Friday, December 23, 2011

REVOLUTION....

# # #
Revolution is
Not the flash of
Lightening,
That vanishes
After the rain.

Revolution is
Energy of thinking
Which shakes
The unconscious
Awareness,
Breaks the backbone of
Destructive orthodoxy,
Reveals the value of
SELF and SPIRIT,
So that the class may
Serve the mass.....

#########

क्रांति -हिंदी वर्ज़न
#######


नहीं है क्रांति
चमक दामिनी की ,
जो हो जाये विलुप्त
वृष्टि के उपरान्त .

क्रांति तो है ऊर्जा
विचारशीलता की,
झकझोरती है जो
सुप्त चेतना को ,
तोड़ देती है मेरुदंड
विध्वंसकारी
परम्परानिष्ठा का ,
कराती है
मूल्यबोध जो
सत्व और तत्व का,
स्वयं का ,
आत्मा का
दे पायें ताकि
सहयोग
सुधिजन अपना
'सर्वजन सुखाय
सर्वजन हिताय '
उपक्रम में ...

सांझ की बेला....

# # #
ढलता सा
सुरमई सूरज
ललाट पर
बिंदिया सिंदूरी,
चपल मीन
नयनों की पुतली,
कमल की कली
गदरायी जवानी,
किनारे पर काई
काजल सिंगार,
लहरों का लहराना
उड़ता आँचल,
सांझ की बेला में
झील
विह्वल व्याकुल...

मिथ्या अमिथ्या....

# # #
मन के दो रूप,
प्रतिबिंबित मन
मूल मन,
पहला छाया
दूसरा आत्मा...

जोड़ कर पहले से
किया जाता है जो
होता है
एक अभिनय
सोचा विचारा
द्वारा स्वयं के
और/अथवा
द्वारा समूह के,
विगत में
और/अथवा
वर्तमान में,
योगित दूसरे से
होता है जो
वह है
शुद्ध सत्व...

छाया है
कामना
प्रतिबिंबित
मन की
गुण प्रधान,
संचालित
विद्या अविद्या द्वारा,
मूल मन
होता है
गुणातीत
उसकी कामना
होती है
दिव्य...

प्रतिबिंबित मन
बन कर
छाया
करता है सम्पादित
समस्त
सांसारिक कर्म,
शुभ भी
अशुभ भी
अच्छे भी
बुरे भी....

निर्णय
मिथ्या अमिथ्या का
होता है सापेक्ष,
अर्थहीन
स्यात
क्रीड़ा एक
बुद्धि की,
हो जाना संलिप्त उसमें
सुसुप्तावस्था में भी
होता है कारण
जीवन के
अनेक बड़े कष्टों का..

हो अभिष्ठ हमारा
चेतन मन
देखें समझें हम
छाया के
कारणों को
विमुक्त हों कर्ता भाव से,
उतर कर
ध्यान में
इसी संकल्प के साथ,
जान पाने
सत्व निज का...

( छाया रूप में भी संस्थित है देवी माँ, कैसे नकारें छाया को भी मिथ्या समझ कर...बस साक्षी भाव से माँ के विभिन्न रूपों का दर्शन करते हुए...माँ से मिल जायें...उसके अल्टीमेट रूप में समा जायें..सत्व को प्राप्त हो.)

Sunday, December 18, 2011

बस थे देख्यो ,बस म्हे देख्यो ....

इसड़ो ना कोई
जीयो म्हानें
भावां में घुला
सबदा में बसा
मोत्या री लडियां ज्यूँ बरसा
हिवंडे रे आंगण में सरसा....

(जिया नहीं किसी ने
हमें ऐसा,
भावों में घुला कर,
शब्दों में बसा कर,
मोतियों की लड़ों सा बरसा कर,
अपने ह्रदय आँगन में सरसा कर..)

बात कैंया जाणू मैं आ,
क्यूं अणभूत म्हारी
मींची आंख्यां,
कुण सो ऐड़ो गून छुयो
जे चिपक गयी
म्हारी पांख्यां.....

(कैसे जान पाउँगा मैं यह,
क्यों की थी बन्द
मेरी अनुभूति ने
अचानक आँखें,
ना जाने किस गोंद ने
छू डाला था
चिपक गयी थी
मेरी पांखें..)

थे मुळकी ज्यो !
थे खुश रह्ज्यो !
थे गायीज्यो !
थे नाचीज्यो !
दुखड़ो थां ने ना सतावे कदै
दुनियां री सब बाधावां रळ
बिचलित ना कर पावै थां ने
थे पावो थां रो चिर आंको
राह- मजल मिलज्या थां ने ..

(मुस्कुरायियेगा आप !
खुश रहिएगा आप !
गायियेगा आप !
नाचियेगा आप !
कोई भी दुख ना सताए आप को !
दुनिया की सारी बाधाएं भी मिलकर
विचलित ना कर पाए आप को !
मिले आप को आपका चिर लक्ष्य
राह और मंजिल मिल जाये आपको ! )

ओ मन हरख्यो
ओ तन चह्क्यो
बागां रो हर खूणो मह्क्यो
सबद कैयां कैवे आ सब
बस थे देख्यो ,बस म्हे देख्यो ......

(यह मन हरषे
यह तन चहके,
ह़र कोना बगिया का महके ,
कह सकते कैसे
ये शब्द लाचार,
बस देखा आपने
बस देखा हम ने.....)

कंक्रीटी जंगल के शेर....

# # #
हैं आज हम
कंक्रीटी जंगल के शेर,
भूला दिया है
शहर ने
वो गाँव के गली कूचे
पनघट की रंगीनियाँ
चौपाल की संगीनियाँ
वो किसी शहरी कार के
पीछे भागना,
मुंह अँधेरे जागना
खेत में पंखेरुओं पर
गुलेल दागना,
चकोतरे का
खट्टा-मीठा जायका,
गुलदाने का
सुनहला रूप रसीला,
निमोने को देख कर
मुंह में पानी भर आना,
गाज़र का हलवा,
मेरठ की रेवड़ियाँ,
तिलकूट और गज़क,
गिल्ली डंडे का खेल,
जुम्मन और जसिये का मेल,
सत्यनारायण की कथा,
देव देहरियों की महत्ता.
खो गया कहाँ
मेरा बचपन....

देर से सोना,
देर से जागना,
बिना वज़ह ताकना
बस ताकना,
नींद की गोलिया
झूठी सची बोलियाँ,
केक और पेस्टरियां,
हेल्लो हाय
बाय बाय,
प्लास्टिक फूल से रिश्ते,
अपने गैरों से सस्ते,
समझ में ना आने वाले उसूल,
बात बेबात मशगूल,
दिखावा ही दिखावा,
ह़र बात पर मुलम्मा
ह़र बात पर चढावा,
आओ ना लौट चलें...
आओ ना लौट चलें..

Wednesday, December 14, 2011

आभास (आशु रचना)

# # #
देखो ना
विद्रोही कोलाहल
होकर प्रतिकूल
मचा देता है
हलचल
सन्नाटे के
शांत
साम्राज्य में,
किन्तु
दूसरे ही पल
हो कर
अनुकूल
समा जाता है
उसी
सन्नाटे के
गहनतम तल में,
यह नहीं है
आत्महत्या
कोलाहल की,
ना ही हनन
उसकी
अस्मिता का,
यह तो है
बस
आभास
एक दूजे में
एक दूजे के
होने का,
अनुभूति एक
सत्व की,
प्रतीति
समग्र सत्य की..




Sunday, December 11, 2011

मूर्खों का गाँव उर्फ़ किस्सा अधपके ज्ञानियों का..


###############
मेरे स्टुडेंट लाईफ के दौरान हम लोग कोलेज केन्टीन या कोफी हाउस में इकठ्ठा होते थे. हमारे कुछेक साथी सूखे सूखे कामरेड टाईप्स हुआ करते थे, बिलकुल निराशा और दर्द की बातें करने वाले. आम इंसान के भूख-इलाज के अभाव-टपकती छत और ऐसे ही कई मुद्दों में पथेटिक हालात, प्रेम में मिले दर्द, प्रेम नाम की चिड़ियाँ खाली पीड़ा का भण्डार, खुदगर्ज़ संसार, अमरीका की ह़र बात अपसंस्कृति और उसकी नीतियों का साम्राज्यवादी जनविरोधी होना-ठीक उसके विपरीत चीन और रूस की लगभग वैसी ही हरक़तों को समाजवाद और जनवाद के नाम जस्टिफाई करना, ह़र सुन्दर और सुकून देनेवाली शै की भर्त्सना, ऐसे कितने ही मसले होते जिन पर उनकी जुबान की कतरनी कच कच चला करती थी. ज़िन्दगी के दुखों को मेंटेन करने में लगे ये लोग हमेशा उदास, ग़मगीन, बेतरतीब और मैले कुचेले दीखते थे.किसी की दाढ़ी बढ़ी हुई, तो हेयर कट नहीं करायी हुई, सस्ते मैले कपड़े (अलग सा दिखने के लिए) बदन पर, बात बात में झगड़ने और तर्क-कुतर्क करने की आदतें, ह़र बात पर आक्रोश और रूठ जाना...बहुत ही नाज़ुक मिजाजी, फूला हुआ अहम् का गुब्बारा, औढा हुआ स्वाभिमान (हीन भाव के कारण)...ह़र बात में खुद को महाज्ञानी और विचारवान साबित करने का ज़ज्बा..मेरे इन दोस्तों की शख्सियत की खासियतें होती थी. हमें गाली देने वाले ये लोग, हमारे पैसे की दारु, सिगरेट्स, चाय, नाश्ता उपभोग करने में हमेशा तत्पर रहते थे.....इन्हें ह़र समय अपनी बातों की मतली करने की तीव्र उत्कंठा रहा करती थी. इनमें से एक इंसान तो ऐसे हुआ करते थे जो धनी परिवारों की कल्लो कुमारियों को अपने इश्क के जाल में फंसा कर, बिस्तर तक की यात्रा करा देते थे...और उनके पैसों पर मौज-मस्ती भी कर लिया करते थे...और जब कुछ उन्नीस इक्कीस हो जाता तो पल्ला झाड़ कर अलग खड़े हो जाते थे...और अपनी इन्ही जलील हरक़तों को वर्गसंघर्ष का नाम दे दिया करते थे.

दक्षिण में जाना सटीक हों तो ये उत्तर को चलेंगे...अलग दिखने के लिए ये बन्दे पांव के पंजों से नहीं, शीर्षासन मुद्रा में हथेलियों के बल चलेंगे...उस समय और भी बहुत कुछ इन ढीठ बन्दों के लिए कहा जाता था लेकिन आज बस इतना ही.

हाँ मेरे कुछ जेनुइने सरल, सहज, कम्युनिस्ट/सोसलिस्ट ईमानदार मित्र भी थे, जिन पर मुझे गर्व है...लेकिन वे हमारी इन टाईम पास मजलिसों का हिस्सा कभी नहीं होते थे, उनका साथ पाने के लिए मैं लालायित रहता था और जब भी उन्हें सहूलियत होती उनके साथ जा बैठता था.......कुछ महत्वाकांक्षी सामान्य परिवारों से आये साथी भी थे जिनके लिए हम कह सकते थे - सिम्पल लिविंग हाई थिंकिंग के साक्षात् प्रतीक., जो आज खुद को और दुनियां को बहुत कुछ देने में सफल हुए हैं. इन भले लोगों की चर्चा फिर कभी. आज तो दिल कर रहा है, पहली केटेगरी के लोगों की खिंचाई करने का. एक किस्सा आज शेयर कर रहा हूँ...

हाँ तो सुनिए किस्सा...

