Saturday, September 25, 2010

सौन्दर्य-सौष्ठव

# # #
सौन्दर्य
श्रंगार
नहीं मोहताज़
यौवन
और
सौष्ठव को ..
मन की तरंगे
करती जब
उत्फुल्ल
देह अभिनव को,
कान्ति
करे
आलोकित
रौं रौं को...
सुगंध
मादक
भावों की
भावे
मस्त
मधुकर को,
दे जाती
मधुर
संगीत
हर स्वर को...
प्रवाहित
प्रेम नीर
शिखा से
पर्यन्त
पाद-अंगुष्ठ,
है दर्पण
ईर्ष्यालु
लख कर
बिम्ब
अभिष्ठ...

Friday, September 24, 2010

क्या होते हैं मायने दोस्ती के ?

# # #

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नामObservation seriesदेना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ीसाधारण स़ी.)

आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ कवितायेँ इस से पूर्व भी.

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वो कहते थे:

दोस्त ! तुम-हम एक हैं
जो तुम्हारा है वह मेरा है
जो मेरा है वह तुम्हारा है
यार ! सब कुछ बस अपना है.

मैंने अनुभव किया :

ऐ दोस्त !
जब तक मैंने
किया स्वीकार
मेरी हर चीज को
तुम्हे
अपना समझते हुए,
तुम ने निभाया था
लौकिक-व्यवहार
मुझ से
सोचा था
जिस दिन
मैंने:
‘तुम्हारा’ भी ‘मेरा’ है
तू ने
बना दिया था
पराया मुझको....

तब जाना था
मैं ने
भूल थी वो
मेरी,
मेरे लिए थे
तुम दोस्त,
और
तुम्हारे लिए
मैं था
एक ‘यूज एंड थ्रो’
वस्तु....

क्या होते है
मायने
दोस्ती के…..?

Thursday, September 23, 2010

पारदर्शिता...........

# # #

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ ओबजर्व करतें हैं. ओबजर्वेशन करीब करीब हम सभी के होतें हैं. बहुत छोटे छोटे ओब्जेर्वेशन शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी देखी, जानी और समझी हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी.)

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वो कहा करते थे :

नारी को
अपने विचारों को
व्यक्त करने का
अधिकार
पुरुष से कहीं कम नहीं,
उसे भी है आज़ादी
जीने की तौर पे अपने,
जब है मेरी जीवन-साथी वो
उसकी सोचें
उसके मशविरे
रखते हैं मायने
ज़िन्दगी में उतने ही
जितने कि मेरे.
ज़रूरी नहीं हैं
उसका मेरे हर फैसले से
सहमत होना....

देखा गया था :

जब भी वह बोलती
किसी मसले पर
कहते थे वे
चुप रहो,
नहीं जानती
तुम कुछ भी,
अपने मन से कुछ खर्चा कर दिया
अपने किसी पुरुष सहपाठी से
अचानक मिलने पर
गरमजोशी दिखा दी
दो एक दिन
अपने पसंद की
सब्जी बनवा ली
बच्चों के लालन-पालन
और
पढाई पर
कुछ अहम् फैसले ले लिए
परिवार के किसी स्वार्थी
एवम
संकीर्ण मनोवृति के
सदस्य की
युक्ति-संगत
व्याख्या कर दी----
उनकी बुराई के लिए नहीं
पारिवारिक भलाई की
पृष्ठभूमि में,
महंगाई से लड़ने
समय और समर्थ्य के
सदुपयोग हेतु
कुछ काम करने की
सोच बना-ली,
किसी दिन
उनसे अधिक
आकर्षक व्यक्तित्व की
झलक
दिखाई देने लगी उसमें,
कभी कर बैठी वो
सहज जिज्ञासा
उनके कार्य-कलापों पर,
चढ़ जाता था
उनका पारा
सातवें आसमां पर,
बन जाते थे श्रीमान
दुर्वासा कलियुग के,
और
होने लगती थी
बौछार शापों की,
असंसदीय भाषा में ......

