Sunday, October 24, 2010

अलविदा

# # #
भोर के स्वप्न में
कर रहा था मैं
अलविदा
अँधेरे को
गाते हुए
राग प्रभाती,
हो रहा था
उत्सुक
करने स्वागत
नयी प्रातः का
आरम्भ जिसका
होगा
सूरज के दिए
सात रंगों से
ओंस की मासूम
बूंदों में...

कलरव
पक्षियों का
सुनाएगा
दिव्य संगीत,
फिजाओं में बसी
महक कुदरत की
कराएगी आभास
मेरे होने का.....

नयी उर्जा
देगी हौसले
कुछ कर गुजरने के,
मंदिर में हो रही
आरती के सुर
ले जायेंगे
सन्निकट
प्रभु के......

मधुरिम स्मृतियाँ
निशा की
देंगी एहसास
इंसान होने का,
हुआ है घटित जो
अचेतन
और
अवचेतन में,
समेट कर उसको
चल पडूंगा राह
चेतन होने की
लिए साथ
तिमिर की
शांति का .....

प्रकाश के शौर्य में
हो कर शुमार
बढ़ चलूँगा
गंतव्य को
जो लुप्त था
अब तक
अन्तरंग में,
कहकर तुम को
अलविदा
लौट आऊंगा
अपने घर को
ताकि जा सको
तुम भी
घर अपने...

हाँ होगा मिलन
जिस परमात्मा से
वह वही है,
तुम में भी...
मुझ में भी;
यह अलविदा !
ध्वनि नहीं
कोई बिछोह की,
आवाहन है
अंतर्यात्रा का
बन जाती है
जो अनायास ही
सहयात्रा....

Thursday, October 7, 2010

स्वछन्द...(आशु रचना)

# # #

कैसा विषम
यह द्वन्द है
है नितान्त
पराधीन
किन्तु
कहता
निज को
स्वछन्द है...

बिना प्रजा
नरेश नहीं
अनुयायी बिन
धर्मेश नहीं
नेता रहित
जनतंत्र नहीं
नियम उपनियम बिना
स्वतंत्र नहीं,
जुहू के 'बीच' पर
स्वामी घुमाये
स्वान को
या
कुत्ता दौडाए
मालिक को
प्रश्न इस
अजीब का
कोई समुचित
उत्तर नहीं,
दर्पण में
बिम्ब दिखता,
मगर कोई
चित्र नहीं...

आज़ाद हर शै को
घेरे हुए
कुछ दृश्य
अदृश्य
बंध है,
कैसा विषम
यह द्वन्द है,
है नितान्त
पराधीन
किन्तु कहता
निज को
स्वछन्द है...

कच्चा चिठ्ठा 'आदर्श शिक्षक' का...

(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

'आदर्श शिक्षक' का राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिला था, अवसर मिला था उनको देखने जानने का...

वे कहा करते थे :

शिक्षक का दर्ज़ा
होता है
माता समान,
करता है वह
छात्रों में
आदर्शों का
बीजारोपण
सुसंस्कारों का
प्रतिरोपण
एवम
व्यक्तित्व का
परिमार्जन...
देता है वह सन्देश :
"निज पर शासन फिर अनुशासन।"
करता है प्रेरित वह
युवा पीढ़ी को
बनने अच्छे मानव
और
नागरिक
करके प्रस्तुत
स्वयं के उदाहरण....
होता है
समर्पित वह
करने निर्माण
कल के भारत का,
सीखा कर अंतर
अपने छात्रों को
संकीर्ण वैयक्तिक स्वार्थ और
सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय
परमारथ का...
होता है
प्रतीक वह
आंतरिक एवम बाह्य
स्वच्छता का,
एक प्रकाश स्तम्भ
वैचारिक उच्चता का....