###########

भाई यह मेरी अपनी सोची समझी और कही बात नहीं, एक सुनी सुनाई कहानी है. किसी ज़माने में एक छोटा सा गाँव हुआ करता था मूर्खों का.
वे ना तो कुछ जानते समझते थे और ना ही किसी चीज को पहचानते थे. एक दफा ऐसा हुआ कि बारिश के दिनों एक मेंढक उस गाँव के एक घर में घुस आया. उस से पहले गाँव के आदमियों ने कभी मेंढक नहीं देखा था.

घर जिस मूर्ख का था उसने चिल्ला चिल्ला कर इस नये प्राणी के उसके घर में आने को प्रोपेगेट किया. बहरहाल इस अजूबे को देखने गाँव की सारी आबादी इकठ्ठा हो गयी.

ह़र कोई अपनी अपनी ओपीनियन दिये जा रहा था, कि यह कौन जाती प्रजाति का जन्तु है..इसके आगमन से क्या हुआ है...इसका क्या होगा..वगेरह वगेरह. कोई कह रहा था यह तो हरिण है, किसी ने मिमियाया अरे यह तो बगुला है, तो कोई कहने लगा अरे यह तो मेरे घर में ''वो" जो आया था ना वैसा है. इतने में पीछे से एक मूर्ख-महाज्ञानी की आवाज़ सुनाई दी : अरे भई बिना सोचे समझे कयास लगाने से क्या फायदा ? सियार होगा..बारिश के मौसम में जंगल से इधर निकल आया होगा..हमारे यहाँ की अलौकिक सुख सुविधा का लुत्फ उठाने.

इतने में भीड़ में से एक समझदार 'रायचंद' का उवाच हुआ, "मेरी सुनो..मेरी सुनो तो..दादाजी को बुला लो. वो बुजुर्ग हैं, उन्होंने जमाना देखा है, वे जो भी बताएँगे सौ टका सही होगा, अपन लोग नातुज़ुर्बेकार क्या जाने ?"

तो जनाब दादाजी चारपाई पर बैठे हुक्का गुडगुडा रहे थे ताकि कब्ज़ी की पकड़ कुछ ढीली हो और वे राहत-ए-रूह पा सकें. ऐसे में दौड़ता हुआ एक गाँव वला उनके इजलास में हाज़िर हुआ..

फटी अंगरखी, मुड़ातुड़ा साफा और घुटनों तक की मैली कुचैली धोती पहने चाचा चौधरीनुमा दादाजी की बन आई, बड़ा 'इगो सेटिसफेक्सन' हुआ, जब उन्हें इस मसले को हल करने के लिए सादर अनुरोध किया गया और उनकी बहुमोली राय मांगी गयी. जनाब, जो अधोमुखी थी, वह अचानक उधर्वमुखी हो गयी...याने फिर से ऊपर चढ़ गयी. फिर क्या था, दादाजी ने लठ उठाया, नथने फूलाते हुए,टेढ़े मेढे कदम रखते हुए..घटनास्थल की तरफ कूच करने लगे.

बुढऊ याने दादाजी हांक रहे थे, "अरे तुम लोग भी कुछ सीखो समझो, मैं कब तक जिंदा बचा रहूँगा...आज कल देखते नहीं मेरी तवियत भी नासाज है."

जनता को धकियाते हुए दादाजी मेंढक के पास गए.

टूटे चश्में को जरा सेट करते हुए धीमी आवाज़ में बोले, "अरे मूर्खों यह कौन सी बड़ी बात है. इसके आगे तनिक दाना डाल कर देखो. अगर चुग लिया तो चिड़ियाँ नहीं तो सांप."

गाँव के सब लोग बुढऊ की अक्लभरी बात सुन कर गदगद हो गए.

ऐसे ज्ञानी बुढऊ थोड़े बिंदास या कहें कि बेशर्म भी होते हैं ना, दादाजी बोले, "अरे किसनिया, तनिक लौटा ले आओ तो, बड़ा दिल हो रहा है..धोरे पास ही हैं, तनिक निपट लेते हैं."

किसनिया सविनय पेस्टीसाईड के दो पोंड वाले पुराने टेनिये में गन्दला सा पानी लिए हाज़िर था. दिशा मैदान में जो भी हो जैसा भी हो पानी चल जाता है, ऐसी मान्यता थी उस गाँव में.





मुश्किल कहाँ !

# # #
ज़हर पीना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
ज़हर पचाना..

ना जाने कितने बन्दों ने
अपने हाथों पिया हलाहल,
और उडेला साकी ने भी
भर भर सागर खूब छलाछल,

कम ही होते
हलक़ बावरे ,
जाने समझे जो
गरल छिपाना..

कितने शख्स गिनोगे
जिनके साथ थे छूटे, ख्वाब भी टूटे,
राह जो भूले चलते चलते
पंख आसमां में थे टूटे

पीर सहना,
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
पीर भुलाना...

अश्क होते हैं गवाह दर्द के
यह तसव्वुर हुआ पुराना,
आबे-हयात कर ,पीना उनको
ज़ज्बा है यह नया सुहाना,

प्रेम करना
मुश्किल कहाँ !
होता मुश्किल
'प्रेम ही ' हो जाना ...

Thursday, December 8, 2011

आखरी सफ़र...

# # #
ये छोटे छोटे
सफ़र,
जाना और फिर
लौट के आ जाना,
इन्तेज़ामात
रास्ते के खर्च के,
बेग में भरना
पहनने के कपड़े,
टूथपेस्ट टूथब्रश,
रेज़र और फोम,
कोई किताब और रिसाले,
और
खोज किसी साथ की,
यह फ़िक्र
वह फ़िक्र....

कितना
बिंदास होगा
आखरी सफ़र,
ना होगा कोई बोझ
ना ही किसी के
संग की खोज,
ना लेना होगा
कुछ भी साथ,
होंगे बिलकुल
खाली हाथ
ना होगी कोई
हिदायत
ना ही करना होगा
इंतज़ार और सब्र,
नहीं देनी होगी
किसी को
पहुँच की खबर...

द्रवण....

###################

बहुत अजीब हैं ना परामनोविज्ञान की बातें. हमारे अंतर में कुछ भाव आ रहे हैं और उन स्पंदनों का 'क्वालीटेटिव' सम्प्रेषण दूर बैठे सम्बंधित व्यक्ति तक हो जाता है..चाहे बहुत बारीक डिटेल्स ना पहुँच पाए लेकिन स्थति कि गुणवत्ता अवश्य पहुँच जाती है. जैसे कि हमारी उदासी, खोयापन, ख़ुशी. पीड़ा इत्यादि के एहसास. हम चले जा रहे हैं और किसी नगमे को गुनगुना रहे हैं या उसे सोच रहे हैं और पास के किसी रेडियो पर वही गाना बज रहा होता है. हम किसी 'विषय विशेष' का चिंतन कर रहे हैं, और स्टाल से जिस मेग्जिन को उठाते हैं उसमें उसी पर कोई आर्टिकल छपा मिल जाता है. हैं ना कुछ बेतार के तार !

गत कई बरसों से ये स्पंदन अंतर में घटित होते, गुज़र जाते...लिखने का मन होता, शब्द नहीं मिलते, मानस नहीं होता क्योंकि बहुत ही अंतर्विरोधी से होते हैं ये...कुछ दिल से, कुछ दिमाग से, कुछ इस जन्म से, कुछ पहले के जन्म से, कुछ वास्तविकता से कुछ कल्पना से, कुछ भ्रम-कुछ स्पष्टता..अवचेतन में कहीं कहीं अपनी दृढ सोचों के खिलाफ की भी थोड़ी स़ी बात. दोस्तों ! रचना एक धुंधला सा रूप लेती और ना जाने कैसे फिर क्यों बादल की तरहा बिखर जाती. ज़रूर कुछ मेरी सीमाएं और कुछ अस्तित्व का विधान रहा होगा. सोचता था आज नहीं तो कल ज़रूर लिख सकूँगा...लेकिन बात जहां की तहां.

आज सन्डे की सुबह. युजुअली ऐसी सुबह चाहे अनचाहे मेरे दोस्त मुल्ला के नाम हो जाती है..लेकिन आज तय किया 'नो मुल्लाबाज़ी' आज जो कुछ पढने के लिए जमा किया है पिछले दो सप्ताह से उस पर नज़र डालूँगा.... और पहली ही नज़र पड़ी 'पत्रिका' समूह के चेयरमेन, प्रबुद्ध चिन्तक एवं वरिष्ठ पत्रकार डा. गुलाब कोठारी,जिनका मैं प्रशंसक हूँ, की एक रचना पर. मैं 'एट फर्स्ट' क्रमश: याने लाईन दर लाईन नहीं पढता. बस केमरे के लेंस की तरह मेरी आँख आलेख को क्लिक करती है और करीब करीब 'एसेंस' मेरे ज़ेहन तक पहुँच जाता है ...फिर बांचना होता है तो बांच लेता हूँ...हाँ तो ऐसी क्लिक के साथ एहसास हुआ कि ऐसा ही कुछ (हो सकता है शत प्रतिशत ना हो) तो मेरे सिस्टम में चल रहा होता है.
डा. कोठारी की इस रचना को अपनी सी समझते हुए आप से शेयर कर रहा हूँ. बस शीर्षक दिया है मै ने,शायद यह मेरे द्वारा करने के लिए छूट गया था , हाँ प्रस्तुति को भी थोड़ा मेरे मन माफिक बनाया है लेकिन एक भी शब्द नहीं बदला है, ज़रुरत नहीं थी.

मूल रचनाकार के लिए कृतज्ञता और अहोभाव.
द्रवण : ~~~~# # #
आद्या !
देखते ही तुम को
भर आता है
मेरा मन,
और न देखूं
दो चार दिन
बाहर रह कर,
तब भी
भीगते है रहते हैं
नयन क्यों ?

कैसा है यह
द्रवण मन का
नेत्र कहते
मन की भाषा,
जैसे कुछ रुआंसा.

मन एक है
द्रवण दो
मिलन का भी
बिछोह का भी,
झुक जाती है
मेरी आँखें
देखते ही तुमको,
श्रद्धा से,
शायद
तुम्ही हो
सेतु
मन-आत्मा का.

झिन्झोड़ो इसे
झाड़ दो
परतें सारी
एक एक
न्यारी-न्यारी,
बहा दो इन्हें
दूर दरिया में
गहराईयों में
तभी शायद
उभरेगा
फिर से मन मेरा
द्रवित तो होगा
करूणा भी होगी,
स्नेह रहेगा....
किन्तु हाँ !
न होगा बंधन
मन पर कोई
ममत्व का
आसक्ति का.

शायद तुम
कह रही हो
यह सब-
जब भी कौंधती
आँख में झलक,
तुम्हारे चेहरे की.

जैसे तुम भी
भूल जाती हो
मुझ को
दूर होते ही,
ले चलो मुझे भी
उसी मार्ग पर
पकड़ कर अंगुली.

(आद्या=दुर्गा/शक्ति/देवी)

संस्कृत साहित्य में मैत्री

महक की 'मैत्र शीर्षक कविता ने प्रेरित किया है इस संकलन को आप मित्रों से शेयर करने के लिए. बहुत प्रसन्नता अनुभव कर रह हूँ.

परम पवित्र शब्द है मित्र जिसका समरण कर मन सुख से सरस हो उठता है और एक नया सम्बल मिलता है. सखा, सुहृद, संगी, साथी, हित हितैषी आदि इसके पर्याय है, मित्र के अनेक गुण दोष गिनाये गए हैं, इसके जागतिक और पारमार्थिक अंतर भी है.

