Friday, October 30, 2009

Scribbling.........

Ego
Survives on
Comparison.......

Ego
Is a fiction
Created through
Comparison........

Ego
Is nourished by
Comparison........

Superiority and
Inferiority are
Fall out of
Comparison.........

Superior person
Deep down
Carries
Inferiority complex.......

Sufferer of
Inferiority complex
Deep down
Carries
Superiority complex........

All comparisons are
False
Meaningless
Merit-less...........

Drop
Comparing
Simply be
Yourself..........

How can you be
Superior or
Inferior
If you are just
Yourself
Just
YOURSELF........

गरीबनवाज़ की खिदमत में .....

...

मेरा ख्वाजा मेरा राजा
धड़कता तू यह सीना है
ज़िन्दगी की अंगूठी में
जड़ा तू इक नगीना है.......

मंगता हो या महराजा
सभी का वो ही दाता है
जो उसके दर पे आता है
करम उसके पा जाता है
रूह का नूर है ख्वाजा
जीने का करीना है
ज़िन्दगी की अंगूठी में
जड़ा वो इक नगीना है.

दया का सागर है ख्वाजा
इमरत का गागर है ख्वाजा
अगर पीना तुझे बन्दे
पनाह उसकी में तू आजा
पतवार दे दे तू उसको
पार होना सफीना है
ज़िन्दगी की अंगूठी में
जड़ा वो इक नगीना है.

रोशनी है वो सूरज की
बादलों का वो पानी है
चांदनी चाँद की है वो
मौजों की रवानी है
हर-इक गुलाब में बसता
ख्वाजा का पसीना है
ज़िन्दगी की अंगूठी में
जड़ा वो इक नगीना है.

धन दौलत ना मैं मांगू
ऐशोआराम ना चाहूँ
तमन्ना है के बस इतनी
सुकूने-ए-ज़िन्दगी पाऊं
तू मेरी ही काशी है
तू ही मेरा मदीना है
ज़िन्दगी की अंगूठी में
जड़ा तू इक नगीना है.

Wednesday, October 28, 2009

इन्द्रधनुषी...... (आशु प्रस्तुति)

...

ललचाया था
खारा जल
सागर का
पाने सूरज का सोना,
धरा था वेश उसने
बादल का
चढ़ चला था
आकाश...........

पवन ने खायी थी
चुगली उसकी
बना कौडा तड़ित का
भास्कर ने
मारी थी 'मार'
उस लोभी को
बह निकले थे
अविरल
अश्रु......

भय से हो आक्रांत
उस लाचार ने
चुप चाप निकाल
किया था सुपुर्द
चुराया हुआ
हार इन्द्रधनुषी.......

शरमाया था इतना
नौसखिया
मासूम सा चोर
मेघ था उसका नाम
मिट गया था
बरस गया था
बेचारा
गल गल
बह गया था
संग नदी के
कल कल
पहुँच गया था
अपने घर
फिर वह जल........

परछाई (आशु प्रस्तुति)

...

तन्हाई भी आज अपना
मुझे हाथ नहीं देती
वक़्त ने बदला है रुख ऐसा
परछाईं भी साथ नहीं देती......

सुने है खूब किस्से
कुदरत की दिलदारी के
वोह भी रूठी है हम से
कोई सौगात नहीं देती......

हारना चाहता हूँ
मुद्दत से उस से
शह तो दिए जाती है
मगर मात नहीं देती........

चाहत में उसकी
लिखे थे अनगिनत नगमे
अल्फाज़ तो देती है ये कलम
ज़ज्बात नहीं देती.....

रूह और जिस्म के सौदे
नहीं होते इस तरहा
रस्में दे देती है छत तो
कायनात नहीं देती.......

घुट घुट के जीओं तो
नवाजेगी यह दुनिया
तपता सा दिन देती है
पुरसुकूं रात नहीं देती.....

मैं.......(गुप्ताजी की एक ताजी कविता)

मुल्ला नसरुद्दीन मेरे अज़ीज़ हैं वैसे ही एक और अज़ीज़ है 'गुप्ताजी' , याने छेदी लाल गुप्ता 'हापुड़ वाले'.....परचून कि दुकान चलनेवाले गुप्ताजी कविता लिखने का शौकीन है....उनकी कविताओं का उतार चढाव बहुत ही शानदार होता है.....उनके किस्से भी अपने में बहुत मजेदार होते हैं......समय समय पर स्थानीय कवि सम्मेलनों का आयोजन करते रहते हैं गुप्ताजी, संयोजन भी कर डालते हैं.....नतीज़न उन्हें भी अपनी कवितायेँ पेश करने का सौभाग्य मिल जाता है....पिछले सप्ताह गुप्ताजी मिल गए थे पुष्कर राज में......उन्होंने एक कविता सुनाई जो पेश कर रहा हूँ। उनकी कविता में आपको नाना रस मिलेंगे.....

