है,
कहाँ सत्य निर्वचन हमारा ?
बलिदानों की पृष्ठभूमि में
छुपा हुआ जो तेरा मेरा,,,,,,

योग सुहाने हो सकते थे
कैकयी दशरथ को ना छलती,
आ सकते थे कुछ पल ऐसे
सीता अग्निस्नान ना करती,
होना था जो, हो ही गया था
समझो था बस समय का फेरा,,,,,,,

खाक हुई सोने की लंका,
देखा श्रद्धा को बनते शंका
अस्तित्व भ्रम ने किस कारण यूँ
स्वयं पुरुषोत्तम को था जो घेरा ?

अनहोनी होनी हो जाती
बनती प्रस्तर फूल सी छाती,
घटनाएँ तो आनी जानी
जीवन यह दो दिन का डेरा,,,,,,

Wednesday, June 13, 2012

मैं दर्पण ...(आशु रचना )

# # # #
मैं दर्पण
सहज समर्पण,
अति कृपण
ना अर्पण ना तर्पण,
आवरण
वातावरण
अवधारणा
अवतरण
सब तो हैं तुम्हारे....

मैं दर्पण
नितान्त निरपराध
प्रस्तुत जस का टस
ना कोई साध,
बिम्ब
प्रतिबिम्ब
दर्शन
चिंतन
सब तो हैं तुम्हारे...

मैं दर्पण
कलुष पीठ
उजले नयन
स्पष्ट दीठ,
कुंठित उसूल
जमी धूल
विश्लेषण
संश्लेषण
सब तो हैं तुम्हारे...

अब क्या बात करूँ...(आशु रचना)

# # # #
किस प्याले की
अब क्या बात करूँ....

खूब पिलाया
जब तक मन था
अधरों पे खिला
शब्दों का चमन था,
सच कह उठी
जिस दिन यह जुबाँ थी
उस दिन की
अब क्या बात करूँ ....

छलका था मैं
मय बन कर
मदमस्त किया
हर शै बन कर
जीवन में
कितनी रंगीनी थी
उस मदहोशी की
अब क्या बात करूँ ......


टूटे थे ख़्वाब
देखा जग कर
ज्यूँ फूल गिरे
पत्थर बन कर
पलकों से गिरा
ठुकराया गया था
उस ठोकर की
अब क्या बात करूँ...

हाला से भरा था
वो प्याला
और जख्म ढके था
वह छाला
फूट पड़ा और
बढ़ गयी जलन थी
उस टीस की
अब क्या बात करूँ...

नयनों का था
वो प्याला,
छलक पड़ा था
मतवाला,
था दिल से
जो खिच कर आया,
उस आब की
अब क्या बात करूँ...

Wednesday, May 16, 2012

भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,,,(आशु रचना)

# # #
निर्भय अभय हो पाए कैसे
भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,,,

बदल जाऊँ तो खो ना जाऊं
कैसे जागूं ,सो ना जाऊँ
जिसे उगाया उसको खोदूं
प्रश्न यही अहम् का,
निर्भय अभय हो पाए कैसे
भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,

बातें तेरी तेरी होती,
बातें मेरी मेरी होती,
भेद विकट मिटाऊं कैसे
अहम त्वम वयम का,
निर्भय अभय हो पाए कैसे
भय सब से बड़ा स्वयं का,,,,,

Tuesday, May 8, 2012

महक उठा यह चन्दन वन है ..

########


धूप छाँव अशब्द विन्यास से
बनता जीवन का दर्शन है...

जीना नहीं है वांछा केवल
ऋण बंधन भी असर दिखाते,
रेखाओं की सीमाबंदी में
एहसास दिलों के अंकन पाते,
रे मन देख भुजंग आलिंगन में
महक उठा यह चन्दन वन है....

उलझा मन क्या सच पहचाने
नकाब मुखौटों को वह माने,
असली सूरत भूल गए सब
बस किरदार निभाना जाने,
हँसे भीड़ जो कर कर तंज
मैं सोचूं यह शत शत वंदन है...

थोड़ी भी मुश्किल जो आये
होश मेरे क्यों उड़ उड़ जाये,
सुन भिन भिन कीट-पतंगों की
ध्यान मेरा यूँ डिग डिग जाये,
उड़ान अनगिन पंखों की चाहे
नहीं चंचल यह नील गगन है...

दीजिये और लीजिये : किस्सा मुल्ला नसरुदीन का..

######################
मुल्ला की जमीनी ज़िहनी रसा का कायल हूँ मैं जनाब. माना कि मुल्ला बहुत बातों में सोफेसटीकेशन में थोड़े कमोबेश हैं मगर जब बात जड़ की आती है तो मैने पाया कि मुल्ला अपने मुद्दे में बड़े सावधान है. चूँकि मैं इस मुआमले में सब जानते समझते भी कमज़ोर पड़ता हूँ, मुल्ला बाज़ वक़्त मुझे सप्लीमेंट करता है. मुझे जब किसी को उसकी 'गन्दगी' की हद तक जानना पहचानना होता है, मैं मुल्ला की मदद लेता हूँ. उसको कहता हूँ मैं अमुक इंसान के साथ इंट्रेक्ट करूँगा तू बस 'पर्यवेक्षक' बन कर देख और मुझे अपनी कीमती राय उस शख्स की फ़ित्रत और नीयत पर दे. यह बात और हैं, मुल्ला खाली देखनेवाले बनकर नहीं रह जाते, उनकी जन्मपत्री निकाल ले आते हैं और अपने सटीक विवेचन एवं घटिया विमर्श से मुझे लाभान्वित करते रहते हैं. हाँ उनकी बात में मुझे, "सार सार को गहि रखे थोथा देई उड़ाई" के फ़ॉर्मूला को लागू कर, अपने मतलब के पॉइंट्स निकाल लेता हूँ.

एक दिन मैने मुल्ला से कहा, यार कल किसी दूकानदार ने मुझे पॉँच सौ का एक नकली नोट थमा दिया, क्या करूँ....मेरे पास कोई प्रूफ भी नहीं कि उसने दिया है..यार खामोखाह पॉँच सौ की चपत लग गयी. मुल्ला ने जेब से तीन सौ के नोट निकले और कहा यार पांच सौ की इस चपत को थोड़ा सा हल्का कर दूँ,दे मास्टर वह नामुराद पॉँच सौ वाला हरियल हम को, ऐ फ्रेंड इन नीड इज ऐ फ्रेंड इनडीड..क्या याद करोगे अमां.
मैने कहा यार क्या करोगे इसका,,,बोला अरे कुछ गलत नहीं करूँगा, खातिर जमा कर रख. मैने कहा यह देश के प्रति दुश्मनी है, मुझे नहीं चलाना यह नोट. मुल्ला लगा कहने अरे तू तो पक्का देशभक्त है मासटर कोई पूछे हम से. चल एक दफा दिखा तो सही क्या दिया मेरे इस पढ़े लिखे मुन्ने को किसी ने. मैने नोट उसके हवाले किया, उसने इधर उधर पलटा, देखा, मुंह बनाया ..और सेंटर टेबल पर रख दिया. गप्पें जारी थी...मैं भूल गया.
.दूसरे दिन मेरे यहाँ चाय सुड़कते हुए मुल्ले ने रहस्योद्घाटन किया..अरे वह नोट मैने चारसौ में बुलाकीदास को बेच दिया. बुलाकी दास दानवीर सेठ राम जीवन जी का मुनीम होता था..सेठजी ह़र पूर्णिमा मंदिरों की हुंडियों में 'माल' चढाते थे...जब सब प्रभु का है..तो असली भी प्रभु का, नकली भी..बुलाकीदास भी तो संत महात्माओं की संगत में रहकर फिलोसोफर हो गए थे.

हाँ तो मुल्ला की जमीनी इंटेलिजेंस का एक और वाकया आप से शेयर करता हूँ.

एक दफा हम लोग नदी किनारे टहल रहे थे. देखा बहुत शोर शराबा है..एक शख्स दरिया के पानी में डूबे जा रहा है. लोग कह रहे हैं, "भाईजान अपना हाथ दीजिये ,भाई जान अपना हाथ दीजिये ." मगर वह है कि ऊपर नीचे आ रहा है पानी के मगर हाथ बाहर नहीं कर रहा. मुल्ला ने माजरा देखा, मैने भी हांक लगायी, "जनाब हम आपको बचाना चाहिते हैं अपना हाथ जरा बाहर करिए तो." मकसद को साफ़ करते हुए मेरे यह जुमला भी बेअसर साबित हुआ. भाईजान बस डूबे जा रहे थे, गठरी की तरह पानी में अन्दर बाहर हुए जा रहे थे लेकिन हाथ जैसे उस गठरी में छुपा रखे हों . मुल्ला ने कहा अमां, तुम लोग नहीं जानते कि इसके हाथ कैसे बाहर हो. मुल्ला चिल्लाया, "भाईजान लीजिये ...भाईजान लीजिये ." और बड़े ही अचम्भे की बात उन ज़नाब ने अपने हाथ को बाहर किया..लोगों ने उन्हें पकड़ बाहर खींचा और उनकी जान बच गयी.

मैने मुल्ला से पूछा, मुल्ले यह क्या नायाब तरीका तुम ने सोचा. मुल्ला कहीं, "मासटर माना कि तेरे पास डिग्रियों का अम्बार है, तुमने ना जाने कितनी किताबें पढ़ी है, बहुत चर्चे भी किये हैं बड़े बड़े ज्ञानी लोगों से, मगर तुम पढ़े लिखे लोग जड़ की बात नहीं जानते..अरे मैने देखा जो डूब रहा था वह घूसखोर फ़ूड इन्स्पेक्टर फज़ल मियाँ था...जिसने ज़िन्दगी में हमेशा बटोरा ही है..उसका हाथ इस हांक से ही बाहर होगा लीजिये ..लीजिये ... दीजिये की जुबान वह क्या जाने."

