Thursday, April 22, 2010

जीवन सरिता.....

# # #
बहती नदिया
समाये हुए,
कल कल संगीत
प्रवाह की उर्जा
विस्तार एवं गहनता से
मिलन की आतुरता
सदैव गतिशीलता
जीवन्तता...

एक खड्ड
जल से भरा
उदासीन
गति-प्रगतिहीन
स्पंदनविहीन
प्राणहीन,
दृष्टव्य जहां
यथास्थिति
एवं
स्थिरता....

स्थायित्व को
दे दिया है नाम
हमने
अस्तित्व का,
बनाकर
खड्ड एक
ठहरे जल का,
देकर उसे
परिभाषाएं
नाम की
परिवार की
समाज की
धर्म की
अर्थ की
यश की
उत्तराधिकार की,
और
कह दिया है
आसानी से
यही तो
जीवन है
यही तो है
शाश्वतता.....

नहीं हो सकता
कभी भी
एक गढ्ढा
जीवन हमारा,
उसमें तो है
सडन
ह्रास और
तिल तिल मृत्यु....
जीवन तो है
बहती सरिता,
लिए
अंतहीन गतिशीलता
पल पल की चाहत
तटों से प्लावन
विदरिका में पैठ
अनवरत गवेषण....

करें परित्याग
हम स्वयम हेतु
स्व-खनित
मानसिक
खड्ड का,
बहें निकल कर
उससे
जीवन की
प्रवाहमय
सरिता में.....

(जे. कृष्णमूर्ति की एक वार्ता से प्रेरित)

Monday, April 19, 2010

सार्थक (आशु रचना)....

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कितना आसान है
कहना,
"I love you !"
"मैं तुम्हे प्यार करता हूँ !"
बना लेते हैं
कठिन
हम प्यार को
क्योंकि
हम 'होने' में नहीं
'करने' में
रखने लगते हैं
भरोसा,
लगते हैं
समझने
सार्थकता
अपने पूर्वाग्रही
मंतव्यों से
शब्दों और कलापों की,
काश हम
कर पायें
अनुभूति
प्रेम की ,
जो बस
होता है प्रेम
ना ही
सार्थक
ना ही
निरर्थक....

Thursday, April 15, 2010

शाद्वल (Oasis)......

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यह मरुस्थल ही है,
तुम नहीं !
तुम नहीं !

क्यों बना ली है
पहचान अपनी
इस मरुस्थल की
तपिश सी,
सूखापन,
बिखरी सीआशाएं,
चीखते सन्नाटे,
प्यासा मन,
अकेलापन,
सब कुछ तो
इसीका है,
इसी धूल और
आंधी भरी
मरुभूमि का,
तुम्हारा तो
कत्तई नही........

तुम तो हो
निखिलिस्तान
रेगिस्तान मे,
आकर जहां
कोई पथिक प्यासा
पा लेता है
घनी छाँव,
शीतल जल
बुझाने को प्यास
अपने मन की.........

सुनहरी आशाएं,
मधुर गीत
सुहाती सोचें,
स्नेह के झरने,
एकांत के एहसासों से
उपजा सुकून,
साश्वत सत्यों से
आलिंगन,
जीवन की सार्थकता से
परिचय,
सभी तो है
तुम्हारे अंतर में,
जिन्हें ना जाने
क्यों ढांपना
चाहती हो
मरुस्थल की
सूखी रेत से .......

सभी बंद आँखोंवाले
घिरे हुए हैं
मरुस्थलों से,
मृग मरीचिका के सदर्श
प्रलोभन और भ्रम
आरुढ़ है
इन मरुस्थलों पर,
खुले हैं चक्षु जिनके
प्राप्य है
उन्हें आनन्द
शाद्वल का
मरुद्यान का,
वहीँ कुछ दुर्भागी
कर रहे हैं प्राणांत
मरुस्थल कि सोचों में,
मरीचिका के
झूठे एहसासों में,
मिथ्या
मृगतृष्णा में…

दर्पण लेकर
आन खड़ा हूँ
सम्मुख तुम्हारे,
मत पूछो
किसी से,
निर्णय तक
पहुंचना है तुम्हें ,
केवल
तुम्हें,
शाद्वल हो या मरुस्थल ?