मैं.......(गुप्ताजी की एक ताजी कविता)

...

सागर को चुल्लू में भर पी जाऊंगा मैं
पर्वत को लगा ठोकर उखाड़ दूंगा मैं
हवा को बांधना बस खेल है मुझ को
घटाओं को उँगलियों पे नचाउंगा मैं.

यह साँसे चलती है मेरे इशारे पे
यह दुनिया चलती है मेरे सहारे पे
नदियों की कलकल है मेरा करतब
कहने पे मेरे कछुए आते है किनारे पे.

रुपैय्ये की तीन अठन्नी कर सकता हूँ मैं
बिना पम्प टायर में हवा भर सकता हूँ मैं
बनिया हूँ खानदानी फटी बनियान पहने हूँ
धेले-पैसे के खातिर कसम से मर सकता हूँ मैं.

किस जालिम ने यह मधुर राग उधेड़ा है
दुकानदारी के वक़्त यह कैसा बखेडा है
बतियाँ क्यों गुल है डर लग रहा है मुझे
किसने इस ढीले स्विच को अब छेड़ा है.

देशी घी में वनस्पति मिला दूंगा
चावल को कंकर का संग दूंगा
चाय मैं मिला दूंगा लीद घोड़े की
पुराने मसालों को नया रंग दूंगा.

वज़न की बात ना करो ऐ दोस्त !
आदतन मारी मैंने थोड़ी डंडी है
छाछ है गरम मेरे गोकुल में
तासीर-ए-दूध बहुत ठंडी है.

शरीर और आत्मा : गुप्ताजी की एक नज़्म

यह दार्शनिक कविता गुप्ताजी ने उस दौर में लिखी थी जब फेरी लगाकर बिसातीगिरी करते थे याने गली गली घूम कर महिलोपयोगी वस्तुएं बेचा करते थे और दोपहर में शीतल छांव, ठंडा पेय और परसाद पाने के बहाने 'भागवत ज्ञान यज्ञ' या 'संत संगत' में बैठ जाया करते थे....दर्शन और धंधे का अद्भुत समावेश है लाला छेदी लाल गुप्ता 'हापुड़ वाले' कि इस रचना में.......

शरीर और आत्मा
अलग अलग हैं
सासतर भी कहा करते हैं
गाहे बगाहे बुजुर्ग भी
ऐसा ही कुछ फ़रमाया करते है,
शरीर जिनका सचमुच
हो गया है नश्वर सा
कमज़ोर और मजबूर
वक़्त की खाते खाते मार
आत्मा जिनकी बन चुकी है
मज़बूत और मगरूर
जिस्म जिनका
जला करता था
अगन मोहब्बत की में
अब जलने को तैयार है
आग मरघट की में
ऐसे सीनियर सिटीजंस
अपने तुज़ुबों को मुफ्त
हमें लुटाते हैं,
अपनी कमजोरियों को
येन केन प्रकारेण छुपाते हैं
हकीक़तें जिनकी
चली आई है मध्यप्रदेश से
कश्मीर में
कभी कभी ऋषि मुनि से बन
बातें पते की बताते हैं
धंधे के उसूल और
धर्म के सिद्धांत
देखो कितने है समान
माल बेचना हो तो
दूर रखो ये कोमल से अरमान
हसीनो की गलियों में
जब जब फेरी लगाते हो
अपने इश्किया ज़ज्बे को 'लाला'
क्यों धंधे से मिलाते हो
एहसास है उनकी खुशबुओं का तो
ले ले लुत्फ़ बेझिझक ऐ गुप्ते !
मोल भाव के दौर में
क्यूँ ज़ज्बात को खिलाते हो
कंघी, लाली, काजल, आइना, चोली
बेच ले ऐ नफा कमाने वाले
दिवालिया हुए हैं मजनू, राँझा , महिवाल
सब इश्क फर्मानेवाले.....
चेत मानव मूढ़ अज्ञानी
धंधा करते हुए ही प्रेम कर
हे भ्रमित प्रानी ......

