Saturday, February 28, 2009

जज्बा-ए-कबूलियत ..रस मतलबपरस्ती का

# # #
धूप
दुपहरी की,
ताज़ी सुबहें,
फुर्सत की शामें,
निचोड़ती है
रस
मेरी मतलबपरस्ती का,
दे कर जिसको
नाम
सोचों का
परोसे जा रहा हूँ
सब को;
जुबाँ
पीनेवालों की
कहती है :
कभी खट्टा
कभी तीता
कभी बेस्वाद सा
मगर देखो मेरी
महारत
विपणन की
बिक रहा है
सब कुछ
उदारीकरण के
दौर में......

(विपणन=मार्केटिंग)

जज्बा-ए -कबूलियत -सहर-ओ-शब


हर सहर
नए पैगाम
लाती है
हर शाम
छलकते जाम
लाती है
सहर--शब् के
दरमियाँ है जो
चन्द घड़िया
वे कुछ
भले बुरे
इलज़ाम लाती है .
मेरे खफा
खफा से दोस्त !
ज़िन्दगी
मेरे खातिर
कोई आगाज़
ही अंजाम
लाती है.

(यह एक नयी सीरीज की शुरुआत है-ज़ज्बा--कबूलियत याने आत्म स्वीकृति की भावना या सेंटीमेंट्स ऑफ़ कन्फेशन )

Monday, February 23, 2009

ॐ नम: शिवाय....!!!

शिव,

आदि गुरु

महा नर्तक

महा दानी

अनाभिव्यक्त

इन्द्रियातीत

प्रेम के आदि

प्रणेता………..

शिष्य

देवी,

अर्धांगिनी

शिव की

पावन पवित्र

लिए पूर्ण

ग्राहयता……..

देवी के प्रश्न

शिव के प्रत्युत्तर

वार्ता हृदय की

हृदय से,

दर्शन नहीं कोई

प्रतिस्थापन नहीं कतिपय

बस है यह

संवाद प्रेम का

प्रेमालाप

निर्द्वंद

है विवाद

है हिंसा

न ही आक्रामकता……

विनिष्ट हुए

पूर्वाग्रह

धारणाएं कुंठित

विस्मृत हुआ अतीत;

हुआ था विसर्जन

मन का

सृजन वर्तमान का

भंगित हुई मूर्च्छितता…….

नर -नारी का

पुरुष-प्रकृति का

अद्भुत सम्मिलन

द्वैत का अतिक्रमण

स्पर्श शिखर का

आलौकिक अनुभव

तिरोहित विषमता

हुई घटित

अनिर्वचनीय एकात्मकता …….

सौरभ विस्तृत

दश-दिशी

आलोक प्रकाशित

सप्तऋषि

तन मन उच्चारित

दिन-निशि

नमः शिवाय !

नमः शिवाय !

नमः शिवाय !

जागृत चैतन्य

घटित जागरूकता…………

Sunday, February 15, 2009

एक प्रश्न महा सती सीता मैया से ...


स्वपन में
दर्शन हुए थे
सीता माता के
वही दृश्य था
राजा राम ने
गर्भवती सीता को
अपनी अर्धांगिनी सीता को
हर स्थिति में
साथ देनेवाली साथिन को
दे दिया था गृह निष्कासन
और मार्ग में
मिल गया था उन्हें
मुझ सा पथिक
यक्ष का शिष्य
अति जिज्ञासु
प्रश्न करने को हर क्षण आतुर.

पूछा था मैने:
मैय्या !
आश्चर्य है
घोर आश्चर्य !
इन्ही श्री राम ने
तुम से पाणिग्रहण
अभियान में जाने की यात्रा में
किया था उद्धार अहल्या का
करके घोषित
उसे निष्कलंक और निष्पाप…..
देते हुए परिचय अपनी
उदार दृष्टि का

और आज वे ही लंका विजेता
महाबली रावन के संहारक
भारत सम्राट
दे रहे हैं दंड
होकर भयाक्रांत लोकोपवाद से
अपनी धर्मं-पत्नी को
स्वयं द्वारा निर्धारित
सफल अग्नि परीक्षा के उपरांत भी…..
ऐसा क्यों हो रहा है, मैय्या ?

अश्रुपूरित नयनों
और मलिन भाव-भंगिमा के साथ
महान नारी महासती सीता ने कहा था :
“पर उपदेश कुशल बहुतेरे !"

