Saturday, December 25, 2010

दबंग ऑनलाइन...

# # #
चलते थे वे
घड़ी के काँटों के संग संग,
जब देखो मिल जाते थे
ऑनलाइन दबंग,
इनविजिबल और स्काइप का ना था
वो जमाना,
जो कहा जाता था वही होता था
सटीक पैमाना,
कहते थे
छोड़ कर खुला
कम्प्यूटर
चली गयी थी मैं
'किटी' पार्टी में,
या कर रही थी अटेंड
कॉल किसी ओवरसीज रिलेटिव का,
कैसे देखता और सुनता मैं
खनखनाहट
बर्तनों की
बहना नल का
पीटना पीटनी का
छौंका सब्जी का,
सास से झगडा
बच्चों की हुज्जत
या पियाजी से रगडा...
कहती थी वो
नहीं हूँ शादी शुदा
और
मान भी लिया था
हम ने,
चाहिए थी हमें भी
इक माशूका
आशकी के लिए...

करें यदि अन्तरावलोकन
कौन से थे हम भी
स्मार्ट यंग मेन
अर्ली थर्टीज के,
पहननेवाले
जींस लेवायिस की,
टी शर्ट 'लाकोस्टे' की
चश्मा रेबेन का,
सुननेवाले तेज़ गाने
कैलाश खेर के या के
फेन सोनू निगम के
नये रूप के,
मुंह में हमारे नहीं थे दांत
कमज़ोर थी हमारे पेट की आंत
चश्मा चढ़ा था मोटे शीशों का,
जवाब दे गए थे घुटने हमारे,
बस चला करती थी की बोर्ड पर
उंगलियाँ हमारी,
हुए थे बाकी सब अंग खारिज हमारे,
नज़रों में उनकी था
मैं भी एक अल्हड परवाना
अलमस्त एक प्रेमी दीवाना,
समझ कर शम्मा खुद को
जला करती थी यारों वो,
चूल्हे से जले पर मगर
बर्नोल लगाती थी वो,
मंज़ूर था हमारा भी
वर्चुअल रूप उनको,
चाहिए था एक सनम
आशकी के लिए उनको...

कच-कची
अंग्रेजी में करते थे
हम बातें,
फंतासियों में हो कर गुम
किया करते थे
मुलाकातें,
दोनों ही करते थे
पूरे,
सपने अपने अधूरे,
बिताया करते थे
वक़्त अपना
सांझ दोपहर सवेरे....

परिवार नियोजन का
लगा था एक केम्प
गांवों में,
बुलाये गए थे
मासटर मास्टरनी
बड़ पीपल की छांवों में,
मालूम हुआ कन्या विद्यालय से
आई है कोई,
लवंग लता,
जाना पहचाना था
कुछ उनका पता,
हम शर्माजी आये थे
अपने स्कूल से,
बिना बारिश लिए हुए थे साथ
अपना पुराना छाता,
देख कर इक दूजे को
दोनों ही शरमा गए,
शुक्रिया है अंतरजाल का
कुछ महीनों तो भरमा गए..

Tuesday, December 7, 2010

मायने मेरी नज्मों के ...

# # #
मालूम है मुझे,
दौड़ते दौड़ते
ज़माने की
बेमकसद
'मराथन' में,
झेलते निबाहते
रीत माशरे की,
जीते जीते
भाव अपनी असुरक्षा के,
सहते सहते
तकलीफें जिंदगानी की,
देखते समझते
पाखण्ड लोगों के
हो गई है
चेतनाहीन
त्वचा तुम्हारी...

इसी वज़ह से
निकल रहा है क्रंदन
मेरे दिल-ओ-जेहन से,
काट रहा हूँ च्यूंटियां
अपने बदन को,
करते हुए लहूलुहान
खुद के जिस्म को..

शायद मेरे बहते हुए
सुर्ख खून को देख कर
हो जाये
एहसास तुम्हे
मेरे दर्द का,
हो जाये
संप्रेषित तुम तक
स्पंदन मेरी संवेदना के
और
आ जाए तुम को
समझ में,
मायने मेरी नज्मों के...

(यहाँ त्वचा/बदन/जिस्म/वुजूद human-essence के लिए इस्तेमाल हुए हैं)

Sunday, December 5, 2010

यह 'प्रेम' क्या चिड़ियाँ है.....

# # #
कल एक कान्फ्रेंसे में शिरकत की जिसमें अधिकांश फाईनेंस, टैक्स और अकाउंट्स प्रोफेशन के लोग थे॥कुछ वक्ता इतने बोर थे इतने कि मानो किसी कागज़ पर लिखे हर्फ़ और नम्बर्स पढ़े जा रहे हैं, मैं चुप चाप बाहर आकर एक आरामदेह सोफे पर बैठ कर खो गया था..युवाओं का एक दल भी हॉल से बाहर आ गया था..बहुत बातें होने लगी..किसी ने पूछ लिया था यह 'प्रेम' क्या चिड़ियाँ है ? मासटर और बेला बैठा हो, भाषण होना ही था...जो कहा उसे शेयर करना चाह रहा हूँ.... और क्यों ना इस इंटरेस्टिंग सब्जेक्ट पर चर्चा की जाय।

यह 'प्रेम' क्या चिड़ियाँ है ?

# # #

दौर था बेताबियाँ का
हावी मेरे दिल पर होने का...
और होता था एहसास
हर लम्हे किसी के ना होने का..

एक तड़फ खार की तरहा
चुभा करती थी,
सोते सोते ही यह आँख
अचानक खुल जाया करती थी..

लगा करता था
सिमट आई है दुनिया
बस दो ही के बीच,
पराई स़ी लगती थी हर शै
बात बेबात आया करती थी
बेमतलब सी खीज..

मायने मोहब्बत के बस लगते थे
पाने की तमन्ना और खोने का डर,
हमें जन्नत से लगते थे
बस उनके ही दीवारों-दर...

कितने आये थे वाकये ऐसे
जिंदगानी में,
किये थे इश्क मैने
ना जाने कितने
मेरी ही नादानी में..

हर नया रिश्ता
अच्छा और सच्चा
लगता था,
और एक अरसे के बाद
फिर मेरी मोहब्बत का
नया अलाव जलता था...

प्रेम क्या है सीखा है मैं ने
मिट कर इन
आधे अधूरे रिश्तो में,
तब तक चुकाया था
ज़िन्दगी को मैने
छोटी बड़ी किश्तों में....

प्रेम है एक स्थिति
हो नहीं सकता कभी भी यह
किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित,
विस्तार है यह अस्तित्व का
दायरा है इसका अपरिमित..

बहती नदी की धारा सा
निरंतर है यह,
शुद्ध शुभ्र उज्जवल
समय से आगे
अनंतर है यह...

स्वयं स्फूर्त नैसर्गिक
आश्चर्य का समावेश है यह
अलौकिक स्पंदनों का
अदृश्य परिवेश है यह...

बड़ी शिद्दत से इसे
हर लम्हे जीया जाता है
यह वह जाम है जिसे
दीवानगी से पीया जाता है..

डूब कर इसमें
खुद को फिर से पाया जाता है
होता है हासिल होश और
भरपूर जीया जाता है...

Friday, November 26, 2010

बापू जिंदा हुए...

देश की बिगड़ी अवस्था को देखते हुए...एक के बाद एक घोटालों का खुलासा, गिरते हुए नैतिक मूल्य इत्यादि इत्यादि ....भारत के लोगों ने सोचा की एक सामूहिक प्रार्थना की जाय..कि महात्मा गाँधी की मूर्ति में भगवान् प्राण फूंक दे...बापू नेताओं को, बाबुओं को, साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों को संबोधित कर उन्हें motivate करे देश हित में काम करने के लिए...बापू से 'धीरजधर' ही अब मार्गदर्शन कर सकते हैं हम सब का...

देश भर में प्रार्थना सभाएं हुई..कश्मीर से कन्या कुमारी तक, कटक से अटक तक..सभी ना कहा, "हे प्रभो ! करदो दिल्ली में लगी बापू की मूर्ती को जीवित...मिल सकें हमें सद्प्रेरण एवं मार्ग दर्शन...बापू सब से पहले एड्रेस करें हमारे सांसदों, मंत्रियों एवं नईदिल्ली में बसे संतरियों को...और फिर पद यात्रा करे भारत की..जान जागरण के लिए."

प्रभु ने प्रार्थना सुनी, स्वीकारी और गाँधी की प्रस्तर प्रतिमा में प्राण फूंक दिए..
गांधीजी जिंदा हो गए..लगा की बापू अपने सद्वचनों से सबके सोये ज़मीर को जगायेंगे....मगर यह क्या गाँधी बाबा ने अपने लाठी उठाई और अपने सिर के ऊपर से जोरों से घुमाने लगे....कोवें-कबूतरों ने बापू जैसे धीरजधर को बहुत सताया था..बापू ने पहला काम यही किया था की उन से निपटा जाये.

Tuesday, November 23, 2010

कुटिल...

(क्रोसवर्ड बुक-शॉप में एक पुस्तक हाथ में आ गई, जिसमें विदुर जी की कुछ उक्तियाँ संकलित थी..अच्छी लगी...लिख लाया..आज वह स्लिप हाथ लग गई, थोड़े से शब्द देकर वह उक्ति आपसे शेयर कर रहा हूँ.)

# # #
जो हो
कुपित
अचानक,
दर्शाए
हर्ष
अकारण,
होता
स्वभाव
यह
कुटिल का,
मेघ सम
भटके जो
संग पवन के,
साम्य
होता है
यह
नर
जटिल का...

Saturday, November 13, 2010

मुल्ला और गन्दी भाषा

मुल्ला नसीरुद्दीन का कोई गुनाह नहीं था, मगर पोलिस ने राह चलते उन्हें पकड़ लिया, जैसा कि कभी कभी हो जाता है, शायद हवलदार से कोई अदावत रही हो. मुल्ला को अदालत में पेश किया गया. जज साहिब ने पूछा," मुल्ला बताओ हमें, जब तुम्हे हवलदार ने पकड़ा, उसने तुम्हे क्या क्या कहा ?"

मुल्ला बोला,"हुज़ूर मुआफ करें, क्या मैं वह गन्दी भाषा इस इजलास में बोल सकता हूँ, जो कि हवलदार ने मुझ से बोली थी. क्या आपको ख़राब नहीं लगेगा. हो सकता है इस से आपको सदमा लगे."

जज साहिब बोले, "भद्दे लफ़्ज़ों और गन्दी भाषा को छोड़ कर बताओ उस ने क्या कहा ?"

मुल्ला नसीरुद्दीन बहुत ही मासूमियत से और मायूसी से बोले, " हुज़ूर, तब यूँ समझिये हवलदार ने कुछ भी नहीं कहा."

करुणा...(आशु रचना)

# # #
विखंडन
परमाणु का
जानता
जो विज्ञानी
मानव,
करुणा नहीं
ह्रदय में
यदि,
बन जाता
वो ही
एक दानव...

Friday, November 12, 2010

समझ मुल्ला नसीरुद्दीन की......

# # #
मुल्ला नसीरुद्दीन एक गाँव के मदरसे में उस्ताद लगे हुए थे. गर्मी के दिन थे, पानी की प्यास और दिनों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही लगती थी और मुल्ला को तो बेहद, क्योंकि हमेशा कुछ ना कुछ उधेड़बुन में लगे रहते, आम खाने की बनिस्बत पेड़ गिनने में मशगूल रहते या अपने पूर्वाग्रहों और दिमागी उड़ानों का चश्मा लगा कर आसपास की घटनाओं को देखने में लगे रहते.

एक दिन एक शागिर्द से कहा, "ले जाओ यह सुराही और कुवें से पानी भर लाओ."

शागिर्द ने ज्यों ही सुराही उठाई और छलंगी क़दमों से आगे बढ़ने को हुआ, मुल्ला साहिब ने उसे अपने पास बुलाया, उसके कान खींचे और टपक से तमाचा जड़ दिया. शागिर्द अश्क बहाते हुए, जार जार रोता सुराही लिए चल दिया.

एक गाँव वाला यह सब होते देख रहा था. उसने मुल्ला से कहा,"इस बच्चे ने ना कोई खता की, ना ही कसूर किया, भाई यह तो हद्द हो गई, तुमने उसको चांटे भी मारे, कान भी खींचे और सुराही लेकर पानी लाने भी भेज दिया.क्या जान लोगे बच्चे की."

मुल्ला बोले,"मैं तुम से ज्यादा समझता हूँ उसको. तुम बीच में ना पडो. सुराही फोड़ लाये तो फिर मारने से क्या फायदा. पहिले ही उसके होंश ठिकाने लगा दिए. अब होश के साथ जायेगा कुंवे पर... सुराही को संभाल कर...और सुराही की हिफाज़त में भी कोताही नहीं करेगा क्योंकि मैने उसके कान खींच दिए हैं. जब सुराही फोड़ लाये तो मारने में क्या माकूल बात, फिर तो फ़िज़ूल है सब कुछ."

मुल्ला के अकाट्य तर्क के सम्मुख कोई क्या कह सकता था.

Monday, November 8, 2010

तेरा भी तो यही हाल है....

# # #
एक सेठ साहब की धर्मपत्नी का असामयिक निधन हो गया। कुछ सालों तक तो सेठ साहबअकेले रहे. अधेड़ावस्था , कोई लड़की मिले नहीं जो अध-बूढ़े का हाथ थामे. आखिर एक रिश्ता आया, और हमारे सेठ साहिब परिणय-सूत्र में बंध गए. नयी नवेली सुंदरी द्वितीय पत्नी, बूढ़े सेठ को कुछ समय बाद मन-माने नाच नचाने लगी. सेठ उसकी हर फरमाईश पूरा करने लगा, मगर उसको आंतरिक ख़ुशी नहीं दे पाता. सेठानी परिस्थितिजन्य 'ब्रोड -माइंडेड ' हो गई. बदलते साथी कार्यक्रम चलने लगा.सेठ दिन भर काम धंधे में व्यस्त रहता, फिर उम्र का तकाजा भी था. ‘इल्लिटरेट किन्तु श्रीयूड़’ सेठानी का ‘न्यूली फाउंड लिबरेशन ’ अपने जलवे दिखाने लगा. मन की जवान सेठानी, ‘बोल्ड अंड ब्यूटीफुल ’ थी, मगर दिमाग के लिए कहा जा सकता था 'ऊपर का माला' खाली था. उसके मस्तिष्क में ‘शून्यता’ थी.