Monday, October 26, 2009

मूरत...

# # #
बुतशिकन था,
तोड़े ही
जा रहा था
मैं
मूरतें...

किसी के
हाथों को
किसी के
धड को
किसी के
सर को
तोड़ देता था मैं ..

जब से देखा
तुम को
मैंने पाया
तुम तो हो
एक मूरत
बसी हुई
मन मंदिर में
मेरे....

कैसे तोडूं
मैं
दिल अपना,
दिल तुम्हारा ?
और
बन गया है
यह मूर्तिभंजक
अब
एक प्रेम पुजारी..

(बुतशिकन=मूर्तिभंजक)

अंजुरी (आशु प्रस्तुति)

...

अंजुरी में लहराते जल में
जब जब झाँकू मैं सजना
अक्स तुम्हारा देख वहां
सोचूं यह कैसा है सपना.

पी जाऊँ इस अमृत जल को
तुझे समाने मन-तन में
रौं रौं को महका दो साजन
ज्यों खुशबू हो उपवन में.

राहें और बाहें.....(एक छोटी कविता )

...

राहें नहीं पहुंचाती
बाँहों तक
उड़ना होता है
आकाश में
पर कटने पर भी
या
चलना होता है
बीहड़ में
लहू लुहान
पावों से........

जुगलबंदी ( छोटी कविता)

...

लरज़ते होंठ
बुला रहे हैं मुझे......
मौन की
महफिल में
पेश होनी है
जुगलबंदी हमारी.....

Sunday, October 25, 2009

निर्भयता........(Chhoti Kavita)

...
समर-थल धोरे पर
हिरन कि आँखों में
देखी थी :
शांति
मासूमियत
मोहब्बत
यह सब कुछ था
निर्भयता की
बदौलत.......

(समरथल-धोरा-राजस्थान बिसनोयियों का तीर्थ स्थल है......बिश्नोई जो हिरणों और पेड़ों की रक्षा को धर्म मानते हैं-सलमान खान केस याद कीजिये)

मंजिल तुझे पुकारेगी.....

..

कदम बढा गर तू चला
मंजिल तुझे पुकारेगी.

धूप है बहुत कड़ी
बारिश की बंधी झड़ी
पर ना थम पल घड़ी
जीत जै जैकारेगी
मंजिल तुझे पुकारेगी.....

दिन जलता बलता ढलता है
रातों में चाँद चमकता है
मार्ग ना छोडा तो राही
पवन स्वेद को पौंछेगी
तेरी वो राह बुहारेगी
मंजिल तुझे पुकारेगी ......

तू फूल को मुस्का के देख
तू शूल को भी हंस के देख
तू हिचक मत झिझक मत
ये बहारें गीत जायेगी
कुदरत आरती उतारेगी
मंजिल तुझे पुकारेगी.......

(एक राजस्थानी गीत से प्रभावित)

पति परमेश्वर (आशु प्रस्तुति)

...

सुना था
कर परिष्कार स्वयम का
बन सकते हैं हम भी ईश्वर
माना जाता है यह भी कि
लेते हैं अवतार जगदीश्वर
पूजे जाते हैं क्यों
ये बुत घर घर
ना जाने मुफ्त में
ये पति
बन गए कैसे परमेश्वर ?

अक्ल नहीं
शक्ल नहीं
गुण नहीं
कुव्वत नहीं
चलतें हैं मगर ऐंठ कर
मां के लाल बने
यह निशाचर भी तो
सोया करते हैं बैठ कर
ना जाने क्यों फिर भी
समझते है स्वयम को सर्वेश्वर
ना जाने मुफ्त में
ये पति
बन गए कैसे परमेश्वर ?

कष्ट अपने
होतें है अति महान इनको
दुःख भार्या के लगते हैं
नन्हे नन्हे से इनको
इनके दर्पण में
एक छवि है पूर्वांकित
देखा करतें हैं उसे
नयन इनके
होकर आह्लादित
समझा करते हैं
खाविंद हुज़ूर खुदको
बादशाह-ए-किश्वर
ना जाने मुफ्त में
ये पति
बन गए कैसे परमेश्वर ?

