Tuesday, March 22, 2011

बयान सच्चाई का...(होली २०११)

मेरे पर आरोप है कि मैं अपने लिए लड़की देखने गया था, मुझे मार पड़ी, और मैने हामी भरली, सगाई-ब्याह की.

जरा सोचिये ना 'कोमन सेन्स' और प्रेजेंस ऑफ़ माईंड' से कहाँ से आएगी इस बूढ़े मासटर के लिए कोई लड़की. कोई विधवा, कोई परित्यक्ता-(हो चुकी हो या प्रोसेस में हो) अथवा कोई चिर कुमारी ही तो मिलेगी.


मैं गया था जी घर उनके. वहां मार भी खायी थी. मगर मा कसम मैने सच में हामी नहीं भरी थी.

इन से नेट पर मुलाक़ात हुई थी. इन्हें मालूम हुआ कि मेरे यहाँ फ़िलहाल वेकेंसी है. इनको बहम हो गया कि मैं खानदानी हूँ, रिच एंड फेमस हूँ, हैण्डसम भी हूँ वगेरह. प्रोपोज कर दिया था जी उन्होंने, हमने एक्सेप्ट भी कर लिया. ना उन्होंने हमारा 'पास्ट' पूछा और ना ही हम ने उनके भूतकाल की चर्चा की. बोले थे कि चले आना, बीकानेर के पास अमुक जगह हमारा 'ठीकाणा' है. मिला देंगे आपको हमारे जीसा (पिताजी), और भाईसा(बड़े भैय्या) से. तो साहेब पहुँच गए हम. ठाकर साहब चुन्च थे केसर कस्तूरी ( राजस्थान की प्रसिद्ध मसाले दार शराब) और भाईसा सुबह से ही 'ओल्ड मोंक' को कई दफा आत्मसात कर चुके थे. शाम हुए पहूंचा था मैं जीप ले कर. पर्दा था इसलिए जनाने में तो जाने का सवाल ही नहीं था. इधर ठाकरसाब और कुंवर आपे में नहीं थे. खैर किसी हांळी-बाळदी (कारिन्दा) ने ठहरा दिया था मुझको गढ़ के अन्दर पोळ (gate) के पास वाले एक कमरे में. खा पीकर मैं आया ही था सो कोई टेंसन नहीं था।

जिन बाईसा के लिए आया था, उनके बारे में मैने सुना था, कि वे जवानी में किसी मिरासी संगीतकार पूसा खाँ के प्रेम में पड़ कर मुम्बई भाग गयी थी. कुछ बरस ठीक से गुज़रे थे. फिर बाईसा की रजपूती जाग गयी थी, ढोलीड़ा (मिरासी) अब अवेन्ही लगने लगा था. कुछ तो पूसा खां संगीत के प्रति डेडीकेटेड था और अपने काम के सिलसिले में बहुत व्यस्त रहता था. फिर उसमें वह सोफिस्टीकेशन नहीं था जो बाईसा खोजती थी. बाईसा को यह भी बहम हो गया था की पूसा खाँ का चक्कर एक गायिका से चलने लगा था. बाईसा बेचारी अकेलेपन की शिकार थी. जैसा कि मैने बताया, इस बीच उनकी मुलाक़ात मुझ से इंटरनेट पर किसी सोसल नेटवर्किंग साईट पर हो गयी. मैने भी और उन्होंने भी अपने जवानी का फोटो प्रोफाइल में लगा रखे थे और इसी फंतासी में हम दोनों का इंटरेक्शन होता था, चेट पर. अचानक बाईसा को पूसा खां ने या पूसा खां को बाईसा ने छोड़ दिया. अब मैदान साफ़ था. बाईसा दीपल कुंवर ने तभी तो कहा था,"बन्ना अब सब सेट है, अब चले आओ नी ढोला, पधारो नी म्हारे देश, आकर करलो बात मेरे जीसा भाईसा से. आखातीज (अक्षय तृतिया) के सावे (विवाह मुहूर्त) में दोनों एक दूजे के हु जावेंगे, माताजी महाराज की कृपा से." मैं भी इंट्रेस्टेड था, साथी की ज़रुरत महसूस हो रही थी, सोचा सुवर्ण अवसर आया, क्यों ना गंगा नहा ली जाय.

हाँ तो रात आधी बीत चुकी थी, देखा कोई विशालकाय मानव मेरे कमरे की तरफ बढे जा रहा था। डेनिम जींस और सफ़ेद टॉप चांदनी रात में दिख रहे थे, बाल कटे हुए थे. मैने सोचा कोई बन्ना(ठाकर साब के परवार का कोई जवान) होगा. मैं उठूँ, इतने में ही किसी ने मुझे बाँहों में भर लिया था. मैं खुद को एक मर्दनुमा अधेड़ थुलथुल औरत के बंधन में पा रहा था. ताबड़तोड़ चुम्बन बरसा रही थी वो महिला. मैं समझ तो गया यही है मेरी आशा की पेट्रोमेक्स, मगर ऐसी होगी सपने में भी नहीं सोचा था. बोल नहीं पा रहा था. दम घुटने लगा था, और वह थी की छोड़ ही नहीं रही थी. बरबस मेरे गले से कराहट और फिर चिल्लाहट निकली और उसके बाद वह घटित हुआ जिसका वर्णन आप सब लोगों ने पढ़ा है.

खूब मार पड़ी, यारों मुझ पर. ठाकर कहता-बात पक्की ? कुंवर कहता-"बात पक्की ?" बाईसा भी कहती-"बात पक्की ?" छुटकारा पाने का अब एक ही रास्ता था कि मैं भी कह दूँ -"बात पक्की." खैर जब मेरे मुंह से यह सुना तो मुझे ससम्मान कमरे में बैठाया गया. हल्दी केसर मेवा डाल कर दूध पिलाया गया और कहा की सुबह तिलक करेंगे.मैने बड़ी प्यार भरी नज़र से वीर राजपूतनी दीपल कुंवर को देखा और कहा, "डार्लिंग अब तो ज़िन्दगी पड़ी है. जो मज़ा इंतज़ार में वो कहाँ दीदार में." मेरी भीगी भीगी मोहब्बत भरी नज़र और प्यारे प्यारे बोल सुन कर बाईसा शांत हो गयी और अंदर चली गयी.

साहेब मैने रात तीन बजे जीप स्टार्ट की और भाग चला, देशनोक जाकर किसी देपावत (करणी माताजी के चरण वंशज और पुजारी) के घर में शरण ली और चोरी चोरी दूसरे दिन सुबह जयपुर चला आया.

अतुलजी की गिनती (होली पर)

मुदिताजी-अतुलजी ने मुझे होली के अवसर पर खाने पर बुलाया.

गुजिया बहुत अच्छी बनी थी. मैं भंग की तरंग में था और खाए जा रहा था. लगा कि गुजिया ख़त्म हो गयी.

अतुलजी ने मुदिताजी से कहा, "अरे सुनती हो, प्रोफ़ेसर साहब का पेट क्या गुजिया से ही भरा दोगी. अरे इन्हें सब्जी पूरी आचार चटनी वगेरह भी तो खिलाओ."

मेरी भूख खुल गयी थी. मैं एक के बाद एक पूरी खाए जा रहा था. अतुलजी को मुदिताजी के नाज़ुक हाथों की फ़िक्र हो रही थी, बेलते बेलते कहीं दुखने ना लगे. और बनिये ठहरे, यह बर्बादी भी बर्दाश्त नहीं हो रही थी.

अतुल जी ने कहा, "अरे सुनती हो, प्रोफ़ेसर साहब के लिए एक गरमा गरम पूरी और ले आओ."

मैं ने हाथ हिलाते हुए कहा, "नहीं नहीं रहने दीजिये, मैने पहले से ही पांच पूरी खा ली है."

इतने में अतुल जी ने कहा, "अरे खाईये ना, गिन थोड़े ही रहे हैं. वैसे आप पॉँच नहीं आठ पूरी खा चुके हैं. एक और ले लीजिये, एक और खा लेंगे तो कौन सा फर्क पड़ जायेगा, क्या बिगाड़ जायेगा ?"

बिंदु बिंदु विचार : सही और गलत

* जंगल के भी एथिक्स होते थे, जिनका निरूपण भगवानजी ने स्वाभाविकता और सब के दैनदिन एवं दीर्घकालीन हितों को देखते हुए किया था.

उनमें से एक था जंगल के सभी जानवर निर्भय हो कर वहां से बहती नदी से पानी पी सकते थे. कोई भी किसी पर अपनी दादागिरी नहीं चला सकता था. हाँ यदि कोई किसी दूसरे का 'इरादे के साथ' अतिक्रमण करेगा, उसके प्रति पीड़ित जानवर भगवान से कम्प्लेंट कर सकता था और साबित होने पर भगवानजी उस पर उचित एक्शन ले लेते थे. बाई एंड लार्ज सभी जानवर भगवान की बताई इस एथिक्स का 'लेटर्स एंड स्पिरिट' में पालन करते थे. वैसे भी पशु इंसान की तरह टेढ़ी मेढ़ी सोच नहीं रखते. हाँ अपवाद सभी जगह पाए जाते हैं.

* नदी किनारा एक निर्भय क्षेत्र था, जहां शांति से बाघ और बकरी एक घाट पानी पी सकते थे.

* एक दफा की बात है एक मेमना नदी पर पानी पी रहा था. जैसा कि होता है, मेमना नदी के पानी में मुंह अपना डाल कर सहज स्वाभाविक रूप से पानी पी रहा था.

* इतने में बाघ वहां आ गया। बाघ बूढा था. अपनी अक्षमता के कारण कहिये या मिथ्या अभिमान के कारण उसके मन में यह ग्रंथी घर कर गयी थी कि प्रयेक जानवर उसकी बात माने, उसकी गलत सलत बातों को चुप चाप सुने, उसकी किसी भी बेजा बात के लिए कुछ भी ना कहें. बाघ को बहम था कि उसके दहाड़ने को सुन कर सब डर जाते हैं.
# जनरली बाघ जिस जगह खड़ा हो कर पानी पीता था उसी जगह खड़ा हो कर मेमना भी पानी पी रहा था. उसे इस तरह देखना बाघ को गवारा ना हुआ. बाघ बोला, "मेमने तुम ने मेरे साथ ज्यादती की है, अरे मूर्ख तालाब में अपना गन्दा मुंह डुबो दिया, सारा का सारा पानी गन्दा कर दिया तुमने ऐ मिमियाने वाले मेमने. अब मैं तुम्हे इसकी सजा दूंगा."
# मेमने ने कहा, "नहीं बाघ राजा, मैं तो नोर्मल कोर्स में पानी पी रहा था, अपनी प्यास बुझा रहा था, जैसा कि मुझे करना चाहिए, इसमें पानी गन्दे करने का सवाल कहाँ से उठ गया ? यह तो बहता पानी निर्मला है. नदी का पानी तो राजाजी हमेशा ही तरोताज़ा और नया रहता है."

