Thursday, April 12, 2012

दर्द भी मेरा सगा हो गया,,,,,

(यह रचना भी कोई पच्चीस साल से ज्यादा पहले की है.)
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तेरे मेरे शब्दों में ऐ सुन,
मेरा तेरा बिम्ब हो गया,,,,,

अनुगूँज हुई गीतों की मेरी
धरा-गगन एकत्व हो गया,
तेरे वाचन मात्र से साथी
निराकार साकार हो गया,
समा गया मेरे 'मम' में 'त्वम'
घटित त्वरित 'वयम' हो गया,,,,

तुझ से मैंने जो कुछ मैंने पाया
क्यों मैं उसको तेरा समझूँ,
जो प्रतिदान सहज स्फूर्त है,
क्यों मैं उसको मेरा समझूँ,
कागज कलम मसी सम्मिलन
अनजाने में काव्य हो गया,,,,,

तू ना होती जो संग मेरे
कैसे शब्द भाव पा जाते,
तेरी मुस्कानों बिन, ए सुन
कैसे स्वतः गीत बन जाते,
तेरे सूने नयन देख कर
दर्द भी मेरा सगा हो गया,,,,,

Wednesday, April 11, 2012

किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

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सौभाग्य मेरा है यह बन्धु !
विरत हूँ ना लिप्त हूँ
ब्रहम सत्य, जगत तथ्य है
कमल सम निर्लिप्त हूँ
वेग आँधियों का सहने हेतु
पर्वत सम अवस्थित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

पथ पर हूँ मैं अग्रसर
चलायमान गतिशील हूँ
नहीं दुश्चिंता गंतव्य की
किन्तु प्रगतिशील हूँ
सहज स्वयं में उपस्थित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

परम्पराओं को मान देता
रूढ़ी-रूग्ण ना चिंतन मेरा
मेधा का कौमार्य अभंगित
प्रतिबद्ध नहीं हैं मनन मेरा,
नहीं संलिप्त भूत-भविष्य से
नव वर्तमान को समर्पित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

कामनाओं का शोषण
ह्रदय को ना क्षीण करता
आघात अंधी वासना का
अस्तित्व को ना जीर्ण करता
सहज स्वीकृति कर दोनों की
प्रसन्न मैं, नहीं व्यथित हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

मेरा मौलिक सत्व बन्धु
ना हुआ अब तक है दूषित
नहीं अहम् अस्वीकार मुझ को
किन्तु नहीं अब तक कुपोषित ,
आग्रहों दुराग्रहों से बचा हूँ
सरल तरल और मुक्त हूँ
किन्तु मैं तटस्थ हूँ...

Friday, April 6, 2012

बस तुम हो.....

(यह आशु रचना भी पच्चीस साल या कुछ ज्यादा पहले की है, थोड़े संशोधन के साथ आप से शेयर कर रहा हूँ, भाव है बस..शब्द व्यंजन अत्यंत सहज है.)
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झाँकों ना
आँखों में मेरी
जो तस्वीर है,
बस तुम हो....

सूंघो ना
साँसों को मेरी ,
जो खुशबू है ,
बस तुम हो....

गाओ ना
गज़लों को मेरी
जो असआर हैं,
बस तुम हो....

जी लो ना
ज़िन्दगी को मेरी
जो रवानी है ,
बस तुम हो....

छुओ ना
धड़कन को मेरी
जो जुम्बिश है ,
बस तुम हो...

देखों ना
मेरी बाहों में
बंधी है जो ,
बस तुम हो...

करो ना एहसास
कुव्वत का मेरी
जो ताक़त है ,
बस तुम हो ....

सुनो ना
बातों को मेरी
जो अलफ़ाज़ हैं ,
बस तुम हो....

मिलो ना
ख़्वाबों से मेरे
जो हक़ीक़त है ,
बस तुम हो...

जानो ना
सोचों में मेरे
जो वज़ाहत है,
बस तुम हो....

ढूंढों ना
वजूद में मेरे
जो 'होना' है ,
बस तुम हो...
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मायने
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जुम्बिश-कम्पन,कुव्वत-हौसला, वज़ाहत- स्पष्टता

Tuesday, April 3, 2012

अनलिखे असआर पढ़े जा रहा हूँ मैं....

(कोई पच्चीस से ज्यादा साल पहले लिखी यह आशु रचना पुराने कागजों में मिल गयी, आप से शेयर कर रहा हूँ..भाषा और तकनीक के नज़रिए से कुछ खामियां है लेकिन यह 'raw nazm'' आपके मन भाएगी उम्मीद करता हूँ.)
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जिस्म तेरा है जैसे कोई कागज़ कोरा
तहरीर-ए-मोहब्बत लिखे जा रहा हूँ मैं,,,

पोशीदा तेरे बालों में ज्यों हर्फे मोहब्बत
अनलिखे असआर पढ़े जा रहा हूँ मैं,,,

लिख दी है नज़्म लबों से ज़बीं पर
माथे की लकीरों को पढ़े जा रहा हूँ मैं,,,

ये तेरी बिंदिया आगाज़ मेरे जहान का
चल चल के क्यूँ ऐसे थमे जा रहा हूँ मैं,,,

झांकती हैं मेरी आँखें तेरी आँखों के सागर में
बिन पीये कोई मय लड़खड़ा रहा हूँ मैं,,,

चमके जो रुखसारों पे मोहब्बत का गुलाल
दीवाली के दिन भी होली खेले जा रहा हूँ मैं,,,

मुंदती है मेरी आँखें चमके हीरा तेरे नाक का
न जाने किस राह पे चले जा रहा हूँ मैं,,,

बिन बोले गा रहे हैं लब तेरे रुबायियात
खुशबु-ए-ख़ामोशी सुने जा रहा हूँ मैं,,,

चिबुक तेरा उठा कर झाँका जो मैंने तुझमें
ये क्या हुआ के तुझमें समाये जा रहा हूँ मैं,,,