स्वपन भंग हो गया था;
पुरुष मनोविज्ञान के विश्लेषण
पर दिया हुआ व्याख्यान शायद
अवचेतन में मेरे समाहित था
तभी तो देखा था अनदेखे को
सुना था अनकहे को……….
अपने आंसू पोंछ
सो गया था मैं फिर
जय सिया-राम का उदघोष लगा कर.
सपना सच था या संस्कार ?
शेष रह गया था बस
यही प्रश्न मेरा मुझ से।



Thursday, February 12, 2009

परिचय-अपरिचय (दीवानी सीरीज)...


# # #
कहा था उसने बहुत ही मायूस हो कर....:

" सभी कुछ है
अपरिचित सा,
हाँ, अपरिचित
मैं और तुम भी.....
नहीं पहचानी
ता-उम्र
सुगंध हमने
एक दूजे की....

हम है ना
अपरिचित से,
रहकर भी
नीचे
एक छत के.....

_____________________________________________________

"एज़ युसुअल " मेरे उद्गार एक फलसफाना अन्दाज़ में कुछ ऐसे थे :

आओ रहें
अपरिचित से,
लेकिन
परिचय की
नित नयी
आस लिए....

भ्रम
पूर्ण परिचय का
या
जीना
अति-परिचय का
ला देता है
एक ठंडापन सा.....

हो रहा है
घटित
कुछ ऐसा ही
शायद
मध्य
तुम्हारे और मेरे....

प्रिये !
मोड कर मुंह
कैद इस छत की से,
तोड़ कर
परिचय की
असंगत
परम्पराओं को,
छोड़ कर
परिभाषाओं में बंधे
श्वास निश्वास को,
चलो ना
चिंतन और
भावनाओं की
खुली वादियों में,
बहती हवाओं में,
बरसती रिमझिम में,
पाने एक नया
परिचय
स्वयं का भी
एक दूजे का भी.....

बीते पल ...(दीवानी सीरीज)

उस दिन कुछ ज्यादा ही संजीदा हो गई थी वो. उसे हमेशा आपने 'पास्ट' का 'टेंशन' रहता था, ना जाने क्यों. 'पास्ट' तो शायद बहाना था, उसकी सोचों में 'निगेटिविटी ' जा जाने क्यूँ समाती जा रही थी. उसने कहा था:

________________________________
# # #

हर क्षण
जीवन का
काश ! एक शब्द होता
लिखा हुआ
स्लेट पर--
जिसे
देख कर
छू कर
पढ़ कर
जा सकता है
मिटाया....

क्यों
रहतें है
चिपके
बीते पल
वर्तमान से.....?

________________________________________________________________

बात को कैसे लिया जाय, हमारे सोच का प्रवाह बहुत कुछ उस पर 'डिपेंड' करतें हैं. झील किनारे बेंच पर बैठे मैने कुछ ऐसा दिलासा दिया था :

# # #

यह लम्हे
जिन्दगी के
रंग है
इन्द्रधनुष के
फैले हुए हैं जो
निकल कर
क्षितिज से,
नहीं मिटा पाते
जिन्हें हम
चाह कर भी....

क्यूँ
चाहती हो
मिटाना
बीते पलों के
रंगों को ?
खिलतें है
जब जब
ये रंग
दिख जाती है
इन्द्रधनुष
सतरंगी
वर्तमान में भी ....

बस चले आओ.........(दीवानी सीरीज)

उसका सोच था एक दिन:

# # #

तुम्हारे बिना
खालीपन
खोखलापन
अँधेरा
रुके रुके से
कदम.....

क्यूँ ना भर दूँ
आशाओं से
खालीपन को ?
क्यूँ ना
गिरती दीवारों को
उठाकर
कर दूँ
तामीर
एक पक्की दीवार की....?

___________________________________________________________

मेरा सोच था उस दिन :

# # #

मेरे अँधेरे
मेरा खालीपन
समां का
खोखलापन
मेरे थमे थमे से
सांस
कर रहे है
इंतज़ार तुम्हारा....

आओ ना
चले आओ
भरने
अपनी उम्मीदों से
अपनी तवस्सुम से
अपनी मासूमियत से
मेरे खालीपन को,
कर दो ना
रोशन
मेरे अंधेरों को,
चलो ना
कदमों से कदम
मिला कर......

गर देना है साथ
तो
ये उदास उदास से
एहसास क्यूँ
खोये खोये से
अंदाज़ क्यूँ
बुझे बुझे
सवाल क्यूँ ???
चले आओ
बस चले आओ......

चाहिए किसको
तामीर दीवारों की,
बसायें क्यों ना हम
जहां अपना
तले
खुले आकाश के .....