# बाघ ने देखा उसका यह आरोप तो बेकार गया. अब लगा कहने, "अरे तुमने यह जवाब देकर मेरी बदतमीजी की है, क्या मुझे अक्ल नहीं, मैं नहीं समझता इतनी स़ी बात. अरे तुम लोग हो ही ऐसे." फिर अपनी बात को और मज़बूत करने के लिए एक मिथ्या आरोप भी दाग बैठा, "साले तुम ने मुझे गाली दी. देखता हूँ मैं तुझ को."

# मेमना नयी पीढ़ी का पढ़ा लिखा आज़ाद ख़याल नौजवान था. उसने कहा, " हुज़ूर, मैने तो अपनी सटीक बात आपको कही, आपने जो कहा उसका क्लेरिफिकेशन दिया. गाली तो मैने बिलकुल नहीं दी."

# "मेरे से जुबान लड़ा रहा है साले मिमियाने वाले तुच्छ प्राणी. शर्म नहीं आती तुम. जानते नहीं मैं कौन हूँ. अभी दहाड़ना शुरू किया तो भाग छूटोगे." बाघ बोला, "अरे तुम ने आज गाली नहीं दी तो पहले दी होगी, तुम ने नहीं तो तेरे बाप ने दी होगी."

# मेमना समझ गया, बाघ साहब उसको दबाने का ज़ज्बा लिए हैं। वह मंद मंद मुस्कुराया.

# बाघ को यह और भी बहुत बुरा लगा. तिलमिला गया था बाघ. अपना आप खो बैठा था. हिंसक हो गया था. चूँकि निर्भय क्षेत्र में भगवानजी ने ऐसा कुछ इलेक्ट्रोनिक टाइप का अरेंजमेंट कर रखा था कि कोई भी किसी को शरीरिक नुकसान नहीं पहूंचा सकता था इसलिए बाघ मेमने पर अटेक नहीं कर सकता था. वह इधर से उधर राउंड लगाने लगा. जोर जोर से दहाड़ने लगा, यहाँ तक कि उसकी सांस फूलने लगी. यही नहीं वह जगह जगह से खुद को नोचने लगा था.

# दूसरे जानवर भी यह तमाशा देख रहे थे.

# कुछ जानवर मन में आनन्दित थे किन्तु सहानुभूति की लिप सर्विस दे रहे थे. समान विचारों वाले भी जुट गए थे, बाघ को सलाह दे रहे थे कि क्यों ना, एक मेमना विरोधी मोर्चा बनाया जाय. कोई भगवान को कोस रहा था. कोई एथिक्स को. हाँ क्या उचित है क्या अनुचित ? सर्वस्वीकृत एथिक्स के प्रकाश में इस सवाल को कोई नहीं देख रहा था. मुख्य मुद्दे को गौण करके, यही बात बार बार उठाई जा रही थी कि तुच्छ मेमने ने बाघ कि बेइज्जती कर दी. मामला समझ का नहीं अहम् और अहम् पोषण का हो गया था.

# मेमने के भी समर्थक जुट गए थे. उन्हें मेमने के किये और कहे में कोई दोष नज़र नहीं आ रहा था, सब कुछ लोजिकल और परिस्थितिजन्य लग रहा था.

# मेमने ने सोचा पानी पी लिया, प्यास भी फ़िलहाल मिट गयी. कौनसा यह जंगल के राजा का आम चुनाव है. अरे जो सही है वह सही रहेगा जो गलत है वह गलत. वह धीरे से खिसक गया था.

# मेमने को गुरु का कहा याद आ रहा था, "विवादों से लाभ उठाने का सब से अच्छा तरीका है कि विवादों से जहां तक हो सके बचा जाय. जो सच है कह दीजिये, और छोड़ दीजिये इस पर नज़र रखना कि सामनेवाला क्या कर रहा है ?"

Thursday, March 17, 2011

सफ़र इल्म का : मुल्ला नसरुदीन सीरीज

मुल्ला गाहे बगाहे किसी ना किसी को ले आता हैं मेरे पास, कहते हुए, मासटर बहुत दुखी हैं बेचारा, इसे तुम्हारी मदद की ज़रुरत है. यह मदद कई तरह की होती है, साहिबान, कभी रुपये पैसे की, कभी ज्ञान-घूंट की, कभी खुद के या बच्चों के पढाई लिखाई के बाबत कौन्सेलिंग की, हभी जायज नाजायज रिश्तों की उलझन को सुलझाने की, कभी कहीं सिफारिश करके काम निकलवाने की, कभी कभी टाईम पास भी. उसके पीछे शायद मुल्ला का कोई जाती इंटरेस्ट हो मगर दिखता हमेशा यही हैं कि समाजी मकसद है उनका, दूसरों को सपोर्ट करके उसे सुकून मिलता है वगेरह.
एक दिन मुल्ला मेरे पास किसी नवाबजादे को पकड़ लाये. बहुत ही डिजायनर कपड़े पहने थे, सब कुछ विलायती था, सिवा उनके पार्थिव शरीर के. बात बात में बता गए कि चड्ढी, बनियान, जींस, घड़ी,जुर्राब, जूते सब कुछ विदेशी ब्रांड्स के पहना करते हैं. बता रहे थे, आज ही की लो, जींस केनेथ कोल की पहने थे, टी शर्ट टोमी हिल्फीगर की, घड़ी स्वाच की थी, तो बेल्ट और कलम 'मोंट ब्लो' के...'ऑर्बिट' मार्का अमरीकी च्युंगम चबा रह थे.
नवाबजादे अफताब की अम्मीजान के साथ मरहूम नवाब बदरुद्दीन साहेब की तीसरी शादी थी। उम्र का बड़ा फर्क था दोनों में, मगर नबाब साहेब बेगम साहिबा से बेइन्तहा मोहब्बत करते थे. दरअसल मुन्नी के नाच-गाने और नाजो जखारों से नवाब साहब इतने खुश हुए थे कि बस उसका संगमरमरी हाथ पकड़ कर कह बैठे अब तुम मुन्नी बाई नहीं मुन्नी बेगम हो, फटाफट काजी को बुलाया गया, मेहर की रकम तय हुई , और निकाहनामा तैयार. कोई तीस साल पहले बीस साल की बदनाम मुन्नी मय अपने बेटे के हमेशा के लिए साठ साल के खूसट नवाब बदरुद्दीन की हो गयी थी.

निकाह के बाद मुन्नी बेगम नवाब साहब की कोठी में शिफ्ट हो गयी थी और नन्हा अफताब वहीँ पलने बढ़ने लगा था. बिगड़े रईस नवाब साहब का लाड़ प्यार जो आफताब के लिए कम और मुन्नी को खुश रखने के लिए ज्यादा था, अफताब को बिगाड़ बैठा. तालीम के नाम पर अफताब मियां नैनीताल भेजे गए, वहां से भगाए गए क्योंकि क्लास टेन में आते आते टीचर से इश्क फरमाने लगे थे और भी बहुत कुछ हिंदुस्तान के कानून में वर्जित करने लगे थे. खैर उनकी अल्टीमेट क्वालिफिकेशन कालेज ड्रॉप आउट की हुई. अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े होने के कारण अंग्रेजी की टांग तोड़ लेते थे. मगर वैसे अपनी माँ की तरह मंद बुद्धि और अड़ियल थे. तेज़ रफ़्तार में गाडी चलाना, आये दिन मार पीट करना, घर की चीजों को बेच कर जुआ खेलना, शराब पीना, औरतबाज़ी करना वगेरह उनके शौक हो गए थे. ना जाने कैसे हुआ, घर की नौकरानी नसीबन की बेटी नाजनीन को दिल दे बैठे थे अफताब साहब. अपनी परंपरा को निबाहते हुए, शादी से पहले ही नाजो को माँ बनने के प्रोसेस में ले आये थे हमारे नवाबजादे. यह शादी कुछ मजबूरी थी कुछ ज़रुरत और कुछ बस यूँ ही. खैर आज बतीस वर्षीय नवाबजादा अफताब जमा तीन औलादों के बाप थे.

इस बीच नवाब साहब अल्लाह के प्यारे हुए। धन सम्पति, कारोबार, शेयर होल्डिंग पर अफताब का दखल हो गया. शायद कहीं वर्जित जगह मुल्ला से मुलाक़ात हुई होगी इन जनाब की. आप जानते ही हैं, मुल्ला मेरी संगत में रहते अपनी बातों को मेरे जैसी बातों का रेपर दे कर पेश करने में माहिर हो गया है और इसी तरह की कोई गहरी सलाह उस बेवकूफ नवाबजादे को दे बैठा था मेरा यार मुल्ला नसरुदीन.

हाँ तो मुल्ला ले आया था किसी सन्डे की सुबह अफताब को मेरे यहाँ. परिचय कराया लम्बा चौड़ा. फिर लगा कहने, "मास्टर तुम ही तो कहा करते हो, बड़ा आदमी बनने के लिए स्कूल कोलेज की पढाई होना ज़रूरी नहीं. ज़िन्दगी की यूनिवर्सिटी में इल्म पाना काफी है. इस होनहार नौजवान के पास अल्लाह ताला के करम से सब कुछ है, बस दो ही चीज नहीं है : 'कोमन सेन्स' (सामान्य ज्ञान) और प्रेजेंस ऑफ़ माईंड ( दिमाग के तुरंत हाज़िर होने की खासियत). यह दो ही चीज तो तुम कहते हो इंसान को कामयाबी दिलाती है. मेरे प्यारे दोस्त मासटर, मदद कर मेरे इस दोस्त की, कर दे इंतज़ाम इसके लिए अमरीका में किसी 'ग्रूमिंग और पर्सनालिटी डेवलपमेंट स्कूल' में एक क्रेश कोर्स कराने का. मैं साथ जाऊंगा मेरे इस जिगर के टुकड़े के, दिन रात इसकी देखभाल करूँगा लौट के लिवा लाऊंगा तो यह अमरीका रिटर्नड यंग इंटरप्रेन्योर होगा, देखना इस ग्लोबलाईजेशन और लिबरलायिजेशन के दौर में इस हिन्दुस्तानी नौजवान के कदम चूमेगी कामयाबी. अरे इतने फैले हुए कारोबार का यह इकलोता वारिस कुछ करना चाहता है. मदद कर मासटर, मदद कर. तुम तो कहते हो ना कि मेरा मकसद सब को आगे बढ़ाना है, हौसला अफजाई करना है...ले मौका है, कर ले अपने मन की. मैं तो तुम्हारे लिए खोज खोज कर अपरचुनिटीज ले आता हूँ, आखिर दोस्त हूँ ना तेरा." मुल्ला बात बेबात एहसान जताने में माहिर है.

चाय की चुस्कियों के साथ मैने भरोसा दिलाया मैं ज़रूर मुल्ला के दोस्त की मदद करूँगा, बस थोड़ा वक़्त लगेगा मुझे इनके लिए माकूल बिजिनेस स्कूल खोजने में।

मुल्ला मुझे बताने लगा कि क्यों ना इन्हें ओहायो युनिवेर्सिटी में भेज दिया जाय जहां मैं और मेरा दोस्त राज गेस्ट फेकल्टी है या न्यूयोर्क के 'कार्नेगी इंस्टिट्यूट' में दाखिला दिलाया जाय.

