Tuesday, March 30, 2010

शास्त्र शब्दास्त्र

# # #
लड़े जा रहा था
मैं अकेला,
एक अदृश्य
युद्ध,
हाथों में
लिए हथियार
विगत के,
शब्द-व्यूह में
घिरा.....

उस पल तक
नहीं हुआ था
संहार
चेतन्य के
प्रबल शत्रु
मेरे
'अहम्' का....

पुस्तकों के
पृष्ठों पर
थे आरूढ़
काला मुंह किये
हारे हुए
मेरे
बहरूपिये विचार
शब्द
बनकर....

अट्टहास
कर रहा था
हरा कर
मुझ को,
मन की
सीमा पर
खड़ा
निर्लज्ज
द्वन्द........

हुआ था
आभास
'यहीं और अब' का
घटित हुई थी
सजगता,
छूट गए थे
शास्त्र,
रणछोड़
हुआ था
द्वन्द,
गिरा कर
अपने
शब्दास्त्र...

(एक मनीषी ने अपने अनुभव 'शेयर' किये थे मुझ से और मैने शब्द देकर आप तक पहुँचाने का प्रयास किया है.)

Monday, March 29, 2010

ज़िन्दगी.....

# # #
जिन्दगी नहीं
संजीदगी
बसी हो
उदासियाँ,
महल नहीं है
कोई
छाई हो
जहां
खामोशियाँ......

ज़िन्दगी
नाम है
जिंदादिली का,
एक
रंगीन सपना
आँख
खुली का...

ज़िन्दगी है
एक नगमा
गुनगुनाया जाये,
एक रक्स
झूम कर
खुद को
डुबाया जाये...

ज़िन्दगी है
मोहब्बत
जिया जाये,
अमृत है
अनमोल
पिया जाये...

हर लम्हा
खुशियों में
भिगोया जाये,
जो है बस
'यहीं और अब'
अपनाया जाये...

हंसी रौं रौं की
खुदा की
इबादत है,
हंसने
मुस्कुराने से
इंसानियत
सलामत है.....

(एक पुरानी अन-पोस्टेड रचना)

Wednesday, March 24, 2010

मंथन कर.....

(इस रचना के भाव मेरे हैं और नहीं भी..... शब्द मेरे हैं और नहीं भी....अवचेतन में कुछ भाव... कुछ शब्द संगृहीत थे..सोचे-समझे-पढ़े-जाने,कल्पित-अकल्पित-अनुभूत-अनानुभूत ...और यह रचना घटित हो गयी ...कभी कभी तो लगता है रूपांतर ही तो है......शेयर कर रहा हूँ आप से..)

# # #
प्रश्न तुम्ही ;
तुम्ही हो
उत्तर....

तट !
अतल के
साथ
चले.... जा,
फल
निष्फल का
चिंतन है
क्यूँ,
क्षण
नश्वर से
बंधे हुए है,
नन्हे नन्हे
क्षण
अविनश्वर,
प्रश्न तुम्ही
तुम ही हो
उत्तर....

घेरे क्यों है
तुझे
हताशा,
अधरों की
बस
सजा है
भाषा,
प्रतिमा का
निर्माण
यह कैसा,
काट
फूल से
कोई
पत्थर,
प्रश्न तुम्ही ;
तुम्ही हो
उत्तर....

नहीं मथा
दधि...
नवनीत
खोजता,
मूढ़ ही तो
इस भांति
सोचता,
बार बार
पुकारे
पयोधि,
मंथन कर
तू मंथन कर,
प्रश्न तुम्ही ;
तुम्ही हो
उत्तर....

Tuesday, March 23, 2010

कब अपने मन की होती है.....