पांच परमेश्वरों ने
दाँव पे लगा दिया था उसको
एक महऋषि ने
पत्थर बना दिया था उसको
अफवाहों से हो के मजबूर
ले डाली थी
अग्निपरीक्षा उसकी
देशनिकाला दिया था हामला को
ना सोची थी हालत उसकी
आज भी समझते हैं
बाटा कि हवाई से सस्ती उसको
बीवी है बस इक गुलाम
मानते हैं जरिया-ए-मस्ती उसको
करिए स्वागत फिर भी मुस्कुरा के
आये हैं तेरे दर पर
ये 'सेल्फ-स्टाईलड'
मैले कुचेले 'प्रियवर'
ना जाने मुफ्त में
ये पति
बन गए कैसे परमेश्वर ?

(किश्वर=देश/country हामला= गर्भवती/प्रेग्नेंट कुव्वत=शक्ति/पॉवर.)

Friday, October 16, 2009

कोमल जमीं - नाजुक आसमां/ Komal Jamin-Nazook Aasman

..
ना बरसा
अंतर के घन को
नयनों की राह से
पिघल ना जाये कहीं
यह कोमल जमीं
यह नाजुक आसमां.......

naa barsaa
antar ke ghan ko
nayanon ki raah se
pighal na jaye kahin
yah komal jamin
yah nazook aasman

नथ औ कुर्सी

...
फर्क बस इतना है
नथ औ कुर्सी में
उसको उतारा जाता है
इससे उतारा जाता है...........

Farq bas itna hai
Nath O kursi men
Usko utaara jata hai
Isse utara jata hai........

(Aatish Sahab kee aek sabse chhoti kavita ke padhte waqt upji thi yah kavita)

Avshesh.....(Chhoti Kavita)

...

ऋण अगन दुश्मन का
शेष अवशेष तनिक
बढेगा अपरम्पार
कर डालो निर्मूल सम्पूर्ण
यही उचित व्यवहार.....

(दुश्मन तभी समाप्त होता है जब दिल से दुश्मनी ख़त्म होती है)

rin, agan, dushman ka
shesh avshesh tanik
badhega aparampaar
kar dalo nirmool sampurn
yahi uchit vyavhaar.....

(dhushman tabhi khatm hota hai jab dil se dushmani khatm hoti hai)

जगमग......

...
तन दीपक
मन बाती
भया तेल
प्रेम सशक्त ,
रचने
नव इतिहास.....

छूकर
चक मक से
जला दिया
बाती को,
आलोक दूत था
दीपक,
देने को
प्रकाश.....

दूर हुआ
अँधियारा
हुई जगमग
हर दिशी
हर ओर
बीती थी रात
मावस की,
आई
महकी महकी भोर......

Thursday, October 15, 2009

एक दास्तान : चलते चलते.....

(सिक्के का यह एक पहलू है.......)

..
(१)
ढलती दुपहरी में
मिले थे तुम
तुम भी
बुझे बुझे से थे
हम भी हो गए थे
रीते रीते से
जिन्द का ढोते ढोते बोझा
करते तीन तेरह
तुम्हारी भी हरियाली
सूखने को आई थी
दूब हमारे यहाँ की भी
पीली पड़ चुकी थी
एकरसता ने कर दिया था
नीरस सब कुछ
हम भी बच्चों को
पाल पोष
लिखा पढ़ा
पा चुके थे निजात
तू ने भी छू ली थी
उंचाईयां ज़िन्दगी की........

कहने को जीवन साथी था
हमारा भी
तुम्हारा भी
मगर बरसों
एक छत को शेयर करने में
एक दूजे का दोहन करने में
अपना अपना रुतबा
कायम करने में
तुम से ऊँचा मैं
साबित करने में
एक दूसरे के इतिहास-भूगोल पर
तबसरा तनकीद करने में
साथ रहते रहते
हो गए थे
दोनों अजनबी
मैं और वे
तुम और वह...............

(२)

तुम आये तो लगा
बहारें लौट आई है
पेड़ों पर नए पत्ते
उग आये है
गुलशन में महक है
नए फूलों की
ज़िन्दगी सेज है
जैसे नर्म गुलों की
तुम्हारे सात और
हमारे चार गोलियां खाने का
असर था कि कुछ और मेरे मौला
पाकर इस खिले खिले से साथ को
मेरा दर्दे कमर ओ पीठ था गायब
तुम्हारी चीनी में भी आई थी गिरावट
इश्क की ताक़त ने बना दिया था
हमें चुस्त और तंदुरुस्त
मैं साड़ी ओ सूट से
आ गयी थी वेस्टर्न में
तुम्हारे जर्जर जिस्म पर भी
शोभायमान थे
गुची और वर्साचे
बालों की सफेदी को
छुपा रहे थे
हसीं रंग लोरीअल के
हर नयी मूवी
हर नयी इवेंट में
अपना पाया जाना
हो गया था लाजिमी
बार क्लब रेस्तरां
बन गए थे हमारे हिस्से
बोलचाल की भाषा हमारी का भी
हो गया था आधुनिकरण
हमारे आदर्श अब
बदल कर हमारे ही बच्चों और
उनके दोस्तों में समा गए थे.....
तुम्हारे फ़ोन की हर 'बुज्ज़'
दिल में जलतरंग बजा देती थी
अंखिया बस तुम्हे सिर्फ तुम्हे
देखने को तरस जाती थी
गुनगुनाती थी मैं
मैं वही दर्पण वही
ना जाने क्या हो गया कि
सब कुछ लागे नया नया......