(शाद्वल,निख्लिस्तान,मरुद्यान = Oasis)

Wednesday, April 14, 2010

मेहंदी रची हथेलियाँ.........

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मदहोश थे
हम
वादी-ए-कश्मीर में,
खुला खुला था
आसमां ,
खुशबू थी
झील की ;
मुस्कुराते
पत्ते,
महक
फूलों की,
सुगंध
केशर की
खिला रहे थे
तन मन........

पूछा था
मैने उसको,
ऐसी मादकता
है कहीं और
कायनात में ?
निहारा था
उसने
अपनी झील सी
गहरी आँखों से
मुझ को,
और
रख दी थी
अपनी मेहंदी रची
हथेलियाँ,
चुपके से
मेरे
चेहरे के आगे..........

Wednesday, April 7, 2010

मुल्ला नसरुद्दीन ने खुशियाँ दी.....

# # #
सुबह एक मित्र से बात हो रही थी, विषय थे : प्रदुषण एवं पर्यावरण..... उर्जा की बचत..... तथाकथित वैशवीकरण..बाज़ार व्यवस्था...उपभोक्ता संस्कृति से उपजे विरोधाभास इत्यादि. वार्तालप में एक हल्का फुल्का सा शगूफा उभरा. हम कह रहे थे, हम गाड़ियाँ...सिंथेटिक के प्रयोग....हवा-धूप रहित मकानों...क्रेडिट कार्ड्स के उपयोग, अंधाधुंध बिजली और पेट्रोल की खपत.....अंधी प्रतियोगिता.........जलन.... .....खुदपरस्ती....शब्द-बाज़ी इत्यादि के द्वारा पहले नाना प्रकार की समस्याएं पैदा करते हैं और फिर उनसे निजात पाने के लिए तरह तरह के आन्दोलन/कैम्पेन शुरू करते हैं.

इसी दौरान एक मित्र ने मुल्ला का यह किस्सा बयाँ किया....जिसमें स्थिति पर बहुत ही सटीक व्यंग ज़ाहिर हो रहा था....थोड़े मोड़े शब्द देकर आप से शेयर कर रहा हूँ...

मुल्ला का फलसफाना रियलायिज़ेशन.......

दोपहर से थोड़ा पहले, जब धूप ने अपने वुजूद को जताया था, मुल्ला नसरुद्दीन शायद अपने क्रेडिट कार्ड के वसूली एजेंट्स की मार से बचने मस्जिद और मंदिर की किसी साझी लोकेशन के आसपास मंडरा रहा था...इन सबों से बचने के लिए ऐसे इलाके बहुत 'सेफ' होते हैं ना. देखा कि पंडित परमानन्द और मौलवी हकीक़त अली चढ़ावे के सामान को कहाँ बेचने से अच्छी कीमत मिलेगी, इस मसले पर बड़ी इंटिमेट गुफ्तगू कर रहे थे. उन्ही के पीठ पीछे मुल्ला का फरजंद फज़ल अली पंडित की सुपुत्री कुमारी गोमती से आँखें लड़ा रहा था, मस्जिद में सफाई करने वाला अकील
मंदिर के दरबान राम सिंह के साथ खैनी शेयर कर रहा था, काले खान हज्जाम से पंडित का छोटा भाई परमेसर और मौलवी का साला क़यामत अली चम्पी के चार्जेज पर सांझा नेगोसिएशन किये जा रहे थे. दुनियावी बातें, शास्त्रों/किताबों की बातों से ज्यादा साम्प्रदायिक एका कायम करती है, इन सब बातों से ज़ाहिर होता है. आदत से मजबूर हूँ, मासटर हूँ ना, ट्रेक भूल गया...बात मुल्ला की थी और मैं ले बैठा बात कोई और, जैसे कई कम्युनिटी में लिखनेवाले दर्द की बात करते करते अनजान में उसे ही हास्य की बात बना देते हैं.

