Sunday, May 29, 2011

तख्तियां....

# # #
देखी है
मैं ने
चन्द मजारें
ज़िन्दगी के
इस फैले हुए
मैदान में,
दफ़न है जिन में
ऐसे इंसानों के
ज़िंदा जिस्म
जिन्हें
खुद कातिल ने
बन कर मुंसिफ
मार डाला था
और
देकर रूतबा
शहादत का
लगा दी थी
खूबसूरत सी
तख्तियां,
समझ कर
दरगाहें
चढाते हैं
जिन पर
आज भी
तुम हम
और
वे कातिल,
झुका कर
सर अपने
सजदों में
ना जाने कितने
फूल और चादरें...

Wednesday, May 25, 2011

थार की एक सूनी दोपहर !

(राजस्थान में जब उबलता हुआ पारा थर्मामीटर को तोड़ मानो बाहर आने को तत्पर हो, सड़क पर लगभग ऐसा ही दृश्य नज़र आता है, गर्मी की चिलचिलाती दोपहर को.)

# # #
आँधियों ने
सताया
बालू के
'धोरों' को,
सुस्ता रहे हैं
बेचारे
लाचार
हैरान
परेशान
सड़क पर
लेट कर,
पसारे हुए
अपनी लम्बी सी
गर्दन,
और
चमकता हुआ
तपता हुआ
डामर
लगता है
जैसे हो
इस विशालकाय
जन्तु के मुंह से
बहता
गाढा काला खून !

(धोरे राजस्थानी शब्द है टीलों के लिए)

Friday, May 20, 2011

चौधर का डंडा : बिंदु बिंदु विचार...


आपसी समझ में अगर उदारता औरे गहराई नहीं हो तो बड़ा उपद्रव हो सकता है. निहित स्वार्थ तो नाना प्रकार के उपाय करते हैं अच्छी चीजों को डिस्टरब करने के लिए. बिना विचारे और स्पष्ट किये किसी की बात को मान लेना ऐसी ही एक कमजोरी है, अहम् के वशीभूत हो कर मुद्दे से हट कर अप्रोच ओढ़ लेना एक दूसरी कमजोरी. वैसे तो यह लिस्ट लम्बी हो सकती है आज बस इन पर ही थोड़ा बिंदु बिंदु विचार कर लेते हैं.

# कुत्तों और गीदड़ों ने सांझा खेती करने की सोची. पार्टनरशिप फ़ाइनल हो गयी.

# सभी जानवरों को इस नये गठजोड़ को देख कर बहुत अचम्भा हुआ.

# लोमड़ों में था एक काना लोमड. बहुत ही धूर्त और चालाक......खतरनाक भी.

# काने लोमड ने सोचा, "बोने दो सांझी खेती, मैं सब का बंटाढार कर दूंगा...देखना क्या गुल खिलाऊंगा."
#गीदड़ों और कुत्तों ने मिल कर जमीन की जुताई की... बुवाई की. रखवाली का काम कुत्तों ने संभाला, गुडाई और सिंचाई का जिम्मा गीदड़ों ने लिया.

# सब काम स्मूथली हो रहे थे. अच्छा खासा कोर्डिनेशन था.

# फसल लहलहा उठी. अपनी कामयाबी पर कुत्ते और गीदड़ मौज मनाते. काना लोमड बहुत जलता.

# जब फसल पक कर तैयार हो गयी, तो एक रात काने लोमड ने खेतों में घूस कर बहुत सी पकी बालियाँ चुरा ळी.

#अगले दिन चोरी की वारदात को लेकर दोनों पक्षों में मान मुटाव हो गया, थोड़ी कहा सुनी भी हो गयी.

#उसी दिन काना लोमड अकेले में कुत्तों के मुखिया से मिला और अपनी वाक् पटुता से उसने कुत्तों के मुखियाजी को कन्विंस कर दिया की चोरी की वारदात को अंजाम गीदड़ों ने दिया है. और सलाह भी दे डाली, "चलो जो भी हुआ उसे बिसरा दो, आखिर रिश्ता दोस्ती का है, उस पर धब्बा नहीं लगना चाहिए."