# # #
तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

पीड़ा
जलधि की
व्यक्त
हुई
लहरों के
हिलते
अधरों में,
सीपें
बेचारी
क़त्ल हुई
पीकर के
आंसू
उदरों में,
सागर के
दारुण
आंसू को
कहती
दुनियां
यह
मोती है,
तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

शलभ
अमर
क्या
हो पाया
प्यारे
दीपक के
चुम्बन से,
धुआं
क्या
बच के
रह पाया
जा परे
दीप
आलिंगन से,
सुख
मिलन में
निहित
कहाँ,
स्वातंत्र्य
विमुख
दुःख से है
कहाँ,
बिछोह
मिलन की
कथा
विचित्र
आदि कहाँ
और
अंत कहाँ,
सोच सोच
ये बातें सब
जीवन
सीमायें
रोती है,
तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

सोयी
कलियाँ थी
हर्ष
निमग्न,
जग कर
हुई
पुष्प
जो झरा
भग्न,
सन्नाटे के
पहरों में
किन्तु
काँटों की
टीसें
सोती है,
तू आज बता
मुझको
सजनी !
कब अपने
मन की
होती है.......

निवेदन :

(अ) दूसरा स्टेंज़ा अन्य स्टेंजों से लम्बा है.....अभिव्यक्ति के प्रवाह में ऐसा हो गया है.. छन्द, मात्रा या इसी तरहा के तकनीकी बिन्दुओं की दृष्टि से यह सटीक नहीं है...

(ब) लगभग ऐसे ही रूपक अन्य कवियों के लेखन में मिल सकते हैं...क्योंकि शलभ,दीपक, धुआं, कली, फूल, सागर, लहरें, सीपी और मोती को लेकर लाखों कवितायेँ रची गयी है...हाँ अनुभूतियाँ और प्रस्तुतीकरण मौलिक है.....

(स)चलते चलते : मेरा तकियाकलाम है, जिसे महक खूब बखानती है-"सब सापेक्ष है..."

Monday, March 22, 2010

अग्रिम जमानत....

# # #
बनाया है
तुम ने
एक बंगला
न्यारा,
भव्य
विशाल
अत्यंत ही
प्यारा,
रहेंगे
इसमें
साथ
इन्सां
तेरे
मनचाहे,
मगर
होंगे
कुछ और भी
बाशिंदे
अनचाहे....

बैठेंगे
छज्जों पर
कबूतर,
भिन्नायेंगे
यहाँ वहां
मक्खी-ओ-मच्छर,
पंछी बनायेंगे
तिनकों से
घोंसले,
तिलचट्टे भी
दिखायेंगे
अजीब से
चोंचले,
कौवे
बिगाडेंगे
छत को
तुम्हारी
सांप भी
देंगे
कभी कभार
फुफकारी,
चूहे
बनायेंगे
बागीचे में
यहाँ वहां
बिल,
छिपकलियाँ
दौड़ेंगी
दीवारों पे
फिसल फिसल,
चमगादड़
अँधेरे
तहखानों में
उलटे
लटकेंगे,
म्याऊं म्याऊं
गाते हुए
बिल्ली-बिल्ले भी
भटकेंगे....

करदे तू
किसी भी
कचहरी में
नालिश,
जिरह करेंगे
वकील तेरे
कानूनन
निखालिश,
करते रहेंगे
ये सब
तेरी
अमानत में
खयानत,
वारंट इन पे
ना निकाल पायेगी
कोई भी
अदालत,
क्यूँ कि
दे दी है
इन सब को
ने
अग्रिम
जमानत....

(इंसान की फ़ित्रत और कुदरत की अनकही सच्चाई को लेकर बचपन में यह सब बातें राजस्थान में नानीसा से सुनी थी और मेरे स्कूल लाइफ में मैने एक तुकबंदी के रूप में कलम बंद की थी.....आज आप सब के साथ शेयर कर रहा हूँ...आशा है आपका स्नेह मिलेगा.)

Sunday, March 21, 2010

सुर....

# # #
सात सुर
होते हैं
परे,
लिंग,
रंग,
जात,
मुल्कों,
रिवाजों,
रस्मों,
फिरकों,
रसूख
और
हैसियत से.....

साज़ और
आवाज़ का
मीठास
बचा सकता है
जहां को
हैवानियत से....

मोसिकी ही
वो शै है
जो मिला
सकती है
इन्सां को
इंसानियत से....

Saturday, March 20, 2010

अंतिम दीप जलाया है.....