मैने सोचा मुल्ला ने 'लेने' और 'देने' की फ़ित्रत पर कितनी उम्दा मिसाल प्रेक्टिकल में पेश कर दी है.

Thursday, April 12, 2012

दर्द भी मेरा सगा हो गया,,,,,

(यह रचना भी कोई पच्चीस साल से ज्यादा पहले की है.)
# # # # #
तेरे मेरे शब्दों में ऐ सुन,
मेरा तेरा बिम्ब हो गया,,,,,

अनुगूँज हुई गीतों की मेरी
धरा-गगन एकत्व हो गया,
तेरे वाचन मात्र से साथी
निराकार साकार हो गया,
समा गया मेरे 'मम' में 'त्वम'
घटित त्वरित 'वयम' हो गया,,,,

तुझ से मैंने जो कुछ मैंने पाया
क्यों मैं उसको तेरा समझूँ,
जो प्रतिदान सहज स्फूर्त है,
क्यों मैं उसको मेरा समझूँ,
कागज कलम मसी सम्मिलन
अनजाने में काव्य हो गया,,,,,

तू ना होती जो संग मेरे
कैसे शब्द भाव पा जाते,
तेरी मुस्कानों बिन, ए सुन
कैसे स्वतः गीत बन जाते,
तेरे सूने नयन देख कर
दर्द भी मेरा सगा हो गया,,,,,

Wednesday, April 11, 2012

किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

# # #
सौभाग्य मेरा है यह बन्धु !
विरत हूँ ना लिप्त हूँ
ब्रहम सत्य, जगत तथ्य है
कमल सम निर्लिप्त हूँ
वेग आँधियों का सहने हेतु
पर्वत सम अवस्थित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

पथ पर हूँ मैं अग्रसर
चलायमान गतिशील हूँ
नहीं दुश्चिंता गंतव्य की
किन्तु प्रगतिशील हूँ
सहज स्वयं में उपस्थित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

परम्पराओं को मान देता
रूढ़ी-रूग्ण ना चिंतन मेरा
मेधा का कौमार्य अभंगित
प्रतिबद्ध नहीं हैं मनन मेरा,
नहीं संलिप्त भूत-भविष्य से
नव वर्तमान को समर्पित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

कामनाओं का शोषण
ह्रदय को ना क्षीण करता
आघात अंधी वासना का
अस्तित्व को ना जीर्ण करता
सहज स्वीकृति कर दोनों की
प्रसन्न मैं, नहीं व्यथित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

मेरा मौलिक सत्व बन्धु
ना हुआ अब तक है दूषित
नहीं अहम् अस्वीकार मुझ को
किन्तु नहीं अब तक कुपोषित ,
आग्रहों दुराग्रहों से बचा हूँ
सरल तरल और मुक्त हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

Friday, April 6, 2012

बस तुम हो.....

(यह आशु रचना भी पच्चीस साल या कुछ ज्यादा पहले की है, थोड़े संशोधन के साथ आप से शेयर कर रहा हूँ, भाव है बस..शब्द व्यंजन अत्यंत सहज है.)
# # #
झाँकों ना
आँखों में मेरी
जो तस्वीर है,
बस तुम हो....

सूंघो ना
साँसों को मेरी ,
जो खुशबू है ,
बस तुम हो....

गाओ ना
गज़लों को मेरी
जो असआर हैं,
बस तुम हो....

जी लो ना
ज़िन्दगी को मेरी
जो रवानी है ,
बस तुम हो....

छुओ ना
धड़कन को मेरी
जो जुम्बिश है ,
बस तुम हो...

देखों ना
मेरी बाहों में
बंधी है जो ,
बस तुम हो...

करो ना एहसास
कुव्वत का मेरी
जो ताक़त है ,
बस तुम हो ....

सुनो ना
बातों को मेरी
जो अलफ़ाज़ हैं ,
बस तुम हो....

मिलो ना
ख़्वाबों से मेरे
जो हक़ीक़त है ,
बस तुम हो...

जानो ना
सोचों में मेरे
जो वज़ाहत है,
बस तुम हो....

ढूंढों ना
वजूद में मेरे
जो 'होना' है ,
बस तुम हो...
=====================================
मायने
######
जुम्बिश-कम्पन,कुव्वत-हौसला, वज़ाहत- स्पष्टता

Tuesday, April 3, 2012

अनलिखे असआर पढ़े जा रहा हूँ मैं....

(कोई पच्चीस से ज्यादा साल पहले लिखी यह आशु रचना पुराने कागजों में मिल गयी, आप से शेयर कर रहा हूँ..भाषा और तकनीक के नज़रिए से कुछ खामियां है लेकिन यह 'raw nazm'' आपके मन भाएगी उम्मीद करता हूँ.)
# # # # # #
जिस्म तेरा है जैसे कोई कागज़ कोरा
तहरीर-ए-मोहब्बत लिखे जा रहा हूँ मैं,,,

पोशीदा तेरे बालों में ज्यों हर्फे मोहब्बत
अनलिखे असआर पढ़े जा रहा हूँ मैं,,,

लिख दी है नज़्म लबों से ज़बीं पर
माथे की लकीरों को पढ़े जा रहा हूँ मैं,,,

ये तेरी बिंदिया आगाज़ मेरे जहान का
चल चल के क्यूँ ऐसे थमे जा रहा हूँ मैं,,,

झांकती हैं मेरी आँखें तेरी आँखों के सागर में
बिन पीये कोई मय लड़खड़ा रहा हूँ मैं,,,

चमके जो रुखसारों पे मोहब्बत का गुलाल
दीवाली के दिन भी होली खेले जा रहा हूँ मैं,,,

मुंदती है मेरी आँखें चमके हीरा तेरे नाक का
न जाने किस राह पे चले जा रहा हूँ मैं,,,

बिन बोले गा रहे हैं लब तेरे रुबायियात
खुशबु-ए-ख़ामोशी सुने जा रहा हूँ मैं,,,

चिबुक तेरा उठा कर झाँका जो मैंने तुझमें
ये क्या हुआ के तुझमें समाये जा रहा हूँ मैं,,,

Wednesday, March 28, 2012

खंडहर या मानवीय मूल्य

# # # #
खजुराहो
अजंता-एलोरा,
विजय स्तम्भ
दिलवाडा मंदिर
अशोक के शिलालेख
ऐसे ही कुछ अवशेष
अथवा
नालंदा-तक्षशिला के
खंडहर,
मात्र पाषाण नहीं ....
वे तो हैं
उन्ही मौलिक
मानवीय मूल्यों के
प्रतीक चित्र,
जिन्हें कर चुके
क्षतिग्रस्त
हम स्वयं
अपने हाथों...

मेरी ही परिधि ने....

# # #
मेरी ही परिधि ने
मनुआ !
बारम्बार
तोड़ा था
मुझ को,
इति की
अज्ञात सम्बोधि से
उसने
जोड़ा था
मुझको,,,,,

बाँधा था
उसने मुझ को
स्नेहसिक्त अनुरोध से
या किसी अवरोध से
या किसी प्रतिरोध से
या किया था
विचलित मुझको
स्थिर अस्तित्व बोध से,,,,,,,

ढाला था
उसने मुझको
थोड़ा सच्चा ,
थोड़ा झूठा
देकर कोई आकार अनूठा
सर्वमान्य प्रतिरूप में
या किसी अनुरूप में
या किसी प्रारूप में,,,,,,,

तोड़ दी है
परिधि मैने
बिना किसी प्रतिकार के,
जोड़ा है
अब स्वयं को
विराट से
विस्तार से
समग्र के स्वीकार से,,,,,,,,

मेरा तिरोहित जब
'तू' हुआ,
अंधकारमय
जीवन में मेरे
चहुँ ओर आलोक हुआ
निखर गया
ह़र कोना कोना
पूर्ण ने ज्यों
मुझ को छुआ,,,,,,,

सह्प्रतिपक्ष...(अनेकांत सीरीज)

# # #
अनेकान्त का
सुन्दर सूत्र
सह-प्रतिपक्ष...

नहीं है प्रयाप्त
युगल होना मात्र,
विरोधी युगलों का
अस्तित्व है
समस्त प्रकृति में,
समस्त व्यवस्था में..

है यदि ज्ञान तो अज्ञान भी
दर्शन है यदि तो अदर्शन भी
है सुख तो दुःख भी
मूर्छा है तो जागरण भी
है यदि जीवन तो मृत्यु भी
शुभ है तो अशुभ भी
है उच्च तो निम्न भी
अन्तराय है तो निरन्तराय भी....

जीवन चलने का है
आधार
परस्पर विरोधी युगल,
समापन यदि इनका
समापन जीवन का..
आवश्यक है दोनों
पक्ष और प्रतिपक्ष,
निकम्मा है
यदि एकान्तिक हो पक्ष,
अप्रभावी है
यदि हो अकेला प्रतिपक्ष,
दोनों के योग में
निहित
जीवन का साफल्य...

मत देखो
सत्य को
एक ही दृष्टि से,
यदि देखते हो उसे
अस्तित्व की दृष्टि से
देखो ना उसे
नास्तित्व दृष्टि से भी
पाओगे तभी
सत्य की समग्रता,
स्वाभाविक है
एक ही पदार्थ के विषय में
नाना विरोधी
धारणाएं,
स्वीकृति के साथ साथ
चाहिए चलनी
अस्वीकृति भी...

