Friday, June 29, 2012

मौन स्वर..

# # #
प्रेम की अगन
मगन ह्रदय में
ह़र पल जो दहकेगी...

राख से ढकी हुई
चिंगारी,
तेज़ हवा की है
बलिहारी,
नभ पर चढ़कर
इठलाऊं मैं
चाह यही रखती
मतवारी,
बुलंद इरादे रहे
अगर तो
निश्चित वह लहकेगी...

आती रहती खिज़ा
बेचारी
हरियाली पर होकर
भारी,
माली जो गर
देखे सींचे
खिलती जाती
हर फुलवारी
हो मौजूद
वुजूद बहार का
कोयल तो चहकेगी.....

थक गयी है यह घोर
निराशा
चुस्त दुरुस्त मगर है
आशा,
पी कर अमृत
निज विश्वास का,
रहेगी कायम
उसकी भाषा,
चाहे जुदा हो
डाल फूल से
बगिया तो महकेगी...

आँखें अश्कों से है
भरती
हंसी होठों पर फिर भी
सजती
चाहे कड़के
तड़ित बिछोह की
मिलन वृष्टि तो होती
रहती
सच तो यह कि
मौन स्वरों में
रागिनी तो गह्केगी...

Thursday, June 21, 2012

किस्सा भलमनसाहत का

किस्सा भलमनसाहत का उर्फ़ दास्ताने मच्छर और खटमल..
# # # # # # # # #

# भलमनसाहत कभी कभी बेवकूफी भी हो जाती है.

# अपने तथाकथित आदर्शों और उसूलों के चलते कभी कभी हम इतनी थ्योरिटिकल अप्रोच अपना लेते हैं कि वह जानलेवा हो जाती है.

# लोग हमें 'फॉर ग्रांटेड' लेने लगते हैं, और हम हैं कि लोगों की निरर्थक और स्वार्थपूर्ण मांगों को पूरा करने में ही रिश्ता निबाहने के भ्रम को जीये जाते हैं.

# रिश्तों को जीना एक आर्ट भी है तो सांईस भी.

# हम बचे रहें जरूरी है इसके लिए कि स्टीयरिंग का कंट्रोल अपने हाथ में रखें,यथासमय यथोपयुक्त एक्सलेटर और ब्रेक का इस्तेमाल करते रहें तो सफ़र अच्छे से पूरा हो सकता है.

# हम सावचेत हो कर जीने का ज़ज्बा रख सकते हैं, दुर्घटनाएं तो आकस्मिकता है. हाँ जैसा कि हम हाईवेज पर लगे होर्डिंग्स पर पढ़ते हैं--सावधानी हटी दुर्घटना घटी.

# एक किस्सा आ गया ख़याल मे..... आसान कर देगा वह ऊपर लिखी बातों को.

# एक था बादशाह .सोया करता था अपने रेशमी पर्दों वाले, मखमली गद्दों वाले ख्वाबगाह में.

# एक था मच्छर. लगा था वहीँ एक कोने में रहने. सो जाता था जब बादशाह गहरी नींद, तो निकलता था वह भी बाहिर...और चला जाता था अपनी जगह फिर से चूस कर शाही खून अहिस्ता से.

# गुजर रहे थे मच्छर के दिन यूँ खूब मजे मज़े में.

# एक दिन बादशाह के ख्वाबगाह में आ गया था एक खटमल. कहा था मच्छर ने, "अरे खटमल इस ख्वाबगाह पर तो है सिर्फ मेरा ही अख्तियार, अरे चला जा यहाँ से, होगा यही तेरे लिए बेहतर अरे ओ बेमुरव्वत खाकसार."

# खटमल खिलाड़ी , बोला बहुत मोहब्बत से, घोल कर मीठी मीठी मिसरी जुबाँ पर, "मच्छर दोस्त ! घर आये मेहमान का नहीं करते ना अपमान, मैं तो आया यहाँ एक छोटे से टेम्परेरी मकसद के साथ, समझ लो है कोई दो तीन दिन की बात, चला जाऊंगा मैं, मेरे दोस्त उसके तुरत बाद."

# मच्छर ने रखी जिज्ञासा, " रे खटमल, सब ठीक..मगर मकसद तो बता अपना."

# बोला खटमल, " दोस्त मच्छर ! खूब पिया खून तरह तरह के इंसानों और जानवरों का..मगर नहीं मिला पीने को लहू किसी राजे महाराजे बादशाह का. बस हो जाये मेहरबानी तेरी और ले लूं यह एक्सपीरियंस भी दो एक दिन. चल दूंगा फिर मेरे अज़ीज़ मैं भी राह अपनी.दे दो ना मुझे इज़ाज़त, बात है बस दो एक दिन की ."