# # #
आज प्रिये !
रजनी का
मैने
अंतिम
दीप
जलाया है.....

दे दे कर
अंतिम
आमंत्रण,
शेष रहे
शलभों को
मैने,
सद्य
यहाँ
बुलवाया है...

विदा करो
दीपक को
जलकर,
कल्याण
निहित है
इसमें
सबका,
बस
तथ्य
उन्हें
समझाया है.....

यदि
बचे रहे
इस बार
यहीं,
संभव पाना
है
प्यार
नहीं,
बलि चढ़ोगे
अंधकार की,
कटु
सत्य
उन्हें
बतलाया है.....

देखो
बाती भी
काँप रही है,
सन्निकट
समापन
भांप रही है,
स्नेह हो रहा
शुष्क
क्रमशः,
दृश्य
अंतिम
दर्शाया है.........

(पुराने संग्रह से-मुदिताजी के सहयोग से थोड़ा बहुत तब्दील किया है...फ्लो बेहतर करने के लिए, मूल भाव यथावत है)

काँप उठा विश्वास तुम्हारा.....: दीवानी की रचना

यह कविता उस ने नवरात्र में लिखी थी, साक्षात् दुर्गा का रूप झलक रहा है उसकी इस रचना में....उसके
diifeferent moods उसकी रचनाओं में अनुभव होते हैं....इसे आप से शेयर करने से नहीं रोक सका, क्योंकि महक और मुदिताजी की फरमाईस भी है.

काँप उठा विश्वास तुम्हारा.....: दीवानी की रचना
# # #

रजनी के
मध्यकाल में
दीपक की
एक
लौ के
माफिक
काँप उठा
विश्वास
तुम्हारा !

दर्द जहाँ का
जागा तुझ में,
करुणा का
सोता फूटा है,
पतझड़ जैसे
बिखर रहा है,
क्यों
प्रिय यूँ
मधुमास
तुम्हारा.....

मांगो ना
तुम मेरा
आँचल,
उम्मीदें
परवानों की
छल,
कैसे संभव
इस घेरे में,
प्रिय!
उन्मुक्त
विकास
हमारा......

स्नेहपूरित हो
जल ना
सकोगे,
यदि तिमिर से
तुम यूँ
डरोगे,
तूफानों से
लड़नेवाले !
क्यों होता
उपहास
हमारा......

(स्नेह को यहाँ दीपक के तेल के अर्थ में भी लिया गया है. स्नेह=तेल)

लौ को मैं संभाल रही हूँ.... : By Deewani.

# # #
मावस के
अँधेरे है,
तूफां के
थपेड़े हैं,
खारे
अश्क
अंखियों में
भरे है,
धुंधले ख्वाब
उजाल
रही हूँ,
रेशम के
अपने
पल्लू में,
लौ को
मैं
संभाल
रही हूँ....

मंद
रोशनी
बिखर
रही है,
सोचें
मेरी क्यों
डर स़ी
रही है,
परवाना
कोई
चला
ना आये,
दर्द के
पल को
टाल
रही हूँ,
रेशम के
अपने
पल्लू में,
लौ को
मैं
संभाल
रही हूँ....

काँप रही
मासूम
हथेली,
इतनी
तपिश
कभी
ना झेली,
लब पर
तेरी नज़्म
सजाये,
खुद को
मैं
बहला
रही हूँ,
रेशम के
अपने
पल्लू में,
लौ को
मैं
संभाल
रही हूँ....

Thursday, March 18, 2010

शम्मा जला दूँ : By Deewani.

(आज मेरे कलेक्शन में 'दीवानी' की यह नज़्म हाथ लग गयी...चूँकि दीपक और शलभ की रचनाओं का दौर चल रहा है, मेरे दिल में आया-क्यों ना इसे आप दोस्तों से शेयर किया जाय)
______________________

# # #

है तन्हाई
और
अँधेरा,
मन
बेताब सा
आज है
मेरा,
खुद को
खुद से
एक
सिला दूँ ,
क्यों ना
मैं यह
शम्मा
जला दूँ...