एक मनचले ठग ने 'ऑपोरच्यूनिटी ' को 'एक्सप्लोर ' करना चाहा. चिकनी चुपड़ी बातों, शेर -ओ-शायरी, तोहफों,शारीरिक सौष्ठव और सौंदर्य इत्यादि से उसे रिझाने लगा.
वर्जित फल (फॉरबिडेन फ्रूट ) का स्वाद जो एक बार चख लेता है, बज वक़्त उसका आदी हो जाता है. सपने भी रंगीन होने लगते हैं. कुछ कुछ ऐसा ही हाल हमारी नायिका का हो गया था. नौजवान ठग का जादू सर पर चढ़ कर बोलने लगा था. अब सेठानी साहिबा को उसकी हर बात मनभावन और सही लगने लगी थी. ठग ने मौका देख कर एक प्रस्ताव रखा, “क्यों ना कीमती माल समेट, उस शहर से रफूचक्कर हुआ जाये....और यहाँ से कहीं दूर जहां तुम हो और मैं हूँ, कोई आशियाना बनाया जाये....चाँद -सितारों की छांव में खुल कर दिल की हसरतों को अंजाम दिया जाये...प्यार को बढाया जाये....और उसे परवान चढ़ाया जाये."

ठग फिर बोला, " जानम !दिन में तो कुछ पल खुद के लिए चुराते हैं, मगर डर डर के मिलना होता है.....रातें वीरान होती है....अब नहीं रहा जाता.....नहीं सहा जाता." कह कर मोहर्रमी सूरत बना आँखों में प्यार का दरिया लहरा कर, प्रेमी प्रेमिका के नयनों में झांकने लगा. लगा कहने, “जीवन में क्वालिटी ही नहीं क्वांटिटी भी तो चाहिए.”

बेवक़ूफ़ सेठानी को ठग की बातें बहुत ही मनभावन और दिल को छूनेवाली लगी.वह भी कहने लगी, “सच कहते हो तुम जानू, अब जुदाई सही नहीं जाती. बूढ़े सेठ को देखते ही वितृष्णा होती है. कहाँ तुम और कहाँ वह. दिन भर दूकान में गुड़, तेल और मिर्च के सौदों में उलझे रहना, बस रुपैया रुपैया ही सोचते रहना और रात में बही खातों का हिसाब लेकर बैठ जाना. यह कोई लाइफ है…कोई फिज्ज़ नहीं….आउटिंग तो तौबा तौबा, ज्यादा से ज्यादा शनि-मंगल को मंदिर चले जाना….आखिर मेरे भी कोई अरमान है…अब देरी ना करो…..कल सेठ मंडी जा रहा है तीन-चार दिन के लिए.
अच्छा मौका है. कल रात ढलने पर चले आना, मैं सब कीमती समान-जेवर बाँध कर तैयार मिलूंगी….फिर हम अपने सुहाने सफ़र के लिए निकल पड़ेंगे.”

ठग बहुत प्रसन्न हुआ. प्रसन्नता के इन क्षणों को दोनों ने ‘टू देयर बेस्ट’ सेलिब्रेट किया और ठग आगे की परिकल्पना दिमाग में लिए अपनी जगह को चल दिया. सेठानी ने सपने बुनने आरम्भ कर दिए, तरह तरह की ‘प्लानिंग ’ करने लगी. दुसरे दिन सेठ मंडी चला गया. दिन भर में सेठानी ने ‘पैकिंग ’ कर डाली और रात ढले अपने महबूब के साथ अनजानी मंजिल को चल पड़ी.

उस समय टैक्सी बस का चलन तो था नहीं, घोडा गाड़ी बैल गाड़ी को लेजाना खतरे का काम था. इसलिए दोनों ने पद यात्रा का ही सहारा लिया. भारी सामान ठग ने अपने हाथों में ले लिया था, और नाम मात्र का समान उसने अपनी जानू को उठाने दिया था. 'रियली ही वाज सो केयरिंग' .
सेठानी बहुत ही मुदित हो रही थी. चलते चलते भोर का उजास हुआ, वे काफी दूर निकल आये थे और नदी किनारे खड़े थे. बस उस पार जाना था. नदी कोई खास गहरी नहीं थी, बस पैदल ही कमर तक डूब कर पार किया जा सकता था. ठग बोला, “जानू ! नदी का बहाव तेज है, तुम, मैं और असबाब सभी को ‘सेफली ’ उस पार जाना है….ऐसा करतें हैं पहले मैं सामान को उस पार ले जाता हूँ अपने सिर पर रख कर. सामान को वहां किसी जगह सुरक्षित छुपा कर, मैं लौट आऊंगा और फिर तुमको भी अपने मज़बूत कन्धों पर बिठा कर उस पर ले जाऊंगा. तुम को जरा सा भी कष्ट देना मुझे नागवार गुजरता है….आखिर तुम मेरी जान हो.” ठग की बाते ‘अप्परेंटली’ ‘लोजिकल ’ थी और जब ऐसे प्यार का भूत सर पर सवार होता है तो हर बात कुछ ऐसी ही लगती है. सेठानी भाव विभोर हो गई. सारा सामान नौजवान को सौंप दिया.यहाँ तक की भीग जाने के डर से अपने बदन पर पहने कीमती पैरहन तक को भी. बहुत ही ‘वार्म फेयरवेल ’ के आयोजन के बाद, प्रेमी सब कुछ लेकर उस पार चला गया, कभी नहीं लौटने के लिए.

इधर हमारी नायिका, प्रकृति की गोद में बहुत ही रोमांटिक हो प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही थी. प्रातः की सुखद मीठी ठंडी हवा उसकी देह को छूकर उसको और स्वपनिल बना रही थी. कल्पना में तरहा तरहा की बातें ला कर उसका मन मयूर नाच रहा था.. लम्बा समय भी, खुशनुमा खयालों में खोयी सेठानी को महसूस नहीं हुआ था।
इतने में वहां एक गीदडी गयी. उसके मुंह में एक मांस का टुकड़ा था. तभी उसको नदी के किनारे एक मछली दिखाई दी. गीदडी मांस का टुकड़ा वहीँ छोड़ मछली को पकड़ने के लिए नदी की तरफ दौड़ गई. इसी बीच एक गिद्ध आसमान से नीचे आया और मांस का टुकड़ा अपनी चौंच में उठा कर उड़ गया. इधर मछली भी गीदडी को देख कर नदी में दूर जाकर उसकी पहुच से परे हो गई. गीदडी दोनों तरफ से खाली हो गई. मांस का टुकड़ा भी गिद्ध राज को भेंट हुआ और मछली भी जल में औझल हो गई. निर्वसन सेठानी सारा नज़ारा देख रही थी….उसका मन तो कल्पना में खोकर सातवें आसमान पर था......मूड भी लाइट था. सेठानी ठहाका मार कर हँसने लगी और लगी कहने, “मूर्ख गीदडी , तेरे हाथ से मछली भी गई और मांस भी, अब क्या सूनी आँखों से नील-आकाश को ताक रही है ?”

गीदड़ी ने भी प्रत्युतर देने में देर नहीं लगायी, 'फ्रस्ट्रेटेड' जो थी. गीदड़ी ने कहा, “तुम भी तो मेरी तरह हो, तुम्हारे पास भी ना तुम्हारा धन रहा, ना ही प्रेमी और ना ही पति. तेरा भी तो यही हाल है..”

आगे क्या हुआ होगा, उसका उल्लेख यहाँ करना उचित नहीं होगा.


Friday, November 5, 2010

प्रेक्टिकल...

# # #
जनतंत्र में
हेतु संचालन
देश के,
चुना है
जनता ने,
राजनीति बाजों को,
बना कर
नेता और मंत्री..
और
करने सहयोग
उनका
उपलब्ध है
एक अमला
बाबू या हो संत्री...

करने रक्षा
सीमाओं की
रख रखी है
जमीन
आसमां
समंदर की
विशाल फौजें,
मरते हैं
जवान
बोर्डर पर
अफसर मनाते
मौजें...

आजाद भारत का
कानून
जिस में
बहुत छेद हैं,
एक ही बात के
ना जाने कितने
भेद है,
निकल सकती है
जिससे
पूरी संख्या
यहाँ के
नागरिकों की,
पड़ोस से आये
आतंकियों की,
विदेश से आये
ड्रग माफियों की....

दीपावली का दिन,
सब चाहते हैं
रहना
प्रसन्न और
प्रमुदित
ओढ़ के चाहे
आवरण,
शांति और
सौहार्द का
बनाये
रखते हैं
वातावरण...

निकला है एक
प्रोफेस्सर
लेकर गाड़ी अपनी
करने दर्शन
देवी के,
रोकता है
एक पुलसिया
हाथ अपना
उठा के,
एक छोटा केस है
सिग्नल वायोलेशन का,
देना होगा
छोटा सा जुरमाना
दीवाली कान्ग्रेचुलेशन का,
दीजिये बिन रसीद फाईन
या दीजिये लाईसेंस अपना,
जाईये कोर्ट में
और कहिये वहाँ
जो भी है कहना...

कहता है
अध्यापक
ज्ञाता
शास्त्रों,
मनोविज्ञान,
कानून का,
यहाँ कोई भी तो
नहीं सिग्नल
फिर फाईन
किस जूनून का,
रसीद क्यों नहीं देते
स्पष्ट जरा कीजिये
हँसता है पुलसिया
ज्ञान मत दीजिये,
साहेब और भी धाराएँ
सकती है केस में लग,
कोर्ट दौड़ने में
घिस जायेंगे
आपके ये नाज़ुक पग..

दिन है दीवाली का
खुशिया मनाईये,
हमारे भी बाल-बच्चें है
बख्शीस समझ
दे जाईये,
अरे कहाँ गई
गर्मी आपकी
जब चाट लिया था
नेताओं ने
सब कुछ
कोमंवेल्थ खेलों की
तैय्यारी में,
कहाँ गया था
ज्ञान संज्ञान आपका,
मुंबई जमीन की
दूकानदारी में,
जिसकी लाठी है
भैंस उसीकी है सर,
इल्म किताबी आपका
होता है बस बेअसर,
आम आदमी से
जुदा खुद को ना बताईये,
बंद कर रोना झींकना
काम अपने पे जाईये...

त्यौहार के दिन
ना करिए मूड ऑफ़
खुद का भी और मेरा,
मनेगी दीवाली लोकप में
होगा वहीँ तुम्हारा सवेरा...

प्राध्यापक
सोच रहा था
फ़ोन कमिश्नर को
लगाऊं,
इस पुलसिये को
बदसलूकी के
खातिर
डांट तनिक लगवाऊं..

कमिश्नर की तरह
फ़ोन भी उनका
व्यस्त था,
सरकारी गुंडों का
कप्तान बना
वह भद्र पुरुष भी
शायद
त्रस्त था...

मासटर से ज्यादा
समझदार था
चालक उनका,
देकर बख्शीस
छुड़ाया था
दामन उनका
और
खुद का...

उवाच ड्राईवर का था,
क्यों खुद को
किसी के एहसान
तले दबाएँ,
बन कर
साधारण शहरी
साहेब त्यौहार मनाएं,
आज के दिन
मालिक
खुशियों के
दीप जलाएं,
ईमानदारी है
किताबों में,
आज तो
क्यों ना सरजी
प्रेक्टिकल में
चले आयें...

देखा है मैने
बेहया,बेईमान
ऐय्यास चेले आपके
पांव छूने आते हैं,
खुश कर के
आपसे भोले शंकर को
ढेरों आशीर्वाद
ले जाते हैं...

भरे हैं आप से
सच्चे इन्सान कई,
हिन्दोस्ताँ के
हर कोने में,
कागज काले करते हैं
महज़ फितूर अपना
धोने में ....
पढ़कर लिखा
आपका
सब विभोर हो जाते हैं,
झाड़ के पल्ला अपना
फिर से
चोर हो जाते हैं...

सड़ गई है व्यवस्था,
आप भी इसे चरमरायिये,
आदर्श की बातें छोड़
गिरती दीवारों को
एक धक्का
और लगाईये....

आओं मनाएं आध्यात्म का दीपोत्सव...

महक,
तुम ने चाहा है ना कि मैं इस सन्दर्भ में हुई तुम से चर्चा को शब्द दूँ...प्रयास किया है....यद्यपि तुम सा नहीं लिख पाया...क्योंकि अभी भी मन बहुत से झंझावातों और विकारों से भरा है....मुझे लिखने में आनन्द आया...विषयवस्तु ही ऐसी है, और चाहता था कि तुम इस पर मस्सकत ना करो, लिखने में समय ना लगाओ. बताना कैसा लगा...उचित हो तो बाद में सुधार कर लेना.

अभिव्यक्ति पर पोस्ट कर दिया है.

सस्नेह !
*********************************
आओं मनाएं आध्यात्म का दीपोत्सव...
# # #
(१)
हुआ था
प्राप्त
आज के दिन
गणधर गौतम को
केवल ज्ञान,
हुआ था
आज ही
महावीर का
निर्वाण,
महोत्सव है आज
मुक्ति का,
गौतम हुए थे
मुक्त
"मैं" भाव से,
महावीर हुए थे
मुक्त
जीवैष्णा से,
आओ मनाएं
जला कर दीप
उत्सव आज
ज्ञान का
आलोक का
मुक्ति का....
(२)

सन्देश था
वीर का
गौतम को-
हम सब को,
छोड़ दो
सब आश्रय
होतें है जो
अन्यों से,
कर लो
अकेला
स्वयं को
वही है स्वंत्रता..
तभी है
विसर्जन
सब ग्रंथियों का...