उसके बाद अमेरिका को लेकर बहुत बातें हुई. हम हिन्दुस्तानियों का स्वभाव है, हम चाहे जिस एजेंडे के लिए मिले, हम उस मीटिंग/मुलाक़ात में उस खास विषय को छोड़ बाक़ी सब सायिडी विषयों पर विस्तार से चर्चा करेंगे, एक दूसरे को इम्प्रेस करने की झूठी सच्ची चेष्टायें करेंगे. स्ट्रीट स्मार्ट अफताब ने इस मुलाक़ात में समझ लिया था कि 'कोमन सेन्स' और 'प्रेजेंस ऑफ़ माईंड' का इल्म अमेरिका से हासिल किया जा सकता है. उसने यह भी सोच लिया था कि मुल्ला को साथ नहीं ले जायेगा क्योंकि मुल्ला 'डबल' ही नहीं 'मल्टीप्ल' क्रोस करने वाला इंसान है, नाजो को ही नहीं दुनिया भर को बता देगा अफताब ने अमेरिका में क्या क्या किया ?

इस बीच सुना कि मुल्ला से अफताब का ब्रेक ऑफ़ हो गया था। ऐसी यारियों का आयुष्य मित्रों बहुत कम होता है. कभी वो साथ नहीं रहते, कभी हम साथ नहीं देते. बस बदलते साथी कार्यक्रम चलता रहता है. हाँ तो अफताब ने इस बात का इंतज़ार करना मुनासिब नहीं समझा कि मैं, मासटर याने प्रोफ़ेसर विनेश सिंह उसके लिए अमेरिका के किसी संस्थान में दाखिले का इंतजाम करूँ. नवाबजादे चल दिये अमेरिका. न्यूयोर्क के 'जे ऍफ़ के' एयर पोर्ट से बाहर आये तो चुंधिया गए हमारे अफताब मियां. इधर उधर भटकने लगे. एक्सेंट की मुश्किल... मियां बता नहीं पाते थे कि उन्हें कहाँ जाना है. फिर भूल भी गए थे एक्जेक्ट नाम उस 'इंस्टी' का जिसका मैने बातों के दौरान जिक्र किया था. इतने में एक टेक्सी रुकी, टेक्सीवाला कोई पाकिस्तानी था. अफताब साहब सवार हो गए 'केब' में. ड्राइवर ने उर्दू में पूछा कहाँ जाना है, अफताब को साँस में साँस आई. मगर भूल गए कि कहाँ जाना है...सिर खुजाने लगे बोले 'डार्लिंग इंस्टिट्यूट' (कार्नेगी भूल गए थे), मंदी का दौर और हमारी हिन्दुस्तानी/पाकिस्तानी माटी का असर॥टेक्सीवाले ने सोचा आज अच्छी मुर्गी फंसी है. वह एक लम्बे सफ़र पर चल निकला, ना जाने कहाँ कहाँ घुमाया मगर 'डार्लिंग इंस्टी' कहाँ ?

दो घंटे बेफजूल घुमाने के बाद उसने नवाबजादे से कहा, "भाई साहब यह इंस्टी तो मिल नहीं रहा. आप वहां किस मकसद से जाना चाह रहे थे." नवाबजादा थोड़ा 'लो' 'फील' करने लगा था, दूसरा मुलुक, अजीब से नज़ारे, कहने लगा, "मैं तो यहाँ 'कोमन सेन्स' और 'प्रेजेंस ऑफ़ माईंड' सीखने आया हूँ." टेक्सीवाला बहुत ही खेला खाया था, उसने समझ लिया, बन्दे को बन्दर बनाया जा सकता है. लगा कहने, "अजी पहले बताते, क्या हुआ जिन्ना नेहरु ने सैंतालिस में लकीर खींच दी, आखिर हैं तो हम एक ही माटी के. अरे मैने भी यह कोर्स किया हुआ है. क्या ज़रुरत है हजारों डालर खर्च करने की. मैं आपको बस एक हज़ार डालर में दोनों बातें सिखा दूंगा. ये ठगते हैं जी हम देशियों को..लाल मुंह वाले बन्दर."

हम हिन्दुतानी-पाकिस्तानी बहुत सयाने होते हैं। हमें हर चीज अन-ओफिसियल करने में फायदे नज़र आते है. जैसे गोम्स 'ताज ग्रुप' के लिए केक बनाता है तो हम ताज होटल से केक ना लेकर सस्ते में गोम्स के किसी अनोफिसिअल चेनल से घटिया केक ले ले लेंगे. गाडी किसी ओथोराईजड सर्विस सेंटर से मरम्मत नहीं करा कर उसी सेंटर के किसी मिस्त्री को पकड़ कर प्राईवेट में 'काम' करा लेंगे. यहाँ भी ऐसा ही हुआ. नवाबजादे बोले,"सिखा दो" टेक्सी वाले ने कहा फीस पेमेंट करो...और अब तक के भाड़े का भी पेमेंट. वसूली के बाद, टेक्सी को किसी सुनसान जगह में रोक कर टेक्सी वाले ने, जिसका नाम जलाल था, ज्ञान देना शुरू किया.

जलाल ने कहा, "आप सीखना चाहते हैं ना 'कोमन सेन्स' ? मुझे एक सवाल का जवाब दीजिये. मेरे खानदान में पॉँच मेम्बर हैं.एक मेरी बीवी है, तीन मेरे बेटे बेटी,बताइए पांचवा कौन है ?"

अफताब साहब बगले झाँकने लगे, पाकिस्तानी जलाल ने मानो कश्मीर का सवाल उठा दिया हो. कहने लगे, "भाई मैं तो नहीं बता सकता इस कठिन सवाल का जवाब. मेहरबानी कर के तुम्ही बताओ."

जलाल ने अपनी जीत का डंका बजाते हुए छाती चौड़ी करके कहा, " अरे पांचवा मैं और कौन ?"
अफताब को लगा कि यही तो साधारण सी बात थी जो उसके दिमाग में नहीं आई थी.

जलाल बोला, " अफताब भाई इसकी को कोमन सेन्स कहते हैं."

अफताब कोमन सेन्स को जानकार बहुत ही खुश हुआ. कहने लगा, "मेरे भाई अब बताओ, प्रेजेंस ऑफ़ माईंड क्या होती है ?"

जलाल ने कहा, " यह भी बताता हूँ, फीस जो ली है मैने। अच्छा जरा इधर आओ, और गाडी के बोनेट पर अपनी हथेली रखो."

आफताब ने पुरानी टोयोटा टेक्सी के बोनेट पर अपनी हथेली रखी. जलाल ने जोर से मुक्का मारने की हरक़त शुरू की थी, कि अफताब ने अपनी हथेली बोनेट के ऊपर से हटा ली.

जलाल बोला, "देखा तुम ने, कहीं चोट ना लग जाये, इसलिए तुम्हारे जेहन ने तुरंत एक्शन ले लिए, हथेली को हटवा दिया, तुम चोट से बच गए, यही प्रेजेंस ऑफ़ माईंड है."

इतने में पुलिस की गाड़ी का सायरन बजा, जलाल भाग लिया. अफताब बस सड़क पर खड़ा रह गया. पुलिस ने जब अफताब को पूछा क्या हुआ ? यहाँ क्यों आया ? उसने बताया वह किस मकसद से आया था और कैसे एक पाकिस्तानी ने उसे इल्म दिया और सामान लेकर चम्पत हो गया. पुलिस ने एअरपोर्ट पर लाकर उसके भारत वापस लौटने की व्यवस्था कर दी. क्योंकि अमेरिका में ऐसे तत्वों का बने रहना वहां के अमन के लिए खतरा साबित हो सकता था.
खैर साहिबान आफताब मियाँ लौट आते हैं अपने मादरे वतन हिंदुस्तान। अब उनके चमचों ने पूछा कि सफ़र कैसा रहा. नवाबजादे बोले, "अमां क्या बात है, कितने फास्ट है अमरीकी और उनसे भी फास्ट हैं हमारे पाकी भाई, बस चंद घड़ियों में सीखा दिया मुझको, कोमन सेन्स और प्रेजेंस ऑफ़ माईंड. चमचों ने कहा मियाँ एक कॉन्फरेंस की जाय, मीडिया वालों को बुलाया जाय और उनसे शेयर किया जाय आपके सफरे इल्म की दास्ताँ आप ही की जुबानी. आप के प्रेक्टिकल तुज़ुर्बे को मीडिया के ज़रिये लोगों तक पहुँचाया जाय ताकि सब को कोमन सेन्स और प्रेजेंस ऑफ़ माईंड आ जाये.

मैं चूँकि कई एक विदेशी रिसाले को बतौर फ्री लांस जर्नलिस्ट रीप्रेजेंट करता हूँ, मुझे भी इस कांफ्रेंस का बुलावा मिला. एक पॉँच सितारा होटल में थी यह प्रेस मीट. स्कोच और मुर्गे शान से सर्व हो रहे थे. कांफ्रेंस में अफताब साहब ने डाइस पर के माइक में अपनी आवाज फूंकी, लगे थे कहने, "मेरी खुशकिस्मती है कि मैं हाल फ़िलहाल अमेरिका से कोमन सेन्स और प्रेजेंस ऑफ़ माईंड का इल्म लेकर लौटा हूँ. आप से शेयर करना चाहता हूँ ताकि मेरे करोड़ों हम-मुल्क लोग इससे फायदा उठा सके."

बिजनेस रिव्यू के सतीश रैना ने पूछा, " अफताब साहब यह कोमन सेन्स क्या होता है ?"
अफताब साहब ने कहा, "जनाब मेरे खानदान में पांच मेम्बरान है. मेरी बीवी, तीन बच्चे और मालूम है कोमन सेन्स बता सकता है पांचवा कौन ?"

रैना ने पूछा, "कौन"

अफताब बोला, " अजी पांचवा है जलाल पाकिस्तानी टेक्सीवाला।"

इकोनोमिक ट्रिब्यून के सोहराब मिस्त्री ने अगला सवाल किया, "भाई बताएं, ये प्रेजेंस ऑफ़ माईंड क्या है."

अफताब ने 'दैनिक शयन' के हरि किशन धींगरा को बुलाया और कहा अब मैं इसका लाइव डेमो देता हूँ.

"मिस्त्री साहेब आप अपनी हथेली मेरे चेहरे पर रखिये और धींगरा साहेब जरा जोर से मुक्का मारिये इस पर. खुद ब खुद प्रेजेंस ऑफ़ माईंड आपके सामने आ जाएगी." फ़रमाया अफताब साहब ने.

मिस्त्री और धींगरा मुफ्त की दारू पीकर धुत थे. उन्होंने वही किया जो कहा गया था. और अफताब दर्द से बिलबिला रहा था, और माँ बहन कर रहा था.

ये सब मेरे बेड टेस्ट में जा रहा था.