'मि' क्रिया से क्त्र प्रत्यय लगा कर मित्र शब्द बना है, जिसकी हमारे संस्कृत साहित्य में नान प्रकार की व्याख्याएं की गयी है. इस प्रस्तुति में शनै शनै आपके समक्ष ये व्याख्याएं अथवा कथन उपकथन आयेंगे, आशा है आपके मन को मुदित करेंगे एवं मैत्री भावना को और प्रबल करेंगे.

१. मिनोति मानं करोति--जो आदर करता है वह मित्र है.
मिद्यती स्निह्यति इति मित्र: -- जो स्नेह करता है वह मित्र है.
मितं रिक्तं पूरयति इति मित्र: -- जो कमी पूरी करता है वह मित्र है.

२.तें धन्यास्ते विवेकज्ञास्ते सभ्या इह भूतले,
आगच्छन्ति गृहे येषां कार्यरत सुहृदो जना: .

इस धरती पर वे ही धन्य है, वे ही विवेकी है और वे ही सभ्य है जिनके यहाँ कार्य में शामिल होने के लिए मित्रगण आया करते हैं.
३. किं चन्दनै सकर्पूरैस्तूहिनै: किंच शीतलै,
सर्वे ते मित्रगात्रस्य कलां नाहरन्ति षोडशीम.

चन्दन, कपूर और बर्फ आदि शीतल पदार्थों की कौन स़ी गणना है, वे सब मित्र के स्पर्श की शीतलता के सोलहवें अंश के भी समान नहीं है.

४. आपन्नाशाय,विबुधे कर्त्तव्या: सुहृदोsमला:,
न तरत्यापदं कश्चीद्योSत्र मित्र विवर्जित: .

बुद्धिमानों को चाहिए कि वे संकटकाल के लिए उत्तम मित्र बनावें. इस संसार में कोई मित्र बिना संकट से पार नहीं हो सकता.

५. अपि सम्पूर्णतायुक्तै कर्तव्या: सुहृद बुधे,
नदीश: परिपूर्णोsपि चन्द्रोदमपेक्षते.

ह़र तरह से पूरे होते हुए भी बुद्धिमानों को चाहिए की वे मित्र बनाएं. निज में परिपूर्ण होते हुए भी समुद्र चंद्रमा के उदय होने की अपेक्षा करता है.

( क्रम संख्या २ से ५ के सूत्र विष्णु शर्मा कृत 'पंचतंत्र' से लिए हैं.)
उत्तम मित्र के लक्षण (भरथरी के अनुसार)##########
"पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं च गूहति गुणानप्रकटी करोति !
आपदगतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः !!"

*मित्र अपने मित्र को पाप कार्यों से विरत करता है.

*उसे हित के कार्यों में लगाता है.

*उसकी छिपाने योग्य बातों को छिपाता है.

*अपने मित्र के गुणों का बखान करता है

*संकट के समय मित्र का साथ नहीं छोड़ता.

*अवसर आने पर मित्र को यथोचित सहयोग 'देता' है.
विदुर जी कहते हैं :ययोश्चितेन वा चित्तं निभ्रतं निभ्रतेन वा !
समेति प्रज्ञया प्रज्ञा तयोमैत्री न जियरति !!

जिन दो मनुष्यों का चित्त से चित्त, गुप्त से गुप्त और बुद्धि से बुद्धि का मेल खाता है उनकी मैत्री कभी पुरानी नहीं पड़ती.

Thursday, December 1, 2011

खोना -पाना

#####

धरती में
गुम हुआ
बीज तो
माटी
उगली सोना,
पाना है यदि
तुम्हे प्रिय को
सीखो पहले
खोना..

विस्मृत हो जाये
स्वत्व तो
अपनत्व स्वतः
मिल पायेगा ,
महक विसर्जन
भाव हुआ तो
पल में पुष्प
खिल जायेगा..

देना शायद
पाने का
बस जीवंत सा
अभिनय है,
अनजान सहज बन
विस्मित होना
साक्षात्
ज्ञान परिचय है...


सोलह सिंगार.. (आशु रचना)

# # # # #
हुआ अलविदा पतझड़,लौटी फिर से नयी बहार,
सुर्ख माणक दिखा कर हँसता देखो आज अनार.

बौराई कोयलिया गाती मधुरिम पंचम राग,
चन्दन महक ले आया रति का देहहीन सुहाग.

व्याकुल बेलें डाल रही क्यों पेड़ों को गलहार,
बिरहन के नयनों से झरती अश्कों की क्यूँ धार.

मधुमख्खी ने नीम-पुष्प से चूसा है मकरंद,
कड़वाहट बदली है मधु में घटित हुए ये छन्द.

बेला मोगरा से मदमस्त है सांस और निश्वास,
ह़रसिंगार बहाना है बस, धरा मिले आकाश.

शबनम मोती बन कर बरसी कुदरत पर बेबाक,
जवां हसीं जमीं पर फबती दूब की यह पोशाक.

महुए की मादक महक और पखेरुओं का गान,
उफक पर शफक को देखो क्या सिंदूरी शान.

फूट गयी कोंपलें फिर से, है भंवरों की गुन्जार,
खुशबू आएगी घट में जब और बढेगा प्यार.

फूल खिलेंगे, महकेंगे तब कण कण मधुर सुवास,
मधुप उसी पल मिटा सकेगा अपने दिल की प्यास.

झील बनी है आइना उजला, रूप निखार निहार,
देवी शिव* के संग हुई अब कर सोलह सिंगार.

*पुरुष और प्रकृति से आशय है.



Sunday, November 27, 2011

चेलवे के पैंतरे...

###############
हमारी इन्टेलेक्ट चालाकी से हमारे पूर्वाग्रहों और स्वार्थों के तहत 'पिक एंड चूज' करती रहती है, तरह तरह के 'इंटरप्रेटेशन' करती कराती रहती है और अल्लाह/भगवान/ईश्वर, हालात और संजोग के सिर हम खाली पीली ठीकरा फोड़ते रहते हैं. अपने कलापों का पुनरावलोकन नहीं करते, स्वावलोकन कर आगे के लिए सुधार करने का नहीं सोचते...बस कोशिश करेंगे कि जो हम ने किया उसको कैसे 'मेंटेन' किया जा सके.और इस के कारण हम पीछे हो जाते हैं..'प्रेक्टिकल' में भी और 'स्पिरिचुअली' भी. हमारा 'डायनेमिज्म' इसी में है कि हम सबक लें...और जो सही है उस जानिब मूव ओन करें.

एक दफा एक उस्ताद और शागिर्द रेगिस्तान से गुज़र रहे थे. सफ़र के दौरान उस्ताद बातों ही बातों में अपने शागिर्द में अल्लह के लिए भरोसा जगाने के लिए कुछ ना कुछ बताते जा रहे थे : "अपने सारे किये को अल्लाह के सुपुर्द कर दो, हम सभी अल्ला की औलाद हैं. अल्लाह अपनी औलादों को बहुत प्यार करते हैं और उन्हें कभी भी नहीं ठुकराते." शागिर्द अपने उस्ताद की बातों को बड़ी शिद्दत से सुनता जा रहा था, हरेक लफ्ज़ को वह वैसे का वैसे रटे जा रहा था जैसा कि उसके उस्ताद, उसके गुरूजी ने कहा.

चलते चलते रात हो गयी. उन्होंने रेगिस्तान में एक जगह अपना डेरा जमाया. उस्ताद ने शागिर्द को नज़दीक ही किसी एक चट्टान से घोड़े को बांध कर आने को कहा. शागिर्द घोड़े को लेकर चट्टान तक गया...और जब घोड़े को बांधने लगा तो उसे उस्तादजी की दी हुई तक़रीर ख़याल आने लगी. उसने सोचा उस्ताद शायद मेरा इम्तेहान ले रहे हैं..इसलिए घोड़े को बांधने को कह रहे हैं...हालाँकि यह सोचते हुए उसके मन में आलस आ गया था, या पहले आलस आया था फिर ऐसा सोचा था..जो भी हो......सोचने लगा फिर कौन रस्सा बांधेगा..कौन चट्टान खोजेगा...उसने मन ही मन कहा- अरे अल्लाह तो सब का ख़याल रखते हैं..इसीलिए इस घोड़े की भी पूरी पूरी पर्वाह करेंगे और हमारी भी. मुझे घोड़े को नहीं बांधना चाहिए. .....और उसने घोड़े को खुला छोड़ दिया..नींद आ रही थी...आकर सो गया. सुबह उसने देखा कि घोड़ा नदारद है...दूर दूर तक उसका ठिकाना नहीं है. घोड़े के गायब होने का जिम्मा वह अल्लाह और गुरूजी को कोसते हुए उन्ही पर डाल रहा था.चेलवा गुरु के पास आ जाता है. गुरु आज गलत साबित हो गए..अवचेतन में ख़ुशी का पारावार नहीं...भक्ति श्रद्धा तो दिखाने की होती है..प्रेक्टिकल थोड़ी ही है..सोच रहा था चेलवा.

शागिर्द कहने लगा, "उस्ताद आपको अल्लाह और उसके तौर तरीकों के बारे में कोई इल्म नहीं..कल ही तो आपने बताया था कि हमें सब कुछ अल्लाह के हाथ में सौंप देना चाहिए, जो भी भला बुरा होता है उसकी मर्ज़ी और हुकुम के मुताबिक होता है. इसीलिए मैने घोड़े की हिफाज़त का जिम्मा अल्लाह पर डाल दिया था..मगर घोड़ा तो रफ्फूचक्कर हो गया...दूर दूर तक कहीं भी नज़र नहीं आ रहा है. खैर अल्लाह कि मर्ज़ी ऐसी ही थी...आप तो अल्लाह में खूब भरोसा रखने वाले हैं, मुझे डांटेंगे नहीं."

उस्ताद बोले, "बेवकूफ ! तुमने मेरी कही हुई बात को सुना था और रटा था...उसके मायने भी अपने मुताबिक निकाले हैं तुम ने. अल्लाह तो वाकई चाहते थे घोड़ा हमारे पास ही महफूज़ रहे. लेकिन जिस वक़्त उसने तुम्हारे हाथों घोड़े को बांधना चाहा तब तुमने अपने हाथों और दिल-ओ-दिमाग जो अल्लाह ने तुम्हे सौंपा है उनका इस्तेमाल अल्लाह के उसूलों के मुताबिक नहीं किया.....होशमंद भी नहीं रहा और खुद को पूरी तरह अल्लाह को नहीं सौंपा, अपने आलस की वज़ह से घोड़े को खुला छोड़ दिया, अब इस गलती को गलती नहीं मानते हुए कुछ और ही साबित करने की जद्दोजहद में हो."

चेलवा खीज कर शर्मिंदा हो रहा था या अपनी बात को साबित करने का कोई नया पैंतरा सोच रहा था.




Friday, November 25, 2011

गीत वही मैं गाऊंगा

# # #
सोया हूँ आगोश में तेरे
आज नहीं मैं जागूँगा

स्पर्श स्वप्न का मुग्ध कर रहा
भान तुम्हारा दग्ध कर रहा
सोने दो ना आज मुझे
कल निश्चय मैं जागूँगा,,,,

अर्पण की घड़ी अभी सजी है
ग्रहण वीणा भी नहीं बजी है,
सतत क्रम रखना देने का
कल अवश्य मैं मांगूंगा...

गीतों के जो बन्द तुम्हारे
निशब्द बसे हृदय में सारे
आज स्वर मौन है मेरे
कल गीत वही मैं गाऊंगा...