(३)
स्वतंत्र है
जीव प्रत्येक,
है स्वामी वह
स्वयं
जन्म का
मरण का,
है वह
विधाता
स्वयं का,
नियन्ता निज का..
करता है
बंधन कर्मों के
स्वयं,
भोगता है
फल उनके
स्वयं,
सुख और
दुःख
होते नहीं
घटित
किसी अन्य के
कारण से,
कोई नहीं
बना सकता
दास किसीको,
हम बनते हैं
दास
खो कर
पहचान स्वयं की,
रहना
अनुकूल
या प्रतिकूल
होता है
निर्णय हमारा,
देते हैं हम
जन्म स्वयं को
और
दिए जाते हैं इसे
निरंतर
लिए बोझ
कर्मों का,
करके प्रमाद
नहीं करते
हैं क्षय
इन कर्मों का,
करते रहते हैं
अकृत्य
मनसा
वायसा
कायसा,
उपरांत
तैर जाने के भी
सम्पूर्ण
भवसागर,
अटक जाते हैं
तट पर
बंध कर
बंधनों से,
चाहते रहते हैं
हम
पहचान अपनी
भीड़ में,
भयभीत हैं
हम
अकेलेपन को
स्वीकारने में,
ऐसे में :
कैसे हों
ज्ञान मय हम ?
कैसे हों
पूर्णत: निर्मल निर्दोष..?
कैसे टूटे
बंधन हमारे ?
कैसे हो
विसर्जन
हमारी समस्त
ग्रंथियों का ....?
करें मनन
इस सन्देश पर :
जिनवाणी का है
संविधान
अपने से
अपना कल्याण !

मेरी पसंद का एक संकल्प...
# # #

एक जैन प्रार्थना है(मेरी रची नहीं है) ...जो इसी के क्रम में है :

ॐ अर्हम
सुगुरु शरणम
विघ्न हरणम
मिटे मरणं...

सहज हो मन
जगे चेतन
करें दर्शन
स्वयं के हम...

बने अर्हम
बने अर्हम
बने अर्हम...

(अर्हम बनने का अर्थ है शुद्ध स्वयमत्व को जागृत कर..भग्वत्व की स्थिति में हो जाना, अध्यात्म कि उंचाईयों पर पहुँच जाना, मौक्ष के लक्ष्य को पा लेना)

Sunday, October 24, 2010

अलविदा

# # #
भोर के स्वप्न में
कर रहा था मैं
अलविदा
अँधेरे को
गाते हुए
राग प्रभाती,
हो रहा था
उत्सुक
करने स्वागत
नयी प्रातः का
आरम्भ जिसका
होगा
सूरज के दिए
सात रंगों से
ओंस की मासूम
बूंदों में...

कलरव
पक्षियों का
सुनाएगा
दिव्य संगीत,
फिजाओं में बसी
महक कुदरत की
कराएगी आभास
मेरे होने का.....

नयी उर्जा
देगी हौसले
कुछ कर गुजरने के,
मंदिर में हो रही
आरती के सुर
ले जायेंगे
सन्निकट
प्रभु के......

मधुरिम स्मृतियाँ
निशा की
देंगी एहसास
इंसान होने का,
हुआ है घटित जो
अचेतन
और
अवचेतन में,
समेट कर उसको
चल पडूंगा राह
चेतन होने की
लिए साथ
तिमिर की
शांति का .....

प्रकाश के शौर्य में
हो कर शुमार
बढ़ चलूँगा
गंतव्य को
जो लुप्त था
अब तक
अन्तरंग में,
कहकर तुम को
अलविदा
लौट आऊंगा
अपने घर को
ताकि जा सको
तुम भी
घर अपने...

हाँ होगा मिलन
जिस परमात्मा से
वह वही है,
तुम में भी...
मुझ में भी;
यह अलविदा !
ध्वनि नहीं
कोई बिछोह की,
आवाहन है
अंतर्यात्रा का
बन जाती है
जो अनायास ही
सहयात्रा....

Thursday, October 7, 2010

स्वछन्द...(आशु रचना)

# # #

कैसा विषम
यह द्वन्द है
है नितान्त
पराधीन
किन्तु
कहता
निज को
स्वछन्द है...

बिना प्रजा
नरेश नहीं
अनुयायी बिन
धर्मेश नहीं
नेता रहित
जनतंत्र नहीं
नियम उपनियम बिना
स्वतंत्र नहीं,
जुहू के 'बीच' पर
स्वामी घुमाये
स्वान को
या
कुत्ता दौडाए
मालिक को
प्रश्न इस
अजीब का
कोई समुचित
उत्तर नहीं,
दर्पण में
बिम्ब दिखता,
मगर कोई
चित्र नहीं...

आज़ाद हर शै को
घेरे हुए
कुछ दृश्य
अदृश्य
बंध है,
कैसा विषम
यह द्वन्द है,
है नितान्त
पराधीन
किन्तु कहता
निज को
स्वछन्द है...

कच्चा चिठ्ठा 'आदर्श शिक्षक' का...

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

'आदर्श शिक्षक' का राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिला था, अवसर मिला था उनको देखने जानने का...

वे कहा करते थे :

शिक्षक का दर्ज़ा
होता है
माता समान,
करता है वह
छात्रों में
आदर्शों का
बीजारोपण
सुसंस्कारों का
प्रतिरोपण
एवम
व्यक्तित्व का
परिमार्जन...
देता है वह सन्देश :
"निज पर शासन फिर अनुशासन।"
करता है प्रेरित वह
युवा पीढ़ी को
बनने अच्छे मानव
और
नागरिक
करके प्रस्तुत
स्वयं के उदाहरण....
होता है
समर्पित वह
करने निर्माण
कल के भारत का,
सीखा कर अंतर
अपने छात्रों को
संकीर्ण वैयक्तिक स्वार्थ और
सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय
परमारथ का...
होता है
प्रतीक वह
आंतरिक एवम बाह्य
स्वच्छता का,
एक प्रकाश स्तम्भ
वैचारिक उच्चता का....

देखा गया था :

गुरूजी रोज़ शाम
मौज मनाते थे
व्हिस्की में कभी भी
सोडा ना मिलाते थे,
महिला सह-अध्यापिकाओं संग
रंगरेलिया मनाते थे,
शिक्षा निदेशक को
करने प्रसन्न हेतु
अपने प्रेम संबंधों को
भुनाते थे,
विद्यालय के संसाधनों के
निजी प्रयोग हेतु
ना हिचकिचाते थे,
गाहे बगाहे छात्रों से
'यह' 'वह' सब मंगाते थे,
छात्रों को दिल खोल कर
अंक वे लुटाते थे,
अन्कार्थिनों को बेझिझक
स्व-अंक में बैठाते थे,
कक्षा में तो
मात्र समय-चक्र घुमाते थे,
ट्यूशन के लिए
सटीक वे
पृष्ठभूमि बनाते थे,
कसबे की राजनीति में
शतरंज अपनी बिछाते थे,
वक़्त बेवक्त
किसी प्यादे से वे
वजीर को मरवाते थे,
पांडव वंशज थे शायद
द्युत क्रीड़ा में अपना
तन-मन-धन लगाते थे,
'कजिन' दुशासन की तरहा
यदा कदा
चीर हरण कर जाते थे,
परचा आउट करके
किया करते थे वे
असीम धनार्जन,
अनुत्तीर्ण को कराके उत्तीर्ण
करते थे
महान सृजन,
गुरु दक्षिणा में
अंगूठे को छोड़
सब कुछ
लिया करते थे,
जाति संप्रदाय
अगड़े पिछड़े का
भेद भूल
मिलता सो
गृहण किया करते थे,
ऐसे महान उस्तादजी
हरफन मौला
हर चालाकी में
माहिर थे,
कैसे पा सके
ख़िताब-ओ-इनाम वे
वजहात सारे
जग जाहिर थे...

मेरे एक पगले से साथी 'राही' मासटर ने कहा था एक दिन :

समाज के
मेम्बरान को
किया गया था
स्क्रीन
बदले जमाने की
फेक्ट्री में,
जो नकारा थे
और टेढ़े मेढ़े थे
अन्दर में,
भरती हुए थे
ज़्यादातर
पुलिस में
या
लग गए थे
मास्टरी में...


(लिखने वाला खुद एक अध्यापक है..अतिशयोक्ति के साथ इस अभिव्यक्ति का उदेश्य मनोरंजन के साथ एक सन्देश भी देना है अपने भटके हुए साथियों को....किसी को दुःख पहुँचाने का लेश मात्र भी इरादा नहीं है...किसी को भी बुरा लगे तो ऐसे लोगों को येन केन प्रकारेण बदलने की चेष्टा करना...मुझे ना कोसना...मैने तो ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया...

मेरा स्नेह और सम्मान उन शिक्षक शिक्षिकाओं के लिए... जो बहुत थोड़ी तादाद में पाए जाते हैं..अपने फ़र्ज़ को अपना ईमान मानते हैं....उसे पालन करते हैं..... जिन पर मुझे, समाज और देश को गर्व है।)

Tuesday, October 5, 2010

धर्म का विकास हो, अधर्म का नाश हो....

रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं। Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

# # #

बहुत बड़े धर्माचार्य थे वे, एक महान संत परंपरा की श्रृंखला की कड़ी...वेद, वेदांत,उपनिषद् के ज्ञाता......सुना था उनसे :

विराजित है परमात्मा
आत्माओं में हमारी
उसका ही रूप है
सृष्टि यह सारी...
मानव मानव में कोई भेद नहीं
प्राणियों की मैत्री में
है कोई विभेद नहीं
कण कण में बसा है
सर्वव्यापी
उसके बिना कोई रक्त...कोई स्वेद नहीं...
अधर्म का नाश हो
धर्म का विकास हो
लौ लगे हम सब की प्रभु से
मुखमंडल पर सब के मृदु हास हो..
अपने पराये की बातें है संकीर्णता
स्वार्थपरता है मन की जीर्णता
प्रेम है साक्षात् ईश्वर
इर्ष्या द्वेष है हमारी क्षीणता...
तन मन की स्वच्छता
सहयोग की तत्परता
सादा जीवन उच्च विचार
मानव जीवन का श्रृंगार...
कृष्ण सुदामा की प्रगाढ़ मैत्री
राम का मर्यादा अनुपालन
सीता माता का सतीत्व
योगेश्वर कृष्ण का लचीलापन...
कर्मफल का अनूठा दर्शन
पुनर्जन्म का प्रतिपादन
प्रारब्ध की प्रबलता
समक्ष उसके मानव की निर्बलता..
मोक्ष का मार्ग दिखाते थे महा संत
कैसे ना सताए हमें ये दुःख अनन्त
नश्वर है संसार की हर वस्तु
भ्रमित मोहित है हम सब किन्तु....
जल में कमल सम रहना सिखाते थे
जीवन के हर सत्य को सटीक वे बताते थे
अल्प भाषी थे
प्रकट में अल्प ही आहार वो खाते थे.....
गेरुआं वस्त्र में गुरुदेव चमचमाते थे
आलोकमय ललाट पर तिलक वे लगाते थे
जब जब वे सभा में आसन जमाते थे
लाखों नर नारी दर्शन उनके पाने चले आते थे...

देखा गया था :

भरी सभा में अछूतों से बचने का
उपक्रम वे निभाते थे
कीड़ों से भी बदतर
धनी मनुज पुत्रों को को
अग्रिम पंक्ति में वे बैठाते थे,
नारी को पूज्य कहते हुए भी
मूल पाप का कह जाते थे
कनखियों से पतों और जड़ों को
निहारते वे रह जाते थे ....
दूसरों के श्रद्धा और विश्वास का
मखौल वो उड़ाते थे
उतेजना भरे वक्तव्यों से लोगों को
आपस में वे लड़ाते थे...
उपदेश उनके होते थे
बस औरों के लिए
अपने लिए अलग ही सिक्के
वे ढलाते थे...
अपने भाई भतीजों भांजों को
इशारों से लाभ पहुंचाते थे
काम पटाने के एवज़ में
अपने न्यासों के नाम चेक वे मंगाते थे....
छपास( समाचारपत्र) दिखास (दूरदर्शन) की लालसा में
ना जाने कितने पतंग वे उड़ाते थे...
हीलर बन दूजों को सेहत देने वाले
हर वैद्य डाक्टर को खुद को दिखाते थे
जुखाम बुखार से घबराने वाले
लड़ना मौत से सिखाते थे ....
वेद शास्त्रों के गहरे निर्वचन
अन्धविश्वास में बदल जाते थे
नज़रों में उनके क्रोध लख
भक्तों के दिल दहल जाते थे......
बंद कमरों में दौरान गुप्त मंत्रणा के
अपनी परंपरा को वे भूल जाते थे
हर भौतिक सुख सुविधा का पाकर उपहार
ख़ुशी और घमंड से वे फूल जाते थे.......
करके दमन सहज भावों का
कुंठित वे हो जाते थे
घुमा फिरा कर बातों में
वर्जनाओं का जिक्र ले आते थे....
' कथनी करनी एक हो' के उदघोषक
थूक अपना निगल जाते थे,
झूठी प्रसंशा सुन कर अपनी
मोम से वे पिघल जाते थे....

याद आता है कहा किसी का :

घास पात जे खात है
उन्हें सताए काम,
जे हलुवा पूरी खात है
उनकी जाने राम........