मैं खिसक लिया था क्योंकि मैं मेरे अज़ीज़ मुल्ला नसरुदीन को पूरा वाकया सुनांने को बेताब हो रहा था.



Monday, March 14, 2011

बिंदु बिंदु विचार : खेल प्रेम का...

  • प्रेम का खेल बड़ा अजीब होता है. शोख अदाएं जैसे कि शर्माना, सताना,रूठना, मनाना, झूठे सच्चे वायदे, खुद के 'बायो डाटा' का बार बार वर्णन प्रतिपादन, बिना वज़ह मुस्कुराना, रातों की नींद उडाये रहना, अलसाए अलसाए से रहना, ख़ुशी से पागल हो जाना इत्यादि...प्रेम के खेल में 'कोमन' चाहे पात्र बदलते हों अथवा आवृति.
  • बात उस ज़माने की करते है जरा, जब मोबाईल फ़ोन तो क्या लैंड लाइन तक उपलब्ध ना होती थी. प्रेमी जन इशारों इशारों में बातें किया करते थे. कोई कोई ज्यादा प्रोग्रेसिव हुए तो 'लेटर्स' का आदान प्रदान नाना विधि कर लिया करते थे...कभी महबूब महबूबा के घर में पत्थर से लपेट कर अपनी लिखावट भेज दिया करते थे, तो कभी महबूबा के घर की धाई माँ मोहवश या लालचवश 'बाईसा' के पैगाम 'बन्ना' तक पहुंचा दिया करती थी, कभी कभी यह शुभ कार्य अध्यापक-अध्यापिकाओं के सौजन्य से संपन्न होता था. कहने का मतलब 'कम्युनेकेशन' बहुत कठिन होता था.
  • भाषा सम्बन्धी बात को लें तो उस समय 'आर्चिज' 'हालमार्क' के रेडीमेड इश्किया मज़मून वाले कार्ड्स नहीं मिला करते थे, प्रेमियों को अपने खतों के 'कंटेंट्स' को तड़का देने यहाँ वहां से इश्किया शेर-ओ-शायरी खोज के निकालनी होती थी. अजी, और तो और ये पत्र भी लिखवाये जाते थे.
  • कुछ शिक्षा की 'कमी' थी, कुछ 'यथावश्यक' दीक्षा का 'अभाव', प्रेम का इज़हार बहुत मुश्किल हो जाता था. हाँ फ़िल्मी गाने कुछ मदद कर सकते थे मगर हमारे ज़माने में ज्यादातर गाने रोने रुलाने वाले होते थे, याने आदर्श प्यार, प्रेम में तड़फना, अपने प्रेमी/प्रेमिका के किसी और के हो जाने पर दुआ करना, ज़ालिम ज़माने को कोसना, जुदाई में मरने की घोषणा कर देना, इसलिए प्रेम में दर्द की शिरकत कुछ ज्यादा ही रहती थी.
  • आइये उस ज़माने के कुछ जुमले/शेर/शायरी आप से शेयर की जाय : "रोशनी चाँद से होती है सितारों से नहीं, मोहब्बत एक से होती है हजारों से नहीं." प्रेमी लिखता था :"लिखता हूँ ख़त खून से स्याही मत समझना, मर रहा हूँ तेरी याद में, जिंदा मत समझना. इसका जवाब प्रेमिका देती थी : "लिखते हो ख़त खून से क्या स्याही मिलती नहीं, मर रहे हो मेरी याद में, क्या दूसरी मिलती नहीं." कोई कोई अपने ख़त में लिखता :"सच्चाई छुप नहीं सकती, बनावट जे उसूलों से, सुगंध आ नहीं सकती कभी कागजा के फूलों से." और जवाब होता था, "सुगंध आ सकती है गर कागज़ में चमेली का तेल हो, सच्चाई छुप सकती है अगर आपस में मेल हो." 'मेरे दिल के राजा', 'मेरी प्यारी रानी' जैसे सामंती संबोधन प्रचलित थे, जवांदिल लोग बिना ताज के 'राजा' 'रानी' बने फिरते थे.
  • हाँ तो ऐसे में प्रेम एक बहुत ही सीक्रेट गतिविधि हुआ करता था. इशारों में बहुत कुछ कहा सुना जाता था. और कुछ प्रेम तो बस नियत समय पर एक दूजे को देखने मात्र से सम्पादित हो जाते थे. कालांतर में ज़ालिम ज़माना प्रेमियों को जुदा कर देता था. एक समय के बाद ट्रेन बस में अधेड़ प्रेमी कि मुलाक़ात रजोनिवृति के करीब पहुंची विवाहित हो चुकी प्रेमिका से होती थी, बस आँखों आँखों में देख कर मानो प्रेम अध्याय का उपसंहार कर दिया जाता था.
  • अक्सर प्रेम बड़ा गहरा होता था. साथी बदलना कभी कभी मुश्किल मगर ज्यादातर केसों में नामुमकिन होता था. वफ़ा की यही तो परिभाषा होती थी.
  • मैने तो भई कई प्रेम झेले हैं. अनेकों असफल प्रेम कहानियों का हीरो यह 'मासटर' रहा है. जाति , धर्म, वर्ग और वर्ण से परे तक हमारे प्रेम का फैलाव रहा है. खैर ये सब कहानियाँ फिर कभी अभी तो लालायित हूँ एक हाल ही घटना आप से शेयर करने के लिए.
  • एक नवयौवना ने 'एन आर आई' कोटा से एक मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में 'एम बी ए' में प्रवेश लिया. मेरा दुर्भाग्य या सौभाग्य, मैं वहां गेस्ट फेकल्टी था. 'मनोविज्ञान' और ' 'बिहेवेरियल साईंस' पढाता था मैं. ना जाने बालिका को क्या मन में आया, मुझे अपने तौर पर प्रोपोज कर डाला उसने, मेरे घर के पाते पर डाक से उसका एक ख़त मिला, जिसमें लिखा था-"मैं आपके ज्ञान और मेधा से इम्प्रेस्ड हूँ, मुझे आपसे सिर्फ आपसे प्रेम हो गया है, आप ही मेरे स्वप्न पुरुष हैं. मैने आपकी सब रचनाएँ पढ़ी है...आपके पास हेड भी है हर्ट भी. आई लव यू".
  • मन में मेरे भी लड्डू फूट रहे थे, मगर तथाकथित इज्ज़त का डर...कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं के भाव और उसके ऊपर पुराने खट्टे मीठे अनुभव. मैने तो भाई साहब, उनको यह समझा कर अपना पीछा छुड़ाया,अरे मैं आपके पिताश्री कि उम्र का हूँ...मुझे तुम अंकल नहीं तो बस भैय्या कह सकती हो, सैंया बनने की क्वालिफिकेशन अब हमारी नहीं रही. या कहिये कि हम ओवर एज जो हो गए थे.
  • वे हर्ट हुई थी मगर उनकी यह हर्ट मोमेंट्री थी, वो कोई पुराने ज़माने की प्रेमार्थी नारी नहीं कि टूट जाये..आंसू बहाए...और गाये - मेरा सुन्दर सपना बीत गया. वह तो आज की नारी थी जो गलती से एक बूढ़े प्रोफेसर से इम्प्रेस हो गयी थी, शायद 'चीनी कम', 'लम्हे' 'जोग्गेर्स पार्क' या 'दिल तो बच्चा है' का फौरी असर था, जो यह रिस्की काम कर बैठी थी या कुछ 'लीक से हटकर करने का' विद्रोही ज़ज्बा रहा होगा उसका. खैर उस ने सब भूला कर नोर्मलसी अख्तियार कर ली थी. मैं भी इस चेप्टर को भूला चुका था.
  • मोहतरमा कोई पुराने ज़माने की प्रेम करनेवाली थोड़ी ही थी. वह तो खूब दाने बिखेरती, कबूतर इक्कट्ठे होते जाते. उनके जलवे केम्पस में प्रसिद्धि पा चुके थे.
  • एक दिन का वाकया है. इसी फरबरी के दूसरे सप्ताह की बात है. मेरे भतीजे ने उत्कट इच्छा कि आर्चिज की दूकान से कुछ कार्ड्स और गिफ्ट चुनने में 'काकासा' याने मैं उसकी मदद करूँ. दरअसल भतीजा राम काकासा से अपने इस प्रोजेक्ट को फायनेंस कराना चाहते थे, और मुझे फंसाने का यह उनका मोडर्न तरीका था. मुझे अपने भतीजे से बहुत स्नेह है, इसलिए सब जानते हुए भी उसकी फरमाईस का केयर करना मुझे बहुत सुखा देता है.
  • हाँ तो जनाब, हम आर्चिज गेलरी में हैं..कार्ड्स, टेडी बीयर्स, सोफ्ट टॉयज, म्यूजिक सीडीज, असली नकली फूलों के गुलदस्ते, पोरसेलिन का बहम करते मेड इन चाईना के फिगर्स/पुतले इत्यादि देख रहे हैं. मौसम बहुत खुशगवार है, वेलेंटायिन डे आने को हैं, किशोर किशोरियां बड़ी तादाद में गेलरी में छाये हुए हैं...घस घिस कर या घसीट कर बोलने वाली हिंदी अंग्रेजी के जुमले सुनाई पड़ रहे हैं. चाचा भतीजा दोनों ही खुश.
  • अचानक देखता हूँ वह 'ऍन. आर. आई. ' मोहतरमा वहां दिखाई दे रही है. काली जींस, काला टॉप... कानों में बड़े बड़े गोलाकार बाले..क़हर ढ़ा रही है. खूबसूरत जो थी, शोख और चंचल भी...ऊपर से अंग्रेजी का अमेरिकन एक्सेंट....हाथ में लिए थी दो मोटी सी किताबें. मैने कनखियों से किताबों के नाम पढ़े : एक थी 'ओटोबायोग्राफी ऑफ़ एरिक क्लेप्टन' और दूसरी थी दीपक चोपड़ा की 'एजलेस बोडी टाइमलेस माईंड' भतीजा राम उसे देखे ही जा रहे हैं और मैं उसके बुद्धिजीवी विचारशील और गंभीर होने की प्रतीक उन दोनो किताबों को...सायकोलोजी के साथ साथ बायोलोजी भी कम कर रही थी. मुझे तो लगने लगा था एक सुन्दर शरीर में एक सुन्दर दिल और मेघावी मस्तिष्क रहता है....एक गाना भी कानों में गूंजने लगा था, 'ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन.
  • सच कहूँ, मैं तो भूल ही गया था कि मैं एक बूढा प्रोफ़ेसर हूँ, किसी रियासत के भूतपूर्व शासक परिवार से हूँ...जगह जगह लोग मुझे जानते और पहचानते हैं...बस उसका जादू मेरे सर पर भी चढ़ कर बोलने लगा. आखिर दिल तो बच्चा है जी.
  • भतीजा मुझे रकीब नज़र आने लगा था. मेरे अन्दर तलत महमूद, रफ़ी, महेंदर कपूर, मुकेश तरह तरह के प्रेम गीत गा रहे थे. हेमंत दा और पंचम भी हावी होते जा रहे थे. जवाब भी तुरंत सुरैय्या, लताजी, सुमन कल्यानपुर, आशाजी के सुरों में मिलते जा रहे थे. कल्पना का संसार कितना सुहाना होता है और हकीक़त को कैसे लील लेता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उस समय कि मेरी स्थिति थी. मुझे ना जाने क्यों लगने लगा था मेरे किशोरावस्था के दिन लौट आये हैं, तरह तरह की तस्वीरें में बना रहा था मिटा रहा था.
  • इतने में सुना कि मोहतरमा कह रही थी सेल्स एक्जेक्युटिव से, "Don't you have the cards, you know...जिनमें लिखा हो, "I love you....I love you only.....you are the only one in my life." (क्या तुम्हारे पास ऐसे कार्ड्स हैं, जिनमें लिखा हो, मैं तुम से प्रेम करती हूँ...मैं सिर्फ तुम से प्रेम करती हूँ...तुम ही हो एक मेरी ज़िन्दगी में.)सेल्स एक्जेक्युटिव ने कहा, "यस मेम वी हेव देट." (हाँ मेम हमारे पास ऐसे कार्ड्स हैं)
  • मोहतरमा कह रही थी, "ओके पेक टेन कार्ड्स फॉर मी. गिव में डिफरेंट कार्ड्स विद द सेम मेसेज. यु सी आई हेव तो सेंड दीज टू डिफरेंट ड्यूड्स, हर्री अप प्लीज़, मुझे जाना है यू नो" (मेरे लिए दस कार्ड पेक करना. देखो सारे कार्ड अलग अलग डिजाईन के हो हाँ सन्देश बस एक हो, याने वही हो जो मैने तुम्हे कहा, मुझे अलग अलग छैल-छाबीलों को भेजने हैं. जरा जल्दी करना.)
  • मुझे होश आ गया था...मेरे बच्चे दिल-ओ-दिमाग पर फिर से एक गंभीर प्रोफेसर का मुलम्मा चढ़ गया था.
  • तुलसीदास जी की यह पंक्तियाँ अब मेरे कानों में फुसफुसा रही थी, " अब लौ नसेनी अब ना नसैहो." अब तक नाश (समय, श्रम इत्यादि) किया अब नहीं करूँगा.
  • एक जुआरी की तरह मैं प्रोमिज कर रहा था, " अब कभी भी मेरे ह्रदय उद्यान में प्रेम की कोंपलें नहीं फूटने दूंगा." देखिये कब तक बनी रहती है यह प्रतिज्ञा.
(मानेंगे नहीं आप मगर कथानक काल्पनिक है, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता महज़ संजोग होगा.)