देखा गया था :

गुरूजी रोज़ शाम
मौज मनाते थे
व्हिस्की में कभी भी
सोडा ना मिलाते थे,
महिला सह-अध्यापिकाओं संग
रंगरेलिया मनाते थे,
शिक्षा निदेशक को
करने प्रसन्न हेतु
अपने प्रेम संबंधों को
भुनाते थे,
विद्यालय के संसाधनों के
निजी प्रयोग हेतु
ना हिचकिचाते थे,
गाहे बगाहे छात्रों से
'यह' 'वह' सब मंगाते थे,
छात्रों को दिल खोल कर
अंक वे लुटाते थे,
अन्कार्थिनों को बेझिझक
स्व-अंक में बैठाते थे,
कक्षा में तो
मात्र समय-चक्र घुमाते थे,
ट्यूशन के लिए
सटीक वे
पृष्ठभूमि बनाते थे,
कसबे की राजनीति में
शतरंज अपनी बिछाते थे,
वक़्त बेवक्त
किसी प्यादे से वे
वजीर को मरवाते थे,
पांडव वंशज थे शायद
द्युत क्रीड़ा में अपना
तन-मन-धन लगाते थे,
'कजिन' दुशासन की तरहा
यदा कदा
चीर हरण कर जाते थे,
परचा आउट करके
किया करते थे वे
असीम धनार्जन,
अनुत्तीर्ण को कराके उत्तीर्ण
करते थे
महान सृजन,
गुरु दक्षिणा में
अंगूठे को छोड़
सब कुछ
लिया करते थे,
जाति संप्रदाय
अगड़े पिछड़े का
भेद भूल
मिलता सो
गृहण किया करते थे,
ऐसे महान उस्तादजी
हरफन मौला
हर चालाकी में
माहिर थे,
कैसे पा सके
ख़िताब-ओ-इनाम वे
वजहात सारे
जग जाहिर थे...

मेरे एक पगले से साथी 'राही' मासटर ने कहा था एक दिन :

समाज के
मेम्बरान को
किया गया था
स्क्रीन
बदले जमाने की
फेक्ट्री में,
जो नकारा थे
और टेढ़े मेढ़े थे
अन्दर में,
भरती हुए थे
ज़्यादातर
पुलिस में
या
लग गए थे
मास्टरी में...


(लिखने वाला खुद एक अध्यापक है..अतिशयोक्ति के साथ इस अभिव्यक्ति का उदेश्य मनोरंजन के साथ एक सन्देश भी देना है अपने भटके हुए साथियों को....किसी को दुःख पहुँचाने का लेश मात्र भी इरादा नहीं है...किसी को भी बुरा लगे तो ऐसे लोगों को येन केन प्रकारेण बदलने की चेष्टा करना...मुझे ना कोसना...मैने तो ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया...

मेरा स्नेह और सम्मान उन शिक्षक शिक्षिकाओं के लिए... जो बहुत थोड़ी तादाद में पाए जाते हैं..अपने फ़र्ज़ को अपना ईमान मानते हैं....उसे पालन करते हैं..... जिन पर मुझे, समाज और देश को गर्व है।)

Tuesday, October 5, 2010

धर्म का विकास हो, अधर्म का नाश हो....

रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं। Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

# # #

बहुत बड़े धर्माचार्य थे वे, एक महान संत परंपरा की श्रृंखला की कड़ी...वेद, वेदांत,उपनिषद् के ज्ञाता......सुना था उनसे :