(काम से यहाँ अर्थ कामनाओं से है जिसमें कुंठित सेक्स भी शुमार है)

Monday, October 4, 2010

अदीब की मोहब्बत

# # #
(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

वो एक चिन्तक एवं साहित्य सृजक थे....अपने 'टार्गेट' को कहा करते थे :

प्यासी रही रूह मेरी
मोहब्बत का
आब ना मिला
खुली रही आँखें मेरी
वस्ल का
ख्वाब ना मिला..
सूखी सूखी स़ी रही
जिंदगानी मेरी
मुझ बदकिस्मत को
तुझ स़ी देवी के प्यार का
शैलाब ना मिला
रहे तरसते ताउम्र
ऐ आरजू मेरी
हमें अपनी चाहत का
माकूल एक हिसाब ना मिला...
पड़ते ही कदम तेरे
आने लगी बहारें
इस उजड़े चमन में
अब तक कभी जिसको
सुकूं का हसीं एक
महताब ना मिला..
मैं तो चाहता हूँ
बस रूह को तुम्हारी
जिस्म की बातें है जानम
मुझ पे बेमानी
खुश रहे तू संग
अपने पिया के
रास आई बस मुझको
तेरी मोहब्बत रूहानी...
तुझ सा ना देखा मैने
कायनात में.. सच जानो
जनमों का रिश्ता है अपना
प्रिये बस तुम ही जानो....
यूँही बरसाती रहो अमृत
सहरा से मेरे जीवन में
देखा करूं मैं अक्स अपना
तेरे दिल के उजले दर्पण में ...
'प्लेटोनिक' है इश्क मेरा
ऐ महबूबा अनूठी
कैसी ज़माने की रस्मे
करेगी क्या 'बंधन' की अंगूठी...
करूँगा मैं पूजा तेरी
बना मूरत मन मंदिर की
आत्मा का हूँ पुजारी
नहीं तरस मुझे शरीर की..
मेरी कविताओं के
भीगे भीगे से भाव तुम हो
मेरी सोचों का सुमधुर
बहता हुआ सा
शीतल श्राव तुम हो....
परे है संसारिकता से
सम्बन्ध प्रिये हमारा
पवित्र बस पवित्र है
अनाम अनुबंध हमारा...
था इंतज़ार मुझको
तुझ सा हसीं कोई मेरी
ज़िन्दगी में आये
खुशियाँ बस खुशियाँ
बस हरसू भर जाए...

देखा गया था :

बातें ऐसी कहना
आदत थी उनकी
दोगली हरक़तें
शहादत थी उनकी...
गदराये जोबन को देखती थी
ललचाई आँखे उनकी
हसीनों को देख कर
खिल जाती थी बांछे उनकी...
बदसूरत शक्ल को
ओढाया करते थे
चद्दर नज्मों की
थोथे कहकहे उनके
बनते थे रौनक बज्मों की...
रूह तक जाने की बातें
होती थी
जिस्म पाने का बहाना
हर पखवाड़े शुरू होता था
उनका नया एक फ़साना....
अलफ़ाज़ के जाल में
वो चिड़ियाँ को फँसाते थे
बातों की लफ्फाजी से
उसको रुलाते और हंसाते थे....
व्हिस्की रम वोदका
उनकी मस्ती को बढ़ाते
कोकीन सूंघते या
थे भंग वो चढाते...
नशा ऐय्याशी का और
नाम था अदब का
बहुरूपिये उस अदीब का
ढीठपन था गज़ब का...
ना जाने कितनों को छेड़ा
कितनों की चप्पल खायी
सब होने के बावजूद
उनको अक्ल ना आयी...
मीठी बातें करके
लड़की बहलाते थे
कलम के वे मजनूं
आशिक पैदायशी कहलाते थे...
झूठ बस झूठ का
लेते थे वो सहारा
दूजों का आगे बढ़ना
ना था उन्हें गवारा...
किताबी बातें मानों
चेहरे का उनके मुल्लम्मा थी
उनकी नज़रों में जवानी की
बस जलती हुई शम्मा थी..
जलसों में शिरकत करते
खिताब भी बटोरते
टुच्चे थे जनाब इतने कि
किसी को ना छोड़ा करते...
पाखंडी शायर की
बातें थी निराली
मुंह में था कलमा
हाथ में 'देशी' की प्याली...
बाहर से कुछ थे जनाब
बातें अन्दर की थी दूजी
हमाम के वे भोंडे नंगे
नहाते थे माडर्न जाकूजी....

मैने सोचा और कहा था :

बच के रहना यारों
इन जलील दोजख के कीड़ों से
अंतर बनाये रखना
मत खो जाना इनकी भीड़ों में....

Sunday, October 3, 2010

गृहस्थी : पहिये रथ के..

रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी......आज जो रचना है एक औसत मध्यम वर्गीय युगल को obeserve किया उस पर आधारित है....कोशिश करूँगा upper/upper-middleclass लोगों के दृश्यों पर भी कलम चलाने की.....कोई भी 'Observation' ultimate नहीं होता...case to case differ करता है.)
________________________________________
________________

ग्रेजुएट भाभी करती थी साब को :

बीवी महज़
बीवी ही नहीं
हुआ करती है
संगीनी जीवन की,
जीनेवाली मिल कर
दुःख-सुख में,
साथ देनेवाली
मुआफिक
एक दोस्त के,
मानने वाली
'अपना'
खाविंद के परिवार को,
जैसी आमदनी
करनेवाली ख़ुशी ख़ुशी
इन्तेजाम गृहस्थी का
उसी में,
देनेवाली
सुन्दर संस्कार
बच्चों को,
दिखाने वाली
सही राह
परिवार को,
संभालनेवाली
कुनबे को
वक़्त
के धक्कों से ,
कर देनेवाली
सकारात्मक
स्पंदन घर के
अपने मधुर स्वभाव
और
उन्नत संस्कारों से,
साझीदार
जिन्दगी की
ना कि
एक निर्भर प्राणी……

देखा गया था :

अक्सर कहा करती थी:
मैं बीवी हूँ
कोई गुलाम नहीं,
जो संभालूं चूल्हा चौका
दिन भर
तुम लोगों के लिए
करके मुहाल
जिंदगानी अपनी,

जब इतना ही देते हो तो
क्या मैं ……..? (खोल दूँ टकसाल अपनी)
होता क्या है
इन्ने पैसों से
आज के दौर में.
पडोसी के यहाँ आया है
‘एल ई डी' टीवी......और
हम लोग देखते हैं
‘बालिका वधु’
इसी डिब्बे पर,
होने को मन गई
सिल्वर जुबिली शादी की,
मगर कहा जाता है अभी भी:
मेरे नेहर में तो होता है ऐसा
ना जाने तुम्हारे यहाँ
गंवारू पन है कैसा ?
कहती है
देखो ना पड़ोस के जेठालाल को
तनख्वाह के अलावा
उपरी भी खूब बनाता है
तभी तो परिवार को इतना
सुखी रख पाता है
और एक तुम हो….?
जब से तुम्हारे पीछे आई
ना ताता (गरम) खाया
ना ही पहना राता (रंगीन /लाल)
क्या दिया है मुझको तुम ने ?
बस जिन्दगी एक नौकरानी की,
या समझा मुझे मशीन एक
बच्चे जनने की,
तुम थक कर आये हो ना
काम से
तो मैं क्या यहाँ बैठी थी
निठल्ली,
चाहिए ना तुझ को
मुस्कान एक शाम को,
क्यों नहीं चले जाते
पास उस मुई ‘मंजुला’ के
जो पढ़ा करती थी
साथ तुम्हारे
जैसा बाप वैसी ही औलाद
बड़का तो बुद्धू है
'आप' की तरहा
और
बेटी काटती है
कान सब के
'बाप' की तरहा,
जब देखो
मांगें तरहा तरहा की,
कभी चाहिए होती है किताब यह,
तो कभी यह पेन-पेंसिल
टिफिन में 'यह' चाहिए या 'वो'
हम को भी देखो
चलाये जा रहे हैं
साल भर से
वो ही शेड
लिपस्टिक के,
क्या हुआ महीने में
दो-चार सूट
उठा लूँ किसी बुटिक से
मांगती तो नहीं तुम से,
बचाती हूँ घर खर्च से
दिन भर लिखना कवितायेँ ,
और करना पोस्ट
किसी 'अभिव्यक्ति' पर,
कहना तरहा तरह की सखियों का
'वाह वाह'
…'बहुत सुन्दर'
क्या यही है नाम क्रियेटिविटी का ?
पढ़े लिखे हो
करलो ना ट्यूशन दो चार
आएगा कुछ तो घर में
आदर्श और संस्कार
जाते हैं बताये सिर्फ़
आस्था और संस्कार चेनल पर,
जिसकी किस्मत में
होता है जो होना
हुआ करता है बस वही,

यह तो मैं हूँ कि
................................

महसूस किया था मैं ने :

काश भाभीजी सोचती कि
पुरुष-स्त्री गृहस्थी-रथ के
दो पहिये होते हैं-समान से
दोनों के संतुलित चलने से ही
गृहस्थी का रथ
बढे जा सकता है
अपनी मंजिल की तरफ,
निकल जाता है वक़्त
रह जाती है बातें...
जिया जा सकता है
पुर सुकून
ज़िन्दगी को,
जिया जा सकता है
कम में भी,
सुकूं और शांति
ले आते हैं
सौहार्द और सम्पन्नता...

भाभीजान मेरी
बन जाए अगर,
साईकल सर्कस की
एक पहिये वाली ,
भाई साब जी को होगा
लगाते रहना लगातार
पैडल....
रुके जहाँ ...
गिरे बस वहीँ पर,
क्या दे सकेगी सुकून यारों
गृहस्थी इस तरहा की....?


Saturday, September 25, 2010

सौन्दर्य-सौष्ठव

# # #
सौन्दर्य
श्रंगार
नहीं मोहताज़
यौवन
और
सौष्ठव को ..
मन की तरंगे
करती जब
उत्फुल्ल
देह अभिनव को,
कान्ति
करे
आलोकित
रौं रौं को...
सुगंध
मादक
भावों की
भावे
मस्त
मधुकर को,
दे जाती
मधुर
संगीत
हर स्वर को...
प्रवाहित
प्रेम नीर
शिखा से
पर्यन्त
पाद-अंगुष्ठ,
है दर्पण
ईर्ष्यालु
लख कर
बिम्ब
अभिष्ठ...

Friday, September 24, 2010

क्या होते हैं मायने दोस्ती के ?

# # #

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नामObservation seriesदेना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ीसाधारण स़ी.)

आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ कवितायेँ इस से पूर्व भी.

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वो कहते थे:

दोस्त ! तुम-हम एक हैं
जो तुम्हारा है वह मेरा है
जो मेरा है वह तुम्हारा है
यार ! सब कुछ बस अपना है.

मैंने अनुभव किया :

ऐ दोस्त !
जब तक मैंने
किया स्वीकार
मेरी हर चीज को
तुम्हे
अपना समझते हुए,
तुम ने निभाया था
लौकिक-व्यवहार
मुझ से
सोचा था
जिस दिन
मैंने:
‘तुम्हारा’ भी ‘मेरा’ है
तू ने
बना दिया था
पराया मुझको....

तब जाना था
मैं ने
भूल थी वो
मेरी,
मेरे लिए थे
तुम दोस्त,
और
तुम्हारे लिए
मैं था
एक ‘यूज एंड थ्रो’
वस्तु....

क्या होते है
मायने
दोस्ती के…..?

Thursday, September 23, 2010

पारदर्शिता...........

# # #

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ ओबजर्व करतें हैं. ओबजर्वेशन करीब करीब हम सभी के होतें हैं. बहुत छोटे छोटे ओब्जेर्वेशन शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी देखी, जानी और समझी हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी.)

_______________________________________________________
वो कहा करते थे :

नारी को
अपने विचारों को
व्यक्त करने का
अधिकार
पुरुष से कहीं कम नहीं,
उसे भी है आज़ादी
जीने की तौर पे अपने,
जब है मेरी जीवन-साथी वो
उसकी सोचें
उसके मशविरे
रखते हैं मायने
ज़िन्दगी में उतने ही
जितने कि मेरे.
ज़रूरी नहीं हैं
उसका मेरे हर फैसले से
सहमत होना....

देखा गया था :

जब भी वह बोलती
किसी मसले पर
कहते थे वे
चुप रहो,
नहीं जानती
तुम कुछ भी,
अपने मन से कुछ खर्चा कर दिया
अपने किसी पुरुष सहपाठी से
अचानक मिलने पर
गरमजोशी दिखा दी
दो एक दिन
अपने पसंद की
सब्जी बनवा ली
बच्चों के लालन-पालन
और
पढाई पर
कुछ अहम् फैसले ले लिए
परिवार के किसी स्वार्थी
एवम
संकीर्ण मनोवृति के
सदस्य की
युक्ति-संगत
व्याख्या कर दी----
उनकी बुराई के लिए नहीं
पारिवारिक भलाई की
पृष्ठभूमि में,
महंगाई से लड़ने
समय और समर्थ्य के
सदुपयोग हेतु
कुछ काम करने की
सोच बना-ली,
किसी दिन
उनसे अधिक
आकर्षक व्यक्तित्व की
झलक
दिखाई देने लगी उसमें,
कभी कर बैठी वो
सहज जिज्ञासा
उनके कार्य-कलापों पर,
चढ़ जाता था
उनका पारा
सातवें आसमां पर,
बन जाते थे श्रीमान
दुर्वासा कलियुग के,
और
होने लगती थी
बौछार शापों की,
असंसदीय भाषा में ......

उचित
मान
देवर के प्रेम प्रसंग को,
उसके शादी के लिए
चयन को जब
बताया था
युक्तिसंगत
उसने ,
हो गई थी हवा
आज़ाद-खयाली उनकी,
जाति, रुतबा, चरित्र
ना जाने कितने
तर्क-कुतर्क
गए थे जुबाँ पर
उस सुलझे हुए
इंसान के,
और कहा था
उन्होंने:
मैं हूँ
मुखिया घर का
फैसले सारे करना
अधिकार है मेरा,
फ़र्ज़ है तुम्हारा बस
बिना
उठाये सवाल कोई,
मानकर उचित बस उसको,
करते रहना अनुसरण

यही तो है
भारतीय परम्परा अपनी ,
पति
को मन्ना परमेश्वर,
भरोसा करना पूरा उसका
है अपेक्षित तुम से,
क्या है तुम्हे संशय
मेरी
योग्यता
और

कुशलता
में ?