उचित
मान
देवर के प्रेम प्रसंग को,
उसके शादी के लिए
चयन को जब
बताया था
युक्तिसंगत
उसने ,
हो गई थी हवा
आज़ाद-खयाली उनकी,
जाति, रुतबा, चरित्र
ना जाने कितने
तर्क-कुतर्क
गए थे जुबाँ पर
उस सुलझे हुए
इंसान के,
और कहा था
उन्होंने:
मैं हूँ
मुखिया घर का
फैसले सारे करना
अधिकार है मेरा,
फ़र्ज़ है तुम्हारा बस
बिना
उठाये सवाल कोई,
मानकर उचित बस उसको,
करते रहना अनुसरण

यही तो है
भारतीय परम्परा अपनी ,
पति
को मन्ना परमेश्वर,
भरोसा करना पूरा उसका
है अपेक्षित तुम से,
क्या है तुम्हे संशय
मेरी
योग्यता
और

कुशलता
में ?

दे दी क्या
ज्यादा आज़ादी
तुम
को मैने,
इतरा रही हो बहुत तुम तो
क्यों फहरा रही हो
झंडे नारी
-क्रांति के ?

किया था अनुभव मैने :

सटीक
थी कितनी
बात उन बूढ़े बाबाजी की,
होंदी है कुछ गल्लें केने दी
और कुछ कन्ने दी.”
फर्क यह कथनी करणी का
मिटेगा
जब रिश्तों में,
आएगी पारदर्शिता
और

बढेगा सौहार्द
आपसी संबंधों में ....

Tuesday, September 21, 2010

शीर्षक ....

# # #
जीवन रण
जूझते जूझते
शीश कटा
बैठी हूँ मैं,
मोह सागर
गहराई में
अनायास
पैठी हूँ मैं
रहा नहीं अब
पोषक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा...

जानो तो मोहे
पूरा जानो
जैसी हूँ
वैसी को मानो
कुछ ना रहा
आकर्षक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा....

खेत हूँ मैं बस
बंजर जैसी
बिन बरखा
सूखा हो जैसी
रूठ गया है
कृषक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा...

टूटे घुँघरू
नाच रही हूँ
हर दृष्टि को
जांच रही हूँ
भ्रमित कुंठित
हर दर्शक मेरा
क्यों चाहते हो
शीर्षक मेरा...

Monday, September 20, 2010

हाथी के दांत.....

# # #

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ ओब्जर्व करतें हैं. बहुत छोटे छोटे ओबजर्वेशन को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी ओब्जेर्व की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी.)
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वो कहते थे :

दया मूल है
धर्म का,
दान करना है
शोभा करों की,
सद्वचन सुनना
सार्थकता
कानों की,
बोलना मृदु-वाणी
उपादेयता
जिव्हा की
प्रभु की भक्ति
सम्पूर्णता
जीवन
की ....


देखे गए थे वो :

गरीब बाल-मजदूर को
पीटते हुए
कौड़ों से,
खरीदते हुए
बिस्कुट सड़े
बाढ़ पीड़ितों के लिए,
सुनते हुए
पर निंदा
कानों से,
जुबान से
देते हुए
गालियाँ,
लेते हुए
सस्ता मिलावटी घी
पूजा के लिए,

अनुभव किया :

हाथी के दांत
हुआ करते हैं
दिखाने के और
और
चरने के और….

पाखण्ड
ना जाने क्यों
बन गया है
अन्दाज़
जीने का हमारा...


मुरझाया

# # #
वक़्त ने
करवट ली
एक फूल खिला
एक मुरझाया
जो खिला वो
शास्वत हो गया
खिला गया
तन-मन को
भर दिया
महक से
उसने
घर आँगन को
जो खिला
वह पुष्प था
अन्तरंग के
उद्यान में.....