विराजित है परमात्मा
आत्माओं में हमारी
उसका ही रूप है
सृष्टि यह सारी...
मानव मानव में कोई भेद नहीं
प्राणियों की मैत्री में
है कोई विभेद नहीं
कण कण में बसा है
सर्वव्यापी
उसके बिना कोई रक्त...कोई स्वेद नहीं...
अधर्म का नाश हो
धर्म का विकास हो
लौ लगे हम सब की प्रभु से
मुखमंडल पर सब के मृदु हास हो..
अपने पराये की बातें है संकीर्णता
स्वार्थपरता है मन की जीर्णता
प्रेम है साक्षात् ईश्वर
इर्ष्या द्वेष है हमारी क्षीणता...
तन मन की स्वच्छता
सहयोग की तत्परता
सादा जीवन उच्च विचार
मानव जीवन का श्रृंगार...
कृष्ण सुदामा की प्रगाढ़ मैत्री
राम का मर्यादा अनुपालन
सीता माता का सतीत्व
योगेश्वर कृष्ण का लचीलापन...
कर्मफल का अनूठा दर्शन
पुनर्जन्म का प्रतिपादन
प्रारब्ध की प्रबलता
समक्ष उसके मानव की निर्बलता..
मोक्ष का मार्ग दिखाते थे महा संत
कैसे ना सताए हमें ये दुःख अनन्त
नश्वर है संसार की हर वस्तु
भ्रमित मोहित है हम सब किन्तु....
जल में कमल सम रहना सिखाते थे
जीवन के हर सत्य को सटीक वे बताते थे
अल्प भाषी थे
प्रकट में अल्प ही आहार वो खाते थे.....
गेरुआं वस्त्र में गुरुदेव चमचमाते थे
आलोकमय ललाट पर तिलक वे लगाते थे
जब जब वे सभा में आसन जमाते थे
लाखों नर नारी दर्शन उनके पाने चले आते थे...

देखा गया था :

भरी सभा में अछूतों से बचने का
उपक्रम वे निभाते थे
कीड़ों से भी बदतर
धनी मनुज पुत्रों को को
अग्रिम पंक्ति में वे बैठाते थे,
नारी को पूज्य कहते हुए भी
मूल पाप का कह जाते थे
कनखियों से पतों और जड़ों को
निहारते वे रह जाते थे ....
दूसरों के श्रद्धा और विश्वास का
मखौल वो उड़ाते थे
उतेजना भरे वक्तव्यों से लोगों को
आपस में वे लड़ाते थे...
उपदेश उनके होते थे
बस औरों के लिए
अपने लिए अलग ही सिक्के
वे ढलाते थे...
अपने भाई भतीजों भांजों को
इशारों से लाभ पहुंचाते थे
काम पटाने के एवज़ में
अपने न्यासों के नाम चेक वे मंगाते थे....
छपास( समाचारपत्र) दिखास (दूरदर्शन) की लालसा में
ना जाने कितने पतंग वे उड़ाते थे...
हीलर बन दूजों को सेहत देने वाले
हर वैद्य डाक्टर को खुद को दिखाते थे
जुखाम बुखार से घबराने वाले
लड़ना मौत से सिखाते थे ....
वेद शास्त्रों के गहरे निर्वचन
अन्धविश्वास में बदल जाते थे
नज़रों में उनके क्रोध लख
भक्तों के दिल दहल जाते थे......
बंद कमरों में दौरान गुप्त मंत्रणा के
अपनी परंपरा को वे भूल जाते थे
हर भौतिक सुख सुविधा का पाकर उपहार
ख़ुशी और घमंड से वे फूल जाते थे.......
करके दमन सहज भावों का
कुंठित वे हो जाते थे
घुमा फिरा कर बातों में
वर्जनाओं का जिक्र ले आते थे....
' कथनी करनी एक हो' के उदघोषक
थूक अपना निगल जाते थे,
झूठी प्रसंशा सुन कर अपनी
मोम से वे पिघल जाते थे....

याद आता है कहा किसी का :

घास पात जे खात है
उन्हें सताए काम,
जे हलुवा पूरी खात है
उनकी जाने राम........

(काम से यहाँ अर्थ कामनाओं से है जिसमें कुंठित सेक्स भी शुमार है)

Monday, October 4, 2010

अदीब की मोहब्बत

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(रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी. आप पढ़ चुके हैं इस श्रृंखला की कुछ और कवितायेँ इस से पूर्व भी.)