ना जाने
पिया
परदेशी
मेरे,
शाम
आवेंगे
या कि
सवेरे,
परवाने
क्यों रहे
भटकते,
इनको
इनका
इश्क
मिला दूँ,
क्यों ना
मैं
यह शम्मा
जला दूँ...

शम्मा
दीवानी को
सहला दूँ ,
फिर
बाती को
आग
दिखा दूँ,
मिलन
देख कर
इन
दोनों का,
मैं भी
अपनी
प्यास
भुला दूँ,
क्यों ना
मैं
यह शम्मा
जला दूँ...

परवाने
फ़ना होंगे
जल जल,
राख
जिस्म पर
मल मल,
जोगन
बन
भोले
प्रीतम की,
खुद के
दिल की
बात
बता दूँ,
क्यों ना
मैं
यह शम्मा
जला दूँ...

मेरी पुकार ......

# # #
कर कर के
मनुहार
मैं कहता
बारम्बार
सुन ले
मेरी पुकार
शलभ तू
मेरे निकट ना आ........

मुझे प्रपंची
जग कहता है
तू मुझ पर आहें
क्यों भरता है
वृथा दीवाने
क्यों मरता है
यदि चाहता
प्रकाश तू
जा खद्योत से
तनिक मांग ला,
शलभ तू
मेरे निकट ना आ......

है जलन ही
प्राण मेरा
जल जायेगा
छोड़ फेरा
ढूंढ ले तू
अन्य डेरा
प्रेम की पीड़ा
है यदि तो
दूर रह कर
तू अरे गा
शलभ तू
मेरे निकट ना आ......

हुई सुबह
मैं बुझ जाऊँ
बस राख ही तो
बिखरा जाऊं
लौट कर फिर
मैं ना आऊं
शीश बभूत को
लगा बावरे
कर याद
मीत
कोई दीप सा था
शलभ तू
मेरे निकट ना आ.......

(खद्योत=जुगनू)

Wednesday, March 17, 2010

पहचान.....

# # #
टूट गया है
भ्रम आँखों का,
अब तो
लग रहा है
संसार एक
अनहोना सा
सपना,
निरर्थक है
जिसमें सोचना
संवेदना
भावना
सौहार्द और
विवेक की
बातें...

चलना होगा
हमें
नारे लगाती
भीड़ के
रेले के संग
जिसमें नहीं
समझता कोई
किसी को भी,
क्या ज़रुरत है
पहचान और
पहचानने की....?

(आदर्शों और दुनियावी व्यवहार की टकराहट का एक दौर था मेरे विद्यार्थी जीवन में.....किसी ऐसे ही पल में कलम चल गयी थी.....किन्तु यथासमय ऊबर आया था इस स्थिति से...ऐसे मनस्थितियां चौराहे पर रूक कर सही मार्ग पकड़ने के लिए होती है..जीवन दर्शन बनाने के लिए नहीं.)

Tuesday, March 16, 2010

सितारे आसमां के.......

# # #
मत जलाओ
तुम
अपने दीये को,
झुलस ना जाये
जिस्म
इस
अधघायल
सांझ का,
छू लिया था
बदन
जिसका
अधबुझे
अंगार :
अस्त होते
सूरज ने
और
दे डाले थे
अनगिनत
फफोले,
ना जाने क्यों
पुकारता है
जिन्हें
बेहिस इन्सां,
"सितारे आसमां के ....."

(बेहिस=संवेदनहीन/चेतनाहीन)

Sunday, March 14, 2010

क्रोधी सूरज ......

# # #
पथिक !
करले
विश्राम
छांव में,
क्रोधी
सूरज
क्या कर लेगा,
तपेगा
रागी
घड़ी दो घड़ी,
उकता कर
खुद ही
ठर लेगा....

मत बन तू
खिलौना
हाथ वक़्त के,
कारवां
दुःख सुख का
अपनी मौज
चलेगा,
जलाये रख
जोत सांच की,
गंतव्य तुम्हे
अवश्यमेव
मिलेगा.....

व्याकुल
जब होगी
प्यास से माटी,
बादल
गगन का
समंद
बनेगा,
बढ़ने तो दे
कुटुंब कंस का,
किशन कोई
निश्चित
जन्मेगा....

