Monday, February 28, 2011

जी घुटता है......

# # #
परितृप्त हुआ
मैं
पाकर
आनन्द
निर्मल सरित के
अमृत
जल का,
इस ठहरे
दुर्गंधित
नाले में
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

शुद्ध समीर
पुष्पों को
छूकर
मुझ तक रही है
आती जाती,
सड़ांध भरे
चौराहे पर
मित्र
मेरा अब
जी घुटता है...

बैठ किसी
वटवृक्ष तले
शांत
एकांत
घने उपवन में,
हुआ घटित
ध्यान था मेरा,
भीड़ भाड़ के
कोलाहल में
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

मन के स्पंदन
तरंगे तन की
छू छू कर
करती है ताज़ा,
स्पंदन हीन
इस आधिकारिकता से
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

शीतल छाँव
मिली है
हरदम
साथ किसी का
रहा हर कदम,
धूप की
चुभती तीखी
तपिश में
नितान्त अकेला
खुद को पाकर,
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

अनुभूतियों की
पृष्ठभूमि में
पूछ लिया है
आज स्वयं से,
अनुत्तरित पा
निज संवेदन को,
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

होगी पूरी
शोध स्वयं की
जिस शुभ पल,
तिरोहित होगा
दुनिया का छल,
करूँगा जब मैं
दर्शन निज के,
जान सकूँगा
तभी
रहस्य यह,
मित्र !
मेरा जी क्यों
घुटता है ?

कहूँगा उस दिन
अगुन्जरित
वीर स्वरों में,
मधुर गीत और
मौन संगीत में,
बिन बोले
बिन जतलाये
जीने की गहरी भाषा में
मित्र !
मेरा जी नहीं
घुटता है...

Sunday, February 20, 2011

खोकर तुझको क्या पाउंगी :~ ~

इस कविता में वर्णित भाव किसी के हैं, जो बहुत वर्षों पूर्व किसीने व्यक्त किये थे, बस मैने सिर्फ शब्द दिये थे, आज अनायास ही किसी पुस्तक में दबी यह तहरीर हाथ लाग गयी, आप से शेयर कर रहा हूँ।

# # #
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले,
यौवन मद में
चूर बहुत है
आज भी मुझ को
चाहनेवाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले,

देह कमल का
खिलना भी क्या,
दोराहों पर
मिलना भी क्या,
चार कदम का
साथ निबाह कर
बीच राह में तजने वाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले.

उसर भूमि को
करके सिंचित
प्रेमांकुर
फूटाये तुम ने,
सूने घर की
दीवारों पर
भव्य चित्र
सजाये तुम ने,
आज चले मुंह मोड
अचानक
शब्दों से बहलानेवाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले.

तन नश्वर और
क्षण भंगुर है,
आत्मा मेरी
अजर अमर है,
किस को छोड़ा
किस को पाया,
नित नूतन
स्वांग रचानेवाले,
खोकर तुझको
क्या पाउंगी
मेरे सपनों के
रखवाले.

Thursday, February 10, 2011

भ्रमित (आशु रचना)

(इसमें कुछ अजीब से शब्द इस्तेमाल हुए हैं. 'छोडा' : जब खाती (बढई) अपने 'रंदे' से लकड़ी छिलता है तो जो परत उतरते हैं उन्हें राजस्थानी में छोडे कहा जाता है. 'जाटा काम जड़ीन्दा है' एक राजस्थानी कहावत है जिसका मतलब यह है कि जाट जब भी कुछ गांठ लगाता है वह पक्की होती है या और भी कोई काम करता है वह पक्का होता है चाहे उसमें सोफेस्टीकेशन और फिनिशिंग हो या ना हो. कमंद उर्दू में रस्सी को कहते हैं, फक्कड़ गीतों में तुक मिलाने के लिए शब्दों को ऐसे थोड़ा सा तोड़ा मरोड़ा जाता है इसलिए कमन्दा कहा है. ऐसे ही कहीं कहीं और शब्दों को भी फकीरी टच दिया है, यह वैराग्य की सूफी स्टाइल रचना है, लुत्फ उठायें.)

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भरमित
मत कहो
मुझ ने
यारां !
मैं सावण का
अंधा हूँ...
हरियो हरियो ही
दीठे मोहे
मैं कुदरत का
बन्दा हूँ...

कभी कहे
तू मोहे
अजणबी ,
कहे कभी मैं
चन्दा हूँ,
बुझने की
घड़ी
आई रे साधो !
बुझता दीया
इक मंदा हूँ..

छोल छोल
छोडे करि डारे
मैं खाती का
रंदा हूँ,
पीरतम से
यूँ दूर भया मैं
खुद पर ही
शर्मिन्दा हूँ..

अपणो
मालक
हूँ मैं लोगां,
अपणो ही
कारन्दा हूँ,
पिराण हर लियो
खुद ही खुद को
बो फांसी रा
फंदा हूँ....

टस से मस
ना होवूं मैं तो
जाटा काम
जड़ीन्दा हूँ,
हंसाब सांस रो
मत जोड़ बाणियां
देख ना
अब तक
ज़िंदा हूँ...

अरथी से मोहे
बांधा जिसने
खुद मैं ही वोह
कमन्दा हूँ,
काफण हूँ मैं
मैं काठ सुख्योड़ा
खुद मैं
अपणा
कंधा हूँ...