बोनसाई ...(दीवानी सीरिज)

दीवानी की बात :

ना जाने क्यों उसने कहा था :

# # #

नारी मानो
कमरे में रखा
पौधा है
गमले का,
नहीं मिलता
जिसे
खुला आकाश,
फैलना है
जिसे
दीवारों के
भीतर ही.....

मैने कहा था :

# # #

माना कि
संसार है
एक कमरा
दीवारों से
घिरा
छत है
जिसकी
आकाश,
नर हो या
नारी
फैल तो
सकतें हैं
मगर
छू नहीं सकते
इस आसमानी
छत को....

क्यूं कि,
हर-एक का
होता है
कद अपना,
सहारों का भी
कमरों का भी
तुम्हारा भी
मेरा भी.....

फिर :

क्यूँ फैलते हो
इतना कि
गिरने
टूटने
और
मिटने के
सिवा
कोई दूसरा
हस्र ना हो...

नहीं है
हम
पौधे
किसी
गमले के
क्यों
उलझें
मिसालों की
कल्पनाओं में,
बढ़ने
और
फैलनेवाले तो
गिरा देते हैं
दीवारें.......


पहचान...

# # #

मैं हूँ
इस पार
तुम हो
उस पार,
बीच
बह रही
नदी एक
कल कल
सुरों के संग,
कुछ दिन हुए
उस पार थे
हम दोनों,
हाथ में हाथ लिए
छोड़ आये थे
सब कुछ,
संग जीने
और
मरने के लिए,
हुआ क्या था
अचानक
लौट गई थी
तुम,
और
मैं
आ पहुंचा था
इस पार,
लेकर
एक मात्र नाव को
जो थी
उपलब्ध
वहां बस
सदा के लिए...
जला चुका हूँ मैं
अब वह नैया,
अनजान है
हम दोनों
तैरने से,
और
मर चुकें है
मेरे एहसास भी
शायद,
मत पुकारो
मुझे---
लौट जाओ...

बाद जलाने के
नाव
देखा है मैंने
अनवरत,
बिम्ब अपना
बहती नदी के
जल में,
और
पाया है
परिपूर्ण स्वयं को
तुम बिन भी,
अलग हैं
अपनी राहें और चाहें,
तुम भी
तनिक झुक कर
झांको ना
नदिया में,
तुम भी पहचान लो
शायद
स्वयं को......


नैया बिन पतवार

गल बहियाँ ना डारो मोरे साजन
ननदी खड़ी है दुआर रे
खुद पर काबू रखो मोरे बालम
बदनामी के आसार रे.

रात बहुत ही होवे है लम्बी
करके रहूँ सिंगार रे
धन कटनी की रुत है आई
खेत करे इंतज़ार रे.

जिस्म जरूरी है मेरे संगी
पर कैसे यह तकरार रे
जिंदगी नहीं है एक तमाशा
खुद पर करो एतबार रे.

तड़प वही है मेरे दिल में
नहीं ओछा अपना प्यार रे
दो से नहीं बने है दुनिया
अपना सब संसार रे.

मुलुक गाँव और दोस्त हमारे
यह अपना परवार रे
कैसे नदिया पार करेगी
नैया बिन पतवार रे.

(यह बात मैने एक एक्स-कलीग से सुनी थी जो पाकिस्तान से था और हम लोग वर्ल्ड बैंक के एक प्रोजेक्ट पर साथ कम किये थे.

इसमें एक पढ़ी लिखी लड़की की कहानी है जिसकी शादी एक किसान नौजवान से होती है, जो कि बहुत ही भावुक हो कर काम और परिवार से मुंह मोड लेता है, और हर समय बीवी का साथ चाहता है और कैसे उसकी बीवी उसे समझाती है यह बात इस गीत में है.)

नज़ाकत....

# # #

हुज़ूर की गर हम पे नज़रें इनायत होती
बेवक्त आशियाँ में, यूँ ना क़यामत होती.

ना बदले जाते हम ना होती दास्ताँ-ए-बर्बादी
बदौलत आपके, इज्ज़त सब की सलामत होती.

पढ़ा करते थे हम अल्फाज़ रूहानी हर लम्हा
अशआर हमारों में भी शामिल ये शराफत होती.

रोकर भी हंस देते शाम-ओ-सुबहा हम भी
उनकी फ़ित्रत में थोड़ी स़ी भी उल्फत होती.