जो मुरझाया था
वह फूल था
बहिरंग
उपवन का
गिर कर जमीं पर
हो गया था जो
शुमार
माटी में
दे रहा था
खुराक नयी पौध को
फिर से फूलों को
खिलाने के लिए.............

Thursday, September 16, 2010

फुसुन्तराज़ी.......

# # #

दावत में उनके जगह मेरे, मेरी ग़ज़ल गई.
आशिक के हर शे’र पे मासूका जल-जल गई.

उनकी नज़रों का असर था के फुसुन्तराज़ी
बीमार को लगा की तवियत संभल गई.

बड़े अरमान से चलाये थे हम ने हल जमीं पे
बारिश ना हुई तो यारों बातिल मेरी फसल गई.

तू है खुदा कांटो का जानते हैं सब कोई
तेरी हर बात जाने क्यूँ राह-ए-अदल गई.

कर के क़त्ल तेरा निकला था मैं महफ़िल से
देखा तुझे जिंद यूँ क्यों खबर-ए-क़त्ल गई.

बसाया है उसने घर संग मेरे रकीब के
बातें उडी उडी स़ी मैदान-ए-जदल गई.

नाम लेने में रुक क्यों जाता हूँ मैं
मुझसे रिश्ते की बातें बन के मसल गई.



फुसुन्तराज़ी=जादूगरी, अदल=न्याय, जदल=युद्ध, मसल=कहावत.

Wednesday, September 15, 2010

लाडेसर (लाडली) बेटी रे खातर........(राजस्थानी)

# # #

म्हारे कालजिए ऱी कौर है तूँ

तूँ हैं मोत्यां बिचली लाल
लाडेसर म्हारे मन बसे……..

मन-डे री बात्याँ तूँ पूछे
म्हारी पीड़ रे सारे तू पहुंचे
थान्सुं पाऊं में नेह-हिन्वास
लाडेसर म्हारे मन बसे……..

दर्द दूजां रो तूँ समझे
गरीब कमज़ोर ने अपनों समझे
तूँ है मानवता रो सन्देश
लाडेसर म्हारे मन बसे…..

नांव थारो रोशन हुवे
खिल्यो खिल्यो थारो गुलशन रहवे
थारे हिन्व्ड़े रहवे हरख अपार
लाडेसर म्हारे मन बसे……..

हिंदी अनुवाद :

तुम मेरे कलेजे का टुकड़ा हो
तुम मोतियों के बीच एक लाल हो
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो.......

तुम ही तो मेरे मन की बात पूछती हो
तुम्ही तो मेरी पीड़ा के करीब पहुँचती हो
तुम्ही से मुझे स्नेह्की गरमाहट मिलती है
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो.....

तुम दूसरों का दर्द समझती हो
तुम गरीबों और कमजोरों को अपना समझती हो
तुम मानवता का साक्षात् सन्देश हो
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो.....

नाम तुम्हारा रोशन हो
तुम्हारा गुलशन (जीवन) खिला खिला रहे
तुम्हारे दिल में अपार ख़ुशी रहे
लाडली तुम मेरे मन में बसती हो......

Monday, September 13, 2010

संतुलन...

# # #
लेकर
सागर की
अनगिनत
लहरों से
अंशदान,
रचता है
भानु
अमृतमय
मेघों को,
लौटाते हैं जो
बरस कर
प्राप्य
लहरों का,
यही तो है
प्रमाण साक्षात्
सृष्टि के
संतुलन का...

सृजन
और
विसर्जन
रखतें हैं
गतिमान
अखिल
ब्रह्माण्ड को,
करतें हैं
हम
मिथ्या
अभिमान
स्वयं के
भ्रमित
मन्तव्य का,
करके विस्मृत
बिंदु
निज-गंतव्य का,
जो होता हैं
आधीन
सृजन
और
विसर्जन की
अनवरत
प्रक्रिया के....

थका हारा दीप..