Sunday, March 13, 2011

मुल्ला की तोती...............

मुल्ला नसरुद्दीन उस ज़माने में कुंवारा था ...अरे नहीं... शादीशुदा नहीं था, उसको ना जाने क्या सूझी, एक तोती पाल ली. तोती को उसने फ़िल्मी गाने और ग़ज़लें सीखा दी थी. तोती बहुत ही मीठी आवाज़ में गाती थी, मसलन "जादूगर सैयां छोड़ो मोरी बहियाँ", "प्यार हुआ इकरार हुआ ", "लट उलझी सुलझा जा रे बालम" वगैरह. तोती ने मुल्ला के अकेलेपन को आबाद कर दिया था. मुल्ला तोती के इस इश्किया अन्दाज़ से बहुत इतराए रहता था. जब भी मेरे पास आता कहता, "अमां मासटर, तू भी कोई तोती या तोता पाल ले, दिनरात अकेला रहता है..दिल बहल जायेगा."

पहले तो मुझे लगा था, आफत है यह सब.... मगर मेरे एक साथी, प्रोफेसर पंडित एल। एन. वाजपेयी (लोटन नाथ वाजपेयी), जो सरयू पारीय ब्राहमण और संस्कृत के एच.ओ. ड़ी थे, एक दिन मय पिंजरे एक तोता ले आये मेरे यहाँ, लगे कहने, "श्रीमान विनेश जी, मैं साल भर के लिए डेपुटेसन पर बेंकोक विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाने जा रहा हूँ, यह मेरा तोता 'मीठू' अत्यंत ही संस्कारवान है, गीता के श्लोक और मानस कि चौपाईयां बोलने में दक्ष है." वाजपेयी जी जो कुछ भी करते थे, ऐसा दिखा देते थे कि दूसरों कि भलाई के लिए कर रहे हैं और नाना प्रकार की संस्कृत उक्तियों से उसे समर्थित भी किया करते थे, संस्कृत के विद्वान जो ठहरे...उस पर कुलीन ब्राहमण...करेला और नीम चढ़ा. आगे उवाच हुआ उनका, " भाई हमने तो पढ़ा है -अष्ठादश पुरानेसु व्यासस्य वचनयम द्वयं, परोपकार पुन्याय, पापाय परपीड़नाम--इसी परोपकार कि भावना से वशीभूत होकर हम यह पंडित मीठू आपको देना चाहते हैं...आपकी विचार शुद्धि हेतु...यद्यपि लल्ला की माताजी अर्थात हमारी पंडितायन ने कहा था कि विनेशजी अभारतीय संस्कारों वाले हैं, विधर्मियों में उनकी उठ बैठ है...अपने मीठू को मत छोड़ो वहां, इसका चालचलन बिगाड़ जायेगा. किन्तु हमें आप और आपके चरित्र पर पूर्ण विश्वास है. सूर्यवंशी क्षत्रिय है आप ...मीठू आपको संस्कारित करके अपना ब्राहमण धर्म निभा सकेगा." खड़े चमच वाली चाय का गिलास सुडक कर और मेरे सिर पर एहसान का बोझा डाल कर पंडितजी तोते को पिंजरे सहित मेरे यहाँ छोड़ गए थे पंडितजी.

कोई हफ्ता भर बाद देखता हूँ कि उर्दू के प्रोफेसर जनाब शौकत अली "मजबूर" चले आ रहे हैं....उनके दोनों हाथ आगे हैं और कुछ पकड़ा हुआ है, जिसमें जुम्बिश हो रही है. करीब आया तो पाया कि जनाब "मजबूर" साहब अपने हाथों में एक तोता लिए है. फरमाने लगे शौकत मियाँ, " विनेश मियाँ हम जा रहे हैं ढाका कोई बारह महीनों के लिए, वहां उर्दू पढ़ाएंगे......बेगम बोली है- विनेश मियाँ अपनों जैसे है...मीठू मियाँ को उनके पास छोड़ दीजिये...आप तो जानते ही हैं कि हम उनकी किसी बात से इनकार नहीं कर सकते. सोचा चलो खुद ही पहूंचा आते हैं मीठू मियाँ को आपके दौलतखाने पर." हलुवे का नाश्ता दबा कर ठूंसते हुए मजबूर मियां मिमिया रहे थे, " बहुत ही नेक तोता है मियाँ, कुरआन शरीफ की आयतें बोलता है...नमाज़ी है." मैने कहा, "सो तो है, मगर पिंजरा ?" लगे कहने, "बेगम ने कहा था आते वक़्त बाज़ार से थोड़ा ग़ोश्त लेते आना कीमे के कोफ्ते बनाउंगी, मैने सोचा आपके यहाँ तो एक पिंजरा है ही, मैने कल्लू कबाड़ी को पकड़ा दिया और पैसे ले लिए जो भी दिए उसने...."
खैर मैं ठहरा बहुत ही उदार विचारों वाला पढ़ा लिखा जन्तु, हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे या और इस से भी अच्छे आपसी रिश्तों का हिमायती। मैने कहा, "कोई बात नहीं, हम सब इस मुल्क में जैसे हिन्दू-मुसलमान साथ रहते हैं, वैसे ही पंडित मीठू और मीठू मियाँ संग संग एक ही पिंजरे में बसर कर लेंगे." दरअसल..... मैं दोनों तोतों को एक ही पिंजरे में रख कर एक मिसाल कायम करना चाहता था, जैसे कि हर बुद्धिजीवी का अरमान होता है और आधे अधूरे प्रयास भी करता है. तो जनाब प्रोफेस्सर शौकत तोते को छोड़ कर चले गए...

मैने पंडित मीठू को समझाया, भई हमारी हिन्दू संस्कृति बहुत महान है, हमारी सहिष्णुता और उदारता विश्व में अद्वितीय है, गैरों को गले लगाना हमारी खासियत है॥आज से मीठू मियाँ आपके साथ आप ही के पिंजरे में रहेंगे। स्वभाव के अनुसार मीठू पंडित मान गए और मीठू मियाँ ने भी सोचा सब सुविधाओं से लदा है पिंजरा.... धर्म निरपेक्षता का वातावरण भी है..... लुत्फ़ ही रहेगा. बुद्धिजीवी मासटर है ऊपर से खैरख्वाह, जो हर वक़्त माइनोरिटी की ही हिमायत करेगा. खैर, दोनों ही तोते सुकून से एक ही पिंजरे में रहने लगे, जैसे इमरजेंसी के समय कट्टर हिंदूवादी और कट्टर मुस्लिमपंथी नेता एक ही जेल में बड़े प्रेम से रहा करते थे. मीठू पंडित कभी "हर हर महादेव" बोलता, कभी "राम राम", कभी "हरि ॐ तत्सत" और मीठू मियां भी "अल्लाह-ओ-अकब्बर" "या अल्लाह इलिल्लाह, मुहम्मद उर्सिल्लाह" का कलमा पढ़ते. दोनों ही तोते निहायत धार्मिक, अपने अपने जप-तप में लगे रहते..खाना पीना दोनों को अपने मूल मालिकों से अच्छा मिलता ही था. इस तरहा दोनों की बल्ले बल्ले थी.

आप तो जानते ही हैं कि मुल्ला कभी भी कोई परमानेंट काम नहीं करता था । उन दिनों मुल्ला बेरोज़गारी के रोज़गार में था. नौकरी के इश्तेहार देख कर अर्जियां डालते रहता था. एक दिन किसी मल्टी नेशनल कंपनी से इंटरव्यू का पैगाम आ गया. रेल से यात्रा थी, भाडाखर्चा कंपनी से मिलना था, मुल्ला ने उसके साथ जोड़ते हुए, आसपास में रहने वाले रिश्तेदारों का मुआयना करने का भी प्रोग्राम बना लिया था. कुल मिलाकर मुल्ला को कोई एक हफ्ता बाहिर गाँव रहना था. बाकी तो सब ठीक था, बस मुश्किल थी तो एक कि मुल्ला की गैरहाजरी में उसकी तोती कहाँ रहेगी ? आप सब जानते ही हैं, मैं तो मुल्ला के हर मर्ज़ कि दवा हूँ, मुल्ला ले आये तोती को...और लगे कहने, "मास्टर सोचता हूँ तोती को तेरे पास छोड़ जाऊँ...तेरा भी मन लगा रहेगा और तेरे दोनों तोतों का भी... उसके बाद मुल्ला ने मेरे कान में कहा, "हाँ बहुत दिन से तोती हेलेन पर फिल्माए गानों में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रही है, सोचता हूँ दोनों तोतों की सोहबत में कुछ संभल जाएगी....समझे ना मासटर." मैं समझूं उससे पहले ही मुल्ला तोती को पिंजरे में घुसा चुका था.