खैर, मुल्ला चले जा रहा था. रास्ते में उसने एक फटेहाल इन्सान को देखा जो रो रो कर अपने नसीब को कोसे जा रहा था. अल्लाह ताला से उसे शिकायत थी कि उसको इतनी गुरवत क्यों दी...उसे गरीब क्यों बनाया ? मुल्ला उसके करीब गया और पूछने लगा, "क्या बात है भाई, इतना मलाल क्यों ?"
गरीब ने अपना फटा पुराना झौला दिखा कर कहा-"मेरे पास कुछ इतना भी नहीं जो इस झौले में समा सके. यह झौला ही मेरे एकलोता
सरमाया है."
मुल्ला को उसकी हालत पर तरस आ गया. अचानक उसने गरीब के हाथों से झोला झपट लिया और भागने लगा. अपना सरमाया सारे बाज़ार लुटते देख गरीब जार जार रोने लगा. अब वह पहले ज्यादा दुखी हो गया था, मगर कुछ भी नहीं कर सकता था, मजबूरी थी. रोता हुआ, वह फटेहाल इंसान खुदा और किस्मत को कोसता हुआ अपनी राह चल पड़ा.

मुल्ला ने बीच सड़क उस झौले को रख दिया. जैसे ही गरीब ने झौले को देखा, ख़ुशी से उस तक दौड़ा आया. झौला पाकर उसकी ख़ुशी का अंदाज़ा नहीं था. गरीब को ख़ुशी से झूमता देख, उसे हँसता मुस्कुराता देख, खुदा का शुक्र अता करते देख, बाग़ बाग़ हुआ देख... मुल्ला ने अपना फलसफाना रियलायिज़ेशन किया, " किसी को ख़ुशी देने का यह भी एक तरीका है."

Tuesday, April 6, 2010

यत्न.....

# # #
हुई विचलित
दृष्टि,
औझल हो गया
सत्य,
गिर गया
स्वयम के
खनित
खड्ड में
चंचल मन,
नहीं त्यागता
अज्ञानी
स्व पीडन की
कुटैव,
करता रहता
चिंतन
निरर्थक,
रहता गंवाता
ऊर्जा संजीवनी
होकर
विकारों के
वशीभूत,
तथापि
करता रहता मैं
यत्न अनथक
ना मुरछाए
मेरा यह
मन,
जागता हूँ
प्रतिक्षण
करने
चैतन्य के
दर्शन....

Monday, April 5, 2010

तदब्बुर....(आशु रचना )

# # #

तदब्बुर की
बातें है होती
अधूरी,
जो है
वह
बस
यहाँ और
अभी है.........

दिल कि सुनो
पाजी जेहन है
जानां,
मोहब्बत के
लम्हे
यहाँ और
अभी है......

खुद को
समझते हो
खुदा से भी
ऊपर,
घड़ियाँ कल की
हुई क्या,
अपनी
कभी है........?

छोड़ो ये
सारे
दस्तूर-ओ-रस्में,
पहलू में मेरे
खुशनुमा
महज़बीं है.......

फ़िक्र कल की
करें क्यों
ऐ प्रीतम !
कभी ना
कभी तो
मरते
सभी है.......

(अल्फाज़ की कारीगरी समझिये, सोचों की बात हो तो यह बस एक पक्ष है, सम्पूर्ण बात नहीं .....मुझे तदब्बुर, तदबीर और तकदीर किसी से भी इन्कार नहीं...)

Saturday, April 3, 2010

बेणी........

# # #
गुन्थो ना
फूलों को
बेणी में जानां
हिना की खुशबू
खुद-ब-खुद
दिलकश है...

मैकदे हैं
रुहो जिस्म तुम्हारे
हम तो
बस प्यासे
मैकश हैं...

फूलों से
छुवुं या के
होटों से
कैसी अजब
यह
कशम-कश है...

आगोश तेरा
एक गुलशन सुहाना
खंदा-ए-गुलों में
बहुत
कशिश है.....

भूल जाता हूँ
मैं हस्ती
खुद की,
प्यार ही प्यार है
ना कोई
हविस है.....

सब कुछ
तबीई है
बीच हमारे
है तर्जुमा-ए-तमन्ना
ना के कोई
काविश है....

खंदा=स्मितमुख/स्मायिलिंग, हविस=लालच/वासना, तबीई=नैसर्गिक/प्राक्रतिक, तर्जुमा=अनुवाद, तमन्ना=क्रेविंग, काविश=प्रयत्न.