क्या दम था रकीब में छीने जो मोहब्बत मेरी
नहीं मोलसदाकत का,हम पे भी तो दौलत होती.

एहसास-ए-बेचारगी से बच जाते हम भी
तजबीज में उनके थोड़ी स़ी नज़ाकत होती.

Love : The Mirror


Love is suppressed
Hatred is repressed
Seasons come and go.

Wearing colored glasses
Gives a feel
There is 'one' color
Thru which
Eyes are looking.

O Love
Bloom in me
Show me the mirror
I can see who
I am............

प्रेम.........

बात दीवानी की...

सावन के महीने में एक नज़ारा देख कर उसमें समायी कवियत्री ने उसके सोचों को कुछ इस तरहा प्रकट किया था:

# # #

काले मेघ
घिरे,
आवाजें
गड़गड़ाहट की,
विभोर
हो उठा
मनुआ
मोर का,
और
लगा था
नाचने वो
होकर
मदमस्त
होकर
आनन्दित...

इतना नाचा
मयूर
इतना
नाचा कि
टपकने
लगा था
खून
आँखों से
उसके...

देखा था
मोरनी ने
अचानक,
आयी थी
वह
लपक कर
पी गयी थी
वो
खून की
गर्म
बूंदों को.....

बात मेरी :

मोर को इस तरहा अपनी बात कहते मैने सुना था उसके साथ:

# # #

काले मेघों ने
दिलाई थी
याद तुम्हारी,
साध तुम्हारी,
तभी तो
नाच सका था
मैं
होकर विभोर,
भूला कर स्वयं को
एक अनजाने
उन्माद में....

मेरी आँखों से
गिरा
लहू
लिए हुए था
चाहत
तुम्हारी वफ़ा
तुम्हारी मोहब्बत
तुम्हारे आंसुओं की....
दे तो दिया है
जिसको
तू ने
पी कर,
समा कर
खुद में,
मुझे नहीं
तो
अपना कर
मेरे
रक्त को..

मेरे खून के
स्वाद ने
दिया है
आह्लाद
तुझ को,
बुझाई है
प्यास
तुम्हारी,
सहलाया है
अहम् को तेरे,
और
हुई हो बेहद
खुश तुम...

यही तो है
पराकाष्ठा
प्रेम की
मेरे....




केक्टस : नागफनी (दीवानी सीरीज)

उसके (उस ज़माने के)वार्डरोब में ना जाने कहाँ से पुरानी यादों की तरहा उसका लिखा एक सफा हासिल हुआ.उसकी इस नज़्म को पढ़ा, बार बार पढ़ा मगर समझ ना सका यह उसने किस पर लिखी है. खुद पर या मुझ पर या किसी और पर.....चलिए मैं 'quote' कर देता हूँ आप ही करिए फैसला .

_______________________________
# # #

"केक्टस !
तुम्हे आता है
कभी
ख़याल भी
नर्म होने का ?

रहकर
वीरान खंडहरों
और
जंगलों में
हो गए हो
तुम निष्ठुर....

देखा है
कभी
तुम ने
सहलाकर
मखमली
काया को ?

बांधा है
किसी को
तुम ने
बाहुपाश में अपने ?

बाँधोगे कैसे ?
होता है
कभी
असर
किसी
मौसम का
तुम पर ?

तुम तो बस
बींध कर
औरों को
जानते हो
खुद
हिफाज़त से....


______________________________
मेरी बात :
पहली बार मुझे महसूस हुआ उसका इतना गहरा दर्द, खुद को केक्ट्स कहना एक मामूली कन्फेसन नहीं है, मैने उसे कितना गलत समझा था. ज़माने कि दी हुई कुंठाओं ने उसे ऐसा बना दिया था. काश! मैं उसे वह दे पाता जिसके लिए वह तरस रही थी,तडफ रही थी.....मगर मैं अभिमानी उस वक़्त 'Ayan Rand' का Fountainhead' और 'Atlas Shrugged' पढने में मशगूल था. काश मैं पढ़ पाता Ayn Rand की शुरूआती किताब 'We the living' ....बस औढ़ी हुई फिलोसोफी का नतीजा था कि मैं उस से और वो मुझ से दूर होती चली गयी. फासले बढ़ते गए...और आज तू वहां, मैं यहाँ.

# # #
बरस रही है
आँखे,
रो रहा है
दिल,
खयालों में मेरे
आज भी
सो रहा है
प्यार
उसका ......

आज बस इतना ही....