#कुत्तों का मुखिया अपने पॉइंट प्रूव करने लगा, "लोमड भाई, कुछ भी कहो, किया तो उन्होंने बहुत गलत काम ही. ऐसे थोड़ा ही छोड़ा जा सकता है, उन्हें सबक तो सीखाना होगा." लोमड़ का काम बन गया था.

#काना लोमड़ कुत्ताधीश के पास खिसक आया और कान में फुसफुसा कर अपनी योजना बताने लगा."

#कुत्तों के मुखिया ने सुना और ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए बोला, लोमड़ साहब क्या तरकीब बताई है आपने.....ठीक है इसे इम्प्लेमेन्ट करंगे."

#कहते हैं कुत्तों की एक सीक्रेट मीटिंग हुई और एक्शन प्लान की आउट लाइन बना ली गयी.

फसल कटी. अनाज की ढेरी भी लग गयी.

# इस शुभ अवसर पर कुत्ते और गीदड़ भी हाज़िर थे. ....और काना लोमड़ भी अपने 'एक्स्ट्रा कोंस्टीट्यूसनल सेंटर' सो अज्युम कर चुका था. दोनों ही पक्षों को उसने अपने चुगलखोरी स्किल से भरमाने की थान ली थी.

# इस बात पर बहस होने लगी थी की उपज का बंटवारा कैसे किया जाय ?

# मौका देख लोमड़ ने अपना सुझाव दे डाला. कुत्तों का मुखिया तो है ही, क्यों ना गीदड़ भी अपने मुखिया को चुन ले.

# कुत्तों के मुखिया ने कहा, जो भी गीदड़ों का मुखिया फैसला लेगा कुत्तों को भी मंज़ूर होगा.

# आम सहमति से मोटे गीदड़ को गीदड़ों का चौधरी चुन लिया गया. मोटा गीदड़ नया पद मिलने पर फूल कर और कुप्पा हो गया था. घिसे हुए राजनीतिबाज़ की तरह लोमड़ ने भी मोटे को कोंगरेचुलेट किया. कुत्ता ग्रुप ने भी हार्दिक बधाईयाँ दी....जैसा कि होता है.

# तभी कुत्तों में एक मोटा सा डंडा मंगवाया. मोटा गीदड़ याने नया चौधरी घबरा गया...उसे लगा उसकी सहमत आ गयी.

# चौधरी गीदड़ ने चैन की सांस ली जब प्रोपोजल अनाउंस हुआ कि, चौधरी साहब की पूंछ में यह डंडा बांध दिया जायेगा. चौधरी साहब, धेरी में अपनी पूंछ से इस डंडे को पटकेंगे और तदनुसार बंटवारा तय हो जायेगा.

# चौधरी ने एक दो ढ़ेरी पर डंडा पटका, कुत्तों ने हूटिंग शुरू कर दी, "अन्याय अन्याय ! घोर अन्याय !....और सब कुत्ते भों भों करते चौधरी के पीछे दौड़े.
# आगे आगे मोटा गीदड़ याने चौधरी...और पीछे पीछे भोंकते हुए कुत्ते...मोटा गीदड़ अपनी मांद की तरफ भागा और उसके संकड़े मुंह में घुस गया..मगर डंडा अटक गया...
# गीदड़ी शोर शराबा सुन कर चिल्लाई यह क्या हो रहा है ?

# काने लोमड़ ने एक्सपर्ट कमेन्ट मारे, " भाभी चौधरी भैय्या भीतर कैसे घुसे...चौधर का डंडा अड़ा है."

# और लोमड़ अपनी सफलता पर इतरा रहा था.

Wednesday, May 11, 2011

मानचित्र..

मानचित्र..

मैने कुछ दिन पहले यहीं अभिव्यक्ति पर यह कविता पोस्ट की थी...