बीज मृदा में दबा है गहरा,
है ऊपर से समय का पहरा
अंकुर खिला कोंपल मुसकाई
बसंत बहार मैं लाऊंगा...

अन्तराल है मात्र कल्पना
तेरा मेरा साथ ना सपना
आज मुझे जाने दो सजनी
क्या मैं कभी न आऊंगा ?.....

अभिनन्दन..(आशु रचना)


# # #
तप कर
कंचन
कुंदन हुआ,
कह अलविदा
सहज विकारों को
विशुद्ध
दिव्य स्पंदन हुआ,
पट खुले ह्रदय के
बन्द थे जो,
मेरे मीत का
भव्य
अभिनन्दन हुआ,
घटित
प्राणप्रतिष्ठा उत्सव
मनमंदिर में,
सविधि
अर्चन
पूजन
वंदन हुआ,
भाल हुआ
स्पर्श
मलयज सम,
रोम
व्योम
सुखद
सुशीतल
चन्दन हुआ....



बौझ...

# # #
बात करीब दो हज़ार बरस पहले की है. दुश्मनों ने यूनान के एक शहर पर फतह हासिल की और शहरियों को फरमान जारी किया कि वे तुरत शहर छोड़ दे. हाँ, नये बादशाह ने शहरियों को यह सहूलियत भी दी थी कि वे जो असबाब चाहें अपने साथ पीठ पर लाद कर ले जा सकते हैं.

शहर का करीब करीब ह़र इंसान अपने पीठ पर कुछ ना कुछ लादे हुए था और चेहरे पर भी मलाल का बौझ लिए जा रहा था.. उस समान के लिए जो बदकिस्मती से छूटे जा रहा था. रोते रोते सभी दूसरे शहर की जानिब काफिलों में बढे जा रहे थे. बौझ से सभी की कमरें झुकी जा रही थी. पांव लडखडाये जा रहे थे, मगर सभी ने अपने अपने कुव्वत और ताक़त के मुताबिक समान लादा हुआ था. समान ले जाने वाले दोनों तरफ से दुखी थे. जो छोड़ आये थे उसके खातिर रोये जा रहे थे और जो ले आये थे उस से दबे जा रहे थे.

पूरे काफिले में सिर्फ एक ही शख्स ऐसा था जिसके पास कोई भी माल-असबाब नहीं था. खाली हाथ बहुत सुकून और चैन के साथ चले जा रहा था. उसका नाम था फिलोसफ़र बायस.

भीड़ में भिखमंगे भी अपने अपने भारी गठ्ठर लादे हुए थे. बायस को देख कर एक औरत हमदर्दी में बोली, आहा कितना गरीब है बेचारा, इसके पास ले जाने को कुछ भी नहीं है. मिस्टिक बायस बोला, मैं तो अपना सारा का सारा सरमाया अपने साथ लिए जा रहा हूँ. मेहेरबानी करके मुझ पर रहम ना दिखाओ. रहम के काबिल तो तुम हो.

औरत चौंकी, बोली तुम गरीब भी हो और पागल भी.

बायस खिल खिला कर हंसने लगा और बोला : मेरी रूह की पाकीजगी ही मेरा सरमाया है..जिसे कोई भी दुश्मन छीन नहीं सकता., जो अलग नहीं हो सकती. जिस्म की दौलत तो बौझ देती है और रूह का सरमाया कोई भी बौझ नहीं देता.

Gift Of Tao (Sharing Tao)

##########
The gift of Tao is greater than any gift.
How can it be given?

By remaining still when others cannot control their giving.....
By remaining still when others cannot control their taking...


When there are mountains, water flows away from them.
When there are valleys, water flows into them.

It is the moving stillness between man and woman that is the greatest gift to each other. Trust the stillness. Be still together and IT WILL MOVE.


( I am glad to make presentation of this great philosophy which is not philosophy baut 'darshan' in true sense.....Philosophy=denotes knowing...and Darshan=denotes seeing)

The Tao's Way...

The Tao's way is to empty when there is too much and to fill when there is not enough. Such is the way.

When mind is too full, it must be emptied. When mind is empty, it will be filled by Tao.

When man and woman are happily full of each other, they keep the emptiness that balance the fullness. When they are unhappily full of each other and wish together to begin again, they must empty.

(I am just a learner and in that rocess presenting the Tao)

Sharing Tao

The obvious is secret !

The secret is obvious !

It is the ordinary that is extra ordinary !

How ordinary the man and woman should search out each other
And take within each other as first partner and mate !

How ordinary that knowing one's self is the way to knowing another !

How ordinary that wonder grows with familiarity,
that mystery enlarges with understanding,
that gaining increases with losing !

How ordinary that man and woman, made certain and uncertain
by their togetherness, are unmade and remade, lost and new-found !

To understand the ordinary, thinking is useless !

Choice and No choice, doing and not doing, why and why-not struggle to a bewildering stalemate ! But no anarchy ! Spontaneity is natural...anarchy is unnatural ! An ordinary mind would always do the things automatically that does not afflict others...that does not afflict self ! Mahavir does not hurt the ant by making a choice, by a wishful decision....but he felt that the ant and he are same...and how a person can kill oneself...so Mahavir does not kill the ant.....Mahvir does not hurt the ant.

It is obvious that is the secret !

The extraordinary is hidden in the ordinary.

(I am just a presenter)

Monday, November 21, 2011

अक्स...

######

रूठा रूठा सा
लग रहा था
आसमां,
रोया था
फूट फूट कर
मासूम बादल..
भीग गयी थी
धरती
संवेदन के जल से,
जगा था
एक सोया बीज
जमीन की
भीतरी तह में,
पहले फूटी थी
जड़ें
तारीकी में,
फिर उभरे थे
अंकुर
रोशनी में,
जो था
अनदेखा,
लगा था
खिल कर दिखने..

कहा था उस दिन
एक फूल ने
एक बादल से,
बादल !
ये जमीन,
ये फिजा,
ये बहार
ये खिज़ा
यह चाँद
ये सूरज,
ये नूर-ए-इलाही,
और
ये यह गुलाबी चादर जो
फैली है चमन में,
आसमां तो
ह़र यक में समाया,
तू उसका और
वह है तेरा ही साया,

सुन!
ये चांदनी
कुछ भी नहीं
बस है
सूरज का ही
अक्स,
जैसे कि
इश्क भी तो
कुछ और नहीं
है दिलों में
कुदरत का रक्स..



मुल्ला और चांदनी रात..

मासटर की संगत में मुल्ला बिगड़ गया. वह भी अध्यात्म की बातें करने लगा. बड़ी चर्चा करता कभी कुण्डलिनी, कभी ध्यान, कभी पुनर्जन्म, कभी जीवन-मृत्यु के रहस्य...स्वर्ग-नर्क ना जाने क्या क्या..मुल्ला की प्रेयसी बड़ी परेशान....सब समय यही...अरे प्रेम की बात का तो मौका ही नहीं आये, गूढ़ चर्चा में ही सारा वक़्त गुजर जाये. सारी की सारी रात गुज़र जाये...एक दिन दोनों दरिया किनारे बैठे हैं...मौसम सुहाना..फिजा रंगीन, सूरज ढल चुका...पूनम का चाँद निकल रहा. ऐसा मौका और मासटर का जिगरी मुल्ला चूक जाये...हो गया शुरू...छेड दी फिर अध्यात्मिक चर्चा. प्रेयसी ऊब चुकी ...पूनम की प्यारी प्यारी रात और फिर वही अध्यात्म.

आखिर उसने कहा : "नसरू आज तो बकवास बन्द करो." मगर नसरुदीन ना सुने.....वह तो अपनी फलसफाना चर्चा में मशगूल...भाषण देता रहा...तक़रीर करता गया..प्रेयसी बेचारी ने कई दफा कोशिश की मगर मुल्ला कि चोंच बन्द ही ना हो. ह़र बार हारी बेचारी...आखिर में मुआमला झगडे तक पहुँच गया...और झगडा होते ही अध्यात्म ख़त्म..मुल्ला अपनी औकात पर आ गया....बहुत ही एक्साईट हो कर मुल्ला बोला, " जो मैं कहे जा रहा हूँ, वह क्या बकवास है ? क्या तुम मुझे अव्वल नंबर का गधा समझती हो ? "

प्रेयसी मिमियाई, " गधा तो नहीं समझती तुम को, तभी तो कहती हूँ भगवान के लिए रेंकना बन्द करो..और आदमी की तरह बीहेव करो "

कौन बताये मुल्ला को कि आदमी कैसे बीहेव करता है और गधा कैसे काश ऐसा भी कोई अध्यात्म होता.


बीवी का खौफ...

# # # #
ये जो रिश्तों का जंजाल होता है ना, बहुत ही प्यारा होता है और बहुत ही खारा भी होता है, खासकर मियां बीवी..एक छत के नीचे रहते हुए करीब करीब सारे ही इमोशंस जी लेते हैं, मोह-अनुरक्ति, आसक्ति-विरक्ति, मोहब्बत-नफरत, गुस्सा-मेल, रूहानियत-हैवानियत, सलीका-गंद, सौहार्द-षड्यंत्र, विश्वास-धोखा, साँझा-अलगाव, स्वार्थ-परमार्थ, भलाई-बुराई, ख़ुशी-गम, शासन-मातहती, हिंसा-अहिंसा (जाने दीजिये-लम्बी लिस्ट बन जाएगी, आप देख कर बना लीजिये..खुद की हुई है तो अपनी ज़िन्दगी को नहीं तो यारों/पड़ोसियों की) मुझे तो लगता है यह जो शादी है ना, एक मिनिएचर है संसार का...

अब देखिये ना, मेरे एक भाईजी हैं, दोस्त के बड़े भैय्या...बहुत ही हंसमुख और प्रेक्टिकल, समाज-बाज़ार में उन्हें 'जोरू का गुलाम' कहा जाता है. उनके भी अपने सिद्धांत हुआ करते हैं (अमूमन ह़र इंसान ऐसे सिद्धांतों की एक फेहरिस्त लिए घूमता है जिन्हें वह यदा कदा पालन कर के गौरान्वित होता रहता है.) हाँ तो हमारे भाईजी बड़े फलसफाना अन्दाज़ में कहा करते हैं : हाँ हूँ जोरू का गुलाम, अरे अपनी ही जोरू का हूँ, अपनी बेटर-हाफ का हूँ...दूसरे की बीवी का तो नहीं..बात में दम है भाईजी की. उनका ऐसा होना कोई कमजोरी नहीं, समझदारी है...जिसे आप-हम जैसे समझदार ही समझ पाते हैं.

खैर, यह सब तो होता रहेगा...आईये एक किस्से का लुत्फ उठाया जाय.
बादशाह अकबर बीरबल से किन्ही सरकारी मसलों पर मशविरा करते करते बोर हो गया था उस दिन. 'फॉर ए चेंज', बीरबल को बात की चिकौटी काटने
के मकसद से पूछ बैठा, " अरे बीरबल, सुना है तुम अपनी बीवी से बहोत डरते हो."

बीरबल मंद मंद मुस्कुराया, और बोला : "जिल्ले इलाही, मैं ही नहीं सल्तनत का ह़र आदमी अपनी बीवी से डरता है"

अकबर ने बीरबल को मुखातिब होकर कहा, " बीरबल...अपनी खुद की जाती कमजोरी छिपाने के लिए यह जनरल स्टेटमेंट ना दो तो अच्छा होगा. तुम बिना बिना के यह इलज़ाम कर यक पर नहीं लगा सकते."

बीरबल ने कहा, "बादशाह सलामत, कोई बोले या ना बोले मगर मैं जो भी कह रहा हूँ, यह एक कडवा सच है."