Wednesday, February 11, 2009

क्या जवाब दोगे

#####
क्यों भर रहे हो जहर
इन्सानियत के दुश्मनों
उन बच्चों के ज़ेहन में
जो नहीं जानते मज़हब
किस चिड़िया का नाम है ?

बदल गई है दुनिया
जमाना भी ले चुका है
अनगिन करवटें-फिर भी
क्यों धकेल रहे हो
उन्हें उस तारीख की जुल्मत में
जो कभी नहीं रहा है उनका.

हम सब औलाद हैं
उस जमीन-ए-जन्नत के
जिसका ताज हिमाला है
पवित्र नदियाँ इस छोर से
उस छोर को बहती है
सागर जिसके चरणों को धोता है
जहाँ तुलसी कबीर बुल्लेशाह
एक से साज़ और आवाज़ में गाये जाते हैं
जहाँ के बाशिंदे एक से तरानों पर
झूमते हैं…..मौज मनाते हैं.

क्या हुआ लकीर खींच ,कुछ
सियासतदानों ने बाँट दिया हमको
मगर वह तो गए कल की बात है
हम ने सांस ली है इस युग में
जहाँ उनका जिक्र पाया जाता है
खोजने पर……………………
महज़ स्कूल की किताबों में


हमारी भाषा एक है
हमारा संगीत एक से है
एहसास भी एक जैसे है
मोहब्बतें भी एक स़ी है
रंग और लिबास भी एक से हैं
क्यों बाँट रहे हो हमें
उन बातों के लिए जो बेमानी है.

जो मरा और जिसने मारा,
दोनों की माँओं के
फ़िक्र का आलम एक जैसा था
दोनों के जज़्बों का आलम एक सा था
जूनून-ए-पाकीज़गी एक स़ी थी
फर्क महज़ इतना था
उन बच्चों की सचाई को तुमने
झूठ की बिना पर छला था
और इन नौजवानों ने फ़र्ज़ के नाते
खुद को इन्सानियत पर कुर्बान किया था.

क्या गुनाह था उन बेकसूरों का
जो बैमौत मारे गए तुम्हारी
तंग-दिली तंग-जेहनी की लड़ाई में ?
क्यों छीना माँओं से बेटों को
बीवियों से खाविन्दों को
औलादों से माँ-बाप को……. ?
किस खुदा ने चाहा के उसके नाम
हो इंसानी खूँ का जलील तमाशा ?
जब होगे मुखातिब परवरदिगार के
क्या जवाब दोगे अपने खूँ-आलूदा लबों से.....
उस सब के पालनहार को
जिसके नाम पर कर रहे हो तुम सियासत ?

छोटी छोटी खुशियाँ



नए साल की पहली सुबह
बटोरी थी मैने
चन्द नन्ही नन्ही खुशियाँ
उन छोटी छोटी खुशियों में
डुबा कर तन मन अपना
खुश हो गया था मैं.

सुबह की सर्द हवा ने
जब बदन को झिंझोड़ा
लपेट कर खुद को
नए कम्बल में
खुश हो गया था मैं.

चाय की गरम भाप ने
छुआ था जब चेहरे को
होठों से छुआ कर
गिलास के गरम बदन को
खुश हो गया था मैं.

पड़ोसी के नन्हे बच्चे
की कोमल हथेलियों को
महसूस कर
सुन कर उसकी मासूम किलकारियों को
देख उस की भोली मुस्कान को
खुश हो गया था मैं.

गुनगुनाये जा रहा था मैं
"हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता
चला गया......"
हलवाई की दुकान पर
गरम समोसों और जलेबियों के
बीच जब रेडियो पर यही नगमा बजा
खुश हो गया था मैं.

सूरज की किरणों ने अपना जलवा बिखेरा
परिंदों ने खुले मैदान में
दाने चुगना शुरू किया
बचों को खिलखिलाते हुए
स्कूली पोषक में जाते देखा
हर शै को जागते,खिलते, मुस्कुराते देखा
सुनहरी धूप का आलिंगन पा
खुश हो गया था मैं.

Tuesday, February 10, 2009

Waiting

Waiting
Without object
Is meditation.........
A song that you are
A celebration that you are......

Waiting is to be enjoyed
For its own sake
See the beauty of just
Waiting
Pure Waiting.......
Enjoy the
Benediction
Innocence of just
Waiting..........

Knowing what will happen
Is just continuity with the past
It will not be new
It will be just repetition, so
Pure waiting is not knowing
What is going to happen,
A mystry to be lived
Not a problem to be solved;
Therefore waiting has to be
With no idea for what.