दे दी क्या
ज्यादा आज़ादी
तुम
को मैने,
इतरा रही हो बहुत तुम तो
क्यों फहरा रही हो
झंडे नारी
-क्रांति के ?

किया था अनुभव मैने :

सटीक
थी कितनी
बात उन बूढ़े बाबाजी की,
होंदी है कुछ गल्लें केने दी
और कुछ कन्ने दी.”
फर्क यह कथनी करणी का
मिटेगा
जब रिश्तों में,
आएगी पारदर्शिता
और

बढेगा सौहार्द
आपसी संबंधों में ....

Tuesday, September 21, 2010

शीर्षक ....

# # #
जीवन रण
जूझते जूझते
शीश कटा
बैठी हूँ मैं,
मोह सागर
गहराई में
अनायास
पैठी हूँ मैं
रहा नहीं अब
पोषक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा...

जानो तो मोहे
पूरा जानो
जैसी हूँ
वैसी को मानो
कुछ ना रहा
आकर्षक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा....

खेत हूँ मैं बस
बंजर जैसी
बिन बरखा
सूखा हो जैसी
रूठ गया है
कृषक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा...

टूटे घुँघरू
नाच रही हूँ
हर दृष्टि को
जांच रही हूँ
भ्रमित कुंठित
हर दर्शक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा...

Monday, September 20, 2010

हाथी के दांत.....

# # #

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ ओब्जर्व करतें हैं. बहुत छोटे छोटे ओबजर्वेशन को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी ओब्जेर्व की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी.)
________________________________________



वो कहते थे :

दया मूल है
धर्म का,
दान करना है
शोभा करों की,
सद्वचन सुनना
सार्थकता
कानों की,
बोलना मृदु-वाणी
उपादेयता
जिव्हा की
प्रभु की भक्ति
सम्पूर्णता
जीवन
की ....


देखे गए थे वो :

गरीब बाल-मजदूर को
पीटते हुए
कौड़ों से,
खरीदते हुए
बिस्कुट सड़े
बाढ़ पीड़ितों के लिए,
सुनते हुए
पर निंदा
कानों से,
जुबान से
देते हुए
गालियाँ,
लेते हुए
सस्ता मिलावटी घी
पूजा के लिए,

अनुभव किया :

हाथी के दांत
हुआ करते हैं
दिखाने के और
और
चरने के और….

पाखण्ड
ना जाने क्यों
बन गया है
अन्दाज़
जीने का हमारा...


मुरझाया

# # #
वक़्त ने
करवट ली
एक फूल खिला
एक मुरझाया
जो खिला वो
शास्वत हो गया
खिला गया
तन-मन को
भर दिया
महक से
उसने
घर आँगन को
जो खिला
वह पुष्प था
अन्तरंग के
उद्यान में.....

जो मुरझाया था
वह फूल था
बहिरंग
उपवन का
गिर कर जमीं पर
हो गया था जो
शुमार
माटी में
दे रहा था
खुराक नयी पौध को
फिर से फूलों को
खिलाने के लिए.............

Thursday, September 16, 2010

फुसुन्तराज़ी.......

# # #

दावत में उनके जगह मेरे, मेरी ग़ज़ल गई.
आशिक के हर शे’र पे मासूका जल-जल गई.

उनकी नज़रों का असर था के फुसुन्तराज़ी
बीमार को लगा की तवियत संभल गई.

बड़े अरमान से चलाये थे हम ने हल जमीं पे
बारिश ना हुई तो यारों बातिल मेरी फसल गई.

तू है खुदा कांटो का जानते हैं सब कोई
तेरी हर बात जाने क्यूँ राह-ए-अदल गई.

कर के क़त्ल तेरा निकला था मैं महफ़िल से
देखा तुझे जिंद यूँ क्यों खबर-ए-क़त्ल गई.

बसाया है उसने घर संग मेरे रकीब के
बातें उडी उडी स़ी मैदान-ए-जदल गई.

नाम लेने में रुक क्यों जाता हूँ मैं
मुझसे रिश्ते की बातें बन के मसल गई.



फुसुन्तराज़ी=जादूगरी, अदल=न्याय, जदल=युद्ध, मसल=कहावत.

Wednesday, September 15, 2010

लाडेसर (लाडली) बेटी रे खातर........(राजस्थानी)

# # #

म्हारे कालजिए ऱी कौर है तूँ

तूँ हैं मोत्यां बिचली लाल
लाडेसर म्हारे मन बसे……..

मन-डे री बात्याँ तूँ पूछे
म्हारी पीड़ रे सारे तू पहुंचे
थान्सुं पाऊं में नेह-हिन्वास
लाडेसर म्हारे मन बसे……..

दर्द दूजां रो तूँ समझे
गरीब कमज़ोर ने अपनों समझे
तूँ है मानवता रो सन्देश
लाडेसर म्हारे मन बसे…..

नांव थारो रोशन हुवे
खिल्यो खिल्यो थारो गुलशन रहवे
थारे हिन्व्ड़े रहवे हरख अपार
लाडेसर म्हारे मन बसे……..

हिंदी अनुवाद :

तुम मेरे कलेजे का टुकड़ा हो
तुम मोतियों के बीच एक लाल हो
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो.......

तुम ही तो मेरे मन की बात पूछती हो
तुम्ही तो मेरी पीड़ा के करीब पहुँचती हो
तुम्ही से मुझे स्नेह्की गरमाहट मिलती है
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो.....

तुम दूसरों का दर्द समझती हो
तुम गरीबों और कमजोरों को अपना समझती हो
तुम मानवता का साक्षात् सन्देश हो
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो.....

नाम तुम्हारा रोशन हो
तुम्हारा गुलशन (जीवन) खिला खिला रहे
तुम्हारे दिल में अपार ख़ुशी रहे
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो......

Monday, September 13, 2010

संतुलन...

# # #
लेकर
सागर की
अनगिनत
लहरों से
अंशदान,
रचता है
भानु
अमृतमय
मेघों को,
लौटाते हैं जो
बरस कर
प्राप्य
लहरों का,
यही तो है
प्रमाण साक्षात्
सृष्टि के
संतुलन का...

सृजन
और
विसर्जन
रखतें हैं
गतिमान
अखिल
ब्रह्माण्ड को,
करतें हैं
हम
मिथ्या
अभिमान
स्वयं के
भ्रमित
मन्तव्य का,
करके विस्मृत
बिंदु
निज-गंतव्य का,
जो होता हैं
आधीन
सृजन
और
विसर्जन की
अनवरत
प्रक्रिया के....

थका हारा दीप..


# # #
मैने
लिख लिख कर
फाड़े है
खतूत कई
शब्-ओ-दिन,
इज़हार के नहीं
इन्कार के,
कि करता हूँ
तुझ से
मोहब्बत मैं
बेपनाह...
ना जाने क्यों
मेरी इन
ग़ज़लों की
खुद ब खुद
हो जाती है
इस्सलाह...
कटते हैं
चन्द अशआर
बदल जाते हैं
काफिये ओ रदीफ़,
नींद हो जाती है
जुदा मुझ से
और
बदल कर
करवट
बुझा देता हूँ
संग मेरे
रात भर जगा
टिमटिमाता सा
मेरे ज़ज्बात का
थका हारा सा दीप....

सूरज : गरमा-गरम रोटी

# # #

वक़्त
ले जाता है
साँझ ढरे
घर अपने
अँधेरे के
छेदों भरे,
ढीली ढाली
बुनावट वाले
बोरे में
सितारों के
दाने
भर कर...

पूरब कि
चाकी में
पीस कर
गृहणी उषा
बना देती है
एक गरमा-गरम
रोटी
कहा जाता है
जिसे
सूरज....

(राजस्थानी बात है-जिसे नानीसा बालसुलभ जिज्ञासा के जवाब में बताती थी, इसी आशय की राजस्थानी कवितायेँ भी अलग अलग रूप में लिखी गई है.)

Friday, September 10, 2010

कैसा झोलम झोल...

# # #
कैसा है झोलम झोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

महँगी तिजोरी
सस्ता ताला
रकम रतन का है
रखवाला
किसका कितना मोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल..

चाभी छोटी
मोटा ताला
मालिक ने
बांधि कमर संभाला
इसमें कैसी पोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

कहे हथौड़ा
सुन री कुंजी
मैं हूँ भारी
तू टट- पुन्जी
दीन्ही तिजोरी खोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल....

कहीन चबिया
सुनहूँ हथौड़े
प्रेम की होवे
बतिया निगौड़े
छोट बडन फजूल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

तू टकराए
मार लगावे
मेरे इशारे
काम करि जावे
यूँ कर देती बंद- खोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

सर-ए-राह.....(very old)

# # #

मिले इस कदर वे सर-ए-राह में
उठ गया भरोसा हमारा चाह में…

दुनिया के रिश्तेहो गए बेमानी हम पे
तस्वीर उनकी ही रहने लगी निगाह में

ज़िन्दगी ने दिए थे हमें मौके बेशुमार
ना मिला वो बसाया था जिसको चाह में

बहुत कोसा था उनको हमारी नज़्मों में
जवाब देते थे वोह बस वाह वाह में..

लिखे थे चार लफ्ज़ हमने उनकी तारीफ में
दो हम ने मिटाए दो कट गए इस्लाह में.

बन के फूल आये थे खिल कर ज़माने में
बिखर के गिर गए रही खुशबू ऐशगाह में.

दिल तोडा था उसने इस कदर मेरा
आने लगी लज्ज़त हमको हर गुनाह में.

अंतर्विरोध

# # #
चक्षु हीन
महाराजा धृतराष्ट्र
तथाकथित
पतिव्रता
महारानी गांधारी
संस्कारवश
अहम्वश
भ्रमवश
प्रशंसा की क्षुदा से
ग्रस्त
अथवा
किसी अज्ञात
कारण से
धार चुकी थी
आजीवन
दृष्टिहीनता का
व्रत
लेकर संकल्प
त्याग का
कष्टमय जीवन का
अर्धांगिनी के तपस्विनी
स्वरुप का,
धन्य ! धन्य !
ध्वनियाँ पाई थी
परिवार की
समाज की
किन्तु किया था
विरक्त
स्वयं को
गृहस्थाश्रम के
मातृत्व के
उत्तरदायित्वों से
होकर
अयोग्य
क्षमताहीन…

स्व आरोपित
दृष्टि दोष से
हुई थी
उत्पन्न
पारिवारिक
विश्रीन्खला
अनियंत्रण
संतान
अनुपालन पर;
परिणाम :
चरित्रहीन
संस्कारहीन
दम्भी
सौ पुत्र
जिनका कलुषित
आचरण
नहीं कर पायी
विस्मृत
हमारी संस्कृति…………

Wednesday, September 8, 2010

दंभ......

# # #
कैसी
विडम्बना है
यह
अल्प सा साफल्य
दे देता है
वृहत आकार
हमारे अहम् को
बना कर उसे
दैत्य सा,
निकल आते हैं
नुकीले सींग
अदृश्य से
हमारी देह और
बुद्धि में,
बन कर
हिंसक
दंभ में
करने लगते है
हम
तहस-नहस
हर रचना और
संरचना को
भूल कर
अपने हितों को
अन्यों के हितों को
पड़ जाता है मानो
कोई पर्दा
हमारे
विवेक पर......

किन्तु
विपदाओं से
आपूरित
एक नन्ही स़ी लहर भी
दूसरे ही क्षण
बना देती है हमें
क्षुद्र और असहाय
सदर्श उस लघु कीट के
भीगें हो
जिसके पंख
वर्षा के जल में.....

Tuesday, September 7, 2010

भूल उसको तू जाना......

# # #

( उपालम्भ और प्रेम का यह गीत हमारे फोल्क-सोंग्स से प्रेरित है, जो हमारी हर भाषा और बोली में पाए जाते हैं-और माटी की सुगन्ध लिए सब जगह गए- गुनगुनाये जाते हैं----मेरे usual अन्दाज़ से थोड़ी स़ी हट कर है यह पेशकश, उम्मीद है आप सब का स्नेह मिलेगा इसको भी, सादर.....विनेश)
_______________________________________________


बालम तुम हो कैसे
यह जाने ज़माना,
रंगीन मस्तियों को
क्यूँ हम से छुपाना !!बालम………..

आये हो कहाँ से
सजन यह तो बताना
माथे का पसीना
कहे सब फ़साना !! बालम………

दैय्या री उसका तोहे
नज़रियाँ लगाना
बहारों के मौसम में
तेरा मुरझा जाना !!बालम…….

धूप है करारी
तेरा यूँ आना जाना
छांव में टुक बैठो
कहे हडबडाना !!बालम……….

आँचल का यह पंखा
तोहे लागे सुहाना
तेरा यूँ ही गाना
और यूँ गुनगुनाना !!बालम……..

सुकून है यहाँ पे
लज्जत मेरे जाना
बस रहना यहीं पर
भूल उसको तू जाना !! बालम……

Saturday, September 4, 2010

नज़र आता है

####
मुंसिफ के हर फैसले में इन्साफ नज़र आता है
मन का किया इशारा हमें बाप नज़र आता है.

सुन सुन के समझते हैं बातें क्यों दिल कि
फांसी का फंदा हमें मुबाफ़ नज़र आता है.

होंश संभाले थे जब से पाई जिल्लत हमने
झूठे रिश्तों का एहसास.. शफ्फाफ नज़र आता है.

बहता है खूँ सर से चोटें खाकर उनसे
ज़माने को यह रिश्ता कोहकाफ नज़र आता है.

झूठन फेंक के मुझ पे कर दी है फ़र्ज़-अदाई
इसमें लिल्लाह उनको अल्ताफ नज़र आता है.

रगों में दौड़ता है खामोश खूँ जो है
रस्मों से बड़ा इन्सान साफ नज़र आता है.

कैद हुए जा रही है नींद कि परियां चंचल
सर-ए-शाम मुअत्तर तेरा गिलाफ नज़र आता है.

इश्क को कहते क्यूँ मुश्क न पूछो मेरे यारों
एय अहू मुझे हरसू नाफ नज़र आता है.