पिंजरे में दो मर्द तोते और एक औरत तोती आबाद थे। तोती को इम्प्रेस करने के चक्कर में मीठू पंडित और मीठू मियाँ कुछ ज्यादा ही शरीफ बने जा रहे थे...पंडित 'राम राम' जप रहा था, और मियां अल्लाह ताला को याद किये जा रहा था. तोती को अपना इन्सल्ट महसूस हुआ. मेनका बन कर तोती अपनी अदाएं दिखाने लगी.....बड़े गहरे गहरे प्रेम गीत गाने लगी.....मसलन 'पीया तू अब तो आजा', 'रात नशीली है बुझ गए दिए' जैसे. तोते आखिर तोते ही.....मीठू पंडित कहने लगा, "मेरी भक्ति से प्रसन्न हो कर प्रभु ने मेरे जीवन साथी के रूप में तोती को भेजा है. तोती मेरी है, मेरा उस पर पहला अधिकार है." मीठू मियाँ लगे कहने, " शर्म करो पंडित, तुम्हारे यहाँ ऐसा कोई इंतज़ाम नहीं है कि जप तप के बाद हूर मिले...अरे तुम्हारे ऋषि मुनि तो जन्म जन्म में साधु बने रहते हैं....बल्कि तुम्हारे यहाँ तो साधु सन्यासियों का तप भंग करने ऐसी अप्सराएँ आती रही है...और तुम लोगों को अपने पर काबू रखते हुए उन से दूर रहने की हिदायत दी जाती है." मियाँ आगे कह रहा था, " दरअसल खुदा ने मेरी दुआ कुबूल फरमाई है, मेरे जैसे नमाज़ी से खुश होकर उसने तोती को मेरे लिए भेजा है." अब पंडित तोता कहता है तोती मेरी है, प्रभु का दिया वरदान है और मियाँ तोता कहता है कि तोती खुदा का उसके लिए भेजा तोहफा है. दोनों ही अपना अपना धर्म ईमान भूल कर लड़ने लगे.....साम्प्रदायिक दंगा सा हो गया पिंजरे में.....तोती को भी अपनी इज्ज़त कि पर्वाह होने लगी, रोमांस अलग बात है, 'प्रक्टिकल' कुछ और, पंडित और मियाँ दोनों की नज़रों में उसे कुत्सित भावनाएं दिखाई दे रही थी.

दोनों तोते एक दूसरे पर टूट पड़े और तोती के लिए लड़ने लगे, लहुलुहान कर दिया था एक दूजे को. निहायत ही जाती मसला मज़हबी जूनून बन गया था...पिंजरे में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो गया था.....बात तोती की थी, अपनी खुदगर्जी की थी, और दोनों ही तोते ईश्वर और अल्लाह की दुहाई देते हुए , एक दूजे पर वार कर रहे थे. दोनों ही इतने हिंसक हो गए थे कि लड़ते लड़ते मर गए. तोतों का तो यह हस्र हुआ, मगर तोती ने कहा,"देखो, ईश्वर और अल्लाह ने कुछ ऐसा किया कि पाखंडी मर गए.".तोती ने सर्वशक्तिमान ईश्वर का .....पाक परवरदिगार खुदा का शुक्रिया अदा किया क्योंकि तोती की इज्ज़त जो बच गयी थी. तोती ने यह भी तय किया था कि अब वह फ़िल्मी नगमे नहीं गाएगी, भजन और सूफी गाने गाएगी. मैने दोनों फोत हुए तोतों का विधिवत अंतिम संस्कार किया. अनूप जलोटा-अनुराधा पोडवाल के भजन और नुसरत फ़तेह अली खान साब- आबिदा परवीन बेगम के सूफी नगमे/कव्वालियाँ, मैं तोती को सुनाने लगा था ताकि उसमें 'बेसिक' 'चेंज' आये. मुझे डर था कि तोती अगर मुल्ला के सिखाये नगमे गाती रही तो मैं बिगड़ जाऊंगा......इंसान ही तो हूँ....गुनाहों और गलतियों को पुतला.



Saturday, March 12, 2011

शब्द : बिंदु बिंदु विचार

* उसके खानदान के एक बुजुर्ग राजस्थानी के एक स्वनामधन्य मनीषी कवि के दोस्त हुआ करते थे. जन्म से वे कवि महोदय ओसवाल जैन थे और वे बुजुर्ग राजस्थानी मुस्लिम रजपूत. दोनों कि जड़ें रजपूत खानदान से थी. दोनों के पूर्वजों ने किसी समय जैन एवं इस्लाम को स्वीकार किया था. मगर रगों में राजपूती का असर कायम था.

* दोनों के रहनसहन में राजशाही शालीनता और अभिरूचि टपकती थी, दोनों ही कुछ मामलों में बहुत कंजरवेटिव थे तो कई पहलुओं पर बहुत ही उदारमना भी. हाँ एक बात कोमन थी वह थी राजपूताने की आन बान शान से मोहब्बत, संगीत और साहित्य में रूचि. दोनों ही शाकाहारी और चोरी से दुर्गा माता के सेवक ( जैन और इस्लाम धर्म देवी पूजा को नहीं जो मानते). माताजी महाराज (दुर्गा) के भक्त होने के नाते एक और दोस्त उनसे जुड़ गया था. वे थे किसी ठिकाने के ठाकर साहब. ठाकर साहब खाने पीने के शौक़ीन थे जब कि हमारे ऊपर लिखे दोनों बुजुरुगवार थे टीटोटलर.

* तीनों की खूब छनती थी। ठाकर साहब ऊपर से बहुत कठोर मगर दिल से सुकोमल. कहने को वे दोनों को घास खाने वाले घोड़े, बैल इत्यादि संबोधनों से नवाजते थे मगर अन्तकरण से दोनों से प्रेम ही नहीं उनका बहुत सम्मान करते थे. यह तिगडी इलाके में मशहूर थी. हमारे कवि महोदय थोड़े समाजवादी खयालात के थे. मुस्लिम बुजुर्ग मस्त मौला थे॥शास्त्रीय संगीत के शौक़ीन..भजन ग़ज़ल एक सी शिद्दत से गया करते थे. ठाकर साहब थे पक्के हिन्दू.

# एक धागा आपसी स्नेह को तीनों को सब बातों से परे जोड़े रखता था. धर्म निरपेक्षता की बातें वे कभी नहीं करते थे...मगर सांस्कृतिक एकत्व को जिया करते थे. मुस्लिम बुजुर्ग की बहन का पाकिस्तान में जब देहांत हुआ तो तीनो एक साथ 'मोखाण' (मातमपुर्सी) के लिए कराची गए थे.एक दफा किसी ने कवि महोदय पर कोई फब्ती कस दी थी ठाकरां की दोनाली हवा में आग उगलने लगी थी. जुम्मे जागरण की सारी व्यवस्था खान साहब किया करते थे.

# शब्दों पर एक दफा इन तीनों में चर्चा हुई थी...आज उनकी एक साझा रचना को गद्य के रूप में आप से बांटता हूँ।

# ठाकर साहब बोले : मिनख (पुरुष) लुगाई ( औरत) की तरह शब्द भी अकेले में नंगे होते हैं. कुछ शब्द निहायत ही शरीफ, कुछ लुच्चे लफंगे होते हैं.

# खान साहब बोले : कुछ शब्द माड़े (दुबले पतले) कुछ शब्द ताजे (हृष्ट-पुष्ट) होते हैं. कुछ बड़े सलीके वाले तो कुछ बदमिजाज़, बदतमीज़ बेढंगे होते हैं.

# अबके कवि महोदय ने फ़रमाया : कुछ शब्द मनुष्य की तरह पूरे सामाजिक हैं. इनके परिवार हैं, और उनके टाबर टीकर (बच्चे) भी हैं.

# ठाकर साहब फरमाते हैं : शब्द भी बंधे हैं. आदमी की मानिन्द रीत रिवाज से. इन्हें भी वास्ता है, कल से, आज से लिहाज़ से.

# तीनों ने मिल कर 'सम अप' किया : इन शब्दों में ना, हिन्दू, मुसलमान और जैन हैं. इनमें द्विज, शुद्र, कुम्हार, खाती (सुथार) कायमखानी और राठोड हैं.

# कवि महोदय बोले : किसी भी रचना में देखिये, एक शब्द दुल्हा है बाकी सब बाराती है.

# इस तरह से तिगडी की सभाएं और गोठें होती थी.

बिंदु बिंदु विचार:'भूखो पूछे जोतखी,धायो पूछे बेद'

# जापान में सुनामी के चलते हुई तबाही ने भुज का वाकया याद दिला दिया.

# भुज में एक ठाकर हनुमान सिंह जी रहा करते थे. मूलतः राजस्थान के बिकाणे ( बीकानेर ) इलाके के रहने वाले थे. भुज के भूकंप के कुछ दिन पहले करणी माताजी के दर्शन के लिए देशनोक आये थे, मैं भी वहीँ था. कोई जान पहचान के देपावत जी (चारणवंश जो माताजी महाराज के पुजारी है) के यहाँ माताजी की चिर्ज्याँ (भजननुमा स्तुति-गान) का कार्यक्रम था वहीँ भेंट हो गयी थी.

# हनुमान सिंह जी ने अपने बेटे कुंवर करणी सिंह से परिचय कराया था. बहुत ही होनहार नौजवान, उत्साही और विनम्र. बताने लगे थे अभी पिछले महीने ही इसकी शादी की है. बहू सोनल बहुत संस्कारी है, बंगलौर के किसी इंजीनियरिंग कोलेज से बी. टेक किया हुआ है. करणी सिंह ने भी वहीँ से अपनी बी. टेक की डिग्री हासिल की थी. दोनों ही इनफ़ोसिस में काम करने लगे थे. वहीँ एक दूजे को और ज्यादा जाना समझा था और यह लव कम अरेंज्ड मेरिज घरवालों की सहमति से हुई थी.

# दोनों ही खानदान याने राठोड़ और शेखावत अपने असर रसूख में किसी से कम नहीं थे। इस रिश्ते से सभी बहुत खुश थे.

# ठाकर साहब कहने लगे कि वहां गुजरात में एक जिग्नेश भाई पंडित नाम के नामी ज्योतिषी है, उन्होंने इस रिश्ते के बारे में पहले से ही प्रेडिक्ट कर दिया था. करणी सिंह और सोनल अपनी कंपनी के एक असाईनमेंट पर अगले महीने शिकागो जाने वाले थे. ठाकर साहब कहने लगे थे दोनों कि जन्मपत्रियाँ खूब मिली है, शायद तीस गुण मिले हैं. जिग्नेश भाई कहते हैं कि दम्पति बहुत विकास करेंगे आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक. दो संतानें होंगी. जिग्नेश भाई ने ठाकर साहब को किसी मुकद्दमें में जीत होने के बारे में ज्योतिष की गणना के आधार पर बताया था. ठाकर साहब ने माताजी महाराज को भी सिंवरा था और मुकद्दमा जीत गए थे, जिसके जीतने की उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी.