============================================================

बिंदु बिंदु विचार :सहास्तित्व विरोधी हितों का...
(यह सरल कहानी उपर्युक्त प्रस्तुति की पूरक है)

# एक कुम्हार..दो बेटियाँ. एक का विवाह किसान के साथ...दूसरी का कुम्हार के साथ......एक ही गाँव में. दोनों ही खुश.

# कुम्हार गया मिलने अपनी बेटियों से.

# पहले पहूंचा किसान के घर ब्याही बेटी के पास....देखा उसे उदास...पूछ बैठा--बिटिया ! उदास क्यों ?

# कहा बेटी ने---खेती का वक़्त आ गया...बारिश नहीं...आसमां में कहीं भी बदल नहीं आ रहे नज़र...बारिश नहीं होगी तो होगी कितनी मुश्किल....आप करें ना भगवान से अर्ज़ बारिश कराये..

# कुम्हार चला वहां से और पहूंचा दूसरी बेटी के घर......... इस परिवार का पेशा माटी के बर्तन बनाना..

# बेटी ने कहा---और तो सब ठीक ठाक, बाबा. बस अलाव पक रहा है..बारिश का मौसम....अगर शुरू हो गयी बारिश तो तबाही..भगवान से करें ना आप अर्ज़....जब तक आव ना पक जाये...ना हो बारिश.

# कुम्हार ने सोचा...क्या करूँ...कौन स़ी अर्ज़ करूँ...दोनों के हित परस्पर विरोधी है....कहीं भी गलत नहीं है...एक का हित है बारिश होने में...एक का बारिश ना होने में..



# यही है परस्पर विरोधी युगल की मिसाल...सह अस्तित्व है ना इनका....:)

पत्ते पके हुए...

# # #
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

माना देखे थे
अंधड प्रचंड
लड़े थे ये
बन मित्र अभिन्न
किन्तु
ऋतु का यह कैसा क्रम
कर देता इन को
छिन्न भिन्न..

हुआ एक इंगित
हल्का सा
गिर पड़े
एक दूजे को ढके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

कल तक थे
सौम्य श्रृंगार
वे हुए आज
अवांछित भार
आते हैं जब
दिवस लाचार
जाते हैं बिछुड़
बन्धु दो चार ...

नहीं करती सहन
इन्हें धरा भी
अब किस दर
रहे रुके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

सालाना इनका
मरना -जीना
साथ सुख दुःख का
झीना झीना
ना हँसना इन पर
ना ही रोना
काश समझ पाए
मूढ़ मन का
कोई कोना.....

वही खिलाता
कोंपलें नूतन
गिराता है जो
पत्ते थके हुए
देखो कैसे झर रहे
पत्ते पके हुए...

Saturday, March 17, 2012

चमत्कार...

# # # #
देखना है
यदि चमत्कार,
लगा दो लाकर
सिंदूर
किसी बेढंगे
पत्थर पर....

बन जाएगा
देवाधिदेव ,
ठोकरों में लुढ़कता
वही पत्थर,
बढ़ जायेगा
रातों रात उसका भी
धार्मिक स्तर..

किया जायेगा
उसका
पूजन और अर्चन,
खाई जायेगी
कसमें ,
मानी जाएगी
मनौतियाँ,
पूरी की जाएगी
उसी के
इर्द गिर्द
बहुत सारी रस्में...

यारों !
सिन्दूरी
और लाल रंग में
होती है जो
जादुई बात
नहीं देखी
किसी और रंग में
वैसी कोई
चमत्कारी
करामात..

Monday, March 12, 2012

गँवा दोगे तुम यह दिन मटरगश्ती में....(भावानुवाद)

(जर्मन कवि गोएथे की एक प्रसिद्ध कविता का भावानुवाद)
# # # #
गँवा दोगे तुम
यह दिन
मटरगश्ती में
होगी कल की भी तो
यही कहानी
और होगा
अगला दिन भी
ऐसा ही
बल्कि
और ज्यादा...

अनिर्णय की
प्रत्येक अवस्था
करती है
उत्पन्न
विलम्ब अपने ही
और
नष्ट होते जाते हैं
दिन
करते हुए
विलाप
खोये हुए
दिनों के लिए....

हो ना तुम
अंतकरण से
कृतसंकल्प
दृढ प्रतिज्ञ
एवं
निष्ठावान,
पकड़ लो ना
कस कर
इसी पल को
अभी यहीं से...

निहित है
सुस्पष्टता
एवम
निर्भीकता में
प्रतिभा
सामर्थ्य
एवं
जादू सा असर....

हो जाओगे
मात्र अनुरत तो
पा लेगा
ऊर्जा
उत्साह की
मनोमस्तिष्क तुम्हारा,
तुम करो ना
प्रारंभ तो,
हो जायेगा
निश्चित ही
सम्पूर्ण
कृत्य तुम्हारा....

Tuesday, March 6, 2012

म्हारे मनडे री आस......(राजस्थानी)

# # # #
जोवां थांरी म्हे तो उभा बाटड़ल्यां
म्हारा हिंवडे रा हार
म्हारा जीवण सिणगार
बेगा बेगा आय ने , अंग लगाओ म्हारा राज...

प्रीत आपणी जाणे इमरत ज्यूँ मधुर
म्हारे नैणा रा मिठास
म्हारे मनडे री आस
आप आयां/ सब मधरो होसी आओ म्हारा राज....

बोलो जद थे मीठो जाणे र'स भरै
म्हारे दिल रा करार
म्हारे बागां री बहार
इण सूखे बागां/ रौनक क्यूँ ना/ ल्यावो म्हारा राज..

सावणियो बरस्यो है, जाणे जुग बित्याँ
म्हारी मेघ मल्हार
म्हारी सुर झीणकार
गीत हेत रा गाय/ च्यानणी छळकी /म्हारा राज...


( राजस्थानी गीत : म्हे तो थांरा डेरा निरखण आया सा...से तर्ज़ मिलायी जा सकती है.)

(इसमें छन्द मात्रा के लिहाज़ से कुछ सुधार हो सकते हैं)

Tuesday, February 28, 2012

अधबुझी चिंगारी ....

एक आम इंसान और समाज के बीच घटित क्रम को दिखाया गया है, बस मरने के बाद ही अधबुझी या कहें कि सुलगती चिंगारी को नहीं कुचलता समाज.....इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि हम सजग हों और हो सकें आज़ाद रुढियों और मतान्धता से अपने चिंतन मनन के द्वारा. हमारे वैयक्तिक आत्मिक उत्थान के लिए क्या क्या संभावनाएं है, कहीं हम यथास्थिति को बनाये रखने के चक्कर में संभावनाओं को तो नहीं गँवा रहे हैं...क्यों न हम अपनी चेतना को सबल बनायें और देख सकें कि वर्जनाएं क्या है मर्यादाएं क्या. समाज तो मृत शरीर को नवाजता है..क्योंकि वह उसकी मान्यताओं को चेलेंज नहीं करता.

अधबुझी चिंगारी
# # # # #
लग जाते हैं
रूढ़ियों और
मतान्धता के
मज़बूत ताले
चिंतन मनन के
दरवाज़ों पर,
हो जाता है
वध
संभावनाओं का
बनाये रखने
यथास्थिति,
कर दी जाती है
विवश
निर्बल चेतना,
स्वीकारने हेतु
वर्जनाओं को
मर्यादाएं !

लेते हैं जन्म
और
चले जाते हैं
अज्ञात को
बन कर
व्यथित आत्मा
तज कर
पार्थिव देह...

फूंक दिया जाता है
सुला कर
चन्दन चिता पर
सींच कर
घृत कर्पूर,
मध्य
अनबूझे मन्त्रों के
गगनभेदी
उच्चारण के...

रह जाती है शेष
एक अधबुझी
चिंगारी
जिसे छोड़ देते हैं
बिना कुचले
मरघट से लौटते
बतियाते लोग...

प्यासी इन्द्रियाँ...

# # #
होती है याचक
प्यासी इन्द्रियाँ
अपनी सी
प्यासी इन्द्रियों के द्वार
करते हुए गुहार
भिक्षा की,
पहना कर बाना
प्रेम का ,
सौहार्द का,
सहानुभूति का,
उदारमना होने का,
मान लिया जाता है
मात्र स्खलन को
क्षण तृप्ति का,
किन्तु नहीं हो पाता
वस्तुतः विमुक्त
यह मलिन मन
मृग तृष्णा से,
बदलते हैं
फिर से मुखौटे
और
पात्र भी,
खोजे जाते हैं
नये तर्क और युक्तियाँ,
हो जाता है
पुनरारम्भ
नाटक के
एक और अंक का,
और
पर्दा गिरने पर
बिखर जाते हैं
फिर से
अनमेल पंचभूत...

Friday, February 24, 2012

परम एकत्व ....

परम एकत्व
**********
महा शिवरात्रि के पवन दिवस पर शिव-पार्वती के आख्यान को स्मरण करने से बहुत सुकून मिलता है. बहुत कुछ आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक ज्ञान का रिविजन कर पाते हैं हम. शिव और शक्ति....पुरुष और प्रकृति के सम्मिलन के बिना वृतुल पूर्ण नहीं हो पाता....इस मिलन के क्रम में बहुत कुछ है जो साधना से जुड़ा हुआ है...पार्वती की निष्ठा और समर्पण, उसकी तपस्या में प्रकृति से नजदीकता का दृष्टान्त, शिव द्वारा छद्म वेश में पार्वती की प्रतिबद्धता की परीक्षा लेने का गज़ब उपक्रम, देवी का सटीक प्रत्युत्तर, शिव का द्रवित होकर देवी के प्रति अपने प्रेम और आस्था का इज़हार..और आत्मा और परमात्मा के एकत्व के अभियान का इंगित...यही सब कहने का प्रयास है यह रचना...जो स्वांत सुखाय घटित हुई है...
ॐ नमः शिवाय.