(An old write of my student period)

Saturday, March 13, 2010

बावरी रे बावरी !

# # #

मधुवत मुस्कान
सजीली शान
अभिनीत अभिमान
नन्ही सी जान
विस्तृत जैसे विभावरी
बावरी रे बावरी !

चपल से भाव
गंभीर स्वभाव
प्रकृति का प्रवाह
शीतल सा ताव
मादक ज्यों कादंबरी
बावरी रे बावरी !

अनूठे अन्दाज़
नित नए साज़
गहरी आवाज़
इठलाई सी लाज
यह नार कोई दिसावरी
बावरी रे बावरी !

उजला है तन
पावन है मन
आह्लादित प्रतिक्षण
क्यूँ बरसे नयन
जलधार गंगा गोदावरी
बावरी रे बावरी !

सुबह का दिनकर
संध्या का दिवाकर
दिवस का उजास
रजनी उल्लास
सुशीतल मेरी सरवरी
बावरी रे बावरी!

रूठे ज्यूँ बालक
टूठे सम प्रतिपालक
देकर कभी झलक
जगा जाये अलख
यूँ विविध रूप जामेवरी
बावरी रे बावरी !



(टुठे= तुष्ठिमान हो जाये, मेहरबान हो जाये, उदार हो जाये. प्रतिपालक=पालनहार. जामेवरी=बेल बूटेदार जैसे कि कश्मीर का जमेवारी काम....शाल पर अन्य ड्रेस मटेरियलप)

Friday, March 12, 2010

मिथ्या संन्यास.....

# # #
मिल गए थे हमें
वृन्दावन में
एक स्वामी
वियोगानन्द
वैराग्य की
करते थे चर्चा
प्रभु स्तुति में
गाते थे छन्द.......

दर्शनोपरांत
उनसे मेरा
सहज एक निवेदन था
परिचय पाने उनका
उत्सुक मेरा
संवेदन था...

बोले थे
स्वामी शिरोमणि
कुछ ऐसे,
"जानते हो मैने
करोड़ों की सम्पदा का
किया है परित्याग,
घर-परिवार भरपूर छोड़
मैं हो गया बेलाग.
घी नमक मिर्च
मैं खाता नहीं
परस्त्री के सम्मुख मैं
कभी जाता नहीं,
सात्विक भोजन
मेरी पूर्वभार्या
पकाती है
पंखा झेल कर
वह सेवाभावी
मुझ को सदा
खिलाती है.
याचना मैं
किसी से
करता नहीं
बहुत कुछ है
आज भी मेरा
मैं किसी से भी
डरता नहीं.
विश्व के हर कोने में
करोड़ों के
मेरे मठ और आश्रम है
सन्यासी जीवन का
मेरा सार्थक
यह परिश्रम है.
शिष्य है मेरे
लाखों की तादाद में
मचा सकता हूँ
तहलका में
विरोधी बस्तियां
आबाद में.
हर अखबार में
मैं छपता हूँ
इतना व्यस्त हूँ किन्तु
नित्य एक घड़ी
नाम प्रभु का जपता हूँ."

पूछा था मैं ने ,
"घटित हुआ कब
मुनिवर !
आपका संन्यास ?"
बोले थे मुनिजी,
"हो गए भक्त
यही कोई
वर्ष पच्चास."

हुआ था आश्चर्य
मुझे यह सुनकर
कैसे बता रहे थे वे
परित्यक्त-विगत से जुडी
अवधि को गिनकर.........

रहता है जिन को
सांसारिक समृधि का
निरंतर ख़याल
बेमानी था उनको
मेरा वह
फलसफाना सवाल......

त्याग के भोग में
वैभव का मोह
छूटा नहीं,
आत्मानंद
प्रस्फुटित हो कैसे
पाषाण अहम् का
अब तक
टूटा नहीं....

यश लोलुपता
पद लोलुपता
उनके रौं रौं में
समायी थी
ज्ञान दर्शन चारित्र की
बातें उनकी
हवाई थी.....

