Sunday, October 30, 2011

मुल्ला का मलाल

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आज की ही तरहा सन्डे की सुबह थी. मुल्ला टपक पड़ा था मेरे घर, माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम का ज़ज्बा लिए. दीवाली ताज़ा ताज़ा गयी थी. मुल्ला कहने लगा, "अमां मासटर तेरे को लोग-लुगायियाँ सूखे मेवे की इतनी टोकरियाँ भेजते हैं, सोचा उनको खोलने में तेरी मदद की जाय..और तुम तो बादाम के इलावा कुछ खाते नहीं, घर में जगह घेरेगा यह सब, मैने सोचा मैं लिए जाता हूँ, तुम्हे परेशानी से निजात दिला देता हूँ." मुल्ला की यही स्टाईल है उनका ह़र काम किसी दूसरे की मदद के लिए होता है, जनकल्याण के लिए होता है, रूहानी होता है. दोस्त हूँ उसका, मैं भी जानता हूँ वह ऐसा है ऐसा ही रहेगा.
तो मुल्ला दुलाल को चाय, टोस्ट, मीठा, नमकीन पेश करने की हिदायत देकर मेरी मदद के काम में लग गया.

दुलाल थोड़ी देर में चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर हाज़िर हुआ, मुल्ला ने अंगड़ाई ली और बोला- "अमां मासटर तुम्हे गरम गरम चाय पिलाते हैं..छोड़ इस किताब का चक्कर और आज तुम्हे मैं अपना दुखड़ा भी सुनाना चाहता हूँ." और उसने मेरे हाथ से किताब छीन ली.

मैं हमेशा ही अपने लेक्चर्स में तंज से कहा करता हूँ- "जब तुम बलात्कार को रोक नहीं पाते तो उसे एन्जॉय कर लो." मैने उस दिन बस वही किया.

गरम चाय सुड़कते हुए और टोस्ट कुतरते हुए बोलने लगा मुल्ला नसरुदीन.
"बड़ा उदास हूँ मासटर आजकल. तुम तो जानते ही हो किन किन हादसों से दो-चार हुआ हूँ मैं इन दिनों."

एक तो मेरी याददाश्त कुछ अजीब है और कुछ मैं जानता भी हूँ कि मुल्ला सब कुछ तफसील से कहेगा ही एक दफा शुरू हो गया तो.

हालात से समझौता कर मैने कहा, "क्या हो गया मुल्ला ?"

मुल्ला लगा कहने, " कितने अफ़सोस की बात है, तुम तो जानते ही हो मेरे मामूजान सयैद बकरुदीन साहब, खुदा जन्नत बक्शे उनको, यही पिछले मह अल्लाह के प्यारे हो गए थे लन्दन में और मेरे लिए कई करोड़ की जायदाद वसीयत में लिख गए."

मैने हुंकारा भरा, चाय कि चुस्की ली, रस्मी तौर पर बोला हाँ मुल्ला बहुत ही नेक इंसान थे वो. उम्र हो गयी थी जाने की, करीब करीब अस्सी के थे. तुम ने तो उनसे झूठ सच करके बहुत कुछ बटोरा था.

मुल्ला जारी था, "अरे मासटर उनका चालीसवां सींचा ही नहीं गया था कि मेरे चचा जनाब सलाउदीन साहब अहमदाबाद में चल बसे. इतने दिलदार थे, आगे पीछे कोई नहीं था उनके, वे भी अपनी वसीयत में मेरे नाम बड़ी जायदाद लिख गए."

मैने उसके केंसर के मरीज़ मरहूम चचा की याद में कुछ कहा और उनकी रूह के सुकून के लिए अल्लाताला से दुआ की,

मुल्ला दूसरा कप ढाल रहा था और शायद यह उसका तीसरा टोस्ट था मोटी मख्खन की तह लगा..बोला, " अमां कितना बड़ा बौझ दे डाला हमारे खानदान ने इन तीन माह में अल्लाह परवरदिगार पर, वो मेरे भोपाल वाले ताऊ थे ना मुल्ला गबरुदीन. वो भी तो पिछले हफ्ते फौत हो गए. उम्र कोई नब्बे की थी मगर दिल से बड़े जवान थे तेरी तरह. आज भी इश्किया शायरी लिखते थे. चले गए और वसीयत में मेरे नाम भोपाल का फार्म हॉउस, दुनिया भर के शेयर और बैंक डिपोजिट्स लिख गए."

मैं उस खूसट बुड्ढ़े को जानता था, गाहे बगाहे किसी पड़ोसन या मेड सर्वेंट पर फ़िदा हो कर इश्किया असआर लिखा करते थे और मुल्ला के मार्फ़त मेरे पास इस्लाह के लिए भेजते थे, जो मैं हमेशा बहुत खूब का टेग लगा कर उन्हें वापस भेज दिया करता था ताकि इश्क के मर जाने तक फातिहे तो कम-स-कम उन तक पहुँच जाये. वैसे भी उनकी शायरी एक ही धूरे पर घूमती थी और ज्यादातर फ़िल्मी गानों या किन्ही और घटिया शायरों के कलाम से मारी हुई होती थी.

खैर मै उनका पान की पीक थूकता पोपला मुंह और उस से भीगी दाढ़ी का तसव्वुर करते हुए बोला, "अमां मुझे उनके दुनियां से उठ जाने का दुःख है. मगर तेरी उदासी नहीं समझ में आ रही. तीन तीन बुजुर्ग चले गए और तेरे लिए इतनी दौलत भी छोड़ गए. अरे तेरी तो बल्ले बल्ले है. काहे दुखी हो रहा है..मलाल किस बात का...एन्जॉय कर...सेलेब्रेट कर...ऐसे लम्हे ज़िन्दगी में फिर नहीं आयेंगे.अरे दावत दे, दावत."

डरते डरते कहा था मैने क्योंकि अगर दावत हुई तो उसका बिल भी मुझे ही चुकाना था. मैं ठहरा घासपूस खानेवाला और मुल्ला मासाल्लाह सभी तरह के ग़ोश्त और लाल परी के शौक़ीन. खैर !

मुल्ला उदास हो कर बोला, "अमां मासटर तुम कभी भी मेरा दर्द नहीं समझ सकते...अरे इमप्रेक्टिकल इंसान अब सारे बुड्ढ़े चले गए है मेरे खानदान से, कोई नहीं बचा है..मलाल तो इस बात का है."

और मैने अपना सिर पीट लिया था.

Tuesday, October 11, 2011

गुज़ारिश (आशु रचना)

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मेरे गुज़रे हुए कल से
की थी
गुज़ारिश मैने,
बीत चुका है तू,
फिर सताता है
तू क्यों
मुझको,
बनकर साया
एक पिशाच सा
क्यों करता है
बैचैन मुझ को ?
बोला था वो
हिस्सा
मेरी ज़मीर और फ़ित्रत का ,
बिन खोले मुंह
मेरी ही जुबाँ से
लिए बिना सहारा
हर्फों और लफ़्ज़ों का,
क्यों फिर रहे हो
चिपकाए खुद से
मेरे बेजान जिस्म को,
रूह छोडे हुए बदन
होते हैं महज़
लाशें ,
होती है जगह जिनकी
कब्र में
डाली जाती है जिन पर
ख़ाक
भर भर मुठ्ठियों में,
की थी गुज़ारिश
मेरी रूह ने
मुझ से ही :
फेंक दो,
फूक दो या
कर दो दफ़न
माजी को,
बचना है गर
तुझ को
होने से घिनौना
उसकी सड़ांध
और
छूत के
असर से.....