(३)

अचानक लगा था कि
इश्क मुश्क खांसी
छुपाये ना छुपे
मेरी मजबूरी थी,
परदे कि आड़ में
इनसे पोशीदा
सब कुछ कर सकती थी
मगर हाय री दैय्या
जब होने लगे तेरे मेरे
प्यार के चर्चे हर जुबां पर
लगा था
इनको भी हो गया मालूम
और सब को खबर हो गयी
मैंने अपनाया :
'त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यम
देवो ना जानियति किम नरा'
बन गयी सती सावित्री
मुड़ कर एक सौ अस्सी के कोण से
कुछ भी कहो
मैंने तो की थी
तुम से सिर्फ एक पाक दोस्ती
तुम्हारा दूषित मन कुछ और
समझ बैठा तो मैं क्या करूँ ?
मैंने तो किया था
महज़ सौदा मन का
तू ने तन की तिजारत
समझ ली तो मैं क्या करूँ ?
मैंने चाँद और सितारों की
तमन्ना की थी
मुझे रातों कि सियाही के सिवा
कुछ ना मिला...
हदों को जब तब तू ने ही
लाँघने की हिमाकत की थी
माना कि मुझे भी
सब लगता था अच्छा
मैं तो थी निरीह नारी
जिसके अनुभव थे सीमित
तुम तो थे सर्वशक्तिमान पुरुष
क्यों नहीं सोचा
मैं किसी और की अमानत हूँ
कैसे हो सकता है
मैं नसीब हूँ किसी और का
मुझे चाहता कोई और है
तू ने बहकाया बरगलाया
मुझ भोली को
माना कि दोस्ती की थी मैंने तुम से
मगर हमेशा कहा करती थी ना:
मेरा पति मेरा देवता है........



कैसा है यह मिसरा ...( आशु रचना )

.....

हर कतरे में समा जाये
नाम किसी का
अबोला सा मिलने लगे
पैगाम किसी का
समझना तुम कि
बेला आई है
तुम को तुम से
मिलाने की
गुलशन-ए-रूह में
फूलों को खिलाने की
भटक ना जाना
यह राहें अनजानी है
बालू के टीलों पर
मौजों की रवानी है
शीतल आग का किस्सा
गर्म बर्फ की जुबानी है
ठंडी हवा में हैं तपिश
लू भी कैसी बर्फानी है
इस रेत के समंदर में
खुश्क अश्कों का पानी है
सच-झूठ पुन-पाप की
बातें सब बेमानी है
रूह-ओ-जिस्म का फर्क
अधूरे होने की निशानी है
हर जेहन में बस्ता
बातें कुछ पुरानी है
बेकार है यह बातें
इनमें क्या आनी जानी है
अल्फाज़ के खेल हैं यह
हकीक़त में फानी है
हर ज़ज्ब-ए-शौक की वज़ह
कैद-ए-तन्हाई में
फ़ित्रत इंसानी है
कैसा है यह मिसरा के :

"ज़िन्दगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है........."

मुस्कराईये ! (आशु रचना)

होता नहीं गवारा..... टुक मुस्कुराईये
आइना खफा खफा है टुक मुस्कुराईये !

उदासियाँ बसा कर क्यूँ सो गए हैं आप
सूरज चढा है सर पर अब जाग जाइये !

नहीं है कोई आखिर दौर-ए-ज़िन्दगी में
हर मोड़ पे ख़ुशी के नगमों को गाईये !

चल पडो अकेले पर्वाह है क्यों औरों की
मंजिल आपकी है खुद राहें बनाईये !

चाहत में गैरों की खुद को भुला दिया
मौका है खुद से आज मोहब्बत जताइये !