अकबर तेश में आ गया और बीरबल को चेलेंज किया, "बीरबल अगर तुम एक हफ्ते में यह साबित नहीं कर पाए तो तुम्हारा सिर कलम कर दिया जायेगा."
'एज युजुअल' बीरबल ने बीड़ा उठा लिया और तय किया कि इसको साबित करके रहेगा.
बीरबल ने शहर के सभी मर्दों की एक आम सभा बुलाने का फरमान जारी कर दिया. नीयत वक़्त पर सारे मर्द इकठ्ठा हो गए थे. बीरबल ने बारी बारी हरेक से पूछा, "जनाब आप अपनी बीवी से डरते हैं." जवाब मिलता : जी हाँ. और उसके हाथ में एक अंडा देकर बैठा दिया जाता. अकबर बड़ा परीशान साहब, देख रहा था उसकी फौज के जांबाज़ बहादुर तक अंडे लेकर बैठे हैं. घबराहट सी हो रही थी बादशाह के दिल में कि हमारी फौज का एक से एक बहादुर भी अपनी बीवी के सामने भीगी बिल्ली नज़र आ रहा है.

बहुत देर बाद एक हट्टे कट्टे नौजवान की बारी आई और उस से भी यही सवाल पूछा गया. यह नौजवान बाकियों से हट कर था. उसने कहा बीवी से कैसा डरना...उसका क्या खौफ ? अरे उसकी क्या हिम्मत कि मेरे सामने कुछ भी बोल जाये. अकबर ने थोड़ी राहत की साँस ली कि कोई तो मई का लाल सामने आया जिसने इतनी बात कहने का गुर्दा रखा. जब ह़र तरह से उसे परख लिया गया तो उसे बादशाह ने एक काला घोडा इनाम में दिया. घोडा लेकर नौजवान ख़ुशी ख़ुशी अपने घर पहूंचा. उसकी बीवी ने हैरान होते हुए पूछा : सुबह तो तुम पैदल गए थे, अब यह घोडा किसका पकड़ कर लाये हो. नौजवान ने सारा किस्सा उसे बताया...बीवी बोली: तुम्हे तो सारी उम्र अक्ल नहीं आ सकती...अगर इनाम जीता ही था तो दरबार से सफ़ेद घोडा लेकर आते. नौजवान ने कहा: डोंट वरी डीयर, मैं यूँ गया और यूँ आया घोडा बदल कर. अरे बादशाह सलामत बहुत इम्प्रेस्ड है मुझ से.

कुछ देर बाद वह नौजवान घोडा लेकर वापस दरबार में पहूंचा और बीरबल से दरख्वास्त करने लगा : "मेरी बेटर हाफ ..मेरी जान...मेरी बीवी को यह घोडा पसंद नहीं है. आप मेहरबानी कराएँ और मुझे सफ़ेद घोडा दिलवा दें."
बीरबल ने कहा यह घोडा उधर बांध दो और यह अंडा लेकर घर चले जाओ. बादशाह ने इसका कारण पूछा तो बीरबल बोला, "यह नौजवान पहले तो डींग हांक रहा था कि बीवी से नहीं खौफ खाता..जब बीवी ने काले घोड़े की जगह सफ़ेद घोडा लाने को कहा तो यह मुड़ कर उसको जवाब नहीं दे पाया...ना नहीं कह पाया...इनाम में बदले जाने की बात होती है कोई.." बीरबल ने मिस्चिवियस स्माईल के साथ फुसफुसाहट में आगे बताया, "जहाँपनाह इसकी बीवी बड़ी खुबसूरत है...हूर है बिलकुल हूर...उसको यह क्या कोई भी मर्द किसी भी बात के लिए इन्कार नहीं कर सकता."

अकबर बहुत उत्सुक हो गया था. बोला, "यार बीरबल, अगर ऐसी बात है तो हम भी उसे देखना चाहेंगे...मुलाक़ात का इन्तेजाम करो." बीरबल ने कहा, "मैं कल ही उस परी से आपकी मुलाक़ात......" बीरबल की बात को बीच में ही काटते हुए अकबर बोला, "मगर बीरबल एक बात का ख़याल रहे..हमारी बेगम साहिबा को इस की भनक तक ना लगे."

बीरबल ने मुस्कुराते हुए कहा, " जहाँपनाह, आप ही अकेले बचे थे..आप भी यह अंडा पकड़ें."

बादशाह अकबर के पास अब झेम्पने और बीरबल को सही मानने के अलावा कोई चारा नहीं था.

देखना समझना

# # #
# जाने अनजाने हम इतने संलिप्त हो जाते हैं अपने स्वयं के कच्चे पक्के सोचों और वान्छओं के संग, कि जो कुछ हमारे पास हैं, हमें प्राप्य है उसको पहचानने समझने और एन्जॉय करने, उसमें अपना संतोष देखते हुए,स्वयं को अंतर की बातों की तरफ मुखातिब करने का ज़ज्बा हम भूल से जाते हैं.

#हमारी ज़िन्दगी के मिशन धन अथवा अन्य भौतिक चीजें हो जाती है. जीवन के लिए तन-मन-धन सब अपना अपना रोल रखते हैं, अर्थ कमाना और वैभवशाली होना, सौन्दर्य और शरीर में सहज आनन्द पाना, यश अर्जित करना और ऐसे ही अन्य पहलू हमारे स्वाभाविक मानवीय प्रवृतियां है जिनके तहत कमो-बेस हम सभी होते हैं. संतुलन और होश के साथ यदि हम इन्हें लें तो कोई गुनाह और पापबोध नहीं हैं लेकिन जाने अनजाने इन्हें ही हम अपने जीवन का मकसद बना लेते हैं और अधिकांश समय, श्रम और शक्ति इन्ही में लगा देते हैं, भूल कर कि कुछ और है जिसे हमारा अंतर ढूंढता है..कहने का मतलब यह है कि हमारी प्राथमिकताओं में ये सब इतने हावी हो जाते हैं कि हम लगभग दूसरों की नज़रों के अनुमोदन के लिए जीने लग जाते हैं..बस बाहर की ओर देखते रहते हैं, हमारी दृष्टि अन्दर की तरफ मुड़ सके इसके सुजोग हम से दूर चले जाते हैं, या कहें कि हम खुद को इन से वंचित कर लेते हैं.

# यह कतई कोई नैतिकता की चर्चा और उपदेश नहीं बस हमारी ख़ुशी को री-डिस्कवर करने के क्रम में थोड़ी सी शेयरिंग है और खुद को भी रीमाईंडर है. यहाँ लिखते लिखते अपना भी रिविजन हो जाता है, ना जाने जीवन कब परीक्षा ले ले. तैयार तो रहना होता है ना.

# हाँ तो भाषण को विराम दे कर कहानी पर आया जाय.


# आसफुद्दोला एक नेक बादशाह था. बहुत दिलदार था, महादानी था यह बादशाह. जो भी उसके सामने हाथ फैलता बादशाह उसकी झोली भर देता था.
एक दफा एक फकीर टेर छेड़ रहा था, अपनी मार्केटिंग कर रहा था. "जिसको ना दे मौला, उसे दे आसफुद्दोला." बादशाह मुस्कुराया, उसने फकीर को बुलाया औए एक बड़ा सा तरबूज भेंट कर दिया. फकीर पर तो घड़ों पानी पड़ गया. उसे उम्मीद थी कि बहुत कुछ माल मिलेगा, मगर बादशाह ने तो बस एक तरबूज देकर काम निपटा दिया. खैर, फकीर ने तरबूज लिया और असंतुष्ट मन से आगे बड़ गया. थोड़ी देर में एक फकीर और गुज़रा जो गा रहा था, "मौला जो दिलवाए वो मिल जाये---मौला जो दे मिल जाये." आसफुद्दोला ने उसे चार आने दिये. चार आने पा कर यह फकीर ख़ुशी से झूमता गता, मौला के प्रति शुक्रिया अदा करता चल दिया.

# संजोग से दोनों फकीर एक चौराहे पर मिल गए एक दूजे से. जिसको चार आने मिले थे उसे भूख प्यास लगी थी और जिसे तरबूज मिला उसको परेशानी थी कि तरबूज का क्या करना, पैसों से तो मनचाहा सब कुछ मिल सकता है. पहले ने दूसरे को चार आने में तरबूज बेच दिया. तरबूज लेकर दूसरा फकीर ख़ुशी ख़ुशी अपने ठिकाने पर लौट गया. और पहले ने भी अपनी राह पकड़ ली. जब तरबूज कटा तो फकीर को अनएक्सपेटेड बहुत कुछ मिल गया और वह और खुश हो गया.

# कुछ दिन बाद पहला फकीर फिर उसी तरह गाते गाते आसफुद्दोला के इजलास में हाज़िर हो गया. बादशाह ने फकीर को पहचान लिया और कहा, "अरे तुम अभी भी मांगते हो, उस दिन तुम्हे एक तरबूज दिया था ना, कैसा निकला." फकीर बोला, मैने तो तरबूज उस को बेच दिया जिस को आपने चार आने दिये थे. जवाब में बादशाह ने कहा अरे उसमें तो मैने तुम्हारे लिए मोहरें (सोने के सिक्के) भरे थे. इसका मतलब तुम्हारी सब से बड़ी कमजोरी यही है कि तुम लालच में भागते रहते हो..जो मिलता है उसका उपयोग तुम तह-ए-दिल से अल्लाह के करम समझ कर नहीं करते. अरे तुम को तो वह सब मिल जाता जिसकी तुम ने उम्मीद भी नहीं की थी. काश ! तुम संतोष कर के सुकून के साथ जीने का ज़ज्बा रखते. काश तुम धीरज रखते. काश तुम देखते समझते.



उत्सव....

# # #
फिरौज़ी,
केसरिया,
गुलाबी,
सुनहरा,
चांदी वाला,
ऐसे ही नये रंग
देख रहे थे ना
हम बादलों में,
और
किलकारियों के साथ
मना रहे थे
उत्सव
ह़र एक नये रंग के लिए...
कहा था तुम ने
या कि मैने
या दोनों ने संग संग,
अरे बादल नहीं,
ये तो
आईने मंडरा रहे हैं
आकाश में
जिनमें देख रहे हैं
हम
अपनी खुशियों के अक्स
चलते हुए
झूमते गाते
हाथों में हाथ लिए...

(दीवानी सीरिज से)




अव्यय..

# # #
जानना है
मुझे
अव्यय
वटवृक्ष को
उर्ध्वगामी है
जड़े जिसकी,
है अधोगामी
शाखाएं,
पत्ते हैं
जिसके
साक्षात्
ऋचाएं
वेदों की...

मुखर मौन...

# # #
नहीं राजपथ, पर पगडण्डी
पहुंचा सकती तुम्हे शिखर पर.

तुम्हे त्यागना होगा गजरथ
भक्तों की यह भीड़ निरर्थक,
सत्य असंग है, नहीं जानती
इसको अंधी श्रद्धा साधक,
स्व से जुड़ने पर आता है
आरोहन का मंगल अवसर.

न जाने कितने ही साधक
माया महाठगिनी से हारे,
बिना हुए कृतकर्मों का क्षय
पहुंचा कौन मुक्ति के द्वारे ?
प्रज्ञा में थिर हो जाने पर
द्वन्द-मुक्त होगा अभ्यंतर.

अनुकम्पा की दीप्त ज्योति से
हो जायेगा द्वैत तिरोहित,
नहीं रहेगा सुख-दुःख, होगा
सत-चित से आणंद समन्वित,
मुखर बनेगा मौन स्वयं वह
देगा सब प्रश्नों का उत्तर.