न पूछो हाल हमारी फ़ित्रत-ए-जब्त का यारों
गुनाह उसका हर क्यूँ मुआफ नज़र आता है.

मुंसिफ=न्यायाधीश मुबफ=केश बंधने का फीता (हैर-रिब्बों)
जिल्लत=अपमान शफ्फाफ=पारदर्शी कोहकाफ=काकेशिय का सुन्दर पहाड़
अल्ताफ=दया, कृपा मुअत्तर=सुगन्धित गिलाफ=खोली मुश्क=कस्तूरी
अहू=हरिण(दीर) हरसू=चरों तरफ नाफ=नाभि. फ़ित्रत=स्वभाव
जब्त=सहनशीलता

सत्ता चेतना की....

# # #
अगर नहीं
होगा सामना
आईने से
कैसे दिखेगा
अक्स चेहरे का ?

मुंह फेर
दिखा कर पीठ
खड़ा होने जाने से
नहीं मिट जाती
हकीक़तें
ज़िन्दगी की .....

दोस्त !
उम्र कितनी होती है
लहद के चराग की ;
उपरी सोचों को
अपनाने से
हो जाता गर
घटित
इल्म रूहानी
मानता कौन
सत्ता चेतना की ?

Friday, September 3, 2010

मौजी....

# # #
मन का मौजी
तन का खोजी
रसिया है तवियत का
मीठे बोल लुटाता रहता
खोटा है नीयत का....

बनता ज्ञानी
बातें बिन पानी
शब्दजाल फैलाया
भ्रमित करे बातों से सब को
उसका पार ना पाया...

खोटा रूपया
है बहुरुपिया
स्वांग उसके बहुतेरे
हकीक़तों के नाटक करता
रहे बदलता चेहरे...

बच के रहियो
उसे ना सहियो
जाने ना क्या हो जाए
मुश्किल से है मिली ज़िन्दगी
खोये और पछताए...

साजन छलिया
डारे गलबहियां
तीखी याद सताए
ज़ुलमी क़ी छवि अंखियन बसती
उसे कैसन हम बिसराए....

दर्पण अपना
अक्स भी अपना
उसे कोस कोस थकी जाए
देखें जब दिल क़ी नज़रों से
बात समझ में आये.....

दुनियावी बातें
होवे खैरातें
भये एहसास कुछ अपना
खुद से प्यार होई जावे हम को
साकार भई जावे सपना....

रूहानी...

# # #
मत औढ
चद्दर
थोथे आदर्शों की
हर रिश्ते में
कुछ बातें
जिस्मानी है
बातें कुछ
रूहानी है.......

ठंडी हवा
हरियाली
चांदनी
फूलों की खुशबू
आसमान की नीलिमा
सागर की गहराई
और
विस्तार,
इन सबों में
मन की बातें
एक एक
सुहानी है,
मगर
ऐ दोस्त !
वे सब जिस्मानी है....
वे सब रूहानी है...........

Wednesday, September 1, 2010

सम्बल और कमजोरी...

तुम बन के आये थे
सम्बल
मेरी जिन्दगी में
वक़्त गुजरा
कमजोरी
बन गए.....

चाय की कई
प्यालियाँ,
सड़क किनारे
बिकते
चने चबैने,
बर्फ के
रंग बिरंगे
लच्छे,
खट्टे मीठे
पानी वाले
गोलगप्पे,
झील का
किनारा,
पार्क के
खुशनुमा फूल,
कॉलेज का
लान
और
उसपर खड़े
छायादार
दरख्खत,
थियेटर फेस्टिवल,
शास्त्रीय संगीत की
महफिलें,
काव्य गोष्ठियां,
कृष्णमूर्ति की
वार्ताएं,
रजनीश के
ध्यान शिविर,
सब थे गवाह
तेरी-मेरी दोस्ती के....
क्या हुआ
अचानक
तुम क्या से
क्या हो गए,
जमीं से उड़कर
आसमां में खो गए,
हकीक़त से बदल
तसव्वुर हो गए,
हलके अंतर्मन से
होकर तब्दील
भारी स़ी
तिजौरी बन गए......

Friday, August 27, 2010

अशीर्षक..... ...

# # #
दो जागरूक इंसान,
एक मानव
एक मानवी,
गहन प्रेम,
होता है महसूस
दो नहीं अब
हो गए हैं एक,
होते हैं वे
दो स्तम्भ
दो ध्रुव,
एवं
होता है कुछ
बहता हुआ
मध्य दोनों के...
यह प्रवाह
बनता है निमित
आनन्द अनुभूति का,
देता है यह प्रेम
आनन्दोपहार
क्योंकि
उस पल के लिए
गिरा चुके होते हैं दोनों
अपने अपने अहम् को...
'दूसरा' हो जाता है
तिरोहित
पल भर को,
होता है घटित
आनन्द
एक उत्सव,
और
यही क्षण
बदल सकता है,
जीवन,
बना कर ध्यानमय
सब कुछ,
होता है घटित
एकत्व
मात्र नहीं किसी
एक के संग,
मात्र नहीं किसी
एक 'अन्य' के संग,
गिर जाता है अहम्,
होता है प्रतीत
हर कण अस्तित्व का
'निज' सा,
और
बन जाता है
सब कुछ बस
'स्वयं'......
शब्दातीत
ज्ञानातीत
कर्मातीत......
कोई कहता है इसे
भक्ति
कोई
प्रेम
कोई
कैवल्य.....
किन्तु
एक स्थिति
अपरिभाषित
''शून्य" की,
होते हुए - ना होने क़ी,
ना होते हुए - होने क़ी..

Wednesday, August 25, 2010

दो बातें बारिश की...........

# # #
(१)
तेज़ हवा है कि
भोंके जा रही है
आवारा कुत्ते की तरह,
बारिश है कि
बरसे जा रही है
रुके बिना ,
पानी है कि
खेतों
गाँवों
शहरों से
बन कर धाराएँ
मिल रहा है
नदी में,
पंछी देखो
बैठ गए हैं
छुप कर
घोंसलों में,
औलाद आदम की
इंसान है कि
झूझ रहे हैं,
करने पूरे
फ़र्ज़ दुनियावी
पहन कर
बरसातियां
तान कर
छतरियां,
बढे जा रहे हैं,
खेतों
कारखानों
दूकानों
दफ्तरों की जानिब
ताकि रुक ना जाए
चक्का
ज़िन्दगी का...

(२)

या खुदा !
नदी लगी है
उफनने,
दोनों मोहब्बतबाज़
ज़मीं और आब
हो गए हैं बेताब
समा जाने को
एक दूसरे में,
टूट गया है
सब्र उनका,
छोड़ कर
लिहाज़ और हया,
देखो ना
किस बेशर्मी से
किया है शुरू
खेलना खुलकर
खेल निगौड़ा इश्क वाला,
होगी जल्द ही
बाहें दोनों की
गले में
एक दूजे के,
और
यह उबलता इश्क
ना जाने
लायेगा
कैसी तबाही ?
कहते तो हैं
मोहब्बत बनाती है
बिगाड़ती नहीं,
मगर
मगर......?????????????

निश्चय.....


# # #
निश्चय
अनिश्चय के
पेशोपेश में
समय गँवा
देते हैं लोग,
राहें भटक
जाते हैं
राही,
मिट जाते हैं
सब संयोग...
रिश्तों का
जंजाल जटिल है,
कहतें उसको
इश्क का रोग....
सुविधा में
प्रेमी दूर
रह रहे,
किन्तु नाम
दिया है
वियोग...

बांस.......(आशु रचना )


# # #
कटा
छंटा
छिद्रित हुआ
बन गया
बांस से
बांसुरी,
पाकर
कान्हा के
अधरों का स्पर्श
समा कर
स्वयं में
उनके श्वास,
गुज़र जाने
देकर उन्हें
निज देह से,
हो सकी
उत्पन्न
संगीत लहरी,
सुन कर जिसे
झूम उठा
आसमान,
खिल उठी
धरा,
दौड़ी
गोपिकायें
घटित हुआ
महारास
पुलक उठी
दिशाएँ....
हो गया
विस्मृत
पोंगरा सा
शुष्क बांस,
बनकर
मुरलिया
मधुसुदन की......

Monday, August 23, 2010

निगाह ...

# # #
निगाह ने
आगाह किया,
ना माना
मन चंचल,
झूठला दिया
उसने
"आँखों देखा सच
कानो सुना झूठ",
ललचाया
इठलाया
इतराया और
कह दिया :
नहीं मानता
मैं तो
आँख की
कान की
मस्तिष्क की
ह्रदय की,
सब का पता है
तुम्हें
मेरा नहीं
दम है तो
दिखाओ
पकड़ के
मुझ को.....!

Sunday, August 22, 2010

दर्पण...

# # #
दिखा रहा हूँ
दर्पण
एक अरसे से
औरों को,
कहे जा रहा हूँ
पहचान तो लो
कौन हो तुम ?
कैसी है शक्ल
तुम्हारी ?
मिला सको
ताकि
तुम औरों से
सूरत तुम्हारी
जो बिखरे-फैले हैं
आसपास है तुम्हारे...
देखता नहीं मैं
बिम्ब अपना
दर्पण में,
कहते हो ना तुम
"तुम नहीं हो औरों से ..."

Friday, August 20, 2010

निर्लिप्त हुए हो तुम योगी !

#######

निर्लिप्त हुए हो तुम योगी !
या हुआ पलायन है तुम से
आनन्द से अति दूर हुए
रहते हो हर पल गुम गुम से....

अभिलाषाओं का दमन किया
तू ने सदा वृथा प्रवचन दिया
वास्तविकताओं से दूर रहा
आकाँक्षाओं का शमन किया.

कुंठा के बीजों से क्या तुम
उद्यान फलित कर पाओगे
एकांगी सोचों से क्या तुम
अभिष्ठ प्राप्त कर पाओगे ?

साक्षी भाव अपना कर तू
जान स्वयं को सकता था
संसार में ही रह कर भी तू
भवसागर से तर सकता था.

हेय श्रेय के चक्कर में तू
ना जाने क्योंकर भटक गया
चुनने को अपना कर तू
आधे में यूँ ही अटक गया.


खोल चक्षु तू देख जरा
सुन्दर है कितने नभ व् धरा
अस्तित्व समाया कण कण में
प्रभु बसता है मन मन में.

उतार आवरण को जी ले
प्रेम की मदिरा को पी ले
भुला सत्य मिथ्या के भ्रम
फटी चदरिया को सी ले.

मंगल प्रभात बुलाता है
सूरज पलना झुलाता है
चाँद तुम्हारा साथी है
प्रीतम से मिलवाता है.

कर समग्र स्वीकार जियो
आनन्द अंगीकार जियो
जीवन लबा लब है भरा हुआ
अमृतपान करो और खूब जियो

Thursday, August 19, 2010

तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

######

अवरुद्ध ना हो अविरल धारा
ना व्यर्थ बहे अमृत सारा
नेह प्रवाह ना रोक प्रिये !
निशा बावरी मदमाती यह
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

चन्दन सा सौरभमय ये तन
प्रेषित नयन अभिसार निमंत्रण
हृदयन स्पंदन आतुर है
फिर क्यों झूठे संयम का चित्रण,
संतप्त बदन, नैसर्गिक बन
पूरे करलें सब शौक प्रिये !
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

व्याकुल तुझ में मिल जाने को
है रोम रोम खिल जाने को
भ्रमर बना गुन्जार करूं
ना चिंतित मैं मिट जाने को
अब छोड़ अदा, सुन ले यह सदा
संयोग बना दे योग प्रिये !
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

अंतर्मन में बस बसी है तू
मेरे कण कण में रची है तू
तुझ बिन मेरा अस्तित्व नहीं
प्रीतम बिन कोई सतीत्व नहीं
प्रेम है यह, नहीं भोग प्रिये !
तू आज मुझे ना टोक प्रिये !

चाहत का कैसा हुआ यह असर है.


# # #

मेरी मन्नतें अब हुई बेअसर है
ज़माने को इसकी पूरी खबर है .

मुझे देख कर मुस्कुराते नहीं वो
चाहत का कैसा हुआ यह असर है.

कदम से कदम मिलाते नहीं वो
वफ़ा का कठिन ये कैसा सफ़र है.

अक्स देखते रकीब आते जाते
नदी में न उठती कोई लहर है.

खड़ा हूँ मैं कब से खुद को सँवारे
ना जाने किस पे उनकी नज़र है.

पिया के बिना...(आशु कविता)


# # #
पिया के बिना
जिया तो
क्या जिया ?

जल जमना के सिवा
पिया तो
क्या पिया ?

नाम 'श्याम' के इलावा
लिया तो
क्या लिया ?

दिल अपने से जुदा
दिया तो
क्या दिया ?

जिसमें ना हो भला
किसी का
काम ऐसे के सिवा
किया तो
क्या किया ?

फटे दिलों के
लिबास को छोड़
सिया तो
क्या सिया ?

कल ख्वाब में जाने क्या महसूस हुआ था.......


# # # # #

कल ख्वाब में जाने क्या महसूस हुआ था
पहली स़ी मोहब्बत का एहसास हुआ था.

नज़रें थी झुकी उनकी आँखों में हया थी
रंगीं-ओ-हसीन मंज़र मेरे पास हुआ था.

हिले थे होंठ उनके अल्फाज़ निकल ना पाए
पैगामे मोहब्बत का हमें एहसास हुआ था.

दुनिया की हर शै में फैली थी खुशियाँ ही
अदाओं पे उनकी कुरबां हर सांस हुआ था.

छुआ था जो उनको रौं रौं में रवानी थी
हम को ना होने का क़ेयास हुआ था.

Wednesday, August 18, 2010

भक्ति...


# # #
(१)

मौत ही है भक्ति
जिस में
मिट जाता है
बन्दा......
साँसे उसकी
जीना उसका
सोना और उठना उसका
नींद भी उसकी
ख्वाब भी उसके
चलना भी उसका
ठहरना भी,
हर नफस में
वही वही
सब गलत
बस वही है सही...