Tuesday, October 13, 2009

सिलसिला (आशु रचना)

..

सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा
सितम-ए-यार की
मेहरबानियों में
मैं गलता रहा..........

दिल दिया तो
दगा दिया था उस ने
नज़दीक आया तो
भगा दिया था उस ने
उसकी लगायी आग में
मैं जलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

सीढ़ी समझ कर मुझ को
वो चढ़ता रहा
खाकर ठोकरें उसकी
मैं गिरता रहा
कुचल मुझ को
जमाना चलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

रात-ओ-दिन मेरे साथ
गुजारा करता था वो
मेरी नज़रों से हर इक
नज़ारा करता था वो
मंद होते सूरज के साथ
रिश्ता भी ढलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

उदासियाँ उसकी को
संभालता रहा था मैं
ग़मों को उसके
दिल में अपने
पालता रहा था मैं
मेरी मायूसियों को
कर अनदेखा
वो फलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

मैं मरा तो
लिए आँखों में आंसू
रस्में निभा रहा था वो
अपने नालों को
बुलंदिया दिखा रहा था वो
भरी मुठ्ठियों से
तूफाँ अरमानों का
लहद में डलता रहा
सिला देने का यह
सिलसिला चलता रहा....

Monday, October 12, 2009

मनोवांछित (आशु रचना )

..
सोच रहा था
क्या अंतर है
वांछित और
मनोवांछित में.....

सुबह किसी का अलाप
आरती के रूप में
सुना था
मनवांछित फल पावे
कष्ट मिटे तन का........

जिज्ञासा हुई
फल मिल रहा है
वांछित मन का
दूर हो रहे हैं
कष्ट तन के
शायद मन की
हर वांछा
तन पर केन्द्रित हो......

इतना उदारमना तो नहीं
राही मनुआ
जो सोचे अपने अलावा
किसी और का
शायद यही नीयति होती है
मनवांछित की...........

सोचा था पूछूँगा मन से :
भाई साहब
आप अपने लिए कुछ
नहीं मांगते क्या
बोल उठा था मन :
मैं तो
चपल
अस्थिर
स्वार्थी
किन्तु मूढ़,
नहीं जानता
समझता
हित अपना
चाहने लगता हूँ
पूरा हो मेरा
हर सपना.......

लगा था पूछने मन तरंगी :
तुम तो हो मासटर
बताओ ना
क्या है वांछित
क्या मनोवांछित ?

समझ गया
मनुआ है
बहुत चतुर चालाक
कभी ना होते इसके
इरादे पाक
समझ मुझको विक्रम
खुद को बेताल
उलझा रहा है मुझे
सवालों में
जाना है इसे दूर
लटकने झूलने को......

मैंने किया था तय
रहूँगा मैं मौन
धरूँगा मैं ध्यान
करूंगा दूर
मेरा अज्ञान
करता रहूँगा
वांछित
ना कि मनोवांछित.......

आशियाना..........

...
देखा है ना
अकेली चिडियां को
बुनते हुए घोंसला !

उड़ती है वो
कभी इधर
कभी उधर
लाती है
चुन चुन कर
हरेक तिनका
जमाती है
सजाती है
तब जाकर बनता है
आशियाना.......

क्या हुआ
मर्द उसका
उठा लाता है
कभी इक्का दुक्का
कोई तिनका,
निबाहने अपना
पुरुष धर्म
जगत व्यवहार.......

सृजन का परिश्रम
मानो कृतव्य हो
मात्र चिडियां का
नितान्त नारी का,
होता है
जिसकी आँखों में
भविष्य का एक सपना
एक अनदेखा सत्य
जो नहीं लेने देता है
उस जननी को
एक पल विराम
निमिष एक विश्राम.....

Sunday, October 11, 2009

आज..........

...

देखता था
दर्पण हर दिन
उस अभिनय को जानने
जिसे ओढे
मैं जिये जा रहा था
ज़माने में......

आज मैं
रुक गया हूँ
थम गया हूँ
देखने अपना असली अक्स
आईने में......

परतें उतार उतार
देखे जा रहा हूँ
नहीं पा रहा हूँ
स्वयम का असली स्वरुप....

समाज, सम्बन्ध, अहम् ,
हीनता, प्रशंसा की प्यास
जीजिविसा, निबाहने का भ्रम,
क्रीड़ा, तृष्णा, इर्ष्या, द्वेष,
मोह, मद, लोभ, भय
और ऐसे ही बहुत
बना चुके थे मुझे बहुरूप.....