(विद्यार्थी जीवन में स्वर्गीय कन्हैया लाल जी सेठिया के सुजानगढ़ के तालाब किनारे के घर में आना जाना होता था, वहां कुछ गीत/कवितायेँ घटित हुई, जो मैने उनके पास बैठ कर लिख ली थी, उनमें से यह एक है...ये उनकी ही रचनाएँ है)

Sunday, November 20, 2011

प्रयाण...

# # #
अपथ बनेगा पंथ सहज ही
बन्धु अगर प्रस्थान करो...

क्या चिन्ता है अवरोधों की
यदि गति पर विश्वास तुम्हारा,
नहीं भटकने देगा तुम को
सतत चमकता जो ध्रुव तारा,
कुशल क्षेम भावी पीढ़ी का
चिंतन कर अभियान करो तुम.

फूल मिलेंगे, शूल मिलेंगे
मत बतियाना, मत खिसियाना,
सुरभि चुभन है उनकी अपनी
तुम अपना संकल्प निभाना,
स्वेद रुधिर कर अपना सिंचित
नव-पथ का निर्माण करो तुम.

जो अब तक परिभाषित था वह
अथ-आईटीआई का भूगोल बदल दो,
गीत पुराने हुए बटोही
फिर से उनके बोल बदल दो,
खुले नये आयाम क्षितिज के
ऐसा कुछ अवदान करो तुम.

(विद्यार्थी जीवन में स्वर्गीय कन्हैया लाल जी सेठिया के तालाब किनारे के घर में आना जाना होता था, वहां कुछ गीत/कवितायेँ घटित हुई, जो मैने उनके पास बैठ कर लिख ली थी, उनमें से यह एक है...)

Thursday, November 17, 2011

तकते थे तुम राहें जिसकी

######


तकते थे तुम राहें जिसकी
मन में फूल बिछाए
नयन मिले थे उससे जब जब
क्यों तुम थे शरमाये,
करते क्यों थे पलकें नीची
तुम डरते, या नयना ?

स्पर्श था जिसका ,स्वप्न तुम्हारा
निकट वो जब आता था चलकर,
नज्में प्यार भरी कह कह कर
छू लेता था हृदय निरंतर,
सिमट स्वयं के खोल में जाते
बंदी तुम थे या कारा वह ?

जिसके कदमों की आहट को
सुनने को व्याकुल थे,
मधुर मिलन की सुखद घड़ी को
जीने को आकुल थे,
हो पुलक धड़कन की थपकी पर
ढकते क्यूँ थे द्वार ?

Sunday, November 13, 2011

ऋतंभरा !


# # #
सहज प्रेम
वात्सल्य
शौर्य
नमन तुझ को
ऋतंभरा !

उन्नत भाल
अनुपम कपाल
नित्य प्रवाल,
नत मस्तक मैं
ऋतंभरा !

तू काली
महाकाली
सम्बल मेरी
करुणामयी
ऋतंभरा !

ऋतंभरा = सात्विक बुद्धि जो सदैव एक रस रहे.

Saturday, November 12, 2011

असमंजस...


# # #
देखे
कान्हा
कालिंदी तीर
रानी राधा,
सोये हैं गोविंदा
संग
सत्यभामा,
द्वारिका प्रासाद मांही,
अरे अघाती नहीं
क्यों
रुकमणी
करते बखान
निशि-दिन
संग छलिया के
होने का ?

कैसी है
भीगी भीगी रतिया
कैसी है यह
शीतल बयार,
कैसा है
यह मादक बसंत
बता ना
कान्हा
है क्या यह
समय कोई
करवट से
उठ
चले जाने का ?

निहारूं मैं
अपलक तुझ को
खुले हैं
नयन,
हूँ मै तल्लीन,
स्वप्न है तो
सच क्या है,
है ना यह
असमंजस
दीवाना
बना देने का ?

अरे तू
तो है यहाँ
गया भी
नहीं,
अरे तू यहाँ नहीं
गया है
कहाँ,
माना कि तू
चला जो गया
आभास फिर क्यों है
यहीं कहीं
तेरे
हो जाने का ?

मासटर का गंजापन...(बकौल मुल्ला नसरुदीन)


####################################

दोस्त से बढ़कर दुश्मन कोई नहीं हो सकता. यह मेरा दोस्त मुल्ला नसरुदीन है ना वह बहुत प्यारा है, मगर बेसिकली बहुत अजीब इंसान है. जब भी अपना उल्लू सीधा नहीं होता, हर्ट हो जाता है और बहुत ही वीयर्ड तरीके से रीएक्ट करने लगता है.
अब उस दिन की ही बात लीजिये, मुल्ला को किसी दावत में जाना था, बोला : मासटर अपना नया वाला सूट, कमीज, घड़ी और कफ-लिंक्स मुझे दो ना, तेरा दोस्त जब गेदरिंग में अच्छा लगेगा तो तेरा ही सीना चौड़ा होगा.सभी कहेंगे, देखो मुल्ला कितना स्मार्ट लग रहा है, आखिर दोस्त किसका है,मासटर का. उसकी बातों में सिवा मुझे पटाने के, और कुछ नज़र नहीं आ रहा था, मैं उसकी बातें सुन कर मुस्कुरा रहा था. मुल्ला ने मेरे ही घर मेरे ही नौकर दुलाल से चाय बनवाकर मुझे पिलाई, मेरे पुरखों पर एहसान कर डाला..बोला मुल्ला, "अमां मासटर हम तो तुम्हारा कितना ख़याल करते हैं, जब भी आते हैं चाय-नाश्ता करवा देते हैं तुम को, नहीं तो तुम खडूस सिर्फ किताबों में ही डूबे रहो और कुछ ना खाओ. मेरे जेहनी होने, दिलदार होने, अच्छा दोस्त होने के बखान कर रहा था मुल्ला. अब वह लम्हा भी आ गया जो आईस ब्रेकिंग वाला था.दरसल मैं मुल्ला को अपने कपड़े और असेसरीज उधार देकर कई बार नुकसान उठा चुका था. मसलन मुल्ला मेरे कपड़े..बाहर से सालन दाल वगेरह गिरा कर ख़राब कर देते हैं और अन्दर... मासल्लाह पसीने की बू जो गुलाब कत्तई नहीं होती. अरे जनाब एक दफा तो मेरी 'ओमेगा' की बेटरी बदल डाली मुल्ला ने, शायद बेच दी थी ओने पौने में.

खैर इस बार मैने तय कर लिया था, मुल्ला के बहकावे में नहीं आऊंगा. नहीं दूंगा जो कुछ मुल्ला ने माँगा.मैने हिम्मत जुटा कर मुल्ला को कह ही दिया, "मुल्ला मैने गए कल से यह उसूल अपनाया है कि अपनी कोई भी चीज इस्तेमाल के लिए दोस्तों को उधार नहीं दूंगा. तुम मेरे दोस्त हो यार, जिगरी दोस्त मुझे मेरे उसूल को निबाहने में मदद करो ना"
मुल्ला अन्दर अन्दर बिलबिला रहा था, उबल रहा था. मगर बहुत ही सलीके से बोला, "अमां यार, कौन लाट साब की दावत है, हम वो काली वाली अचकन पहिन कर चले जावेंगे, चमरौधी जूतियाँ भी बड़े दिनों से नहीं पहनी इस बहाने उन पर भी पलिस हो जाएगी. कोई बात नहीं दोस्त, उसूल के तुम पक्के हो और निबाह भी सकते हो क्योंकि तेरे दोस्त हम जैसे लोग हैं."
मुल्ला ने फिर कहा, "यार, सूट वगेरह ना दो, जरा हाथ तंग है , एक लाल नोट (हज़ार वाला) अगर दे सको तो मुझे अच्छा लगेगा." तो साहेब किसी तरह पॉँच सौ देकर जान छुड़ाई.

शाम को दावत थी. और दूसरे दिन ही मुल्ला के करिश्मे सामने आ गए. टाक ऑफ़ दी टाउन हो गया था साहेब हमारा गंजा होना. (बालों के मुआमले में हम जरा हेव-बीन्स है.याने कभी हमारे बाल हुआ करते थे). हाँ तो हुआ यह कि मुल्ला ने बड़े प्यार से चार छह लोगों को मेरे गंजेपन का राज खूब रस लेकर सुना दिया. एक जनाब बता रहे थे, मुल्ला ने क्या कहा.

अजी साहेब यह अपना मासटर है ना, बड़ा इश्कबाज़ बन्दा है. सभी को अटरेक्ट कर लेता है, चाहे आठ की हो या के साठ की. आँखों और जुबाँ पर जादू है जनाब और कुछ हो या ना हो...और यहाँ मुल्ला बहुत ही नटखट हल्की हंसी हंस लेता था. हाँ तो मुल्ला ने कहा था, "जनाब जानते हैं आप,कोई ज़माने में मासटर के भी खूब बाल हुआ करते थे..बुरा हो मुए इश्क का, अधेड़ होने पर मुल्ला दो औरतों के फेरे में पड़ गए. एक उनसे बड़ी याने कोई ५८ साल की थी और क्या कहें दूसरी बस २८ की. मासटर दोनों से ही अलग अलग मिला करते. बड़े वाली को महसूस होता मासटर उस से जवान है, बस उसके काले वाले बाल निकाल देती.ताकि बलेंसिंग हो सके.... और छोटी का आलम यह कि, उसे मासटर के सफ़ेद बाल देख कर लगता, क्या करूँ राम मुझे बुड्ढा मिल गया. सो जनाब वह चुन चुन कर मासटर के सफ़ेद बाल निकाल देती थी. इस काले सफ़ेद के चक्कर में मेरा जिगरी दोस्त मासटर गंजा हो गया.....और अब समझाने से क्या होगा भाईजान, कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे.मुल्ला कंसर्न्ड होने वाला पोसज बना कर कोई स्टार्टर कुतरने लगते या किसी ड्रिंक पर हाथ मुंह आजमाने लगते.

इस तरह मुल्ला हम से हमारी उसूल परस्ती का बदला ले रहे थे....और मैं मुल्ला के लोजिकल स्टोरी मेकिंग के स्किल पर अपना सर पीट रहा था.

Sunday, October 30, 2011

मुल्ला का मलाल

# # # #
आज की ही तरहा सन्डे की सुबह थी. मुल्ला टपक पड़ा था मेरे घर, माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम का ज़ज्बा लिए. दीवाली ताज़ा ताज़ा गयी थी. मुल्ला कहने लगा, "अमां मासटर तेरे को लोग-लुगायियाँ सूखे मेवे की इतनी टोकरियाँ भेजते हैं, सोचा उनको खोलने में तेरी मदद की जाय..और तुम तो बादाम के इलावा कुछ खाते नहीं, घर में जगह घेरेगा यह सब, मैने सोचा मैं लिए जाता हूँ, तुम्हे परेशानी से निजात दिला देता हूँ." मुल्ला की यही स्टाईल है उनका ह़र काम किसी दूसरे की मदद के लिए होता है, जनकल्याण के लिए होता है, रूहानी होता है. दोस्त हूँ उसका, मैं भी जानता हूँ वह ऐसा है ऐसा ही रहेगा.
तो मुल्ला दुलाल को चाय, टोस्ट, मीठा, नमकीन पेश करने की हिदायत देकर मेरी मदद के काम में लग गया.

दुलाल थोड़ी देर में चाय-नाश्ते की ट्रे लेकर हाज़िर हुआ, मुल्ला ने अंगड़ाई ली और बोला- "अमां मासटर तुम्हे गरम गरम चाय पिलाते हैं..छोड़ इस किताब का चक्कर और आज तुम्हे मैं अपना दुखड़ा भी सुनाना चाहता हूँ." और उसने मेरे हाथ से किताब छीन ली.