# # #
मैने
लिख लिख कर
फाड़े है
खतूत कई
शब्-ओ-दिन,
इज़हार के नहीं
इन्कार के,
कि करता हूँ
तुझ से
मोहब्बत मैं
बेपनाह...
ना जाने क्यों
मेरी इन
ग़ज़लों की
खुद ब खुद
हो जाती है
इस्सलाह...
कटते हैं
चन्द अशआर
बदल जाते हैं
काफिये ओ रदीफ़,
नींद हो जाती है
जुदा मुझ से
और
बदल कर
करवट
बुझा देता हूँ
संग मेरे
रात भर जगा
टिमटिमाता सा
मेरे ज़ज्बात का
थका हारा सा दीप....

सूरज : गरमा-गरम रोटी

# # #

वक़्त
ले जाता है
साँझ ढरे
घर अपने
अँधेरे के
छेदों भरे,
ढीली ढाली
बुनावट वाले
बोरे में
सितारों के
दाने
भर कर...

पूरब कि
चाकी में
पीस कर
गृहणी उषा
बना देती है
एक गरमा-गरम
रोटी
कहा जाता है
जिसे
सूरज....

(राजस्थानी बात है-जिसे नानीसा बालसुलभ जिज्ञासा के जवाब में बताती थी, इसी आशय की राजस्थानी कवितायेँ भी अलग अलग रूप में लिखी गई है.)

Friday, September 10, 2010

कैसा झोलम झोल...

# # #
कैसा है झोलम झोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

महँगी तिजोरी
सस्ता ताला
रकम रतन का है
रखवाला
किसका कितना मोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल..

चाभी छोटी
मोटा ताला
मालिक ने
बांधि कमर संभाला
इसमें कैसी पोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

कहे हथौड़ा
सुन री कुंजी
मैं हूँ भारी
तू टट- पुन्जी
दीन्ही तिजोरी खोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल....

कहीन चबिया
सुनहूँ हथौड़े
प्रेम की होवे
बतिया निगौड़े
छोट बडन फजूल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

तू टकराए
मार लगावे
मेरे इशारे
काम करि जावे
यूँ कर देती बंद- खोल रे
साधो !
कैसा झोलम झोल...

सर-ए-राह.....(very old)

# # #

मिले इस कदर वे सर-ए-राह में
उठ गया भरोसा हमारा चाह में…

दुनिया के रिश्तेहो गए बेमानी हम पे
तस्वीर उनकी ही रहने लगी निगाह में

ज़िन्दगी ने दिए थे हमें मौके बेशुमार
ना मिला वो बसाया था जिसको चाह में

बहुत कोसा था उनको हमारी नज़्मों में
जवाब देते थे वोह बस वाह वाह में..

लिखे थे चार लफ्ज़ हमने उनकी तारीफ में
दो हम ने मिटाए दो कट गए इस्लाह में.

बन के फूल आये थे खिल कर ज़माने में
बिखर के गिर गए रही खुशबू ऐशगाह में.

दिल तोडा था उसने इस कदर मेरा
आने लगी लज्ज़त हमको हर गुनाह में.

अंतर्विरोध

# # #
चक्षु हीन
महाराजा धृतराष्ट्र
तथाकथित
पतिव्रता
महारानी गांधारी
संस्कारवश
अहम्वश
भ्रमवश
प्रशंसा की क्षुदा से
ग्रस्त
अथवा
किसी अज्ञात
कारण से
धार चुकी थी
आजीवन
दृष्टिहीनता का
व्रत
लेकर संकल्प
त्याग का
कष्टमय जीवन का
अर्धांगिनी के तपस्विनी
स्वरुप का,
धन्य ! धन्य !
ध्वनियाँ पाई थी
परिवार की
समाज की
किन्तु किया था
विरक्त
स्वयं को
गृहस्थाश्रम के
मातृत्व के
उत्तरदायित्वों से
होकर
अयोग्य
क्षमताहीन…

स्व आरोपित
दृष्टि दोष से
हुई थी
उत्पन्न
पारिवारिक
विश्रीन्खला
अनियंत्रण
संतान
अनुपालन पर;
परिणाम :
चरित्रहीन
संस्कारहीन
दम्भी
सौ पुत्र
जिनका कलुषित
आचरण
नहीं कर पायी
विस्मृत
हमारी संस्कृति…………

Wednesday, September 8, 2010

दंभ......