# # #
जब तक थी
प्रकाश की
अंतिम किरण
जोहता रहा था
बाट मैं
कब हो जाये
प्रकट
तेरी आँखों में
बन्द
रहस्यमय मानचित्र
जो कर सकते थे
प्रशस्त
मार्ग मेरा,
किन्तु
जब अँधेरे की
हथेलियों से
ढांप लिया था
तुम ने
चेहरा अपना,
मेरे लिए था
अवशिष्ट केवल
जोड़ जोड़ कर
बनाना एक
तस्वीर ज़िन्दगी की
चुन कर के
वे टुकड़े
जो बिखरे हुए थे
यत्र तत्र
मेरे प्रांगण में..


उसकी मेल......

पुरानी मेल्स खंगाल रहा था...देखा उसमें उसकी यह मेल थी :

###

नहीं होती
अंतिम
कोई भी
किरण
प्रकाश की
कभी,
होता है
बस भ्रम मात्र
उसके
अंतिम होने का...

मान लेते हैं
हम
जब भी
अंतिम सत्य
क्षणिक
अंधकार को,
ढक लेता है
चन्द्र भी
सूर्य को
और
घट जाता है
ग्रहण
कुछ
समय के लिए ..

क्यूँ जोड़ने
लग गए हो
होकर अधीर
प्रांगण में
बिखरे टुकड़ों को
संभव नहीं है
होना पूर्ण
जिनसे
चित्र
ज़िन्दगी का...

देखो ना
मेरी आँखों में
झिलमिला रहा है
प्रकाश
साथ होने का
अपने ..
कर सकते हैं
हम प्रशस्त
मार्ग अपना
सहज स्वाभाविक
बिना किसी
मानचित्र के,
हो कर साथ
खुली राह पर ...

Sunday, May 8, 2011

मैं क्या करूँ जी...

(नजमा के तकियाकलाम को उन्वान बना कर लिखा है...अपनी राय दें.)
# # #
समंदर है
निठल्ला
आलसी
ठहरा ठहरा
है ढलती हुई
जवानी,
नदियाँ है
चंचल
फुर्तीली
जिंदा है
उनकी
रवानी...

कितनी
बेशर्मी और
नंगापन है
आफताब में,
ढक रखा है
बिजलियों ने
चेहरा
मगर
हिजाब में...

कितना
बेहया है
देखो यह
तना,
डालियों ने
मगर
छुपाया
बदन
अपना....

कितनी
बासी बासी सी
लग रही
हकीक़त,
लिए है ताज़गी
ख्वाबों की
हसीँ
फ़ित्रत.....

Tuesday, May 3, 2011

नैसर्गिकता- (Spontaneity) : Scribling Series

हिंदी रूपांतरण : मुदिताजी एवं मधुरिमाजी

#####

कितने सहज थे
हम,
हुआ करते थे
जब
शिशु नादान
हम....

हो गयी है
एकत्र
तब से
धूल कितनी :
ना जाने कितने
अनुशासन,
नैतिकताएं
पुण्य
स्वरुप
भूमिकाएं
और
क्या क्या नहीं,
हो गयी है
विस्मृत
हमसे
भाषा
केवल मात्र
हमारे
'स्वयं' होने की ...

नहीं की
जा सकती
रचना
सहजता की,
ना ही
किया जा सकता
कर्षण इसका,
यदि की जाती है
खेती इसकी
नहीं रखा
जा सकता
विद्यमान इसको,
उगाई हुई
सहजता
होती है
छद्म ,
कृत्रिम
और
मिथ्या
मात्र अभिनय सी
बस रंगी पुती,
निकल आता है
वर्ण वास्तविक
तनिक खुरचने से...