# करणी-सोनल की 'जात' (विवाह के बाद कुल देवी के दर्शन का रिचुअल) देने और मुकद्दमें की जीत के लिए सवामनी का चढावा करने ठाकर साहब सपरिवार देशनोक आये हुए थे. हमारे खानदान से उनका रिश्ता भी था, और वैसे भी ठाकर साहब बहुत व्यावहारिक और दिलदार किस्म के इंसान लगे थे मुझे. मैं सहज ही घुल मिल गया था उनसे.

# जिग्नेश भाई से ताज़ा ताज़ा प्रभावित थे ठाकर साहब। बताने लगे थे भुज में इस ज्योतिषी का डंका बजता है. हर बड़ा आदमी उनसे अपने जन्म पत्री/टेवे को लेकर कंसल्ट करता है. बरस फल छंटवाता है. जिग्नेश भाई कि भविष्यवाणियाँ बड़ी सही होती है. अमुक को बताया कि काली वस्तु का व्यापार करें, उन्होंने लोहे के कारोबार में वारे न्यारे कर दिखाए. अमुक की बेटी की शादी नहीं हो रही थी, उम्र तीस को पार कर चुकी थी॥जिग्नेश भाई ने कहा कि उत्तर दिशा से बहुत शानदार रिश्ता आएगा..और ऐसा ही हुआ. अरे साहब धीरुभाई अम्बानी भी उनसे पूछा करते थे. कोकिला बेन, मुकेश, अनिल आदि अम्बानीज भी बड़ा विश्वास रखते हैं जिग्नेश भाई पर, एक बड़े राजनेता के लिए ठाकर साहब ने बताया था कि वे तो हर काम जिग्नेश भाई से पूछ कर करते हैं. मैने कहा पेशाब भी...तो हंसने लगे, कहने लगे-बन्ना तुम पढ़े लिखे लोग हमारे प्राचीन विज्ञानों पर भरोसा नहीं रखते यह अच्छी बात नहीं. अरे ज्योतिष एक बहुत बड़ा सच है.

# खैर जिग्नेश भाई ने ज़रूर भुज के कई लोगों के सुखी, संपन्न, लम्बी उम्र वाले जीवन की बात उनकी जन्म पत्रियों को देख कर बताई होगी.

# कोई पंद्रह दिन बाद भुज में भूकंप आया. कई मकान धराशायी हो गए...जो लोग वर्टिकल थे वे होरिजोंटल हो गए. कुंवर करणी सिंह इस हादसे के शिकार हो गए, सोनल भी बुरी तरह से घायल हो गयी. ठाकर साहब अपना दिमागी संतुलन खो बैठे. भुज में जिग्नेश भाई ने जिन जिन को राजयोग बताया था वे करोडपती से खाकपती हो गए, लम्बी उम्र जिनकी जन्मपत्री में उन्होंने देखी और बताई थी उनका मृत्यु योग घटित हो गया था. जिन भवनों को उन्होंने वास्तु के अनुसार सेट कराया था वे जमीन चूम रहे थे. मुहूर्त के अनुसार जिन दूकानों/ऑफिसों की ओपनिंग उन्होंने वेद मन्त्रों के साथ करायी थी, उनकी हस्ती धूल में मिल गयी थी.

# जिग्नेश भाई की ज्योतिष सही थी या गलत ? जन्म पत्रियों में लिखे सब संजोग, दशा, अन्तर्दशा, प्रत्यंतर क्या थे, प्रपंच या विज्ञान ? ज्योतिष से ऊपर भी कोई हस्ती है क्या ? लोग प्रत्यक्ष घटनाओं को देख चुकने के बावजूद भी क्यों इन सब पर भरोसा रखते हैं ? कई एक सवालों के जवाब मुझे आज भी नहीं मिल पा रहे हैं.

# मुझे मेरे नानीसा की कही एक बात बार बार ख़याल में आती है, "भूखो पूछे जोतखी, धायो पूछे बेद" याने जो भूखा होता है वह ज्योतिषी के पास जाता है और जिसका पेट भरा हुआ है वह डाक्टर वैद्य के पास.

Wednesday, March 9, 2011

निशब्द आंसू: बिंदु बिंदु विचार

* हमारा प्रेम एक अलग नस्ल का था, तभी तो हम बोलने से ज्यादा मौन को महत्त्व देते थे. घंटों निकल जाते हुसैनसागर के पास किसी बेंच पर बैठे हाथों में हाथ लिए..बिना कुछ बोले सुने.

* तुम आँखों को देख कर मेरे मन के भाव समझ जाती थी. मेरे होंठों के हिलने के साथ ही मेरा मंतव्य तुम भांप लेती थी. अरे कभी कभी तो ऐसा होता था, मन में कुछ आया और तुम ने बता दिया,क्या सोच रह हूँ मैं. ऐसा ही कुछ मेरे पर लागू होता था तुम्हारे मुत्तल्लिक. कहा करती थी तुम मुझ को "विन,स्पंदनों की भाषा का तुज़ुर्बा बस तुम्हारा साथ मिलने पर हुआ, कितना शोर था दुनिया में, तुम आये तो लगा हरसू मौन है शांति है..शीतलता है..सुकून है. मौन ने मुझे स्वयं तक लौटने में मदद की है. मत कहो कुछ भी, बस आँखों में झांकलो, मन में मेरे लिए अपार प्रेम के इज़हार ले आओ, समझ लूंगी मैं, और मेरा जवाब तुम पढ़ लेना मेरी आँखों में, मेरे चेहरे पर, मेरे रौं रौं से प्रकट होते स्पंदनों में." समझ लेते थे ना, हम एक दूजे के वायिब्स को.

* अचानक एक दौर ऐसा आया कि तुम्हारी आस्था शब्दों में बढ गयी। ना जाने तुम्हे शब्दों से क्यों इतना प्रेम हो गया था. दोष नहीं था तुम्हारा, हमारी पसंद और प्राथमिकताएं बदलती जो रहती है. मैं नहीं बोलता तो तुम कहती, "तुम 'ऐसा' बोल सकते थे." मैं कुछ बोलता तो तुम कहने लगती, "तुम ऐसा नहीं ऐसा बोल सकते थे." कभी कभी तो तुम कहा करती, "देखो वह ऐसा बोलता है और तुम ?" या "मैं तो ऐसा बोलती हूँ और तुम॥?"

# मेरे लिए तुम्हारी ख़ुशी सर्वोपरि थी. तुम जिस बात से खुश होती मैं बोलने लगा. और आदतन भूलने भी लगा..अब शब्दों की एक नयी लड़ाई शुरू हो गयी...तुम कहती, "तुम ने उस दिन ऐसा कहा था, और आज बिकुल उसके उलट कह रहे हो." या "तुम तो मेरा मन रखने के लिए उपरी शब्द कह देते हो." या "तुम्हारे दिल में कुछ और, जुबान पर कुछ और होता है." एक दौर ऐसा आया तुम मुझे झूठा और फरेबी समझने लगी.

# सच कहूँ मुझे भी लगने लगा, मैं अव्वल दर्जे का झूठा इंसान हूँ, जो अपने शब्दों के रस में भिगो कर ना जाने क्या क्या परोसता रहता हूँ, तुम्हे भी और दुनिया को भी. मैने इतना अधिक पढ़ा और गुना था कि मेरे पास शब्दों का एक विशाल भण्डार जमा हो गया था. हर मौके के लिए, हर बात को साबित करने के लिए मेरे पास शब्द थे...और उस पर तुर्रा यह कि मेरे अकाट्य तर्क जो उस क्षण वह साबित कर सकते थे, जो भी मैं सोचता और समझता होता.

# और तो और मैं औरों के शब्दों के भी निर्वचन अपनी सहूलियत के अनुसार करने लगा। कोई कुछ भी कहे, मुझे शब्दों को उस रूप में सुनना और समझना था जो मैं चाहता होता.

* एक शब्दबाज़ के रूप में मेरी प्रसिद्धि फैलने लगी थी. दूर दूर से लोग मुझसे जानने आते कब क्या कहा जाय. कई उद्योगपतियों और राजनेताओं के भाषण मैं लिखने लगा. बॉलीवुड की कई फिल्मों में मुझे डायलोग लिखने का काम बिना मांगे मिलने लगा. मेरा एक एक शब्द असरदार होता था. प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए मैने एक संवादों वाली किताब लिख डाली, जो बहुत स़ी देशी विदेशी भाषाओँ में अनुदित हुई और जिसके कई संस्करण निकले..आज एक मल्टी नॅशनल पब्लिशिंग हॉउस ने उसके कापी राईट खरीदने का ऑफर दिया है, मेरे शब्दों के मदारीपने का अगला जादू उनके न्यूयोर्क ऑफिस में सीईओ के सर पर चढ़ कर बोलेनेवला है..देखना तुम भी, क्योंकि तुम मेरी हर खबर पर नज़र जो रखती हो.

* जब से मुझे नाना प्रकार के प्रायोजित तरीकों से 'आई लव यू' के तीन अल्फाज़ बोलने में महारत हासिल हुई है, मैने कभी भी मुड़ कर नहीं देखा. दुनियां के सबसे बड़े इस झूठ ने मेरे दिन और रातें कितनी रंगीन बना दी है इसको मैं एक आत्म कथानुमा बेस्ट सेलर नाविल के रूप में बाजार में उतारनेवाला हूँ.

* हाँ तुम तो चल दी हो मेरी इस शब्द बाज़ी के कारण मेरी ज़िन्दगी से, बस समझ लो तुम्हारी यादों , तुम्हारे ज़ज्बातों , तुम्हारे मेरे साथ को शब्द देकर मैं बहुत ही दिल छूने वाली नज्मे, गजले और नगमे लिख रहा हूँ..और सब उन्हें बहुत चाव से पढ़ते हैं.

* हाँ अभी भी किसी कोने में बैठकर मैं निशब्द आंसू बहाता हूँ...काश कोई आये मेरे करीब मेरे शब्दों के लिए नहीं मेरे मौन के लिए.

Tuesday, March 8, 2011

बिंदु बिंदु विचार ; सुबहें

  • वैसे तो सुबहें खुशगवार होती है. चिड़ियों की चहचाहट, सूरज का होले से उदय होना, मंदिर की घंटियाँ, तरोताजा चेहरे, उत्साह का माहौल और भोर बेला में गायी गयी प्रभातियां..सब मिलजुल कर मन को प्रसन्न करती है. सब कुछ नया नया सा लगता है. ऐसा तब होता है ना जब हम 'यहीं और अब' (Here and Now) में जीने का ज़ज्बा लिए जो होते हैं.