# # #
कैसी
विडम्बना है
यह
अल्प सा साफल्य
दे देता है
वृहत आकार
हमारे अहम् को
बना कर उसे
दैत्य सा,
निकल आते हैं
नुकीले सींग
अदृश्य से
हमारी देह और
बुद्धि में,
बन कर
हिंसक
दंभ में
करने लगते है
हम
तहस-नहस
हर रचना और
संरचना को
भूल कर
अपने हितों को
अन्यों के हितों को
पड़ जाता है मानो
कोई पर्दा
हमारे
विवेक पर......

किन्तु
विपदाओं से
आपूरित
एक नन्ही स़ी लहर भी
दूसरे ही क्षण
बना देती है हमें
क्षुद्र और असहाय
सदर्श उस लघु कीट के
भीगें हो
जिसके पंख
वर्षा के जल में.....

Tuesday, September 7, 2010

भूल उसको तू जाना......

# # #

( उपालम्भ और प्रेम का यह गीत हमारे फोल्क-सोंग्स से प्रेरित है, जो हमारी हर भाषा और बोली में पाए जाते हैं-और माटी की सुगन्ध लिए सब जगह गए- गुनगुनाये जाते हैं----मेरे usual अन्दाज़ से थोड़ी स़ी हट कर है यह पेशकश, उम्मीद है आप सब का स्नेह मिलेगा इसको भी, सादर.....विनेश)
_______________________________________________


बालम तुम हो कैसे
यह जाने ज़माना,
रंगीन मस्तियों को
क्यूँ हम से छुपाना !!बालम………..

आये हो कहाँ से
सजन यह तो बताना
माथे का पसीना
कहे सब फ़साना !! बालम………

दैय्या री उसका तोहे
नज़रियाँ लगाना
बहारों के मौसम में
तेरा मुरझा जाना !!बालम…….

धूप है करारी
तेरा यूँ आना जाना
छांव में टुक बैठो
कहे हडबडाना !!बालम……….

आँचल का यह पंखा
तोहे लागे सुहाना
तेरा यूँ ही गाना
और यूँ गुनगुनाना !!बालम……..

सुकून है यहाँ पे
लज्जत मेरे जाना
बस रहना यहीं पर
भूल उसको तू जाना !! बालम……

Saturday, September 4, 2010

नज़र आता है

####
मुंसिफ के हर फैसले में इन्साफ नज़र आता है
मन का किया इशारा हमें बाप नज़र आता है.

सुन सुन के समझते हैं बातें क्यों दिल कि
फांसी का फंदा हमें मुबाफ़ नज़र आता है.

होंश संभाले थे जब से पाई जिल्लत हमने
झूठे रिश्तों का एहसास.. शफ्फाफ नज़र आता है.

बहता है खूँ सर से चोटें खाकर उनसे
ज़माने को यह रिश्ता कोहकाफ नज़र आता है.

झूठन फेंक के मुझ पे कर दी है फ़र्ज़-अदाई
इसमें लिल्लाह उनको अल्ताफ नज़र आता है.

रगों में दौड़ता है खामोश खूँ जो है
रस्मों से बड़ा इन्सान साफ नज़र आता है.

कैद हुए जा रही है नींद कि परियां चंचल
सर-ए-शाम मुअत्तर तेरा गिलाफ नज़र आता है.

इश्क को कहते क्यूँ मुश्क न पूछो मेरे यारों
एय अहू मुझे हरसू नाफ नज़र आता है.

न पूछो हाल हमारी फ़ित्रत-ए-जब्त का यारों
गुनाह उसका हर क्यूँ मुआफ नज़र आता है.