आती है
स्वाभाविकता
केन्द्र से,
होती नहीं वह
बोई हुई
कोई राह नहीं
रचने की इसको,
नहीं कोई
आवश्यकता
उपजाने की इसको,
संभव नहीं
अवलोकन इसका,
बस होती है
अनुभूति इसकी,
स्वाभाविक
अथवा
अस्वाभाविक ?????
देता है प्रत्युत्तर
इसका
हृदय हमारा,
और
कोई भी प्रवर्तन
सत्यता का,
ले आता है
सतह पर
कृत्रिम सहजता को
और
उतर जाते हैं
सभी मुखौटे ...

करनी है
पुनर्शोध
हमें
इसी नैसर्गिकता की,
बजाय
इसके निर्माण के प्रयासों के
इसके कर्षण हेतु संघर्षों के,
आरम्भ करें
हम यात्रा
स्वयं के
पुनः अन्वेषण की,
करे खोज हम फिर से
स्वयंस्फूर्त
नैसर्गिकता की,
गिर जाते हैं
जहाँ
मिथ्या आवरण सभी
और
होता है
आविर्भाव
हमारा
अपने ही
सत्व के
स्वरूप में .......

Monday, May 2, 2011

बिंदु बिंदु विचार : घंटीधारी ऊंट

अपने को अन्यों से श्रेष्ठ समझने का गुरुर बहुत खतरनाक होता है। ऐसे अहम् को कभी ना कभी ऐसी मार पड़ती है कि सब कुछ नेस्तनाबूद हो जाता है. कभी कभी सच कहने को भी घमंड मान लिया जाता है. हीन भावों से ग्रसित व्यक्ति दूसरों का उत्कृष्ट होना बर्दाश्त नहीं कर पाते, और उनकी उचित बातों को भी अपना नहीं सकते, बल्कि जब भी मौका मिलेगा, उन्हें घमंडी या असामाजिक कह कर अपने हीनता के भावों को टेम्पोरेरी ठंडक पहुँचाने से नहीं चुकेंगे. कभी कभी 'हम को क्या -हमारा क्या' वाली प्रवृति भी सही निर्णय में आड़े आ जाती है. हम अक्सर सही बात कहने के बजाय यह देखने लगते हैं कि किसने हमें पहले 'अप्रोच' किया, कौन हमारी चापलूसी करता है, कौन हमारा अनुयायी बन कर रह सकेगा, कौन हमारे अहम् का पोषण कर सकेगा और हम उचित कहने और करने की बनिस्बत झूठ, कुंठा और फरेब का साथ देने लगते हैं. सच में हम स्वयं 'घमंडी' होते हैं, खुद को अलग बना कर बिना कुछ रचनात्मक या सकारात्मक किये, अपने को ना जाने क्या साबित करना चाहते हैं ? लेकिन होता है ऐसा.