वो एक चिन्तक एवं साहित्य सृजक थे....अपने 'टार्गेट' को कहा करते थे :

प्यासी रही रूह मेरी
मोहब्बत का
आब ना मिला
खुली रही आँखें मेरी
वस्ल का
ख्वाब ना मिला..
सूखी सूखी स़ी रही
जिंदगानी मेरी
मुझ बदकिस्मत को
तुझ स़ी देवी के प्यार का
शैलाब ना मिला
रहे तरसते ताउम्र
ऐ आरजू मेरी
हमें अपनी चाहत का
माकूल एक हिसाब ना मिला...
पड़ते ही कदम तेरे
आने लगी बहारें
इस उजड़े चमन में
अब तक कभी जिसको
सुकूं का हसीं एक
महताब ना मिला..
मैं तो चाहता हूँ
बस रूह को तुम्हारी
जिस्म की बातें है जानम
मुझ पे बेमानी
खुश रहे तू संग
अपने पिया के
रास आई बस मुझको
तेरी मोहब्बत रूहानी...
तुझ सा ना देखा मैने
कायनात में.. सच जानो
जनमों का रिश्ता है अपना
प्रिये बस तुम ही जानो....
यूँही बरसाती रहो अमृत
सहरा से मेरे जीवन में
देखा करूं मैं अक्स अपना
तेरे दिल के उजले दर्पण में ...
'प्लेटोनिक' है इश्क मेरा
ऐ महबूबा अनूठी
कैसी ज़माने की रस्मे
करेगी क्या 'बंधन' की अंगूठी...
करूँगा मैं पूजा तेरी
बना मूरत मन मंदिर की
आत्मा का हूँ पुजारी
नहीं तरस मुझे शरीर की..
मेरी कविताओं के
भीगे भीगे से भाव तुम हो
मेरी सोचों का सुमधुर
बहता हुआ सा
शीतल श्राव तुम हो....
परे है संसारिकता से
सम्बन्ध प्रिये हमारा
पवित्र बस पवित्र है
अनाम अनुबंध हमारा...
था इंतज़ार मुझको
तुझ सा हसीं कोई मेरी
ज़िन्दगी में आये
खुशियाँ बस खुशियाँ
बस हरसू भर जाए...

देखा गया था :

बातें ऐसी कहना
आदत थी उनकी
दोगली हरक़तें
शहादत थी उनकी...
गदराये जोबन को देखती थी
ललचाई आँखे उनकी
हसीनों को देख कर
खिल जाती थी बांछे उनकी...
बदसूरत शक्ल को
ओढाया करते थे
चद्दर नज्मों की
थोथे कहकहे उनके
बनते थे रौनक बज्मों की...
रूह तक जाने की बातें
होती थी
जिस्म पाने का बहाना
हर पखवाड़े शुरू होता था
उनका नया एक फ़साना....
अलफ़ाज़ के जाल में
वो चिड़ियाँ को फँसाते थे
बातों की लफ्फाजी से
उसको रुलाते और हंसाते थे....
व्हिस्की रम वोदका
उनकी मस्ती को बढ़ाते
कोकीन सूंघते या
थे भंग वो चढाते...
नशा ऐय्याशी का और
नाम था अदब का
बहुरूपिये उस अदीब का
ढीठपन था गज़ब का...
ना जाने कितनों को छेड़ा
कितनों की चप्पल खायी
सब होने के बावजूद
उनको अक्ल ना आयी...
मीठी बातें करके
लड़की बहलाते थे
कलम के वे मजनूं
आशिक पैदायशी कहलाते थे...
झूठ बस झूठ का
लेते थे वो सहारा
दूजों का आगे बढ़ना
ना था उन्हें गवारा...
किताबी बातें मानों
चेहरे का उनके मुल्लम्मा थी
उनकी नज़रों में जवानी की
बस जलती हुई शम्मा थी..
जलसों में शिरकत करते
खिताब भी बटोरते
टुच्चे थे जनाब इतने कि
किसी को ना छोड़ा करते...
पाखंडी शायर की
बातें थी निराली
मुंह में था कलमा
हाथ में 'देशी' की प्याली...
बाहर से कुछ थे जनाब
बातें अन्दर की थी दूजी
हमाम के वे भोंडे नंगे
नहाते थे माडर्न जाकूजी....