मुंसिफ=न्यायाधीश मुबफ=केश बंधने का फीता (हैर-रिब्बों)
जिल्लत=अपमान शफ्फाफ=पारदर्शी कोहकाफ=काकेशिय का सुन्दर पहाड़
अल्ताफ=दया, कृपा मुअत्तर=सुगन्धित गिलाफ=खोली मुश्क=कस्तूरी
अहू=हरिण(दीर) हरसू=चरों तरफ नाफ=नाभि. फ़ित्रत=स्वभाव
जब्त=सहनशीलता

सत्ता चेतना की....

# # #
अगर नहीं
होगा सामना
आईने से
कैसे दिखेगा
अक्स चेहरे का ?

मुंह फेर
दिखा कर पीठ
खड़ा होने जाने से
नहीं मिट जाती
हकीक़तें
ज़िन्दगी की .....

दोस्त !
उम्र कितनी होती है
लहद के चराग की ;
उपरी सोचों को
अपनाने से
हो जाता गर
घटित
इल्म रूहानी
मानता कौन
सत्ता चेतना की ?

Friday, September 3, 2010

मौजी....

# # #
मन का मौजी
तन का खोजी
रसिया है तवियत का
मीठे बोल लुटाता रहता
खोटा है नीयत का....

बनता ज्ञानी
बातें बिन पानी
शब्दजाल फैलाया
भ्रमित करे बातों से सब को
उसका पार ना पाया...

खोटा रूपया
है बहुरुपिया
स्वांग उसके बहुतेरे
हकीक़तों के नाटक करता
रहे बदलता चेहरे...

बच के रहियो
उसे ना सहियो
जाने ना क्या हो जाए
मुश्किल से है मिली ज़िन्दगी
खोये और पछताए...

साजन छलिया
डारे गलबहियां
तीखी याद सताए
ज़ुलमी क़ी छवि अंखियन बसती
उसे कैसन हम बिसराए....

दर्पण अपना
अक्स भी अपना
उसे कोस कोस थकी जाए
देखें जब दिल क़ी नज़रों से
बात समझ में आये.....

दुनियावी बातें
होवे खैरातें
भये एहसास कुछ अपना
खुद से प्यार होई जावे हम को
साकार भई जावे सपना....

रूहानी...

# # #
मत औढ
चद्दर
थोथे आदर्शों की
हर रिश्ते में
कुछ बातें
जिस्मानी है
बातें कुछ
रूहानी है.......

ठंडी हवा
हरियाली
चांदनी
फूलों की खुशबू
आसमान की नीलिमा
सागर की गहराई
और
विस्तार,
इन सबों में
मन की बातें
एक एक
सुहानी है,
मगर
ऐ दोस्त !
वे सब जिस्मानी है....
वे सब रूहानी है...........

Wednesday, September 1, 2010

सम्बल और कमजोरी...

तुम बन के आये थे
सम्बल
मेरी जिन्दगी में
वक़्त गुजरा
कमजोरी
बन गए.....

चाय की कई
प्यालियाँ,
सड़क किनारे
बिकते
चने चबैने,
बर्फ के
रंग बिरंगे
लच्छे,
खट्टे मीठे
पानी वाले
गोलगप्पे,
झील का
किनारा,
पार्क के
खुशनुमा फूल,
कॉलेज का
लान
और
उसपर खड़े
छायादार
दरख्खत,
थियेटर फेस्टिवल,
शास्त्रीय संगीत की
महफिलें,
काव्य गोष्ठियां,
कृष्णमूर्ति की
वार्ताएं,
रजनीश के
ध्यान शिविर,
सब थे गवाह
तेरी-मेरी दोस्ती के....
क्या हुआ
अचानक
तुम क्या से
क्या हो गए,
जमीं से उड़कर
आसमां में खो गए,
हकीक़त से बदल
तसव्वुर हो गए,
हलके अंतर्मन से
होकर तब्दील
भारी स़ी
तिजौरी बन गए......