Saturday, December 25, 2010

दबंग ऑनलाइन...

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चलते थे वे
घड़ी के काँटों के संग संग,
जब देखो मिल जाते थे
ऑनलाइन दबंग,
इनविजिबल और स्काइप का ना था
वो जमाना,
जो कहा जाता था वही होता था
सटीक पैमाना,
कहते थे
छोड़ कर खुला
कम्प्यूटर
चली गयी थी मैं
'किटी' पार्टी में,
या कर रही थी अटेंड
कॉल किसी ओवरसीज रिलेटिव का,
कैसे देखता और सुनता मैं
खनखनाहट
बर्तनों की
बहना नल का
पीटना पीटनी का
छौंका सब्जी का,
सास से झगडा
बच्चों की हुज्जत
या पियाजी से रगडा...
कहती थी वो
नहीं हूँ शादी शुदा
और
मान भी लिया था
हम ने,
चाहिए थी हमें भी
इक माशूका
आशकी के लिए...

करें यदि अन्तरावलोकन
कौन से थे हम भी
स्मार्ट यंग मेन
अर्ली थर्टीज के,
पहननेवाले
जींस लेवायिस की,
टी शर्ट 'लाकोस्टे' की
चश्मा रेबेन का,
सुननेवाले तेज़ गाने
कैलाश खेर के या के
फेन सोनू निगम के
नये रूप के,
मुंह में हमारे नहीं थे दांत
कमज़ोर थी हमारे पेट की आंत
चश्मा चढ़ा था मोटे शीशों का,
जवाब दे गए थे घुटने हमारे,
बस चला करती थी की बोर्ड पर
उंगलियाँ हमारी,
हुए थे बाकी सब अंग खारिज हमारे,
नज़रों में उनकी था
मैं भी एक अल्हड परवाना
अलमस्त एक प्रेमी दीवाना,
समझ कर शम्मा खुद को
जला करती थी यारों वो,
चूल्हे से जले पर मगर
बर्नोल लगाती थी वो,
मंज़ूर था हमारा भी
वर्चुअल रूप उनको,
चाहिए था एक सनम
आशकी के लिए उनको...

कच-कची
अंग्रेजी में करते थे
हम बातें,
फंतासियों में हो कर गुम
किया करते थे
मुलाकातें,
दोनों ही करते थे
पूरे,
सपने अपने अधूरे,
बिताया करते थे
वक़्त अपना
सांझ दोपहर सवेरे....

परिवार नियोजन का
लगा था एक केम्प
गांवों में,
बुलाये गए थे
मासटर मास्टरनी
बड़ पीपल की छांवों में,
मालूम हुआ कन्या विद्यालय से
आई है कोई,
लवंग लता,
जाना पहचाना था
कुछ उनका पता,
हम शर्माजी आये थे
अपने स्कूल से,
बिना बारिश लिए हुए थे साथ
अपना पुराना छाता,
देख कर इक दूजे को
दोनों ही शरमा गए,
शुक्रिया है अंतरजाल का
कुछ महीनों तो भरमा गए..

Tuesday, December 7, 2010

मायने मेरी नज्मों के ...

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मालूम है मुझे,
दौड़ते दौड़ते
ज़माने की
बेमकसद
'मराथन' में,
झेलते निबाहते
रीत माशरे की,
जीते जीते
भाव अपनी असुरक्षा के,
सहते सहते
तकलीफें जिंदगानी की,
देखते समझते
पाखण्ड लोगों के
हो गई है
चेतनाहीन
त्वचा तुम्हारी...

इसी वज़ह से
निकल रहा है क्रंदन
मेरे दिल-ओ-जेहन से,
काट रहा हूँ च्यूंटियां
अपने बदन को,
करते हुए लहूलुहान
खुद के जिस्म को..

शायद मेरे बहते हुए
सुर्ख खून को देख कर
हो जाये
एहसास तुम्हे
मेरे दर्द का,
हो जाये
संप्रेषित तुम तक
स्पंदन मेरी संवेदना के
और
आ जाए तुम को
समझ में,
मायने मेरी नज्मों के...

(यहाँ त्वचा/बदन/जिस्म/वुजूद human-essence के लिए इस्तेमाल हुए हैं)

Sunday, December 5, 2010

यह 'प्रेम' क्या चिड़ियाँ है.....

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कल एक कान्फ्रेंसे में शिरकत की जिसमें अधिकांश फाईनेंस, टैक्स और अकाउंट्स प्रोफेशन के लोग थे॥कुछ वक्ता इतने बोर थे इतने कि मानो किसी कागज़ पर लिखे हर्फ़ और नम्बर्स पढ़े जा रहे हैं, मैं चुप चाप बाहर आकर एक आरामदेह सोफे पर बैठ कर खो गया था..युवाओं का एक दल भी हॉल से बाहर आ गया था..बहुत बातें होने लगी..किसी ने पूछ लिया था यह 'प्रेम' क्या चिड़ियाँ है ? मासटर और बेला बैठा हो, भाषण होना ही था...जो कहा उसे शेयर करना चाह रहा हूँ.... और क्यों ना इस इंटरेस्टिंग सब्जेक्ट पर चर्चा की जाय।

यह 'प्रेम' क्या चिड़ियाँ है ?

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दौर था बेताबियाँ का
हावी मेरे दिल पर होने का...
और होता था एहसास
हर लम्हे किसी के ना होने का..

एक तड़फ खार की तरहा
चुभा करती थी,
सोते सोते ही यह आँख
अचानक खुल जाया करती थी..

लगा करता था
सिमट आई है दुनिया
बस दो ही के बीच,
पराई स़ी लगती थी हर शै
बात बेबात आया करती थी
बेमतलब सी खीज..

मायने मोहब्बत के बस लगते थे
पाने की तमन्ना और खोने का डर,
हमें जन्नत से लगते थे
बस उनके ही दीवारों-दर...

कितने आये थे वाकये ऐसे
जिंदगानी में,
किये थे इश्क मैने
ना जाने कितने
मेरी ही नादानी में..

हर नया रिश्ता
अच्छा और सच्चा
लगता था,
और एक अरसे के बाद
फिर मेरी मोहब्बत का
नया अलाव जलता था...

प्रेम क्या है सीखा है मैं ने
मिट कर इन
आधे अधूरे रिश्तो में,
तब तक चुकाया था
ज़िन्दगी को मैने
छोटी बड़ी किश्तों में....

प्रेम है एक स्थिति
हो नहीं सकता कभी भी यह
किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित,
विस्तार है यह अस्तित्व का
दायरा है इसका अपरिमित..

बहती नदी की धारा सा
निरंतर है यह,
शुद्ध शुभ्र उज्जवल
समय से आगे
अनंतर है यह...

स्वयं स्फूर्त नैसर्गिक
आश्चर्य का समावेश है यह
अलौकिक स्पंदनों का
अदृश्य परिवेश है यह...

बड़ी शिद्दत से इसे
हर लम्हे जीया जाता है
यह वह जाम है जिसे
दीवानगी से पीया जाता है..

डूब कर इसमें
खुद को फिर से पाया जाता है
होता है हासिल होश और
भरपूर जीया जाता है...