बोझिल था
चिंतन उनका
सांसारिक उपलब्धियों
स्मृतियों से
कुंठित थे वे
अपनी इन सारी
प्रवृतियों से......

भ्रमित था
वह मानव
पथ का था नहीं
उसे आभास
जकड़ा था मान्यताओं से
नहीं देखा था
उसने प्रकाश....

स्वयम को था
जिसने जाना नहीं
संगत ऐसों की से
हमको था
कुछ पाना नहीं....

(मेरे स्कूल टाइम की एक रचना)

कर्ज़दार.....

# # #
चारों ओर जिसके,
सात फेरे लिए थे
तुम ने,
चुना था
जिसे साक्षी
सात जन्म तक
वचन निभाने के लिए,
सोचा था किसने
वही अग्नि
बना देगी राख
तुम्हारी देह के
चन्दन को.............

जिस दिन हुआ था
गठबंधन
तुम्हारी सूती साड़ी का
किसी की
रेशमी चद्दर से ,
ठीक ही कहा था
किसी ने
यह तो
मखमल में
पैबंद है टाट का ....

कैसे हो सकती थी
हैसियत तुम्हारी
ऊँची हवेली के
गुदगुदे बिस्तर पर बिछी
एक चद्दर से
बढ़कर.....

तुम ना जाने
किन परम्पराओं के
पालन में
हर सुबह
थाली में सजाये
संवेदना का चन्दन,
निष्ठां के पुष्प
आरती आदर्शों की
करती रही....

आज भी
आँगन में रोपी
तुलसी
अपने इर्दगिर्द
तुम्हारी मन्नतों के
धागे लपेटे खड़ी है
गवाह
तुम्हारी प्रार्थनाओं की
जिनमें तुमने
अपने सिंदूर के
चिरायु होने की
याचना की थी......

मेरी सताई हुई
साथिन !
निष्ठाएं जब
जीर्ण चद्दर में
लिपटी हो
प्रतिदान में उन्हें
सिवा अपमान के
क्या मिलता है......

समाज की
अंधी रिवाजों को
तुम्हे अपनी
गरीबी का ऋण
चुकाना था,
दहेज़ में तुमने
अपनी जिंदगी की
राख
उन ज़ालिम
कदमों में
रख दी थी
जो समर्थ थे
तुम्हारी इज्ज़त की
बड़ी सी बोली
लगाने के लिए....

बड़ी कर्ज़दार थी
री तू,
चलो अच्छा हुआ
तू ने
उऋण होकर
दुनिया को
अलविदा कहा....

(एक पुरानी रचना)

Wednesday, March 10, 2010

शब्द-अशब्द.........

एक पुरानी रचना को प्रस्तुत कर रहा हूँ. इसमें प्रयोग किये गए 'मैं' से तात्पर्य 'व्यक्ति मुझ' अर्थात 'विनेश' से नहीं है....किसी के अनुभव को अभिव्यक्त करने का एक प्रयास थी यह रचना.

_____________________

शब्द-अशब्द.....
$ $ $ $
उन्मत
लहरों पर
लेता
हिचकोले,
भंवर में
डूबने
लगा था
मैं,
भूलकर
अंतस का
अनहद नाद,
शब्द गीतों पे
झूमने
लगा था
मैं,

बांधा था
भावनाओं
एवं
सोचों को,
देकर
शब्दों का
आकार,
हृदय मेरा
ना जाने क्यों
उनको,
नहीं कर
पाया
स्वीकार......

घूम रहे थे
शब्द
परिधि पर
केंद्र बिंदु से
दूर,
अशब्द
असीम था,
निहित
केंद्र में,
चेतन से
भरपूर.....

घटित हुआ
चैतन्य
नि:शब्द का,
पहुँच गया
मैं पार,
मिला तत्काल
इस
यायावर को
शांत
शून्य
साकार....

पाया था
मैने
अस्तित्व का,
अति
वेगवान
प्रवाह,
अन्तरंग में
सम्पूर्ण
आच्छादित,
आनन्द
उल्लास
अथाह.....

कालावरण के
बहुत परे थे,
वे
मधुरिम
शाश्वत
स्वर,
गुंजायमान
अनुभूति
चेतन की,
धवल
उज्जवल
प्रखर......