प्रत्येक के तर्क थे
हरेक के फर्क थे
खो गया था मैं
जो भी दिखता था दर्पण में
मान लेता था मैं
अपना प्रतिबिम्ब.....

उतार फैंके है आज मैंने
सब आवरण
जिन सा बनने
मैं स्वयम को
रहा था तोड़-मरोड़.........

आज नितांत अकेला
नितान्त नग्न
उपस्थित हूँ
दर्पण के सम्मुख
मुझे दिख रहा है
वह बिम्ब
जिसे अब तक मैं
अपनी कल्पना में
माना करता था
परम अस्तित्व.....

धुल गए हैं आज बहुरूप
निखर गया है मेरा स्वरुप
नहीं है मेरा कोई रूप
मैं तो हूँ अरूप
आज बन गए है सब आवरण
मेरे अनुरूप
हर अभिनय हो गया है जीवंत
नहीं रहा कुछ भी
निर्जीव प्रारूप.............

भाग गया है तिमिर
सब कुछ है आलोकित
देख पा रहा हूँ
स्वयम को
तुम को
उन को
सब वही है
किन्तु मेरी दृष्टि आज
कुछ और पहचान रही है
जो जैसा है
उसे वैसा ही
जान रही है.................





,

Friday, October 9, 2009

शून्य ( O )...........(आशु कविता)

चेतना
हो जाती
अन्तर्वस्तु विहीन
रह जाता है
मात्र चैतन्य...........

दर्पण होता है
जब मुक्त
प्रतिबिम्बों से
रह जाता है
केवल दर्पण.........

होते हैं
भरे हुए हम
अवस्था कहलाती है
मन..............

होते हैं
हम शून्य
घटित होता है
ध्यान...............

अवस्था जिसमें :
वस्तु नहीं
विचार नहीं
चित्त नहीं
मन नहीं
होता है शून्य
बस शून्य...........

यही है निर्वाण
यही है मोक्ष
यही है केवल्य.........

तर्पण (आशु रचना)

...

शब्द ना जाने
क्या क्या
अर्थ पाकर
बन जाते हैं रूढियां
'तर्पण' बन गया
देवों और पितरों के
जलार्पण का एक उपक्रम
उच्चारण के साथ ही
याद आ जाते हैं
कुछ जले मुरदे
कुछ गडे मुरदे
चोलों को ही करते हैं
नीर का अर्पण
आत्मा तो अनन्त है
अजर है अमर है
वे देह ही तो थे
जो चले गए
तुम देह भी हो आत्मा भी
मैं भी देह हूँ आत्मा भी
आओ ना हम
क्यों ना करें
'तर्पण'
तृप्ति की इस क्रिया को
बनायें प्राणमय सार्थक......

सिंदूरी.....(Ashu Kavita)

...

तुम उदय हुए तब थे सिंदूरी
अस्त समय भी हो सिंदूरी
चेहरे का औज तेरा सिंदूरी
हंसी तेरी खिल रही सिंदूरी
मुस्कानों में रंग सिंदूरी
स्पर्श किया...........
हुए कपोल सिंदूरी
रूठा जो मैं ..........
मिजाज़ तेरा सिंदूरी
बाँहों में है बदन सिंदूरी
मन में सपने भरे सिंदूरी
बात सिंदूरी रात सिंदूरी
स्पंदन आघात सिंदूरी
प्रेम निमंत्रण है सिंदूरी
क्यों ना मिटा दें...........
कृत्रिम दूरी.

खंडहर.......(आशु रचना)

...

किले के वे खँडहर
जहां हम तुम
मिला करते थे,
उजड़े से दयार में
उम्मीदों के फूल
खिला करते थे........

बिछुड़ गयी थी तुम
ना जाने क्या क्या
वास्ता देकर,
जुदा हो गयी थी
मुझ से मेरी मंजिल
एक भटका सा
रास्ता देकर....

Tuesday, October 6, 2009

अभिसार (जैसा महक ने पढा)

मिलन की
वांछा लेकर
सोया तो था.........

तेरी छवि को
नयनों में
बसाया तो था..........

स्पर्श तुम्हारे ने
मुझ में
स्पंदन कोई
जगाया तो था..........

तेरे मधुर गीतों ने
मुझे दीवाना
बनाया तो था............

मेरे उपवन में
पुष्प तुम सा
प्रकृति ने
खिलाया तो था.........