परम एकत्व (भाग -१ )
###########

हुई तपस्या रत गौरी, सौदेश्य पाने प्रियवर को,
शिव नाम गुंजारित मन में, तरसे भोले शंकर को...

वर्ष प्रथम अवधि में फल मात्र हुए थे भोजन
द्वितीय वर्षारंभ में हुए पर्ण क्षुधा प्रायोजन..

छूटे क्रमशः वृक्ष पत्र भी, हुई पार्वती अपर्णा,
स्वयं के खातिर स्वयं बनी थी माँ कैसी कृपणा..

अंततौगत्वा शक्ति स्त्रोत थे चन्द्रकिरण नभनीर,
प्रकृति ही पाल रही थी, जगधात्री का कँवल शरीर...

पर्वत पुत्री नहीं थी भिन्न स्वरुप किसी विटप से,
पाना था पुरुष प्रकृति को, समर्पण और सुतप से...

समग्र प्रकृति स्वरुप हुई थी तपस्विनी माँ जगदम्बे,
शिव ह्रदयराज्य साम्राज्ञी, अध्यवसायी माँ श्री अम्बे...

######################################

परम एकत्व (भाग-२)

######

शिव आये छद्म रूप धरे, परखे देवी की निष्ठा को
सादर समुचित पूजे देवी, विप्र की योग्य प्रतिष्ठा को.

पूछा था बहुरूपी शिव ने ,क्या है उसका इंगित सलक्ष्य
पाना है प्रियतम भोले को इस दिशी में है मेरा सुकृत्य.

कुशल अभिनेता अन्तर्यामी सटीक रूप त्रिलोकेश्वर है
हतोत्साह करने देवी को ,आशुतोष लगे दिखाने तेवर है.

कंगन शोभित हाथ तुम्हारे कैसे कर पशुपति के हैं,
लिपटे सर्प नाग जहां पर मानो निखिल धरती के हैं.

कैसा दिखेगा विवाह वेश जो मंडित है हंस चित्रों से,
होंगे रूद्र गज चर्म धरे जो भीगा रुधिर के कतरों से.

न केवल स्वरूप कुरूप उसका वंश परिचय भी है अज्ञात,
धन विहीन उस नग्न पुरुष से होगा क्योंकर तेरा साथ.

चन्दन लेप सुरभित उरोज जब स्पर्श करे शिव सीने से
राख भस्म से भरा हुआ, तर बतर है स्वेद पसीने से .

सुने ज्यों कटु विप्रवचन ,हुई थी गौरी कुपित अपरिमित
अवर अधर काटा किन्तु ,करने को अपना क्रोध सीमित.

नयन कोर रक्तिम देवी के भृकुटियाँ थी कुछ तनी तनी,
अभाव नहीं किंचित आदर में रुचिर रही वह बनी बनी.

नितान्त अपरिचित आप शैलेश से तभी तो ऐसा भाष रहे,
वृहत अभिप्राय से हो अनभिज्ञ ये शब्द कटु प्रकाश रहे .

महत्ती आत्माएं भिन्न सदा जनसामान्य के परिमापों से
हुई कटु आलोचना यदा-कदा कुछ भ्रमित वृथा प्रलापों से.

हवन पूजन करते हैं सब ,धन धान्य विपुल पा जाने को,
धर्मानुष्ठान सविधि किया करते विपदाएं दूर भगाने को .

किन्तु तमसोपति स्वश्वः अघोर,त्रिलोकी का रखवाला है,
विजय कर चुका वान्छायें जो ,फक्कड़ फकीर मतवाला है.

संग्रह्शील नहीं किंचित सर्वस्वामित्व का वो उदगम है,
है मरघट का बाशिंदा वह,सृष्टि पर उसका परचम है.

है जो दृष्टव्य भयंकर वो वास्तव में स्वयं अभयंकर है,
सुकोमल भावुक विनम्र अति कहलाता वह शम्भु शंकर है.

मणि माणक से आलोकित अथवा हो नागों को धरा हुआ,
रेशम का पेहरन पहने हो या गज चर्म को हो पहरा हुआ.

मुंडमाल गले में धारण या शीश पे शशि सुसज्जित हो,
कैसे संभव शिव खुद ब्रहमांड , कुछ शब्दों में परिभाषित हो ?

शमशान भस्म छूकर शिव को स्वयमेव पवित्र हो जाती है,
जीवित सृष्टि चर अचर को वह शुचिता परम दे पाती है.

तांडव जब नटराज रचाते हैं ,सुरगण भी दौड़े आते हैं,
जो कुछ भी गिरता शिव देह से, उसे लेप ललाट लगते हैं.

बूढ़े नन्दी पर हो आरूढ़ शिव अचलेश्वर आते जाते है
गजसवार सुरेन्द्र तत्क्षण उतर प्रभु चरणन शीश नवाते हैं.

क्षमा करें हे विप्र मुझे आप निस्सन्देह अति अज्ञानी है,
हाँ बात तःथ्य की मात्र एक, मैंने बस आपसे जानी है.

सत्य कथन यह है विप्र , शिव वंश का उद्गम है अज्ञात ,
किन्तु आदि सृष्टा ब्रह्मा के भी वे ही तो हैं स्वयं तात

तर्क आपके परम पूज्य ,च्युत नहीं मुझे कर पायेंगे,
मैं हूँ उनके ही प्रेम में क्यों, यह आप समझ नहीं पायेंगे.

ह्रदय मेरा केवल समझे वो प्रेम अनुभूति क्या होती है,
लक्ष्य जिसका हो सुसपष्ट अति ,पर्वाह उसको क्या होती है.

सद् आत्माओं को निन्दित करना पाप कर्म कहलाता है,
श्रवण इसका करते रहना जघन्य अधर्म कहलाता है.

नम नयन झुका कर गौरी ने सुविप्र को सादर नमन किया
करते हुए स्मरण मनीष का ,हो विवेक मय कुछ मनन किया.

वीरभद्र अक्रूर तत्क्षण निज मूल स्वरुप आ जाते हैं,
कर पकड़ प्रगाढ़ देवी सती का, स्वप्रेम अथाह जताते हैं.

तरल हृदय नम नयन लिए शिव बोले -सुन हे तपस्विनी
मैं हूँ अद्य अनुदास तेरा तू हो गयी मेरी सहज स्वामिनी

तुमने समग्र समर्पण से मोहे प्रसन्न परास्त किया है प्रिये,
मेधा तेरी ने इस भूतेश्वर को अति आशवस्त किया है प्रिये.

प्रकति-पुरुष का यह सम्मिलन सम्पूर्ण मुझे कर पायेगा,
बता मुझे निर्मल नीर भी क्या पृथक स्वरस से रह पायेगा ?.

प्रतिबद्ध यह अर्पण गौरी का प्रतिमान लैंगिक सह-अस्तित्व का
आत्मा है आद्या हम सब की, है अभियान परम एकत्व का.

Saturday, February 18, 2012

इति-अथ : अनेकान्त सीरिज

(सुपठन,स्वाध्याय,सत्संग एवम स्वचिन्तन के 'प्राप्य' को शेयर करने का सुविचार..जहाँ से मिला उनके प्रति सादर अहोभाव)
# # # # #
इति
किसी के अथ की
होती अन्य का
अथ भी
सतत काल सापेक्ष
होता गत भी
अनागत भी...

एक ही शब्द
अर्थ पृथक
निर्भर भाव पर
प्रयोग पर,
एक ही प्रश्न
उत्तर भिन्न
है घटित
निर्वचन
संयोग पर...

आस्तिक्य
नास्तिक्य
युगल स्वरुप,
सहज एवं निर्द्वंद,
पक्षी नीड़
नहीं है कारा
देखो कहाँ है
परों पर प्रतिबन्ध...

Saturday, February 11, 2012

अब फना मुझे हो जाना है

####

बचना किसको है ऐ मौला
अब फना मुझे हो जाना है
अपनी हस्ती को मिटा सजन
मोहे तुझ में ही मिल जाना है.....

तू मुझ में है मैं तुझ में हूँ
किस बात में तुझ से मैं कम हूँ ,
मैले तन मन को उजला कर
मोहे तुम से मिलने जाना है....

इर्ष्या विद्वेष को जीत सकूँ
भय लोभ से खुद को रीत सकूँ,
मोह और प्रेम का भेद जान
मोहे तुम से प्रीत लगाना है.....

बिरहा में मैं हूँ बिलख रहा,
बस राह तिहारी निरख रहा,
मिल जा आकर के तू जानां
मैं राधा हूँ तू कान्हा है.....

अपनी हस्ती को मिटा सजन
मोहे तुझ में ही मिल जाना है.

('उठ जाग मुसाफिर भोर भई ' की तर्ज़ पर गुनगुना के देखिएगा :))

Thursday, February 9, 2012

माँ सरस्वती मन्त्र...(भाव-प्रस्तुति)

# # # # # # #

माँ सरस्वती !

धवलवर्णा परम सुंदरी तू माँ

ज्यों कुंद पुष्प सम श्वेत चंद्रा,

श्वेत वस्त्र धारिणी माँ

तुषार सम गलमाल शुभ्रा,

आसीन श्वेत पद्म आसन पर,

वीणा विराजित ले भुज सहारा,

सुर पूजित मातेश्वरी !