  • कुछ सुबहें ना जाने क्यों उदास उदास सी लगती है. मन खिन्न सा होता है. सब जगह उदासी बिखरी हुई स़ी लगती है. सब कोई पराये से लगने लगते हैं. खुद को खुद से कोफ़्त होने लगती है.

  • अपनी गलतियां या गलतफहमियां बार बार सामने आकर सताने लगती है. ऐसा लगने लगता है मानो अब तक जो कुछ हुआ जीवन में वृथा ही था. बहुत कुछ खोने के एहसास मलिन करने लगते हैं. ऐसा तब होता है ना जब अनायास ही माथे पर विगत का बौझा हावी हो जाता है.

  • अब आज को ही लो. सुबह बिस्तर से उठते ही लगा कि यह सुबह कुछ और है. अन्दर से कुछ टूटा टूटा सा लग रहा था या कहूँ कि सुना सुना सा..ऊर्जा जैसे निचुड़ गयी हो...तन मन दोनों ही निर्बल से महसूस हो रहे थे. सुबह उठते ही 'ॐ नमः शिवाय' बोलने का मन नहीं हो रहा था, कभी कभी 'बुद्धं शरणम गच्छामि' बोलता हूँ आज वह भी नहीं आ रहा था, 'नमस्कार महामंत्र' के पांचों सूत्र भी आस पास नहीं आ रहे थे. कभी कभी संसार की शून्यता के आभास होते हैं, मौन में वैसा भी नहीं था आज.

  • एक पुतले की तरह, चलते चलते बालकोनी में खड़ा हो गया था मैं. झांक रहा था बाहर की ओर.. पड़ोसी के घर के आगे सायकिल वेन खड़ी थी..मेरा मारवाड़ी पड़ोसी जो एक 'तेल मिल' का मालिक है बाहर आकर खड़ा था...लोहा लक्कड़, पुराने बर्तन, अप्लायिन्सेज और कुछ और कबाड़ का ढेर सा लगा हुआ था, करोड़ों का मालिक जिसने लाखों अपने घर को सजाने में खर्च किये, कबाड़ीवाले से बहुत ही चतुराई से सैंकड़ों के लिए मोल भाव कर रहा था. मुझे याद आया, ऐसा तो मेरे साथ कई दफा हो चुका था. मैने तो हमेशा बिना देखे ऐसे या इन से भी बेहतर कबाड़ को अपने कारिंदों के सुपुर्द कर दिया था. उन्होंने क्या किया उसका मुझे नहीं मालूम. कभी कभी सुना था कि कुछ चीजें किसी एक ने काम की पाई थी और एक बड़ी चर्चा विचर्चा के बाद दूसरे की समूल्य सहमति से पा ली थी. मेरे एक चुगलखोर सेवक ने कहा था कि 'झमकूड़ी' रसोईदारण ने 'बेगजी' को चांदनी रात में 'राजी' किया तब टेलीविजन उसको मिल सका. जो भी हो मैने सोचा जब यह बनिया कबाड़ को मुद्रा में बदल सकता है, मैं क्यों नहीं...और सोचा जब बेगजी पुराने टेलीविजन के लिए झमकूड़ी का संग पा सकते है तो ????छि छि कैसा सोचने लगा मैं......मगर यहाँ सोच रुक गए. फिर भी ना जाने एक पछतावा खुद के सयानेपन और दुनियावी होशियारी में कमज़ोर होने का मेरी सारी विद्वता और बहादुरी को लील रहा था.

  • इस कबाड़ सलटाने का कार्यक्रम देखने के संग संग ना जाने कितने पहलुओं पर मेरे खुद के ठगे जाने के, लूटे जाने के, बेवकूफ बन जाने के, अवसर चुक जाने आदि के उदाहरण जेहन में आने लगे...और मैं खुद को और सुस्त, ढीला ढीला सा पाने लगा.

  • अचानक नज़रें बालकनी के किनारे वाले पेड़ पर पड़ी...कल तक जो पेड़ पतझड़ के असर से 'नंगा-बुच्चा' सा हो गया था...आज उस पर सुन्दर हरी कोंपले और पत्ते विराजित थे..बहुत खूबसूरत लग रहा था वह पेड़..कितना खिला खिला सा मुस्कुराता सा. आज की नयी ज़िन्दगी..नयी सुबह को हर्षित मन से उत्सव के रूप में मना रहा था...कल क्या हुआ उसे याद नहीं था...मैने भी पेड़ की मुस्कान का जवाब अपनी मुस्कान से दिया....खुश हो गया था मैं.

  • 'सोनू' मेरे परम सहयोगी और स्नेहिल साथी (जिसे आप नौकर कहते हैं) ने आवाज़ लगायी, "बन्ना आपकी एक चाय कब कि ठंडी हो कर बेकार हो गयी थी. अब नयी चाय लेकर आया हूँ, 'भाम्पे' निकल रही है..पी लीजिये. नहीं तो दिन अच्छा नहीं गुज़रेगा..सुबह की पहली चाय मैं कहा करता हूँ ईश्वर की वंदना की तरह होती है.

Sunday, March 6, 2011

पुरअसर (आशु रचना)

# # #
हो जाता है जो
पुरअसर
हो जाता वही
बेअसर,
होने को असर
चाहिए ना
सतत इच्छा
थोड़ी कसर.

नाम इसी का
दिया है
किसीने
प्रेम का अधूरापन,
इसी में रहता है
जिंदा
हर लम्हे
हमारा बचपन.

मासूमियत
रहती है कायम
बचा हो गर कुछ
गवेषण को,
इसीलिए प्रेम में
जीया जाता है
क्षण क्षण को...

Friday, March 4, 2011

एहसासे कसूर (आशु रचना)


# # #
लिए बौझा
एहसासे कसूर का
जी सकोगे कैसे,
साँसों को लेते लेते
ज़हर
पी सकोगे कैसे...

माना कि तुम ने
कर डाला वह
जो ना हो रहा
गवारा तुझको,
किस पैमाने से
मापते हो
कसूर अपना
बताना तो
जरा मुझ को....

इंसान ने बनाए हैं
कई पैमाने
इंतेजामिया के
खातिर,
ज़रूरी नहीं कि वो हो
मंज़ूर
खुदायी फैसले के खातिर....

होता गर कुछ ऐसा
तो पैदा होता एक
बालक
महज़ शादीशुदा जोड़े के
मिलन से,
क्यों हो जाता है ऐसा
नर- मादा की
कुदरती खिलन से....

बरसता तब तो
बादल
जहां होती है
जमीं प्यासी,
रहा करते क्यों ना
खुश सारे
क्यों होती है
उदासी.....

बुनियादी सच
कुदरत के
कायम है यहाँ पर,
देखो उनको
और सोचो
तुम 'चूके' हो कहाँ पर,

हर पल होता है
आगाज़
एक नयी ज़िन्दगी का,
नहीं मोहताज़ है कोई
किसी का
करने 'उसकी' बंदगी का..

सिर उठाओ और
जीयो,
ज़िन्दगी है लिए तेरे,
बताओ ना किन
रातों के
कभी नहीं हुए सवेरे..

कसूरगवार खुद को
तू ने
समझते समझते,
क्यों बनाया है दोज़ख
खुद को
शिकंजों में कसते कसते..

छवि..(आशु रचना)

# # #
चक्षु हीन
सोचे
स्वकल्पना में
छवि यदि
प्रकाश की,
पहुँच सकता है
वह अनेकों
सत्य प्रतीत होते
परिणामों पर,
किन्तु होंगे वे
मात्र
अनुमान...

शांत सरोवर में
छवि
शशि की
नहीं बन जाती
स्वयं शशांक,
एक है विद्यमान
किन्तु
द्वितीय
मात्र
अनुमान...

लगा कर
छलांग कोई
सरोवर में
नहीं
पकड़ पायेगा
चाँद को,
हो जाएगी
खंडित विकीर्ण
छवि उसकी,
और हो जाएगी
कठिन
उसकी
पहचान...

समझाओ ना
निगौड़े
मन को
ना बनाये
छवियाँ,
यह क्रम होगा
बस करते जाना
उत्पन्न
उर्मियाँ और तरंगें,
हो कर
वस्तुस्थिति से
अनजान...

Tuesday, March 1, 2011

शिव और शक्ति...

# # #
योगी शिव तपस्या में लीन थे
ध्यान धरे स्वयं में तल्लीन थे...

पर्वत आया
शिव सेवार्थ
लेकर भेंट
पुष्प फलादि,
पुत्री पार्वती
संग पिता के
सौम्य गुणी
अनन्त अनादि .....

आकर्षित
शिव मन हुआ
स्वंग शक्ति पर,
हुआ प्रभाव
सहज घटित
उनकी आसक्ति
अनुरक्ति पर...

भंग हुआ
ध्यान
शिव शंकर का,
चक्षु खुला
भयभीत
अभयकर का,

पर्वत सविनय
विनम्र प्रार्थी,
सेवा प्रतिदिन
हेतु स्वार्थी,
आदेश शम्भू का
था विचित्र
आओ नितान्त
अकेले
मेरे भक्त मित्र,
नहीं लाना तुम
संग
पार्वती को,
बाधक है वह
साधक
व्रती को...

बोली भगवती
गौरी कल्याणी
अधरों पर
पावन स्मित लिए,
तेजोमय ललाट
आलोकित
ह्रदय सुकोमल
प्रीत लिए...

हे शिव
करते प्रयोग
जिस ऊर्जा का
तुम
निज तप
और
साधना में,
सभी क्रियाएं
निहित
शम्भू !
प्रकृति की
अवधारणा में..
अस्तित्व कहाँ
लिंगराज आपका
अपनी प्रतिरूप
प्रकृति से दूर,
व्यर्थ कुपित हो
देव तुम अभी
मिथ्या बनते हो
क्यों क्रूर..

शिव थे प्रसन्न
देवी मेधा से,
किन्तु वचन थे
अति कठोर,
करूँ नियंत्रण
और समापन
मैं प्रकृति का,
तपोबल मेरा
प्रबल है घोर...

मैं स्वयं हूँ
तत्व स्वतंत्र
मैं पृथक सत्व
हूँ ना कदापि
योगित अथवा परतंत्र,
प्रकृति से सुदूर
बहुत हूँ
पृथक सदैव है
मेरे तंत्र,
मैं नहीं निर्भर
तुम पर
स्वतः गुंजरित
मेरे मन्त्र..

है यदि परे
भगवन आप
प्रकृति से,
क्यों करते तप
पर्वत आरूढ़,
जो देख सुन
आप करें
गृहण,
युक्त संयुक्त है
जो कुछ,
विद्यमान
प्रकृति का रूप
है गूढ़...

हैं यदि श्रेष्ठ
शिव आप शक्ति से
क्यों इतने
भयातुर आप,
मेरे सन्निकट
होने की
चिन्ता से
क्यों हैं
आतुर आप ?

शिव शक्ति का स्वरुप अनुपम
इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ,
परम सत्य प्रस्तुत कर मित्रों
मैं भी आज परितृप्त हुआ..