(२)

भक्ति मीरा ने की
भक्ति सूर ने की
बुल्लेशाह ने लगायी
लौ उस से
रबिया ने मिटाई
हस्ती उसमें
रैदास ने बसाई
बस्ती उसमें
मोहब्बत की
ऊँचाई है भक्ति
जमीं की नहीं
आसमां की ताक़त है
भक्ति....
(३)

भगवान भक्त का
मुरीद बन जाता है
आगे आगे बन्दा
पीछे वो चले जाता है
अरे अनजाने में बन्दा
मालिक बने जाता है
कुछ भी हो मगर
बस नाम परवरदिगार का
लिए जाता है...

भक्ति दिखाती है सब में
नूर उसका
भक्त मुआफ कर सकता है
कुसूर किसी का
पाक हो जाता है
जमजम के आब की तरहा
बहता रहता है बन्दा
गंगा के बहाव की तरहा
देना होता है कठिन
इम्तेहान भक्तों को
भूलना होता है उन्हें
दुनियावी नुक्तों को
भक्त शराब उसके नाम की पीता है
धरती पर वो उसके लिए जीता है,
वही रिंद वही साकी
वही मयखाना है
शम्मा वही
वही तो परवाना है
सच है बस मौला
बाकी सब आना जाना है...

भक्ति में डूबकर इंसान
खुदा को पाता है
इंसानियत की रोशनी से
कायनात को
जगमगाता है
रुक नहीं रही है कलम
भक्ति की बात लिखते
अलविदा यारों
थक ना जाओ तुम
पढ़ते पढ़ते...

Tuesday, August 17, 2010

औझल.......


..
# # #
मन होता है
बौझिल
जब हो जाता
कोई इन
नयनन से
ओझल,
एक सतही सा
एहसास है
महसूस
होता है जो,
तुम्ही बताओ
क्या झूठ है
यह :
जब नहीं होते
साथ तो
क्या 'साथ' नहीं
होते हैं
हम ?????????

कौन सा भाई ?


# # #

(१)
बहना का भाई
जिसकी
कलाई में
बाँध कर
धागा
देकर
गिफ्ट
आश्वस्त हो
जाती है
बहन
भैय्या
मेरा प्यारा भइय्या
हर दुःख में
साथ देगा,
विपदाओं से
रक्षा करेगा,
हाय !
मजबूरी भाई की
देकर लिफाफा एक
पा लेता है
निजात,
इस फ़र्ज़ से,
बहन की भाभी
'प्रिओरिटी' में
आ जाती है,
इक्कीसवी सदी में
हर रिश्ते की
सीमायें
आड़े
आजाती है...

(२)

सलीम भाई
राजू भाई
विक्टर भाई
ऐसा ही कोई भाई
जो नहीं होता
किसी का भाई...
लूट कर
फरेब कर
सता कर
खुद की जेबें भरता है
अपनी दारु और
ऐयाशी का सामान
जुटाने सब कुछ
करता है,
खौफ को
इज्ज़त में
करके तब्दील,
मुल्क
इंसानियत
मोहब्बत
रिश्तों को
भूल,
ताक़त का
खेल खेलता है
हम आप से
कलमकारों की
थोथी कल्पनाओं में
नायक बन
आदर्शवाद के दंड
पेलता है.....

(३)

शब्दों के मायने
बदल जाते हैं
वक़्त के साथ,
एक समय था जब ;
"रघुपति कीन्ही
बहुत बडाई,
तुम मम प्रिय
भारत सम भाई."
कृतज्ञता
अवतारी के मुंह
बोल रही थी
खून के रिश्तों के समान
मैत्री के रिश्तों की
गठरी खोल रही थी...
आज सहोदर भी
पीठ में
कटार भौंकता है,
ऐसा क्या हो गया
एक मित्र दूसरे के
उपकार से चौंकता है..
अविश्वास
स्वार्थपरता की
बातें मनों में
इतनी समायी,
एक निरर्थक सा
शब्द
बन कर
रह गया है
'भाई'.....

Monday, August 16, 2010

बातें महावीर की..

परम वैज्ञानिक धर्म जिन धर्मं
अनेकान्त शांति का मंत्र प्रमुख
स्वसाधना-महाव्रतों जनित शुद्धि से
संभव प्राप्य भगवतता का सुख

कर्मकांड,पाखंड अंधविश्वास
इत्यादि अतियों में जनता जब भरमाई थी
पुरुषार्थ की शिक्षा सक्रिय
वर्धमान महावीर ने फरमाई थी

विवेकपूर्ण जीवन से हम
स्व-कल्याण स्वयं कर सकते हैं
शुद्ध भावना को अपना क़र
संभव विश्व-मैत्री कर सकते हैं.

अपने सद्कर्म, त्याग, तपस्या, स्वाध्याय से
कर्म क्षय कर सकते हैं
विशुद्ध व्यक्तितव का निर्माण करें तो
स्वयं भगवान हम बन सकते हैं.

ऊँच नीच, वृहत-लघु, नर-नारी भेद मिटाए थे
आध्यात्म उच्चता हेतु समान अवसर सुझाये थे
सूक्ष्म जीव को कर परिभाषित
“जीवो और जीने दो” के उदघोष जगाये थे.

शादमां ...


# # #
'शादमान' को
देखा
जर्सी सिटी की
ग्रोव स्ट्रीट पर,
लगा है
एक बोर्ड
दरवाज़े पर :
'पाकिस्तानी'
'इंडियन'
फ़ूड,
फैली हुई थी
मिली जुली
खुशबू
उस मसालों की
उन खानों की
जो उतने ही
हिन्दुस्तानी है
जितने कि
पाकिस्तानी,
बात बात में
यही जुमला
दोनों ही देशों से
आये 'देसियों' के
मुंह से निकलता है :
'हमारे' यहाँ
ऐसे होता है,
ना कि 'तुम्हारे' यहाँ
या
''मेरे यहाँ ,
महसूस होता है
बिन बोला
'अपनापन',
शादमां हूँ मैं,
सात समंदर पार
दोनों का साँझा
गुलशन खिलते देख,
क्योंकि वही तो
सांझी हकीक़त है
इस पार और
उस पार के
लोगों की,
एक ही तो है
हमारे स्वाद,
हमारे भाव,
हमारे आंसू ,
हमारी खुशियाँ,
हमारे लहजे
हमारी गालियाँ..

(शादमान एक मोडरेट सा पाकिस्तानी रेस्टोरेंट है...जहां 'हमारा' सा 'देसी' खाना मिलता है.)

Saturday, August 14, 2010

परीक्षा.....(आशु रचना )


# # #
प्रतीक्षा
अपेक्षा
समीक्षा
परिभाषा
परीक्षा से
उकता गया हूँ
प्रिये ,
आओ ना
कुछ पल जी लें
बिना इनके !

नक्षत्र भी है तू ही...


# # #
मेरा कातिल
मेरा मुंसिफ है
तू ही,
सबब मेरी बर्बादी के
मेरे हर नफस में
हाज़िर है
तू ही.....

हक है तू
हकूमत है
तू ही,
मेरी इबादत
मेरी फ़रियाद है
तू ही...

अज़ब रिश्ता है
यह मेरा और तेरा
नफरत भी तू
मोहब्बत भी है
तू ही......
मेरी ज़िन्दगी में
समाया है
इस कदर तू
मेरी रोशनी भी है तू
ज़ुल्मत भी है
तू ही...

अधूरा हूँ मैं
बिन तेरे
मेरी गुरवत तू
सरमाया है तू ही,
जुदा भी है
तू मुझ से
हमसाया भी है
तू ही....

मेरा आसमां है तू
मेरी जमीं है
तू ही
मेरा रकीब
मेरा हमनशीं है
तू ही....

नजूमी नहीं मैं
माप लूँ
चाल सितारों की,
मेरी कुंडली है तू
नक्षत्र भी है
तू ही...

मैं हूँ "मैं"
और तू है "तू "
जब तक,
जंजाल
बदगुमानी का
कायम है
तब तक,
भटका हूँ मैं
राह अपनी,
मिले कोई रहबर
पहुंचाए मुझे
घर तक.....


Friday, August 13, 2010

अवलंबन...


# # #
नन्हा बालक,
लड़खड़ाते
कदम
टेढ़े मेढ़े,
लेकर
अवलंबन
सीखता है
चलना
और
चलता रहता है
निरंतर
जीवन भर,
स्वभाविक
स्वतंत्र,
सम्बल
स्वयं का
पाकर...

अवलंबन
समस्त
होते हैं
समर्थन
मात्र
प्रारम्भिक,
निर्भर रहते
अनवरत
जिन पर
आलसी
अपाहिज
निर्बल और
कायर....

Thursday, August 12, 2010

मंथर...(आशु कविता)

#######
कोई
उभरा था
क्षितिज से,
वर्ण था
ताम्र सा,
खनक थी
पायल में,
स्वर था
मंथर सा...

होठों पे
बोल
मधुरिम,
संगीत था
पवन में,
छन्द थे
चपल से,
आनन्द था
गगन में...

मुग्ध था
अन्तरंग,
व्याप्त
स्पंदन
पिपासु तन में ,
चक्षु खुले थे
मेरे,
पर था मैं
कोई
स्वप्न में.....

रीछ .....(आशु रचना)


# # #
मदारी बना
समाज
नचाता है
व्यक्ति को
बना कर
रीछ...
बजा कर
थोथे
रस्मों
रिवाजों और
नियमों की
डुगडुगी.....
बनाये गए थे जो
किसी समय
विशेष पर
हेतु सुचारू
व्यवस्था.....
नहीं बदला गया
जिन्हें
बदली जब जब
अवस्था,
लकीर के
फ़कीर बन
थोपते हैं
अंध रूढ़ियाँ,
घुटन और
विद्रोह को
देते हैं न्योता
कस कर
झूठी बेड़ियाँ...

रोशनी और अँधेरा ..... (आशु रचना)


# # #
आते ही तेरे
समा जाता हूँ
तुझ में
ऐ रोशनी !
लोगों का
होता है
गुमां क्यूँ
क़ि अँधेरा
मिट गया ...

Wednesday, August 11, 2010

दाता...

# # #
देनेवाला
लेनेवाले की
काबिलियत का
फ़िक्र नहीं करता,
देता रहता है
हर दम,
अफ़सोस
नहीं करता,
देने में होती है
ख़ुशी उसको
इतनी,
मेरा दाता कभी
सहूलियत
खुद की को
महसूस
नहीं करता......

Tuesday, August 10, 2010

मंत्र मुग्ध...

# # #
हो जाना
मंत्रमुग्ध
अभाव है
चैतन्य का,
हो जाए
यदि
विस्तार
इस बेहोशी स़ी
मुग्धता का....

अचेतनता
होती है
एक ओढी
हुई सी
शांति
जिसका
चीर हरण
करने
कायम हैं
दुशासन
विकार
अवस्थित
हम खुद में...

देखा तुमको,
मुग्ध हुआ
मैं,,,,,,,
दग्ध हुआ
तन,
मन
किन्तु
जुड़ के
मन से
तुम्हारे
अभिशांत हुआ
परितृप्त हुआ,
होश ने ली
अंगडाई
तुम से मिली
उर्जा ने
दे दी गति
कदमों को मेरे...

यह देना
यह पाना
करता है
द्विगुणित
ऊर्जाओं को
ले आता है
करीब
हम को
स्वयं
हम से,
उठता है
स्वतः
कदम
जागरूकता की
दिशा में,
जहां होतें हैं
मुग्ध हम
स्वयं
स्वयं पर

Saturday, August 7, 2010

तपिश...

# # #
चाहत
तपिश की थी
या के
ठंडक की
चली आई थी
बेताब वो
महबूब की
प्यासी
बाहों में,
लगा था
मेला
ख्वाहिशों का,
मोहब्बत की
हसीं
राहों में...
सुरूर था के
दीवानगी
छलके
जा रहा था
निगाहों में,
प्यार था के
फल रहा था
आसमाँ की
पनाहों में...

Friday, August 6, 2010

चन्द अशआर यूँ ही .....

# # #
(१)

जिन्दा रखने इस जिस्म को चन्द सांस होते हैं,
रूह को कायम रखने को बस एहसास होते हैं,
चाहत को राहत नसीब, मुश्किल है ऐ दोस्त !
बेचैनियों के मंजर तो हमारे आसपास होते हैं..

(२)

यारों इंतज़ार हमारा उनका सरमाया है
जेहन अपना तो ना जाने क्यूँ भरमाया है,
यादें तो आती है जो होते दूर हैं हम से,
जब भी सोचा उनको अपने पास पाया है.

(३)

आहट किसी की पे थम से जाते हैं वो,
अचानक ना जाने क्यूँ सहम जाते हैं वो,
सहूलियत उनकी जब होती है मुबारिक,
खुद ब खुद महफ़िल में ज़म से जाते हैं वो.

(४)

शिकवे करना किसी से कितना आसान होता है,
सुना है ये इजहारे मोहब्बत का सामान होता है,
सुनते रहो यारों उनके बयान-ए-जुदाई को
यही तो हुस्न का इश्क पे एहसान होता है.

कोमल कोमल...

# # #
हंस के पंख सी
छुअन
कोमल कोमल,
जगा गई थी
तमन्नाएँ
रौं रौं में,
फिजा रंगीं रंगीं थी
माहौल था
मस्त मस्त,
मौका भी था
दस्तूर भी,
लग गया था
गले वो
कोमल कोमल,
भर के मुझे
बाँहों में अपनी,
रोशनी भी थी
कोमल कोमल,
खुशबू ही खुशबू थी
हर सूं,
संगीत था
मधुरिम मधुरिम,
थिरक रहे थे
कदम
सधे सधे से,
नशा था
सुरूर था,
होश भी था
कायम कायम,
थकन ने
दे डाला था
लुत्फ
नायाब नायाब सा,
रात ढले जा रही थी,
जिस्म पिघल रहे थे,
रूह मिल रही थी
रूह से...
सब कुछ हुए
जा रहा था
कोमल कोमल,
आँख खुली थी
और
दे गया था ख्वाब
चन्द एहसास
कोमल कोमल...