करते नमन तुम्हारा,

तिरोहित हो तन्द्रा , जननी !

ह़र दो अज्ञान तिमिर हमारा...

(कुंद पुष्प=चमेली/जूही के फूल)

********************************************************************

(या कुन्देन्दु तुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता

या वीणावरदण्डमण्डित करा या श्वेत्पद्मासना ।

या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता

सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ॥)

आ गए फिर जहां हुआ करते थे पहले.....

# # # # #

भ्रम में हम यारों ,जिया करते थे पहले
आ गए फिर ,जहां हुआ करते थे पहले.

तृष्णा उभरी थी छलिया यौवन बन के
मतिभ्रम हमको कुछ ऐसे हुए थे पहले

अश्रु आ जाते हैं सोच के ही इसको
आख़िर क्यों तुम से हम ऐसे जुड़े थे पहले.

सज के रह गए फूलदानों में हम तो
अंतस के खिले पुष्प हुआ करते थे पहले.

सिर है कांधों पे या नश्वर माटी कोई
ज्ञानी हम पुकारे जाया करते थे पहले.

गिरे हैं गगन से और अटके खजूर में
चने के झाड़ पे जो चढ़े हुए थे पहले

एकाकीपन ही अब मेरा सहोदर है
सम्बन्ध ऐसे प्यारे कहाँ हुए थे पहले.

खुली है नींद और चेतना लौट आई
बिखरे हैं स्वप्न सगरे जो देखे थे पहले.

वसंत-विरह

#######
जड़ें वही
तने वही
द्रुम वही
हो रहे हैं
नव पल्लव
गिरा कर
पुरातन पत्तों को ,,,

हो रहा है
महोत्सव सुरंगा
वन-उपवन के
आँगन में ,,,

रंगीला बसंत
उकेर रहा है
सुन्दर बेल बूटे
हिना से
कुदरत की
हथेली पर ,,,

दिलकश महक
भर कर खुद में
देखो ना
सुखद पवन
कर रही है नर्तन ,,,

छेड़ी हैं टेर
मधुर मिश्री सी
गायक
पखेरुओं ने ,,,

नाच रही है
पीपल की
ताम्बई कोंपलें
संग
सूरज की
सुनहरी किरणों के ,,,

हरियल सुए
उड़ रहे हैं लेकर
सुर्ख चोंचों में
माणक से दाने
अनार के ,,,

चंचल हरिण
भर रहे हैं
कुलांचे
दबाये मुंह में
कच्ची दूब को ,,,

प्यासा प्रेमी
भ्रमर
उनींदी कली के
कानों में
फुसफुसा रहा है
बोल प्रेम के ,,,,

चांदी सी
चांदनी रात में
किसी अलगोजे ने
छेड़ी है
विरह तान,
सुन कर जिसे
बिलख रही है धरती
सिसक रहा है आसमान ,,,

(राजस्थानी लोकगीतों से प्रेरित )

मुलाक़ात होती रही.......

# # # #
ह़र करवट पे उनसे मुलाक़ात होती रही
बन्द होठों से दिल की ह़र बात होती रही.

वो इस तरफ थे या उस जानिब क्या जाने
ह़र छुअन में हासिल इनायात होती रही.

मिरी जबींसाई थी के जबीं को चूमना उनका,
ईमा ईमा में बरपा इल्तिफात होती रही.

गुलाबी चादर थी या के गुलाब ख्वाजा के ,
घुल के दो से यक,दोनों बसीरात होती रही.

ना भीगे थे जिस्म हुई थी बस नम आँखें
नवाजने रूह को ये कैसी बरसात होती रही.

(जबींसाई =नम्रता से माथा टेकना,
जबीं =ललाट,
ईमा= संकेत,
बरपा=उपस्थित
इनायात=मेहरबानियाँ,
इल्तिफात= कृपा,
बसीरात=अंतर-दृष्टियाँ,प्रतिभाएं,
नवाजना =सम्मानित करना.)

Wednesday, February 1, 2012

कुछ गिले फिर से...

#######


सरकशी के हैं सिलसिले फिर से
हो गए उनको कुछ गिले फिर से.

हम को मरहम भी जब नहीं हासिल
ज़ख्म क्यूँ आज हैं खुले फिर से.

दिन वही गुरबतों के लौट आये
लुट गए दिल के काफिले फिर से.

किस्से चाहत के बस अधूरे हैं
चन्द उभरे हैं फासले फिर से.

बेमुरव्वत हवा चली ऐसी
के कवँल कम से हैं खिले फिर से.

पर्दा महफ़िल का अब गिरा दो ज़रा
सांप आस्तीं में हैं पले फिर से.

कहदे काशिद उन्हें तू यूँ जा कर
घर किसी के हैं अब जले फिर से.

देके झूठी कसम रवायत की
कैसे यारब वो हैं टले फिर से.

सरकशी-टेढ़ापन

बादल जब मन हो तब बरसे (आशु रचना )

#####

आतुर मन काहे को तरसे,
बादल जब मन हो तब बरसे,
एक खेत सूखा रह जाये
दूजा हरा भरा हो सरसे...

उत्तर नहीं बहुत प्रश्नों का
क्यों दूर जा रहा तू घर से,
जी ले पूरा जीवन हंस कर
रहे व्यथित क्यों वृथा डर से...

कर कर संग्रह उलझ रहा तू,
क्यों ना लुटा रहा तू कर से,
अपनों से तू तोड़ रहा है,
नेह लगा रहा क्यों पर से.

Wednesday, January 25, 2012

होले से चले आता है कौन..

# # # # #
ख्वाबों में होले से चले आता है कौन,
बेक़रार दिल को यूँ समझाता है कौन.

उदास है ये ज़मीं ग़मज़दा आस्मां,
बिना बदरा बिजुरी चमकाता है कौन.

तआज्जुब करूँ या इजहारे शुक्रिया,
शदफ के दिल में गौहर उगाता है कौन.

आँखें कहती और चुप रहती है जुबां
अबोले असआर मीठे सुनाता है कौन.

कहने को वो वो है और मैं होता हूँ मैं,
साँसे मुझ में उसकी बसाता है कौन.

सुकूं देता हैं एहसास महज़ तेरे होने का,
खनक तेरी ह़र लम्हे सुना जाता है कौन.

ह़र धुन में तेरे नगमे गाये जाता हूँ मैं,
सुरों में हर्फ़-ऐ-नाम तेरे सजाता है कौन.

Thursday, January 5, 2012

सुबह का सूरज मिल कर देखें..

















# # # # #

आओ साथी !
हम तुम दोनों,
सुबह का सूरज
मिल कर देखें,
निशा सुहानी बीत गयी है,
चद्दर छोड़ें,
नींद को तोड़ें,
दिवस का जीवन जीने हेतु
पुनः आज हम जगना सीखें .........

सूरज के प्रसरित प्रकाश में
ठहरे खिन्न मन से आकाश में
धरती के इस मृदुल हास में.
जाने देखें परखें साथी !
कितने रंग भरे है.....

काल सारथी मारे कोड़े,
दौड़ रहे सूरज के घोड़े,
थोड़े हर्षित व्यथित है थोड़े,
इन तुरंग मुखों से ही तो सारे
ग्रह नक्षत्र झरे हैं......

रंग नहीं पर रंग नृप है
शब्द नहीं पर शब्द कल्प है
रूप नहीं पर सौन्दर्य दर्प है
'होने' 'ना होने' के योग से
दर्शन समस्त उभरे हैं...

(कल्प का प्रयोग 'निश्चय' के अर्थ में किया गया है और दर्प का प्रयोग 'रोब' के अर्थ में किया गया है)

Sunday, January 1, 2012

किये जा रहे हैं प्रश्न प्रलाप :

######

कुछ प्रश्न
नहीं होते
अभिव्यंजना
जिज्ञासा की
होते हैं
प्रत्युत
प्रतिक्रियाएं
स्वयं द्वारा
स्वयं के
अहम् पर लगे
किसी आघात-प्रतिघात की
अथवा
कृत्य कोई
कुंठा जनित
प्रत्याक्रमण का ...

ना जाने
प्रारब्ध के
किस वरदान स्वरूप
हो जाता है
प्राप्य
यदि
हमें कुछ ऐसा
नहीं होते
किंचित भी
हम पात्र जिसके ,
दुश्चिंता 'मैं और मेरे' की
कर देती है
विस्मृत
उस शुभ को
और
करने लगते हैं हम
अपरिमित वमन
गरल का
बना कर
कृतघ्नता को
स्थानापन्न
अहोभाव का .....

नैसर्गिक
अमृत अवदान से
हुआ था प्राप्य
भावविहीन शुष्क
नयनों को
अनुभव
आनन्द का,
अतृप्त वासनाओं की
क्रीडा में
हुआ था
घटित
सहज संसर्ग
दिव्य देह का....

प्रेम तो है
वस्तुतः
अनामय,निर्विकार,
अगण्य चिर सत्व ,
काश !ना बनायें
उसको
हम विषयवस्तु
व्यावसायिक व्यवहार की
करते हुए
संकीर्ण आकलन
देने और पाने का ...

ज्योत्सना
पावन प्रेम की
कैसे कर पाती
शीतल
ईर्ष्या संतप्त मन को,
ना जाने क्यों
तलाश रहे हैं
हम
छद्म प्रेम के नाम
अपने ही खोखलेपन को
भरने का उपाय
जन जन में....