* राजपूताने के एक गाँव में एक बुनकर रहता था. बहुत गरीब था बुनकर. शादी उसकी हो गयी थी बालपन में लेकिन गौना नहीं हुआ था. गौने के बाद बीवी को क्या खिलायेगा इस बात को सोचते हुए, पैसा कमाने के लिए वह शहर चला आया था.
* कुछ पैसा जमा हुआ, बुनकर लौट कर गाँव को चला,रास्ते में एक हामला (गर्भवती) और बीमार ऊँटनी उसको मिल गयी. बहुत तकलीफ में थी बेचारी ऊँटनी.
* बुनकर ले आया उस हामला ऊँटनी को घर अपने. खिलाता पिलाता, सेवा टहल करता. ऊँटनी ने एक बच्चा जाना और चल बसी. बुनकर ने बच्चे का ठीक से लालन पालन किया.
* एक दफा एक चितेरा उस गाँव में आया. उसने बुनकर से ऊंट की पूंछ के बाल अपनी कूंची के लिए लिए. बाल बहुत अच्छे थे, कूची भी अच्छी बनी..और चित्रकार भी सिद्धहस्त..चित्र बहुत सुन्दर बने. चित्रों को राजा-रजवाड़ों-रईसों को बेचने से चित्रकार को खूब दौलत मिली.
* कलाकार ने बुनकर को भी खूब इनाम दिया. बुनकर ने सोचा कि ऊँटों का व्यापार क्यों ना किया जाय. उसने जो ऊंट उसके घर जन्मा था उसको अपने लिए खूब 'लकी' माना. उसको अच्छे से सजाता और उसके गले में एक सुन्दर स़ी तेज़ बजने वाली घंटी भी उस ने डाल दी. अन्य ऊंट जो भी उसके काफिले में होते वे उस ऊंट के सबोर्डिनेट हो कर रहते.
* ऊँटों को इस भेदभाव से बहुत तकलीफ होती थी. उन्होंने कहा भी कि भाई हम तुम जैसे ही तो हैं किन्तु तुम हमें खुद से हीन क्यों समझते हो.
* घंटीधारी ऊंट ने कहा, "तुम साधारण ऊंट हो. मैं अपने से ओछे ऊँटों में शुमार हो कर खुद की इज्ज़त नहीं खोना चाहता."
* घंटीधरी ऊंट, काफिले में हमेशा अलग थलग ही चलता. बाक़ी सब ऊंट समूह में आगे लेकिन घंटीधरी कुछ 'गेप' के बाद पीछे पीछे.
* एक शेर था जी, वह एक ऊँचे से पत्थर पर खड़े हो कर ऊँटों के काफिले पर नज़र रखता था.
* आप तो जानते ही हैं, शेर जब भी शिकार करने के लिए हमला करता है, वह किसी अलग थलग पड़े जानवर को ही चुनता है. घंटी वाले ऊंट की रून-झुन उसके लिए और सहूलियत पैदा कर देती थी..उसको मालूम हो जाता था कि काफिला कहाँ से गुजर रहा है.
* शेर घात लगाये था. घंटी की आवाज़ के सहारे वह घंटीधारी ऊंट के पास पहुँच गया..अलगथलग तो था ही घंटीधारी, दबोचा, मारा और ले आया जंगल को ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर करने के लिए.
* और इस तरह अहंकार ने हमारे घंटीधारी ऊंट की जिंदगानी की घंटी बजा दी थी.

बिंदु बिंदु विचार : जो बिखर गया हवा में

* कई दिनों से अपना आत्ममंथन कर रहा था. कहते हैं ना गलती होना स्वाभाविक है लेकिन उसे दोहराना बेवकूफी या कमजोरी. मैने पाया मैं भी बेवक़ूफ़ हूँ या कमज़ोर क्योंकि बहुत स़ी गलतियाँ मैने दोहरायी है, और दोहरा भी रहा हूँ.

* एक गलती है दूसरे जब ज्यादा पूछ-गच्छ करने लगे, राय या मार्गदर्शन लेने लगे, उस दौरान परिस्थितिजन्य भावुकता, लोक व्यवहार अथवा चालाकी से अति-अपनत्व का एहसास देने लगें तो मैं उन्हें अपना तो समझता ही हूँ, स्वयं को भी उनका बहुत बड़ा हितैषी,गार्जियन और अभिन्न अंग मानने लगता हूँ. मुझे लगने लगता है, मेरे साथ उनका रिश्ता ताजिंदगी यूँ ही रहेगा...और ईमानदारी से कुछ ऐसा कह गुजरता हूँ, जो ऊपर से तो अच्छा लगा दिखाते हैं लोग किन्तु मन में गाँठ बाँध लेते हैं--बच्चू बहुत समझता है अपने को आने दो मौका बताएँगे तुम को...या सामने हाँ में हाँ मिलायेंगे किन्तु करेंगे ठीक उसके विपरीत जो कि आपसी सहमति द्वारा उनके अपने हित में तय हुआ था. और फिर आता है 'विसियस सर्कल' अस्तित्व में...और संबंधों में दरार और खाई तैयार होने लगती है.