शब्द मात्र
आवरण
चिंतन के,
कदापि
स्वयम का
सार नहीं,
साधन हैं
क्षमता
सीमित के,
शक्तिमान
अपार नहीं....



Tuesday, March 9, 2010

अकथ......

$ $ $ $
कह कह कर
थक गया
नहीं कहा गया
मुझ से
अकथ !
क्षण में
होता है प्रतीत
मानो गगन को
बांधे है
इन्द्र धनुष,
किन्तु
झपकते ही
पलक
हो जाता है
भंग
दृष्टि का भ्रम,
बसा है
अंतस में
एक अबोला सा
मर्म,
थामता नहीं जो
मेरी
अक्षत कुंवारी
वेदना का हाथ,
भीगे हैं जिसके
आंसुओं से
मेरे नयन,
गीले हैं
लहू लुहान
दर्दीले
गीतों से
मेरे कंठ-स्वर,
कृन्दन है
किन्तु
कायरता,
वेदना
बन कर
संवेदना
करेंगी
प्रवाहित
सरिताएं
शांति
और
उल्लास की
और होगा
अर्जन
आनन्द का .......

कस्तूरी........(आशु रचना )

$ $ $
मुस्क की
तलाश में
भटकता रहा था
हरिण,
सूंघते हुए
दूर तक
बिखरी फैली
घास को,
लिए एक
झूठा सा एहसास
उस दूर से आती सी
महक का
जो फूट रही थी
खुद उसकी
नाभि से.....

पस्त हो गया था
वह मासूम चरिंदा
इस दीवानगी की
दौड़म भाग में,
गिर पड़ा था
हो कर बेसुध
और
त्याग दिए थे
प्राण.....

काश !
जान पाता
वह निरीह,
उदगम
कस्तूरी की
मदमस्त
सुगंध का......

(बकौल शायर खलिश कादरी : इश्क को मुश्क ही तो कहते हैं, मेरा अहवाल पूछता क्या है ?....अहवाल=वृतांत/हाल)

Tuesday, March 2, 2010

SCRIBBLING : TRANSCENDENCE

# # # # #

Transcendence:
Disappearance of the
Desires,
Disappearance of the
Need for the other......

WE have to transcend
These three :
The Body
The Mind and
The Heart......

One becomes
Aware of
These three
Concentric
Circles
Around one's
Center........

Then happens
The fourth
The Ultimate.....
AND
One knows
Who am I ?
One just knows.....
One need not prove
One cannot prove
It's self evident
It's undubitative
And one has thus
Transcended the world.....

*****
FIRST : TRANSCENDING THE BODY

BODY
Our outermost
Circumference....

We are in
The body
BUT
We are not
The body.....

Torturing
The body
Is not
Transcendence,
Don't be
Antagonistic to
The body....

The body
Is beautiful
It serves us
Beautifully....
Take care of
The body...
Be loving to
The body
Be respectful to
The body...
.

The only way to
Transendence is
Awareness;
Just watching
Just watching.......


SECOND : TRANSCENDING THE MIND

The body is
The gross
The mind is
The subtle

Body is
Visible object
Easy to watch
Thoughts are
Invisible Objects
Still watchable....
Become
Aware of
The thoughts.....

The only way to
Transendence is
Awareness;
Just watching
Just watching....

THIRD : TRANSCENDING THE HEART

The body is
The gross,
The mind is
The subtle,
The heart is
The subtlest.....

The heart :
The world of
Our feelings
Our emotions
Our moods......


AND THE FOURTH WAY : OUR TRUE NATURE

Once
One becomes
Aware of
The Three
Concentric Circles
Around
One's Center
Happens the FOURTH
Of its OWN ACCORD.....

Like one knows
ONE is hungry
ONE is thursty
ONE has a headache
ONE is in love

AND ONE has
Transcended the
WORLD
ONE has realized
NO need of
RENUNCIATION of
WORLD.........

It's our own nature
It's ultimate state of
Being 'तुरीय'
A state of
Thoughtless awareness.......