डूबे हैं
आकंठ हम
आधिकारिकता ,
मत्सर
एवम
प्रदर्शन के
सघन दलदल में ,
जान कर बने हैं
अनजान हम
तथ्यों और
सत्यों से
किये जा रहे हैं
प्रश्न प्रलाप :
क्या किया तू ने ,
क्या दिया तू ने ,
मतिभ्रम से
हो कर विक्षिप्त
पल पल में....

इंतज़ार...

# # # #
प्यास से मरते
इंसानों को
दे देते हैं
तस्वीर दरिया की,
टांग कर उसे
अपनी दरकी हुई दीवाल पर
करते हैं वे बस इंतज़ार
लहर के आने का...

सर्दी से
ठिठुरते बन्दों को
देकर
तस्वीर जलती आग की
पा लेते हैं निजात,
रख कर जलावन पर उसको
करते हैं बस वे इंतज़ार
लपट के उठने का...

रूह में तड़फ हो जिन के
थमा देते हैं उनके
हाथों में किताबें,
कानों को तकरीरें
और
दिलो दिमाग को
झूठे सच्चे टोटके,
पढ़ पढ़ कर
सुन सुन कर
अपना कर जिनको
करते है वे बस इंतज़ार
सुकून के चले आने का...

रोटी कपडा मकान
तालीम सेहत
और
रोज़गार
देने के नाम
थमा देते हैं
ऐलान और नारे
इन्तेखाबत और इन्कलाब के,
करने लगती है
पब्लिक इंतज़ार
चूल्हे से आती रोटी का,
मशीन से आते पैरहन का
गारे सीमेंट से बनते मकां का,
स्कूल, कारखानों और असपताल का..

सत्व और प्रकार.....

# # #
मूरत के
रूप पाने से
पूर्व भी था
पाषाण का अपना
मूल सत्व और प्रकार,
तभी तो
हो सका था उसमें
अंकित बिम्ब
टाँकी की
अंतस का
और
हो पाया था
मूर्तिकार का
सपना भी
साकार...

झीना सा अंतर...

# # #
पत्ता
यदि झर गया
नहीं मानेगा
सत्ता पेड़ की,
हरा भरा दरख्त
क्यों कर
स्वीकारेगा
वुजूद
झरे पत्ते का,
बस
झीना सा अंतर
पत्ता वही
पेड़ वही
देखो ना
विगत का सापेक्ष
कैसे बन जाता है
आज का निरपेक्ष !

Friday, December 23, 2011

REVOLUTION....

# # #
Revolution is
Not the flash of
Lightening,
That vanishes
After the rain.

Revolution is
Energy of thinking
Which shakes
The unconscious
Awareness,
Breaks the backbone of
Destructive orthodoxy,
Reveals the value of
SELF and SPIRIT,
So that the class may
Serve the mass.....

#########

क्रांति -हिंदी वर्ज़न
#######


नहीं है क्रांति
चमक दामिनी की ,
जो हो जाये विलुप्त
वृष्टि के उपरान्त .

क्रांति तो है ऊर्जा
विचारशीलता की,
झकझोरती है जो
सुप्त चेतना को ,
तोड़ देती है मेरुदंड
विध्वंसकारी
परम्परानिष्ठा का ,
कराती है
मूल्यबोध जो
सत्व और तत्व का,
स्वयं का ,
आत्मा का
दे पायें ताकि
सहयोग
सुधिजन अपना
'सर्वजन सुखाय
सर्वजन हिताय '
उपक्रम में ...

सांझ की बेला....

# # #
ढलता सा
सुरमई सूरज
ललाट पर
बिंदिया सिंदूरी,
चपल मीन
नयनों की पुतली,
कमल की कली
गदरायी जवानी,
किनारे पर काई
काजल सिंगार,
लहरों का लहराना
उड़ता आँचल,
सांझ की बेला में
झील
विह्वल व्याकुल...

मिथ्या अमिथ्या....

# # #
मन के दो रूप,
प्रतिबिंबित मन
मूल मन,
पहला छाया
दूसरा आत्मा...

जोड़ कर पहले से
किया जाता है जो
होता है
एक अभिनय
सोचा विचारा
द्वारा स्वयं के
और/अथवा
द्वारा समूह के,
विगत में
और/अथवा
वर्तमान में,
योगित दूसरे से
होता है जो
वह है
शुद्ध सत्व...

छाया है
कामना
प्रतिबिंबित
मन की
गुण प्रधान,
संचालित
विद्या अविद्या द्वारा,
मूल मन
होता है
गुणातीत
उसकी कामना
होती है
दिव्य...

प्रतिबिंबित मन
बन कर
छाया
करता है सम्पादित
समस्त
सांसारिक कर्म,
शुभ भी
अशुभ भी
अच्छे भी
बुरे भी....

निर्णय
मिथ्या अमिथ्या का
होता है सापेक्ष,
अर्थहीन
स्यात
क्रीड़ा एक
बुद्धि की,
हो जाना संलिप्त उसमें
सुसुप्तावस्था में भी
होता है कारण
जीवन के
अनेक बड़े कष्टों का..

हो अभिष्ठ हमारा
चेतन मन
देखें समझें हम
छाया के
कारणों को
विमुक्त हों कर्ता भाव से,
उतर कर
ध्यान में
इसी संकल्प के साथ,
जान पाने
सत्व निज का...

( छाया रूप में भी संस्थित है देवी माँ, कैसे नकारें छाया को भी मिथ्या समझ कर...बस साक्षी भाव से माँ के विभिन्न रूपों का दर्शन करते हुए...माँ से मिल जायें...उसके अल्टीमेट रूप में समा जायें..सत्व को प्राप्त हो.)

Sunday, December 18, 2011

बस थे देख्यो ,बस म्हे देख्यो ....

इसड़ो ना कोई
जीयो म्हानें
भावां में घुला
सबदा में बसा
मोत्या री लडियां ज्यूँ बरसा
हिवंडे रे आंगण में सरसा....

(जिया नहीं किसी ने
हमें ऐसा,
भावों में घुला कर,
शब्दों में बसा कर,
मोतियों की लड़ों सा बरसा कर,
अपने ह्रदय आँगन में सरसा कर..)

बात कैंया जाणू मैं आ,
क्यूं अणभूत म्हारी
मींची आंख्यां,
कुण सो ऐड़ो गून छुयो
जे चिपक गयी
म्हारी पांख्यां.....

(कैसे जान पाउँगा मैं यह,
क्यों की थी बन्द
मेरी अनुभूति ने
अचानक आँखें,
ना जाने किस गोंद ने
छू डाला था
चिपक गयी थी
मेरी पांखें..)

थे मुळकी ज्यो !
थे खुश रह्ज्यो !
थे गायीज्यो !
थे नाचीज्यो !
दुखड़ो थां ने ना सतावे कदै
दुनियां री सब बाधावां रळ
बिचलित ना कर पावै थां ने
थे पावो थां रो चिर आंको
राह- मजल मिलज्या थां ने ..

(मुस्कुरायियेगा आप !
खुश रहिएगा आप !
गायियेगा आप !
नाचियेगा आप !
कोई भी दुख ना सताए आप को !
दुनिया की सारी बाधाएं भी मिलकर
विचलित ना कर पाए आप को !
मिले आप को आपका चिर लक्ष्य
राह और मंजिल मिल जाये आपको ! )

ओ मन हरख्यो
ओ तन चह्क्यो
बागां रो हर खूणो मह्क्यो
सबद कैयां कैवे आ सब
बस थे देख्यो ,बस म्हे देख्यो ......

(यह मन हरषे
यह तन चहके,
ह़र कोना बगिया का महके ,
कह सकते कैसे
ये शब्द लाचार,
बस देखा आपने
बस देखा हम ने.....)

कंक्रीटी जंगल के शेर....

# # #
हैं आज हम
कंक्रीटी जंगल के शेर,
भूला दिया है
शहर ने
वो गाँव के गली कूचे
पनघट की रंगीनियाँ
चौपाल की संगीनियाँ
वो किसी शहरी कार के
पीछे भागना,
मुंह अँधेरे जागना
खेत में पंखेरुओं पर
गुलेल दागना,
चकोतरे का
खट्टा-मीठा जायका,
गुलदाने का
सुनहला रूप रसीला,
निमोने को देख कर
मुंह में पानी भर आना,
गाज़र का हलवा,
मेरठ की रेवड़ियाँ,
तिलकूट और गज़क,
गिल्ली डंडे का खेल,
जुम्मन और जसिये का मेल,
सत्यनारायण की कथा,
देव देहरियों की महत्ता.
खो गया कहाँ
मेरा बचपन....

देर से सोना,
देर से जागना,
बिना वज़ह ताकना
बस ताकना,
नींद की गोलिया
झूठी सची बोलियाँ,
केक और पेस्टरियां,
हेल्लो हाय
बाय बाय,
प्लास्टिक फूल से रिश्ते,
अपने गैरों से सस्ते,
समझ में ना आने वाले उसूल,
बात बेबात मशगूल,
दिखावा ही दिखावा,
ह़र बात पर मुलम्मा
ह़र बात पर चढावा,
आओ ना लौट चलें...
आओ ना लौट चलें..

Wednesday, December 14, 2011

आभास (आशु रचना)

# # #
देखो ना
विद्रोही कोलाहल
होकर प्रतिकूल
मचा देता है
हलचल
सन्नाटे के
शांत
साम्राज्य में,
किन्तु
दूसरे ही पल
हो कर
अनुकूल
समा जाता है
उसी
सन्नाटे के
गहनतम तल में,
यह नहीं है
आत्महत्या
कोलाहल की,
ना ही हनन
उसकी
अस्मिता का,
यह तो है
बस
आभास
एक दूजे में
एक दूजे के
होने का,
अनुभूति एक
सत्व की,
प्रतीति
समग्र सत्य की..