मैं हमेशा ही अपने लेक्चर्स में तंज से कहा करता हूँ- "जब तुम बलात्कार को रोक नहीं पाते तो उसे एन्जॉय कर लो." मैने उस दिन बस वही किया.

गरम चाय सुड़कते हुए और टोस्ट कुतरते हुए बोलने लगा मुल्ला नसरुदीन.
"बड़ा उदास हूँ मासटर आजकल. तुम तो जानते ही हो किन किन हादसों से दो-चार हुआ हूँ मैं इन दिनों."

एक तो मेरी याददाश्त कुछ अजीब है और कुछ मैं जानता भी हूँ कि मुल्ला सब कुछ तफसील से कहेगा ही एक दफा शुरू हो गया तो.

हालात से समझौता कर मैने कहा, "क्या हो गया मुल्ला ?"

मुल्ला लगा कहने, " कितने अफ़सोस की बात है, तुम तो जानते ही हो मेरे मामूजान सयैद बकरुदीन साहब, खुदा जन्नत बक्शे उनको, यही पिछले मह अल्लाह के प्यारे हो गए थे लन्दन में और मेरे लिए कई करोड़ की जायदाद वसीयत में लिख गए."

मैने हुंकारा भरा, चाय कि चुस्की ली, रस्मी तौर पर बोला हाँ मुल्ला बहुत ही नेक इंसान थे वो. उम्र हो गयी थी जाने की, करीब करीब अस्सी के थे. तुम ने तो उनसे झूठ सच करके बहुत कुछ बटोरा था.

मुल्ला जारी था, "अरे मासटर उनका चालीसवां सींचा ही नहीं गया था कि मेरे चचा जनाब सलाउदीन साहब अहमदाबाद में चल बसे. इतने दिलदार थे, आगे पीछे कोई नहीं था उनके, वे भी अपनी वसीयत में मेरे नाम बड़ी जायदाद लिख गए."

मैने उसके केंसर के मरीज़ मरहूम चचा की याद में कुछ कहा और उनकी रूह के सुकून के लिए अल्लाताला से दुआ की,

मुल्ला दूसरा कप ढाल रहा था और शायद यह उसका तीसरा टोस्ट था मोटी मख्खन की तह लगा..बोला, " अमां कितना बड़ा बौझ दे डाला हमारे खानदान ने इन तीन माह में अल्लाह परवरदिगार पर, वो मेरे भोपाल वाले ताऊ थे ना मुल्ला गबरुदीन. वो भी तो पिछले हफ्ते फौत हो गए. उम्र कोई नब्बे की थी मगर दिल से बड़े जवान थे तेरी तरह. आज भी इश्किया शायरी लिखते थे. चले गए और वसीयत में मेरे नाम भोपाल का फार्म हॉउस, दुनिया भर के शेयर और बैंक डिपोजिट्स लिख गए."

मैं उस खूसट बुड्ढ़े को जानता था, गाहे बगाहे किसी पड़ोसन या मेड सर्वेंट पर फ़िदा हो कर इश्किया असआर लिखा करते थे और मुल्ला के मार्फ़त मेरे पास इस्लाह के लिए भेजते थे, जो मैं हमेशा बहुत खूब का टेग लगा कर उन्हें वापस भेज दिया करता था ताकि इश्क के मर जाने तक फातिहे तो कम-स-कम उन तक पहुँच जाये. वैसे भी उनकी शायरी एक ही धूरे पर घूमती थी और ज्यादातर फ़िल्मी गानों या किन्ही और घटिया शायरों के कलाम से मारी हुई होती थी.

खैर मै उनका पान की पीक थूकता पोपला मुंह और उस से भीगी दाढ़ी का तसव्वुर करते हुए बोला, "अमां मुझे उनके दुनियां से उठ जाने का दुःख है. मगर तेरी उदासी नहीं समझ में आ रही. तीन तीन बुजुर्ग चले गए और तेरे लिए इतनी दौलत भी छोड़ गए. अरे तेरी तो बल्ले बल्ले है. काहे दुखी हो रहा है..मलाल किस बात का...एन्जॉय कर...सेलेब्रेट कर...ऐसे लम्हे ज़िन्दगी में फिर नहीं आयेंगे.अरे दावत दे, दावत."

डरते डरते कहा था मैने क्योंकि अगर दावत हुई तो उसका बिल भी मुझे ही चुकाना था. मैं ठहरा घासपूस खानेवाला और मुल्ला मासाल्लाह सभी तरह के ग़ोश्त और लाल परी के शौक़ीन. खैर !

मुल्ला उदास हो कर बोला, "अमां मासटर तुम कभी भी मेरा दर्द नहीं समझ सकते...अरे इमप्रेक्टिकल इंसान अब सारे बुड्ढ़े चले गए है मेरे खानदान से, कोई नहीं बचा है..मलाल तो इस बात का है."

और मैने अपना सिर पीट लिया था.

Tuesday, October 11, 2011

गुज़ारिश (आशु रचना)

# # #
मेरे गुज़रे हुए कल से
की थी
गुज़ारिश मैने,
बीत चुका है तू,
फिर सताता है
तू क्यों
मुझको,
बनकर साया
एक पिशाच सा
क्यों करता है
बैचैन मुझ को ?
बोला था वो
हिस्सा
मेरी ज़मीर और फ़ित्रत का ,
बिन खोले मुंह
मेरी ही जुबाँ से
लिए बिना सहारा
हर्फों और लफ़्ज़ों का,
क्यों फिर रहे हो
चिपकाए खुद से
मेरे बेजान जिस्म को,
रूह छोडे हुए बदन
होते हैं महज़
लाशें ,
होती है जगह जिनकी
कब्र में
डाली जाती है जिन पर
ख़ाक
भर भर मुठ्ठियों में,
की थी गुज़ारिश
मेरी रूह ने
मुझ से ही :
फेंक दो,
फूक दो या
कर दो दफ़न
माजी को,
बचना है गर
तुझ को
होने से घिनौना
उसकी सड़ांध
और
छूत के
असर से.....

Wednesday, September 21, 2011

विकसित भारत...


# # #
भाव विहीन
चिंताग्रस्त
बूढ़े से बुझे बुझे चेहरे,
आंकिक उम्र का टेग पहने
जवान जिस्म,
कन्धों पर लटकी बेग्ज़,
रोबोट की मानिन्द
बढ़ते कदम,
दैनदिन की मुश्किलें
बंधा बंधाया जीवन,
दूसरों की प्राईवेसी को
सम्मान देने के चक्कर में
ओढी हुई दूरीयां,
वो ही माल्स
वो ही स्टोर्स,
वो ही सड़कें,
वो ही गाड़ियां,
वो ही नियम कानून,
लीक पर चलना,
लीक पर सोचना,
लीक से परे ना हटना,
व्यवस्था की गुलामी,
वो ही घुमने फिरने की जगहें,
वो ही बंधे बंधाये
कार्यक्रम,
पांच दिन काम के
वीक एंड के वो ही प्लान्स,
वो ही भाषा
वो ही शब्द
सब कुछ लगता है
मशीनी सा
जीवन्तता नदारद,
वैशवीकरण
यह सब ला रहा है
पश्चिम से
पूर्व में....
हो रहा है तैय्यार
एक मध्यम वर्ग
जिसे जीने से ज्यादा
कमाने की,
आज से ज्यादा कल की
फ़िक्र करनी होती है,
प्रतिस्पर्धा की अगन में
देनी होती है
आहुति खुद की,
प्लास्टिक में छुपी मुद्रा
परिभाषित जीवन शैली,
कभी ख़त्म ना होने वाला
तनाव,
ह़र रहा है
जीना जीवन से,
मैं देख रहा हूँ ऐसा ही
कुछ होना है
विकसित भारत में,
वैयक्तिकता के नाम पर
बलिदान व्यक्ति का ...

(न्यूयार्क : २१ सितम्बर, २०११.)

Tuesday, September 20, 2011

मुसाफिर...

# # #
कैसे हैं ये रिश्ते,
ह़र कदम जहां
होते हैं इम्तेहान,
किसी को ना है
यहाँ थोड़ा सा इत्मीनान...
पड़ी है सब को साबित
ना जाने क्या करने की
जो ना दिल की है
ना ही कोई बात है
जेहन की,
कहतें हैं ना जाने क्यों
उसको खुद की
है जो मिलकियत रेहन की...
ह़र लफ्ज़ के मायने
निकाले जातें है
खुद के खातिर
खुद को शरीफ और हम को
बताया जाता है शातिर,
कैसे गुज़ारे हम यारों
ये घड़ियाँ उधार की,
हम नहीं है बाशिंदे
हम तो है महज़ मुसाफिर...
बस चुप्पी हो गयी है
हमराज हमारी,
सिले होठों पे है
कशमकश की सवारी,
उड़ने को है पिंजर से,
नाव लड़ रही है
आज भंवर से,
तोबा तोबा कैसी है
ये दुनियादारी,
ज़लील होकर बिक रही है
देखो ये खुद्दारी...

Wednesday, August 3, 2011

सब कुछ क्यों परिभाषित है ?


###
जन्म लिया,
लिया माँ ने
जो नाम
कहलाया वो
जीवन भर बाप,
जाति बन गयी,
धर्म बन गया,
युक्ति बिना
सब भाषित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

यूँ चल
यूँ बोल
यूँ खेल
यूँ उठ
यूँ बैठ
यूँ सो
यूँ जाग
सब कुछ ज्यों
आदेशित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

तुम्हे यही तो
पढना है
ऐसा अपने को
गढ़ना है,
पोल पे चमड़ा
मंढना है
यह बनना है
यह ना बनना है
सब कुछ दूजों से
शासित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

(क्रमश:) : आगामी पंक्तियाँ जब 'मूड' आएगा लिखूंगा और पोस्ट करूँगा)

स्वीकार...


###
जो भी विषय विकार है
मुझे समस्त स्वीकार है,
घृणा कि बातें क्यों होती
देह बिन सब बेकार है...

आदर्शों के बोझ तले
राई को पहाड़ बनाते हैं,
कृत्रिम पुतलों से मित्रों हम
महल अपना सजाते हैं..

आत्मा के सत्य को हमने
देह से दूर परिभाषा है,
अध्यात्म की एकांगी बातें
दमन-शमन की भाषा है..

हिंसा आक्रमण जो भी होता
दमन के प्रतिकार है
जो भी विषय विकार है
मुझे समस्त स्वीकार है...

(इस रचना में भी जो मूड हुआ लिख दिया, आगे कभी मन होगा तो और पंक्तियाँ जोड़ दूंगा..आप में से कोई इसे आगे बढा सकें तो कृतज्ञ रहूँगा.)



Saturday, July 30, 2011

सब कुछ क्यों परिभाषित है ?

###
जन्म लिया,
लिया माँ ने
जो नाम
कहलाया वो
जीवन भर बाप,
जाति बन गयी,
धर्म बन गया,
युक्ति बिना
सब भाषित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

यूँ चल
यूँ बोल
यूँ खेल
यूँ उठ
यूँ बैठ
यूँ सो
यूँ जाग
सब कुछ ज्यों
आदेशित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

तुम्हे यही तो
पढना है
ऐसा अपने को
गढ़ना है,
पोल पे चमड़ा
मंढना है
यह बनना है
यह ना बनना है
सब कुछ दूजों से
शासित है,
सब कुछ क्यों
परिभाषित है ?