एक सोच..(गोपनीयता और निजता)

# # #
अनिवार्य बीज को
तिमिर और गोपन
धरा गर्भ में,
वांछित हैं
सघन अंतरंगता
गहन एवं निकटतम
सम्बन्ध में..

प्रेमी द्वय
होते हैं स्पंदित
संग एक दूजे के
जैसे अभिन्न प्रकार,
पिघल पिघल
विलय हो जाते
होने एकाकार....

संभव किन्तु होता
तब ऐसा
ना हो जब
कोई दर्शक
और
पर्यवेक्षक जैसा...

हेतु पल्लवन
प्रेम संबंधों के
अत्यावश्यक है
गोपनीयता
एवं
निजता,
अंतर का यह योग
मात्र अंतरंगता में
फलता....

नहीं रहना
वांछित किन्तु
साथ अनवरत
अन्धकार का,
बीज भी करता वरण
मृत्यु का
यदि नहीं पाता
प्रकाश सूर्य का....

हेतु अंकुरण ,
सामर्थ्य जुटाने,
पुनः जन्मने,
'होना'होता उसको
गहन अन्धकार में,
हाँ आ जाता है
बन कर सक्षम
फिर तले आकाश
खुले बाहर में....
करने हेतु
सामना
कायनात का,
प्रकाश,
तूफान और
बरसात का....

मित्र !
उठा पाता वह
इस बीड़े को,
यदि पकड़ी हो
जड़ें
गहरी उसने
अंधकार में,
निजत्व,
गोपन,
स्वीकार समग्र में...

Wednesday, August 4, 2010

नया जन्म ...

नया जन्म...
# # #

ज़िन्दगी
चलती नहीं
एक ढर्रे पर
आता रहता है
बदलाव
जर्रे जर्रे पर...

सोचो जरा
क्या थे
क्या हो गए हैं हम,
स्वयं के
विकास का
आज भी
जारी है क्रम...

असीम अनुकम्पा
अस्तित्व की,
खुद को
जानने लगे हैं
हम,
अपने अन्तरंग को
लगे
पहचानने हैं
हम...

'पहचान'
अस्तित्व का
पर्याय नहीं है ,
अस्तित्व से
अलग हों हम
यह कोई
उपाय नहीं है .....

एक नन्हे से
हिस्से हैं
हम विराट के,
है बस यही
अस्तित्व हमारा,
सोचो
हो सकता है
यह कैसे
समग्र
कृतृत्व हमारा....

स्व-पहचान के
पश्चात भी
देखा करते हैं
खुद को
होकर जुडित
औरों से,
पार होने की
लिए तमन्ना
अफ़सोस !
रुके रहते हैं
हम
छोरों पे...

अंतर की
बातों का
जवाब
बाहर
नहीं मिलता,
मरुभूमि में
साथी !
गुलशन
कभी नहीं
खिलता....

निज को ही
देना है
लेना भी है
स्वयं को,
छोटी है
दुनियावी बाते
रखना है
लक्षित
बस
परम को .....

हुआ है
नया जन्म
मना लो
उत्सव इसका,
रस्मो रवाज कायदे,
जानो
होते हैं
बर्चस्व किसका...?

Tuesday, August 3, 2010

स्वयं एवं अहम् (Self And Ego)-आशु रचना


# # #
'स्वयं' तो
जीवन है,
मौत है अहम्,
जीवन है
सुकोमल
मृत्यु
कठोर...कठोरतम...

जन्म पर
होता तन
कोमल एवं नम्र,
मृत्यु पर
तना तना और
समान बज्र...

जीवित वृक्ष
कोमल और
स्निग्ध,
पाकर मृत्यु
हो जाता
शुष्क और
ठूंठ...

काटा जाता
तरु कठोर,
नहीं पाता
अहम्
कहीं ठौर...

पहचान
स्वयं की
करे
अहम्
तिरोहित,
प्रभु मिल जाते
बिना
पुरोहित...

आश्रित.

# # #

मैने किया
सर्वस्व अर्पित,
समझा तू ने
आश्रित,
ना समझा तू
बात ह्रदय की,
कर दिया
सब कुछ
विस्मृत...

परिभाषाओं के
इस अंतर ने,
कैसा खेल
रचाया,
भ्रम के परदे ने
अपने को
बना दिया
पराया...

Saturday, July 31, 2010

दादी और नानी ...

दादी और नानी...

(अमेरिका के न्युयोर्क शहर का किस्सा है यह.)

# # #
काली नेनी
गोरे बच्चे को
'प्रम' में लिए
घूमा रही थी,
एक अनोखे से
अन्दाज़ में
उसे बहला रही थी
दुलरा रही थी...

एक देसी महिला
अपनी बहू की
जचगी कराने
साथ समंदर पार
बुलाई गई थी,
लगी कहने
कितना प्यार
करती है देखो
यह कल्लो इस
गोरे गुड्डे को...

बहू बोली
नहीं समझ रही
मम्मीजी आप
यहाँ के चलन को,
नेनी है यह तो,
बेबी सिटिंग
करा रही है......

भोली सास बोली
मैं भी कहूँगी
नरेश से
जनवा मैं दूँगी,
फिर नानी को भी
बुला लेना
आखिर
समधनजी का भी
तो हक बनता है....
देखो ना
नानी के पास
गुड़ुआ कितना
खुश रहता है...

बंसी

बंसी...

# # #
तान सुनाये
मन हरसाए
कान्हा तेरी
बांसी,
बजते बजते
क्यूँ रुक जाये
ज्यूँ विरहन की
हांसी....

मुदित मन
हिरदै बसाये
सोचि सोचि
मुस्काये,
सुर-लहरी जब
चुप हो जाये,
मेह अंखियन
बरसाए...

चूड़ी साड़ी
जल नदिया का
नील बरन
दरसाए,
कान्हा की छबि
दर्पण टूटे में
कई गुणित
हुई जाए...

अनगढ़ सत्य

######

उस दिन सुबह

अचानक

वो नीलकंठ

न जाने

खो गई थी

किन सपनों में

किस मादक गंध ने

किया था मुग्ध उसको

किसकी याद सताई थी उसे ;

उड़ गई थी शाख से

उड़ती रही-उड़ती रही

कभी नीचे

कभी ऊपर

आसमान के करीब

बादलों के पार

भूल गई थी वह

घोंसले में बैठे

नन्हे शिशु नीलकंठो को

छुट गए थे वे

कोमल मासूम बच्चे

जो दिल के टुकड़े थे उसके,

कुदरत की बुलाहट

वुजूद के एहसास

होतें हैं

सब रिश्तों से परे

उस पल

वह माँ नहीं

बस एक मादा थी

बस एक मादा थी……….

(नर-मादा दोनों के लिए यह एक प्राकृतिक अनगढ़ सत्य है---a raw truth , जिसे अध्यात्म और व्यवस्था ने परिमार्जित करने का प्रयास किया;……सफल या असफल, कहना मुश्किल है.)

Thursday, July 29, 2010

तारे गगन से : खुला आकाश....(दीवानी सीरीज़)



बाहिर मुल्क में हुई एक सेमिनार में शिरकत कर जब कैम्पस लौटा तो उसका खत मेरा इंतज़ार कर रहा था.....उसमें एक नज़्म थी बहुत ही प्यारी, भावुकता और दृढ़ता से भरी हुई. मैने चुप रहना उचित समझा था. मगर दीवानी ठहरी प्रेम दीवानी, एक दिन डाक में एक पत्रिका अनायास ही मुझे मिली, जिसमें वह कविता 'कमसिन' उप नाम से साया हुई थी. लफ़्ज़ों और तखल्लुस से खेलना शायर/शायरा और मोहब्बत करने वालों का पुराना शगल है....मैने समझ लिया कि यह 'दीवानी' का reminder है.

मैने भी कलम उठाई थी और उस मैगज़ीन के एडिटर को एक खत लिखा था, और एक नज़्म भी भेज दी थी.

कितने तारे गगन से.......(दीवानी/कमसिन)

प्रतिपल तुमको अपने मन के
भाव-जगत में पाया है.
सांस-सांस व्याकुल
अधरों पर
नाम तुम्हारा आया है
मैने काटे पर्वत से दिन
नदियों स़ी लम्बी रातें
पल पल करते सदियाँ बीती
थमी ना अंसुवन बरसातें.
सतत प्रतीक्षा की घड़ियों ने
समय कल्प झुलसाया है……..

कितने तारे गिने गगन से
टूटा नहीं अकेलापन
यह मत पूछो कैसे मुझ को
छोड़ गया मन का यौवन
स्वाति चन्द्र को मन चकोर ने
क्षण भर भी ना भुलाया है.

मेरे विश्वामित्री प्रियतम !
करो तपस्या तुम पूरी
कठिन परीक्षा ही कर देगी
दूर हमारी यह दूरी
सहज मिलन वैसे भी जग को
रास भला कब आया है.

खुला आकाश.........(मेरा प्रत्युत्तर)

ना मैं विश्वामित्र हूँ
और ना ही तुम मेनका हो
तपस्या का शब्द तक
नहीं है कहीं मेरे
जीवन के शब्दकोष में…….

बहुतों ने गिने है तारे
किसी ऐसे की प्रतीक्षा में
जिसको नहीं आना था
चिरकुमारी ना रह जाओ
हे सुभागे !
छोडो यह दीवानापन
आ जाओ आब होश में.

प्रेम वह नहीं जो
तुम पर आच्छादित है
प्रतीक्षा या प्राप्ति
जिस में परिभाषित है
यह तो है एक स्थिति
जिसमें तुम्हे प्रथम
मुझको नहीं स्वयं को
चाहना होगा
कायनात की हर शै से दिल
लगाना होगा………….

यह तारे, यह गगन यह पर्वत, यह नदियाँ
यह वृक्ष, यह चंदा और चकोर
यह पवन, यह बादल , यह झरने
यह बूटे, यह पत्ते, यह फूल
सब होंगे साथी तुम्हारे
भाव जगत के…………
ना होगी पीड़ा भरी प्रतीक्षा,
दुःख से सिक्त अपेक्षा,
ना ही कोई तपस्या
ना ही कोई परीक्षा
बस होगा खुला आकाश और
प्रकृति का मृदुल हास …………

तिलिस्म...

तिलिस्म...

# # #
होती है शुरुआत
शून्य से
हर एक
तिलिस्म की,
बस शून्य को ही
होता है पाना
फिर से,
तोड़ कर
तिलिस्म को,
या गुज़र कर
उस से....
अक्सर
रह जाते हैं
हम
उलझ कर
बीच तिलिस्म के,
और
लगते हैं पुकारने,
इस अर्ध सत्य को :
"ब्रह्म सत्यम
जगत मिथ्या !"

Wednesday, July 28, 2010

गाफिल था मैं..


# # #
गाफिल था मैं
आगाज़-ए-सफ़र में,
राहें भी
अनजान थी'
खुद को
खुद की ना
पहचान थी,
मंजिल की
सोचों का क्या,
फिजायें तक
परेशान थी,
जा रहे थे
बढे कदम,
संग वो
नादान थी,
तारीकी में
लकीर थी
रोशनी क़ी वो
चाहे दुनिया मेरी
सुनसान थी,
भरोसा था
पहुँच पाने का
खुशकिस्मती मेरी
मेहमान थी,
हाथों में हाथ था
जिसका
वही मेरे
अरमान थी,
साथ उसके
हर पांव पर
राह-ओ-मंजिल
दोनों ही
आसान थी...

'ना' और 'हाँ'...


# # #
यदि नहीं
सामर्थ्य
तुझ में
'ना'
कहने का,
अर्थ हीन है
'हाँ'
तुम्हारी...
आज्ञाकारिता
और
वफादारी को
जोड़ा है
'हाँ' सिर्फ 'हाँ' से,
अपने ही
सुविधा और
अहम् पोषण
हेतु.........

प्रतिबद्धता है
अभिनय
सीखाया-पढ़ाया सा,
प्रेम है
किन्तु
खिला खिला
जंगली फूल सा,
सहज और
कुदरती...

प्रेम
प्राप्य हुआ हो
याचना से
बन जाता है
प्रतिबद्धता
और
दासत्व,
अर्पित हुआ
स्वेच्छा से जो
प्रेम,
बन जाता है
अनुपम उपहार
जगाने को
चेतना....



Tuesday, July 27, 2010

सुख स्वार्थी होने का


# # #
कहते हैं वे,
प्रेम करो
पड़ोसी से
प्रेम करो
दुश्मन से,
करो तुम प्रेम
औरों से,
मगर नहीं कहते
करो ना तुम प्रेम
स्वयं से....

बुनियादी बात है
जब करेंगे हम
असीम प्रेम
खुद से,
छलकेगा वह
और बहेगा
स्वतः ही
जानिब औरों के..

बांटना घटित होता है
तभी
जब हो कुछ
पास हमारे
जब प्याला प्रेम का
भरता है लबा लब,
छलकता है वह
घटित होता है तब
अर्पण
ना कि त्याग और दान,
कोई एहसान नहीं
देनेवाले का,
बल्कि शुक्रगुजार
हुआ जाता है
पानेवाले का,
जिसने किया
आत्मसात
उस उफनते,
छलकते,
बहते,
प्रेम के धारे को...

हो जाएँ हम
खुश
सुकूं और शांति से भरे
मौन और संतुष्ट
ताकि पहुंचे हमारा
भाव भरे पूरे होने का
सब तक..

बांटना बनता है
हर्षातिरेक,
दिया जाता है जब
बिना किसी याचना के,
बिना कुछ जताए,
बिना कुछ बताये.....

देना किसीको
होता है ज्यादा
ख़ुशी देनेवाला
पाने से,
हाँ तभी
जब हम बन कर
स्वार्थी करते हैं
खुद से
बे-इन्तेहा मोहब्बत,
असीम प्रेम.....