In waiting
You disappear
The whole appears;
It is vacating for the truth to be
It is void
Empty of all that
We have known
We have experienced......

Waiting is simply waiting
Not waiting for somebody
Not waiting for something to happen
Though so appears this
How you can wait for the thing
You don't know..........

Waiting is just
Journey of Silence
A utter purity
A death
A ressurection..........

(Inspired by the talk of a master)

मरुस्थल तुम नहीं…

यह मरुस्थल ही है
तुम नहीं……………
क्यों बना ली है

पहचान अपनी
इस मरुस्थल की

तपिश सी,
यह सूखापन
यह बिखरी सी आशाएं
यह चीखते सन्नाटे
यह प्यासा मन
यह अकेलापन
सब कुछ तो इसीका है---
इसी धूल और आंधी भरी
मरुभूमि का,
तुम्हारा कत्तई नहीं

तुम तो

निखिलिस्तान हो
रेगिस्तान में
जहाँ आकर

कोई प्यासा
पथिक
पा सकता है

छाँव और शीतल जल
बुझाने प्यास
अपने मन की

सुनहरी आशाएं,

मधुर गीत
शीतल सोचें,

स्नेह के झरने
एकांत के एहसासों से उपजा सुकूं
साश्वत सत्यों से आलिंगन
जीवन की सार्थकता से परिचय
सभी तो है तुम्हारे अंतर में,
जिन्हें ना जाने क्यों ढांपना
चाहती हो मरुस्थल की
शुष्क धूल से.

सभी बंद आँखोंवाले
घिरे हुए हैं मरुस्थलों से,
मृग मरीचिका के सदर्श
प्रलोभन और भ्रम
आरुढ़ है
इन मरुस्थलों में;
खुले हैं चक्षु जिनके
प्राप्य है उन्हें आनन्द
शाद्वल का
मरुद्यान का
और वहीँ कुछ दुर्भागी
कर रहे हैं प्राणांत
मरुस्थल कि सोचों में,
मरीचिका के

झूठे एहसासों में,
और मिथ्या

मृगत्रिष्णा में

दर्पण ले आन खड़ा हूँ
सम्मुख तुम्हारे,
मत पूछो किसी से...
निर्णय तक पहुंचना है
तुम्हें

केवल

तुम्हें
शाद्वल हो या मरुस्थल ?

(शाद्वल,निख्लिस्तान,मरुद्यान = oasis)

अस्तित्व



विशाल सागर से
भर लिया था
एक लघु पात्र मैं ने
एवम
लगा था
समझने
उसी को
पूर्ण अस्तित्व
मेरा अस्तित्व
विराट अस्तित्व से
पृथक
सह-प्राणियों से न्यारा
करने पोषित
मेरे मिथ्या
अहम् को......

करने सिद्ध
अस्तित्व
उस अस्तित्वहीन का
कर डाले थे अनगिनत
वृथा करतब मैं ने
एक अबोध
बच्चे की तरहा
जो मोटर गाड़ियों के
छोटे छोटे
मोडेल्स को
समझने लगता है
वास्तविकता
खेलते हुए उन-से
झूठ मूठ में.........

रात और दिन ....


रात काली
दिन गोरा
निशा कटोरा
दिवस चटोरा
रजनी लजीली
दिवस छिछोरा
चाँद कि लाडली को
सताए
सूरज का छोरा.

रात्रि कि प्याली
दिव करे खाली
निशा दुलराये
दिन देवे गाली
रात है असली
दिन है जाली
दिवस बगीचा
रजनी माली.

सम्बन्ध...(दीवानी सीरीज)

जहाँ भी दोस्ती/प्रेम होता है, अक्सर सम्बन्धों की बातें कर के एक अंदरूनी सूकून का आनन्द लिया जाता है. वह अक्सर कहा करती थी :

# # #

सही नहीं है
यह कि
सम्बन्ध
कच्चे धागों से
होतें हैं,
वे तो
लोहे की
सलाखों की
तरह
गड़े होतें है
और
सुख की जगह
कहीं अधिक
दुःख के
कारण
होतें है.

___________________________________________________________________

कहा करता था मैं :

# # #

दिए जाने से
नाम,
गड़ जातें है
सम्बन्ध
सलाखों जैसे,
ना तो रहता है
डर खोने का
और
ना ही रहती
तमन्ना
पाने की भी,
रहने दो ना
अनाम
इन संबंधों को,
संभालेंगे इन्हें
हम
मिलकर,
कच्चे धागों
की
तरहा...