* दरअसल मेरे व्यक्तित्व का दब दबा ही कुछ ऐसा होता है कि लोगों का मेरे सामने 'हाँ जी' 'हाँ जी' निकलता है. बातें भी मेरी इतनी तर्कसंगत और साधार होती है कि सामने वाले को सहमत होने के अलावा कोई भी चारा नहीं. लेकिन अपनी मान्यताएं अपने सोच अपनी कमजोरियां, अपने हित, अपनी आदतें तो अपनी होती है ना जी ...क्यों करे वो सब जो जिसके लिए मेरे साथ सहमति ज़ाहिर हुई हो...अजी यह सहमति तो कभी कभी पीछा छुडाने का सबब होती है. लोग कहते हैं, मियांजी को सलाम के लिए क्यों नाराज़ किया जाय.

* मैं गहराई तक गया, तो मुझे लगा कि यह सब मेरे शब्दों का साइड इफेक्ट है, मैं शब्द बड़े साफ़ और चुभने वाले बोलता हूँ बिना लाग लपेट के, वो जैन मुनि है ना जो चिल्ला चिल्ला कर, उछल उछल कर टीवी चेनल पर बोलने वाले, बस उनकी ही तरह कडवे बोल-कडवे प्रवचन बोलता रहता हूँ जी। उनकी चुभन पहले घाव बनती है॥फिर नासूर...और जरा कान इधर लाईये--स्स स्स स्स ! कभी कभी तो केंसर हो जाती है जी.

* इसीलिये तो मुल्ला और गुप्ताजी कहा करते हैं, मासटर मानते हैं तुम झूठ नहीं बोलते, सच ही कहा करते हो, इरादे भी तुम्हारे हमेशा नेक होते हैं...मगर अमां यार दुनिया तेरी तरह सरल और सहज नहीं, ज़ुबान पर लगाम दिया करो. नये नये मौलवी की तरह पुती ताक़त लगा कर तक़रीर करने लगते हो...यह अच्छी बात नहीं.

* शब्दों के चुनाव, डायेलोग डिलीवरी, फोलो अप (बांस बाज़ी), बोडी लैंग्वेज आदि का बड़ा खयाल रखना होता है। भावुक प्रेमी नहीं बन कर सयाना बन जाना तन-मन-धन के लिए अत्युत्तम होगा, आजकल बस यही सोच चलते हैं.

# बात उस ज़मानेकी है जब ग्रूमिंग स्कूल्स नहीं हुआ करते थे, डेल कार्नेगी-शिव खेरा-दीपक चोपड़ा-स्नेह देसाई, मिल्ट जैसे लोगों/संस्थाओं के प्रायोजित कार्यक्रम व्यवहार कुशलता जैसे विषयों पर नहीं हुआ करते थे. ये सब काम हमारे ऋषि-मुनि साधु-सन्यासी ही कर दिया करते थे. रहने को वे जंगल में कुटिया बना कर रहते थे लेकिन हरफनमौला होते थे. ह़र समस्या का समाधान निकाल ही लेते थे.

# एक दफा मेरे जैसा इंसान (समझिये मैं ही), मेरी जैसी ही समस्या से ग्रसित हो कर एक महात्मा जी के आश्रम में पहुँच गया. महात्माजी को सारा हाल-ए-दिल सुनाया, अपनी दास्तान-ऐ-गम सुनाई...मुनिजी ने आँखें बन्द की और सोचा. (मुनि लोग आँखें बन्द कर सोचते थे)

# एक चेलवे से कहा गुरु ने, अरे इस मासटर को एक झोला दो..

# हुकुम की तामील हुई, मुझे एक झोला पकड़ा दिया गया. गुरूजी बोले-मासटर इस में ये जो छोटी छोटी पंखें पड़ी है ना पंछियों की उनको भरो. (ये गुरु लोग अजीब होते हैं, कुछ ऐसा करने को कहेंगे जिसका तअल्लुक मूल समस्या से हैं या नहीं, खोपड़ी में नहीं आएगा.)