Sunday, December 11, 2011

मूर्खों का गाँव उर्फ़ किस्सा अधपके ज्ञानियों का..


###############
मेरे स्टुडेंट लाईफ के दौरान हम लोग कोलेज केन्टीन या कोफी हाउस में इकठ्ठा होते थे. हमारे कुछेक साथी सूखे सूखे कामरेड टाईप्स हुआ करते थे, बिलकुल निराशा और दर्द की बातें करने वाले. आम इंसान के भूख-इलाज के अभाव-टपकती छत और ऐसे ही कई मुद्दों में पथेटिक हालात, प्रेम में मिले दर्द, प्रेम नाम की चिड़ियाँ खाली पीड़ा का भण्डार, खुदगर्ज़ संसार, अमरीका की ह़र बात अपसंस्कृति और उसकी नीतियों का साम्राज्यवादी जनविरोधी होना-ठीक उसके विपरीत चीन और रूस की लगभग वैसी ही हरक़तों को समाजवाद और जनवाद के नाम जस्टिफाई करना, ह़र सुन्दर और सुकून देनेवाली शै की भर्त्सना, ऐसे कितने ही मसले होते जिन पर उनकी जुबान की कतरनी कच कच चला करती थी. ज़िन्दगी के दुखों को मेंटेन करने में लगे ये लोग हमेशा उदास, ग़मगीन, बेतरतीब और मैले कुचेले दीखते थे.किसी की दाढ़ी बढ़ी हुई, तो हेयर कट नहीं करायी हुई, सस्ते मैले कपड़े (अलग सा दिखने के लिए) बदन पर, बात बात में झगड़ने और तर्क-कुतर्क करने की आदतें, ह़र बात पर आक्रोश और रूठ जाना...बहुत ही नाज़ुक मिजाजी, फूला हुआ अहम् का गुब्बारा, औढा हुआ स्वाभिमान (हीन भाव के कारण)...ह़र बात में खुद को महाज्ञानी और विचारवान साबित करने का ज़ज्बा..मेरे इन दोस्तों की शख्सियत की खासियतें होती थी. हमें गाली देने वाले ये लोग, हमारे पैसे की दारु, सिगरेट्स, चाय, नाश्ता उपभोग करने में हमेशा तत्पर रहते थे.....इन्हें ह़र समय अपनी बातों की मतली करने की तीव्र उत्कंठा रहा करती थी. इनमें से एक इंसान तो ऐसे हुआ करते थे जो धनी परिवारों की कल्लो कुमारियों को अपने इश्क के जाल में फंसा कर, बिस्तर तक की यात्रा करा देते थे...और उनके पैसों पर मौज-मस्ती भी कर लिया करते थे...और जब कुछ उन्नीस इक्कीस हो जाता तो पल्ला झाड़ कर अलग खड़े हो जाते थे...और अपनी इन्ही जलील हरक़तों को वर्गसंघर्ष का नाम दे दिया करते थे.

दक्षिण में जाना सटीक हों तो ये उत्तर को चलेंगे...अलग दिखने के लिए ये बन्दे पांव के पंजों से नहीं, शीर्षासन मुद्रा में हथेलियों के बल चलेंगे...उस समय और भी बहुत कुछ इन ढीठ बन्दों के लिए कहा जाता था लेकिन आज बस इतना ही.

हाँ मेरे कुछ जेनुइने सरल, सहज, कम्युनिस्ट/सोसलिस्ट ईमानदार मित्र भी थे, जिन पर मुझे गर्व है...लेकिन वे हमारी इन टाईम पास मजलिसों का हिस्सा कभी नहीं होते थे, उनका साथ पाने के लिए मैं लालायित रहता था और जब भी उन्हें सहूलियत होती उनके साथ जा बैठता था.......कुछ महत्वाकांक्षी सामान्य परिवारों से आये साथी भी थे जिनके लिए हम कह सकते थे - सिम्पल लिविंग हाई थिंकिंग के साक्षात् प्रतीक., जो आज खुद को और दुनियां को बहुत कुछ देने में सफल हुए हैं. इन भले लोगों की चर्चा फिर कभी. आज तो दिल कर रहा है, पहली केटेगरी के लोगों की खिंचाई करने का. एक किस्सा आज शेयर कर रहा हूँ...

हाँ तो सुनिए किस्सा...

###########

भाई यह मेरी अपनी सोची समझी और कही बात नहीं, एक सुनी सुनाई कहानी है. किसी ज़माने में एक छोटा सा गाँव हुआ करता था मूर्खों का.
वे ना तो कुछ जानते समझते थे और ना ही किसी चीज को पहचानते थे. एक दफा ऐसा हुआ कि बारिश के दिनों एक मेंढक उस गाँव के एक घर में घुस आया. उस से पहले गाँव के आदमियों ने कभी मेंढक नहीं देखा था.

घर जिस मूर्ख का था उसने चिल्ला चिल्ला कर इस नये प्राणी के उसके घर में आने को प्रोपेगेट किया. बहरहाल इस अजूबे को देखने गाँव की सारी आबादी इकठ्ठा हो गयी.

ह़र कोई अपनी अपनी ओपीनियन दिये जा रहा था, कि यह कौन जाती प्रजाति का जन्तु है..इसके आगमन से क्या हुआ है...इसका क्या होगा..वगेरह वगेरह. कोई कह रहा था यह तो हरिण है, किसी ने मिमियाया अरे यह तो बगुला है, तो कोई कहने लगा अरे यह तो मेरे घर में ''वो" जो आया था ना वैसा है. इतने में पीछे से एक मूर्ख-महाज्ञानी की आवाज़ सुनाई दी : अरे भई बिना सोचे समझे कयास लगाने से क्या फायदा ? सियार होगा..बारिश के मौसम में जंगल से इधर निकल आया होगा..हमारे यहाँ की अलौकिक सुख सुविधा का लुत्फ उठाने.

इतने में भीड़ में से एक समझदार 'रायचंद' का उवाच हुआ, "मेरी सुनो..मेरी सुनो तो..दादाजी को बुला लो. वो बुजुर्ग हैं, उन्होंने जमाना देखा है, वे जो भी बताएँगे सौ टका सही होगा, अपन लोग नातुज़ुर्बेकार क्या जाने ?"

तो जनाब दादाजी चारपाई पर बैठे हुक्का गुडगुडा रहे थे ताकि कब्ज़ी की पकड़ कुछ ढीली हो और वे राहत-ए-रूह पा सकें. ऐसे में दौड़ता हुआ एक गाँव वला उनके इजलास में हाज़िर हुआ..

फटी अंगरखी, मुड़ातुड़ा साफा और घुटनों तक की मैली कुचैली धोती पहने चाचा चौधरीनुमा दादाजी की बन आई, बड़ा 'इगो सेटिसफेक्सन' हुआ, जब उन्हें इस मसले को हल करने के लिए सादर अनुरोध किया गया और उनकी बहुमोली राय मांगी गयी. जनाब, जो अधोमुखी थी, वह अचानक उधर्वमुखी हो गयी...याने फिर से ऊपर चढ़ गयी. फिर क्या था, दादाजी ने लठ उठाया, नथने फूलाते हुए,टेढ़े मेढे कदम रखते हुए..घटनास्थल की तरफ कूच करने लगे.

बुढऊ याने दादाजी हांक रहे थे, "अरे तुम लोग भी कुछ सीखो समझो, मैं कब तक जिंदा बचा रहूँगा...आज कल देखते नहीं मेरी तवियत भी नासाज है."

जनता को धकियाते हुए दादाजी मेंढक के पास गए.

टूटे चश्में को जरा सेट करते हुए धीमी आवाज़ में बोले, "अरे मूर्खों यह कौन सी बड़ी बात है. इसके आगे तनिक दाना डाल कर देखो. अगर चुग लिया तो चिड़ियाँ नहीं तो सांप."

गाँव के सब लोग बुढऊ की अक्लभरी बात सुन कर गदगद हो गए.

ऐसे ज्ञानी बुढऊ थोड़े बिंदास या कहें कि बेशर्म भी होते हैं ना, दादाजी बोले, "अरे किसनिया, तनिक लौटा ले आओ तो, बड़ा दिल हो रहा है..धोरे पास ही हैं, तनिक निपट लेते हैं."

किसनिया सविनय पेस्टीसाईड के दो पोंड वाले पुराने टेनिये में गन्दला सा पानी लिए हाज़िर था. दिशा मैदान में जो भी हो जैसा भी हो पानी चल जाता है, ऐसी मान्यता थी उस गाँव में.





मुश्किल कहाँ !

# # #
ज़हर पीना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
ज़हर पचाना..

ना जाने कितने बन्दों ने
अपने हाथों पिया हलाहल,
और उडेला साकी ने भी
भर भर सागर खूब छलाछल,

कम ही होते
हलक़ बावरे ,
जाने समझे जो
गरल छिपाना..

कितने शख्स गिनोगे
जिनके साथ थे छूटे, ख्वाब भी टूटे,
राह जो भूले चलते चलते
पंख आसमां में थे टूटे

पीर सहना,
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
पीर भुलाना...

अश्क होते हैं गवाह दर्द के
यह तसव्वुर हुआ पुराना,
आबे-हयात कर ,पीना उनको
ज़ज्बा है यह नया सुहाना,

प्रेम करना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
'प्रेम ही ' हो जाना ...

Thursday, December 8, 2011

आखरी सफ़र...