तपिश से व्याकुल
तन मन को
सहलाने
पवन ने
ठंडा झोंका कोई
बहाया तों था.........

स्वप्न में
आया था मैं
साथ मिला था
हर पल का
साँसों के दौर में
कठिन था
पहचानना
तुझ को
मुझ को
अभिसार के
अभिप्राय से
मुझ को तुम ने
बुलाया तो था.........

अभिसार (एक आशु कविता)

...

मिलन की
वांछा लेकर सोया तो
नहीं था.........
तेरी छवि को
नयनों में बसाया तो
नहीं था..........
स्पर्श तुम्हारे ने
मुझ में
स्पंदन कोई जगाया तो
नहीं था..........
तेरे मधुर गीतों ने
मुझे दीवाना बनाया तो
नहीं था............
मेरे उपवन में
तुम सा पुष्प
प्रकृति ने खिलाया तो
नहीं था.........
तपिश से व्याकुल
तन मन को सहलाने
पवन ने
ठंडा झोंका कोई बहाया तो
नहीं था.........
स्वप्न में आया था मैं
साथ दिया था हर क्षण में
साँसों के दौर में
कठिन था पहचानना
तुझ को
मुझ को
अभिसार के अभिप्राय से
मुझ को तुम ने बुलाया तो
नहीं था.........

Monday, October 5, 2009

आवरण.......

..

ना जाने
पहने हुए हैं
हम कितने
आवरण.......... ?

पाखंड नहीं
धोखा नहीं
प्रवंचना नहीं
होते हैं कभी कभी
हमारे मौलिक
नम्र स्वभाव के
परिणाम
शालीन से
आवरण......

औरों के लिए
गहरी
संवेदनाओं
मैत्रीमय
मनोभावनाओं से
उत्पत्त
प्यारे दुलारे
आवरण.........

हम करते हैं
पर्वाह उनकी
व्यथित होते हैं
दुखों से उनके
ओढ़ लेते हैं हम
झीने झीने से
आवरण.......

ज़माने की
चोटों से
बचाने निज को
लपेट लेते हैं
स्वयम पर
गुदगुदे
आवरण.......

होती यह दुनिया
विक्षिप्त सी
आक्रोशमय
हिंसा-प्रतिहिंसा का
नग्न नृत्य कराती
यदि ना होते
हंस की पंखों से
कोमल
आवरण......

हो जाते
धूल धूसरित
निर्मल से
निरपराध
क्षण
यदि ना होते
रक्षक
निरापद
सजग
संगी
आवरण......

Thursday, October 1, 2009

मानव और मधुमक्खी/ Manav Aur Madhumakkhi......

..

रंग रूप
स्वाद सुगंध को
जकड़ कर
नामों की जंजीरों में
समझ रहा है मानव
कालजयी
शोधक
स्वयम को............

नहीं समझ पा रहा
जड़मति
ठिठौली की है प्रकृति ने
उसके साथ
दिखाया है उसको
भिन्न भिन्न
गुलाब और आक का गात.......

नन्ही सी मधुमक्खी
नहीं है भ्रमित
आकार में प्रकार में
अलग अलग
रूप और व्यवहार में
उसे तो तलाश है
मधु की
जो छुपा है दोनों में
नहीं जाननी
जात उसको
आक और गुलाब की..........

पहुंचता वही है
सही जगह
जो लगाता है चित्त
शोध और बोध में,
पा जाती है सार
मधुमक्खी,
उलझा रहता है
मनुज
बुद्धि विलास
सतही आमोद
और प्रमोद में........
..
Rang roop
Swad sugandh ko
Jakad kar
Naamon kee zanzeeron men
Samajh raha hai manav
Kaaljayi
Shodhak
Swayam ko........

Nahin samajh pa raha
Jadmati
Thithauli ki hai
Prakriti ne
Uske saath
Dikhaye hain usko
Bhinn bhinn
Gulab aur aak ke gaat.......

Nanhi si madhumakkhi
Nahin hai bhramit
Aakar men prakar men
Roop aur vyavhaar men
Use to talash hai
Madhu ki
Jo chhupa baitha hai
Donon men
Nahin janni jaat usko
Aak aur gulaab ki.........

Pahunchata wahi hai
Sahi jagah
Jo lagata hai chitt
Shodh aur bodh men,
Pa jati hai saar
Madhumakkhi,
Uljha rahta hai
Manuj
Buddhi vilaas
Satahi aamod
Aur pramod men.....