# लगी थी मच्छर को लोजिकल बातें खटमल की.. इमोशनल भी, इगो बूस्टिंग भी. सोचा था उस ने अपने उसूलों के फ्रेमवर्क के तहत और हो गया था अग्री वह.

# बस रख दी थी महज शर्त एक जनाब मच्छर खान 'भिनभीने' ने..."रे खटमल तुम करोगे अपना काम जब सोया होगा बादशाह गहरी नींद में."

# बोला शरीफजादा खटमल हुसैन, भाई मच्छर मैं तो अपने काम को दूंगा तभी अंजाम, जब पी चुके होंगे तुम भी खून बादशाह का. अरे तुम कहते हो सरासर वाजिब, वैसे भी पहल तुम्हारी और सिर आँखों पर पालन तेरी इस शर्त का.

# रात हुई, चमके थे आसमान में सितारे..चली थी हवा ठंडी ठंडी और सो गया था बादशाह सलामत.

# खटमल तो खटमल, नहीं रख सका था काबू या यूँ कहें कि मच्छर साहब ' टेकेन फॉर ग्रांटेड 'हो गए उसके लिए . लग गया था ज़ालिम बादशाह के बदन पर.और लगा था चूसने खून उसका. रोकता रहा मच्छर... मगर मिल गया था खटमल को एक नया लुत्फ..जारी रखा था उसने काम अपना करके मच्छर के नालों को अनसुना.

# हुई थी चुभन बादशाह को. चिल्ला उठा था आलमगीर......और सुन कर उसकी आवाज़ दौड़े आये थे कारिंदे.

# छुप गया था खटमल. नज़र पड़ी थी सब की बस मच्छर पर.

# मारा गया मच्छर और खिसक गया था होले से खटमल......

Tuesday, June 19, 2012

आनी जानी...

# # # #
होते हैं कुछ पंछी ऐसे,
नहीं होता जिनका कोई बसेरा
होती है कुछ रातें ऐसी
नहीं होता जिनका सुखद सवेरा,,,,,

नयनों के परिचय का क्या है,
दोहराये निश्चय का क्या है,
कहाँ सत्य निर्वचन हमारा ?
बलिदानों की पृष्ठभूमि में
छुपा हुआ जो तेरा मेरा,,,,,,

योग सुहाने हो सकते थे
कैकयी दशरथ को ना छलती,
आ सकते थे कुछ पल ऐसे
सीता अग्निस्नान ना करती,
होना था जो, हो ही गया था
समझो था बस समय का फेरा,,,,,,,

खाक हुई सोने की लंका,
देखा श्रद्धा को बनते शंका
अस्तित्व भ्रम ने किस कारण यूँ
स्वयं पुरुषोत्तम को था जो घेरा ?

अनहोनी होनी हो जाती
बनती प्रस्तर फूल सी छाती,
घटनाएँ तो आनी जानी
जीवन यह दो दिन का डेरा,,,,,,

Wednesday, June 13, 2012

मैं दर्पण ...(आशु रचना )

# # # #
मैं दर्पण
सहज समर्पण,
अति कृपण
ना अर्पण ना तर्पण,
आवरण
वातावरण
अवधारणा
अवतरण
सब तो हैं तुम्हारे....

मैं दर्पण
नितान्त निरपराध
प्रस्तुत जस का टस
ना कोई साध,
बिम्ब
प्रतिबिम्ब
दर्शन
चिंतन
सब तो हैं तुम्हारे...

मैं दर्पण
कलुष पीठ
उजले नयन
स्पष्ट दीठ,
कुंठित उसूल
जमी धूल
विश्लेषण
संश्लेषण
सब तो हैं तुम्हारे...

अब क्या बात करूँ...(आशु रचना)

# # # #
किस प्याले की
अब क्या बात करूँ....

खूब पिलाया
जब तक मन था
अधरों पे खिला
शब्दों का चमन था,
सच कह उठी
जिस दिन यह जुबाँ थी
उस दिन की
अब क्या बात करूँ ....

छलका था मैं
मय बन कर
मदमस्त किया
हर शै बन कर
जीवन में
कितनी रंगीनी थी
उस मदहोशी की
अब क्या बात करूँ ......


टूटे थे ख़्वाब
देखा जग कर
ज्यूँ फूल गिरे
पत्थर बन कर
पलकों से गिरा
ठुकराया गया था
उस ठोकर की
अब क्या बात करूँ...

हाला से भरा था
वो प्याला
और जख्म ढके था
वह छाला
फूट पड़ा और
बढ़ गयी जलन थी
उस टीस की
अब क्या बात करूँ...

नयनों का था
वो प्याला,
छलक पड़ा था
मतवाला,
था दिल से
जो खिच कर आया,
उस आब की
अब क्या बात करूँ...