(क्रमश:) : आगामी पंक्तियाँ जब 'मूड' आएगा लिखूंगा और पोस्ट करूँगा)


Friday, July 15, 2011

तरल...(आशु रचना)

# # #
आसान है
ठोस होना,
होती है
वांछा
सभी की
कुछ ठोस
बन जाने की,
ताकि
बार बार
साबित हो सके
अस्तित्व एक
पृथक सा,
दिखें हम
खड़े अलग से
और
ना बदले जा सकें
आसानी से
बिना तोड़फोड़
और
गलाने के,
झुकते नहीं
टूट जाते हैं
हम बहुधा
ठोस बन कर...

सहजता है
हमारी
हो जाना तरल,
हो कर सरल
ढल पाये हम
किसी भी प्रारूप
और
अनुरूप में,
झारी में समाया
जल
बन जाता है
झारी,
भरा जाकर
प्याले में
ले लेता है
आकार
प्याले का,
सरोवर वही
वही सागर
वही तो है
नदिया चंचल,
मूल में रहता है
वह
जल तरल
नैसर्गिक
सहज
सरल...

Thursday, July 14, 2011

निर्धन...

# # #तैरते तैरते
सुख के
सागर में
डूब जाता है
मन,
फंस जाता है
वह
दुःख के
कीचड़ में,
छटफटाता है
अकुलाता है
झुंझलाता है
हो जाता है
आतुर
उठ जाने के लिए
ऊपर ,
और इसी
उहापोह में
अनायास
मिल जाता है
आत्मा का
अनमोल रतन,
हो जाता है
अनावरण रहस्य:
नहीं है
दुःख भी
निर्धन !

Saturday, July 2, 2011

और बणगी फूटरी (Beautiful) सी ग़ज़ल...


###########

मं ह़र म्हारो आइनों, कोर कागद सा रेह गया.
नक़ल ना कोई मंड पायी,मूळ जिनगाणी रेह गयी.. (विनेश सर)

(मैं और मेरा आइना कोरे कागज़ से रह गए. कोई भी प्रतिलिपि उस पर नहीं उभरी, जीवन में मौलिकता का अस्तित्व बना रह गया)

परनिंदा करतां करतां जीभड़ली थांरी घस गयी,
कडुवी बात्यां पैठ गयी, मधरी बाणी रेह गयी... (महक)

(परनिंदा करते करते तुम्हारी जिव्हा घिस गयी. कडवी बातें मन के भीतर पैठ गयी और मधुर वचन बाहर ही रह गये.)

सीरो खावंता दांत घिस्या हुणी अणहूँणी हो गयी,
ख़तम हुयो कद को औ खेलो, बाकी का'णी रह गयी. (मधु)

(हलुआ खाने से दांत घिस गये, जो होनी थी वह अनहोनी हो गयी. जो भी हुआ कभी का ख़त्म हो गया बस अब तो कहानी ही बाकी रह गई)

जण जण रा मन राखती बैश्या बाँझड़ी रेह गयी,
बळद बापड़ो थक मरग्यो, सूनी घाणी रेह गयी... (अर्पिता-नजमा)

(नाना प्रकार के मर्दों को खुश करने की 'स्प्री' में बेचारी वैश्या माँ नहीं बन पायी* : *यह एक राजस्थानी कहावत का रूपांतरण है. अरे ! कोल्हू का बैल चक्कर लगाते लगाते थक कर मर गया और कोल्हू सूना रह गया.)

खुद रो लैणे घरे बैठगी, म्हासूँ भी हिस्सो काट्यो,
जो बच गी म्हारै हिस्से री, वा भी थाणी रै(रह) गयी ! (विमलसा)

(एक कहावत है - मेरा तो मेरा, तेरे में भी मेरा हिस्सा !!
अपना तो ले कर घर बैठ गयी और मेरे में से भी हिस्सा काट लिया !
यानि जो मेरे भाग का था, वो भी कब्ज़ा लिया !)

कोई तुझको चलाएगा कब तक.(तरही :जुलाई २०११)

# # #
आग में यूँ तपाएगा कब तक
तू मुझे आजमाएगा कब तक.

साथ अपना है रुहो जिस्म का
तू मुझसे शरमायेगा कब तक.

दे दे के दुहाई रस्मो रवाजों की
तू खुद को भरमायेगा कब तक.

मोल चाहत का करना है मुश्किल
दाम दिल का लगाएगा कब तक.

आदत लौटाने की रख कुछ तो
कोई तुझ पे लुटायेगा कब तक.

खुद ब खुद चल पावों पे अपने
कोई तुझको चलाएगा कब तक.

हो गयी है इंतज़ार की इन्तेहा
तू मुझे तरसाएगा कब तक.

हसीं जिंदगानी हो गयी..(तरही मुशायरा -जून २०११ )


# # #
मिट गया वो जिसपे तेरी, मेहरबानी हो गयी
जो भी हुआ अच्छा हुआ ख़त्म कहानी हो गयी.

ठोकरें खायी हजारों,मायूस हुआ जो दिल ही था
सरे राह कोई मिल गया, ऐसे जौलानी हो गयी.

अश्क तेरे गिर पड़े थे, हुए जुदा थे हम जिस पल
सफ़र मेरे उस बेमंज़िल में, एक निशानी हो गयी.

संग रकीब का रास आया तो खुश थे तुम बेइंतेहा
क्या हुआ जब देखा हम को नम पेशानी हो गयी.

छुप छूप कर आना वो तेरा लखना मेरी बदहाली
कहने को बर्बाद हुए हम, हसीं जिंदगानी हो गयी.

(जौलानी=फुर्ती/चपलता)

देखा अब संसार... (रचनाकार :शिवम्)


[शिवम् (८ वर्ष) कल मेरे साथ था. उसकी एक रचना यहाँ शेयर करते हुए प्रसन्नता हो रही है.]

# # #
प्राण दिये/ ईश्वर ने मुझ को,
मैने पाया घर अपने का
अंडे सा आकार,
आँख खुली तो मैं ने देखा
और कोई प्रकार...

तिनके/ जोड़ जोड़ बना था
मेरा घर संसार,
चुग्गा लाती मम्मी मेरी
देती मुझको प्यार....

पंख मिले/ आई थी ताक़त
उड़ने को तैयार,
मापी थी आकाश की दूरी,
देखा अब संसार...

भंवरा तू भरमाया......


# # #
(यह एक राजस्थानी रचना का रूपांतरण/भावानुवाद है )

यहाँ कहाँ है कोई कमल सा
भंवरा तू भरमाया
पवन महक के पीछे क्यों तू
बांस वनों में आया..

फल फूलों की बात भूल जा,
यहाँ पतों का नहीं काम,
छिद्र कर रहा तू रस खातिर
नहीं मिलना तुझे आराम...

चेत अरे ओ भ्रमर बावरे,
रसिया कुल तू जाया,
नहीं मिलेगा तुझे कमल सा
भंवरा तू भरमाया...

कूट कूट कर भरा है इनमे
गुरूर ऊँच होने का,
खाए रगड़ उपजे अंगारे
ना सोच मेहमां होने का..

मन हिरण के पीछे पीछे
क्यों 'काले कोसां' तू आया,
नहीं यहाँ है कोई कमल सा,
भंवरा तू भरमाया...

भन्न भन्न क्यों करता तू पागल
कर अंतर-अनहद अनुभूत,
भंवरी तेरी है उदास
तू विषय भोग वशीभूत..

कोड़ी के बदले में तू ने
हीरा जनम गंवाया,
यहाँ कहाँ है कोई कमल सा,
भंवरा तू भरमाया...

(काले कोसां राजस्थानी का एक चामत्कारिक एक्स्प्रेसन है..काले याने ब्लेक और कोसां याने दूरी का मील या किलोमीटर जैसा माप : २ मील= १ कोस, इस का प्रयोग दूर दुरूह अनजानी जगह को इंगित करने के लिए किया जाता है..इसे मैने रचना में 'as it is' रखा है.)

ज़रा सी बात..


(एक पत्रिका में इस कविता को पढ़ा, भाव और सहज अभिव्यक्ति अच्छी, लगी शेयर कर रहा हूँ. रचियता अनाम है.)

# # #
समझ में आती नहीं ये,
इक जरा सी बात क्यों !
अपना रोना और हँसना,
दूसरों के हाथ क्यों !

गैर के हाथों में अपनी,
कश्ती की पतवार है.
किस तरफ ले जायेंगे,
यह सोचना बेकार है.
ह़र कदम पर बन के रहबर
रहते अपने साथ क्यों !

प्यार की नज़रों से देखा,
और हंसकर रख दिया.
बेरुखी अपनी दिखाई,
और रुला कर रख दिया.
है भला औरों के बस में
अपने दिन और रात क्यों !

अपने पावों से चले
क्यों दूसरों के रास्ते ?
अपनी सारी ज़िन्दगी क्यों
दूसरों के वास्ते ?
बदले में मायूसियों की
मिलती है सौगात क्यों !

दूसरों के हाथ में
तकदीर अपनी देखना.
दूसरों की आँख में,
तस्वीर अपनी देखना.
बन्धु अपने आप से
होती नहीं मुलाक़ात क्यों !

Monday, June 20, 2011

बीज में बरकत हो गयी...


# # #
कच्ची कली फूल में देखो बदल गयी
भंवरे की बात वो सारी समझ गयी,
देखो ना मौसम का करिश्मा गज़ब
कोंपल थी के शज़र वो सरमस्त हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

पाजी हवा बार-बार देखो सता गयी
हर झोंके से वो तो चिलमन हटा गयी
आसमां में उम्मीदों को पसार गयी
सिफ़र एक सब से बड़ी दौलत हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

तशनगी जिस्म की ज्यूँ जेठ की धरती
सदियों सदियों से थी मानो जैसे परती
प्रीत मेघ की एक बौछार से बूँद तृप्त हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

महंगा होता है हंस हंस के बतलाना
लोगों के दिलों का तो जलना जलाना
बिना बात के कित्ती बातें बनाना
किरकिरी आँख की परबत हो गयी
देखो ना बीज में बरकत हो गयी...

(बरकत=वैफल्य, बढती. सरमस्त=उन्मत/मदोंमत. सिफ़र=शून्य)

(मूल रचना राजस्थानी में कल्याण सिंह जी राजावत की है, मैंने इसे हिन्दुस्तानी (हिंदी/उर्दू मिश्रण) में रूपांतर/भावानुवाद करके पेश करने की कोशिश की है..)


Mool aalekh :

बीज में बरकत होगी रे.

(कवि : कल्याण सिंह जी राजावत)

#########
कळी फूल में बदळगी,
भंवराँ री सा बात समझगी,
देखो रुत रो एक अचंभो,

दोबड़ी दरखत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे.

नुगरो पवन कुचरणीगारो,
हर झौंके निरखै उणियारो,
आसा रो आकास पसारयो,

निजर तो सरवत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे !

तन री तिरस् जेठ री धरती,
जुगाँ जुगाँ स्यूं रेहगी परती,
प्रीत-मेघ रै एक हबोलै,

बूँद स्यू तिरपत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे !

मूंघो होवे हंस बतलाणों,
लोगाँ रे बिच कुबद कमाणों,
देखो जग़ रो बात बणाणों,

कांकरी परबत होगी रे,
बीज में बरकत होगी रे !

(दोबड़ी=कोंपल, दरखत=पेड़, नुगरों=शैतान, कुचरणीगारो=छेड़-छाड़नुमा शैतानी-pin pricking , उणियारो=चेहरा, सरवत=सर्वत्र, हबोले=झोंके/तेज़ बौछार से मतलब है, मूंघो=महंगा, कुबद=विवाद,
कांकरी= ढेला.)