# खैर मैने भी हुकुम की तामील की. झोले को नन्ही नन्ही सुकोमल हल्की हल्की पंखों से भर डाला.

# मैने कहा, "अब और क्या करूँ, गुरुदेव"

# गुरूजी बोले, "मासटर जा बाहर खुले में जा, और इस झोले को खाली कर आ." मैने सोचा साधु बाबा चालाक है मुझ से श्रमदान करके अपनी कुटिया साफ़ करवाना चाहते हैं.

# खैर मैं बाहर गया। खुला मैदान था॥जंगल का...हवा बह रही थी जोरों से..मैने पंखों को उड़ेला और साथ साथ ही हवा के झोंके उन्हें उड़ा ले गए सोचा मैने क्या 'नोबल वे' है 'गार्बेज डिस्पोजल' का. खैर श्रृद्धा भक्ति ठी और मेरे सतानेवालों के द्वारा दी गयी 'इनडाईरेक्ट ट्रेनिंग' भी, मैने भी तय कर लिया आज वही करूँगा जो गुरुदेव हुकुम देंगे.

# वापस गुरुदेव की इजलास में हाज़िर हुआ. पूछा-'हे गुरु, अब क्या ?' गुरुदेव मुस्कुराये..बोले-मासटर जरा बाहर जाओ और वापस इस झोले में पंखों को भर के ले आओ. मैने सोचा गुरु देव का माथा सटक गया लगता है, खुद ही फिंकवाये और खुद ही कहते हैं वापस लाओ.

# मैने कहा वो तो मैं बाहिर फेंक आया, अब कहाँ मिलेंगे वापस. हुकुम हुआ-बाहर जा कर देखो शायद मिल जाये.

# अब गुरु का हुकुम, गया साहब बाहर..मगर एक भी पंख नहीं..किसे समेटूं.

# खाली झोला हाथ में लिए मैं फिर से गुरूजी के सामने खड़ा था.

# गुरु बोले, "क्या हुआ मासटर ? मैने कहा, "गुरु देव जो बिखर गए हवा में उनको समेटना सहेजना मुश्किल है."

# गुरुदेव 'एज युजुअल' फिर मुस्कुराये..लगे कहने, "मासटर ये जो शब्द होते हैं ना, वे भी इन पंखों की तरह होते हैं, एक दफा झोले से निकल कर हवा में बिखर गए तो फिर वापस नहीं होते, फिर इन्हें नहीं सहेजा जा सकता, फिर इन्हें नहीं समेटा जा सकता, फिर इन्हें नहीं लौटाया जा सकता."

# मेरे भेजे में बात आ गयी थी कि हित सोचता हूँ तो मन में रखूं, साधिकार कडवे बोल ना बोलूं...जो एक दफा चुभने वाला कह दिया उसे मेरा प्रेम, मेरी सद्भावना, मेरा हितेषी होना, मेरा सच्चा होना कुछ भी तो नहीं केयर कर सकता . ....और इसीलिए तो तकलीफ पा रहा हूँ.

# मेरी आँख खुल गयी थी..मैं नींद से जाग चुका था..मेरा सपना मुझे बहुत कुछ कह गया था.

मैं नहीं.....

# # #
पहूंचा हूँ
नतीजों पर
ना जाने
कितनी बार,
अपनाया है
दिल के वश हो
मैने
उधार लिया
व्यवहार,
देखा है
किया है
अनुभव
अच्छे बुरे
यथार्थ को,
पाया है
खुद पर
हावी होते
आत्मीय से
दीखते
स्वार्थ को,
फिर भी
ना जाने क्यों
देखते ही
बिम्ब अपना
किसी भी
दर्पण में,
उठा लेता हूँ
हाथ में
टूटे दांतों वाली
ज़र्ज़र
कंघी,
बहाने
बचे खुचे
केश सँवारने के
ताकता रहता हूँ
अक्स
एक अजनबी का
जो
मैं नहीं
मैं नहीं...