# # #
ये छोटे छोटे
सफ़र,
जाना और फिर
लौट के आ जाना,
इन्तेज़ामात
रास्ते के खर्च के,
बेग में भरना
पहनने के कपड़े,
टूथपेस्ट टूथब्रश,
रेज़र और फोम,
कोई किताब और रिसाले,
और
खोज किसी साथ की,
यह फ़िक्र
वह फ़िक्र....

कितना
बिंदास होगा
आखरी सफ़र,
ना होगा कोई बोझ
ना ही किसी के
संग की खोज,
ना लेना होगा
कुछ भी साथ,
होंगे बिलकुल
खाली हाथ
ना होगी कोई
हिदायत
ना ही करना होगा
इंतज़ार और सब्र,
नहीं देनी होगी
किसी को
पहुँच की खबर...

द्रवण....

###################

बहुत अजीब हैं ना परामनोविज्ञान की बातें. हमारे अंतर में कुछ भाव आ रहे हैं और उन स्पंदनों का 'क्वालीटेटिव' सम्प्रेषण दूर बैठे सम्बंधित व्यक्ति तक हो जाता है..चाहे बहुत बारीक डिटेल्स ना पहुँच पाए लेकिन स्थति कि गुणवत्ता अवश्य पहुँच जाती है. जैसे कि हमारी उदासी, खोयापन, ख़ुशी. पीड़ा इत्यादि के एहसास. हम चले जा रहे हैं और किसी नगमे को गुनगुना रहे हैं या उसे सोच रहे हैं और पास के किसी रेडियो पर वही गाना बज रहा होता है. हम किसी 'विषय विशेष' का चिंतन कर रहे हैं, और स्टाल से जिस मेग्जिन को उठाते हैं उसमें उसी पर कोई आर्टिकल छपा मिल जाता है. हैं ना कुछ बेतार के तार !

गत कई बरसों से ये स्पंदन अंतर में घटित होते, गुज़र जाते...लिखने का मन होता, शब्द नहीं मिलते, मानस नहीं होता क्योंकि बहुत ही अंतर्विरोधी से होते हैं ये...कुछ दिल से, कुछ दिमाग से, कुछ इस जन्म से, कुछ पहले के जन्म से, कुछ वास्तविकता से कुछ कल्पना से, कुछ भ्रम-कुछ स्पष्टता..अवचेतन में कहीं कहीं अपनी दृढ सोचों के खिलाफ की भी थोड़ी स़ी बात. दोस्तों ! रचना एक धुंधला सा रूप लेती और ना जाने कैसे फिर क्यों बादल की तरहा बिखर जाती. ज़रूर कुछ मेरी सीमाएं और कुछ अस्तित्व का विधान रहा होगा. सोचता था आज नहीं तो कल ज़रूर लिख सकूँगा...लेकिन बात जहां की तहां.

आज सन्डे की सुबह. युजुअली ऐसी सुबह चाहे अनचाहे मेरे दोस्त मुल्ला के नाम हो जाती है..लेकिन आज तय किया 'नो मुल्लाबाज़ी' आज जो कुछ पढने के लिए जमा किया है पिछले दो सप्ताह से उस पर नज़र डालूँगा.... और पहली ही नज़र पड़ी 'पत्रिका' समूह के चेयरमेन, प्रबुद्ध चिन्तक एवं वरिष्ठ पत्रकार डा. गुलाब कोठारी,जिनका मैं प्रशंसक हूँ, की एक रचना पर. मैं 'एट फर्स्ट' क्रमश: याने लाईन दर लाईन नहीं पढता. बस केमरे के लेंस की तरह मेरी आँख आलेख को क्लिक करती है और करीब करीब 'एसेंस' मेरे ज़ेहन तक पहुँच जाता है ...फिर बांचना होता है तो बांच लेता हूँ...हाँ तो ऐसी क्लिक के साथ एहसास हुआ कि ऐसा ही कुछ (हो सकता है शत प्रतिशत ना हो) तो मेरे सिस्टम में चल रहा होता है.
डा. कोठारी की इस रचना को अपनी सी समझते हुए आप से शेयर कर रहा हूँ. बस शीर्षक दिया है मै ने,शायद यह मेरे द्वारा करने के लिए छूट गया था , हाँ प्रस्तुति को भी थोड़ा मेरे मन माफिक बनाया है लेकिन एक भी शब्द नहीं बदला है, ज़रुरत नहीं थी.

मूल रचनाकार के लिए कृतज्ञता और अहोभाव.
द्रवण : ~~~~# # #
आद्या !
देखते ही तुम को
भर आता है
मेरा मन,
और न देखूं
दो चार दिन
बाहर रह कर,
तब भी
भीगते है रहते हैं
नयन क्यों ?

कैसा है यह
द्रवण मन का
नेत्र कहते
मन की भाषा,
जैसे कुछ रुआंसा.

मन एक है
द्रवण दो
मिलन का भी
बिछोह का भी,
झुक जाती है
मेरी आँखें
देखते ही तुमको,
श्रद्धा से,
शायद
तुम्ही हो
सेतु
मन-आत्मा का.

झिन्झोड़ो इसे
झाड़ दो
परतें सारी
एक एक
न्यारी-न्यारी,
बहा दो इन्हें
दूर दरिया में
गहराईयों में
तभी शायद
उभरेगा
फिर से मन मेरा
द्रवित तो होगा
करूणा भी होगी,
स्नेह रहेगा....
किन्तु हाँ !
न होगा बंधन
मन पर कोई
ममत्व का
आसक्ति का.

शायद तुम
कह रही हो
यह सब-
जब भी कौंधती
आँख में झलक,
तुम्हारे चेहरे की.

जैसे तुम भी
भूल जाती हो
मुझ को
दूर होते ही,
ले चलो मुझे भी
उसी मार्ग पर
पकड़ कर अंगुली.

(आद्या=दुर्गा/शक्ति/देवी)

संस्कृत साहित्य में मैत्री

महक की 'मैत्र शीर्षक कविता ने प्रेरित किया है इस संकलन को आप मित्रों से शेयर करने के लिए. बहुत प्रसन्नता अनुभव कर रह हूँ.

परम पवित्र शब्द है मित्र जिसका समरण कर मन सुख से सरस हो उठता है और एक नया सम्बल मिलता है. सखा, सुहृद, संगी, साथी, हित हितैषी आदि इसके पर्याय है, मित्र के अनेक गुण दोष गिनाये गए हैं, इसके जागतिक और पारमार्थिक अंतर भी है.

'मि' क्रिया से क्त्र प्रत्यय लगा कर मित्र शब्द बना है, जिसकी हमारे संस्कृत साहित्य में नान प्रकार की व्याख्याएं की गयी है. इस प्रस्तुति में शनै शनै आपके समक्ष ये व्याख्याएं अथवा कथन उपकथन आयेंगे, आशा है आपके मन को मुदित करेंगे एवं मैत्री भावना को और प्रबल करेंगे.

१. मिनोति मानं करोति--जो आदर करता है वह मित्र है.
मिद्यती स्निह्यति इति मित्र: -- जो स्नेह करता है वह मित्र है.
मितं रिक्तं पूरयति इति मित्र: -- जो कमी पूरी करता है वह मित्र है.

२.तें धन्यास्ते विवेकज्ञास्ते सभ्या इह भूतले,
आगच्छन्ति गृहे येषां कार्यरत सुहृदो जना: .

इस धरती पर वे ही धन्य है, वे ही विवेकी है और वे ही सभ्य है जिनके यहाँ कार्य में शामिल होने के लिए मित्रगण आया करते हैं.
३. किं चन्दनै सकर्पूरैस्तूहिनै: किंच शीतलै,
सर्वे ते मित्रगात्रस्य कलां नाहरन्ति षोडशीम.

चन्दन, कपूर और बर्फ आदि शीतल पदार्थों की कौन स़ी गणना है, वे सब मित्र के स्पर्श की शीतलता के सोलहवें अंश के भी समान नहीं है.

४. आपन्नाशाय,विबुधे कर्त्तव्या: सुहृदोsमला:,
न तरत्यापदं कश्चीद्योSत्र मित्र विवर्जित: .

बुद्धिमानों को चाहिए कि वे संकटकाल के लिए उत्तम मित्र बनावें. इस संसार में कोई मित्र बिना संकट से पार नहीं हो सकता.

५. अपि सम्पूर्णतायुक्तै कर्तव्या: सुहृद बुधे,
नदीश: परिपूर्णोsपि चन्द्रोदमपेक्षते.

ह़र तरह से पूरे होते हुए भी बुद्धिमानों को चाहिए की वे मित्र बनाएं. निज में परिपूर्ण होते हुए भी समुद्र चंद्रमा के उदय होने की अपेक्षा करता है.

( क्रम संख्या २ से ५ के सूत्र विष्णु शर्मा कृत 'पंचतंत्र' से लिए हैं.)
उत्तम मित्र के लक्षण (भरथरी के अनुसार)##########
"पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं च गूहति गुणानप्रकटी करोति !
आपदगतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः !!"

*मित्र अपने मित्र को पाप कार्यों से विरत करता है.

*उसे हित के कार्यों में लगाता है.

*उसकी छिपाने योग्य बातों को छिपाता है.

*अपने मित्र के गुणों का बखान करता है

*संकट के समय मित्र का साथ नहीं छोड़ता.

*अवसर आने पर मित्र को यथोचित सहयोग 'देता' है.
विदुर जी कहते हैं :ययोश्चितेन वा चित्तं निभ्रतं निभ्रतेन वा !
समेति प्रज्ञया प्रज्ञा तयोमैत्री न जियरति !!

जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त से गुप्त और बुद्धि से बुद्धि का मेल खाता है उनकी मैत्री कभी पुरानी नहीं पड़ती.