मैने सोचा और कहा था :

बच के रहना यारों
इन जलील दोजख के कीड़ों से
अंतर बनाये रखना
मत खो जाना इनकी भीड़ों में....

Sunday, October 3, 2010

गृहस्थी : पहिये रथ के..

रोजाना की जिन्दगी में आप और हम बहुत कुछ observe करतें हैं. Observation करीब करीब हम सभी के होतें हैं. इस series का नाम ‘Observation series’ देना चाहता हूँ अर्थात :’प्रेक्षण श्रृंखला’. बहुत छोटे छोटे observations को शब्दों में पिरो कर आप से बाँट रहा हूँ……नया कुछ भी नहीं है इन में बस आपकी-हमारी observe की हुई बातें है सहज स़ी…साधारण स़ी......आज जो रचना है एक औसत मध्यम वर्गीय युगल को obeserve किया उस पर आधारित है....कोशिश करूँगा upper/upper-middleclass लोगों के दृश्यों पर भी कलम चलाने की.....कोई भी 'Observation' ultimate नहीं होता...case to case differ करता है.)
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ग्रेजुएट भाभी करती थी साब को :

बीवी महज़
बीवी ही नहीं
हुआ करती है
संगीनी जीवन की,
जीनेवाली मिल कर
दुःख-सुख में,
साथ देनेवाली
मुआफिक
एक दोस्त के,
मानने वाली
'अपना'
खाविंद के परिवार को,
जैसी आमदनी
करनेवाली ख़ुशी ख़ुशी
इन्तेजाम गृहस्थी का
उसी में,
देनेवाली
सुन्दर संस्कार
बच्चों को,
दिखाने वाली
सही राह
परिवार को,
संभालनेवाली
कुनबे को
वक़्त
के धक्कों से ,
कर देनेवाली
सकारात्मक
स्पंदन घर के
अपने मधुर स्वभाव
और
उन्नत संस्कारों से,
साझीदार
जिन्दगी की
ना कि
एक निर्भर प्राणी……

देखा गया था :

अक्सर कहा करती थी:
मैं बीवी हूँ
कोई गुलाम नहीं,
जो संभालूं चूल्हा चौका
दिन भर
तुम लोगों के लिए
करके मुहाल
जिंदगानी अपनी,

जब इतना ही देते हो तो
क्या मैं ……..? (खोल दूँ टकसाल अपनी)
होता क्या है
इन्ने पैसों से
आज के दौर में.
पडोसी के यहाँ आया है
‘एल ई डी' टीवी......और
हम लोग देखते हैं
‘बालिका वधु’
इसी डिब्बे पर,
होने को मन गई
सिल्वर जुबिली शादी की,
मगर कहा जाता है अभी भी:
मेरे नेहर में तो होता है ऐसा
ना जाने तुम्हारे यहाँ
गंवारू पन है कैसा ?
कहती है
देखो ना पड़ोस के जेठालाल को
तनख्वाह के अलावा
उपरी भी खूब बनाता है
तभी तो परिवार को इतना
सुखी रख पाता है
और एक तुम हो….?
जब से तुम्हारे पीछे आई
ना ताता (गरम) खाया
ना ही पहना राता (रंगीन /लाल)
क्या दिया है मुझको तुम ने ?
बस जिन्दगी एक नौकरानी की,
या समझा मुझे मशीन एक
बच्चे जनने की,
तुम थक कर आये हो ना
काम से
तो मैं क्या यहाँ बैठी थी
निठल्ली,
चाहिए ना तुझ को
मुस्कान एक शाम को,
क्यों नहीं चले जाते
पास उस मुई ‘मंजुला’ के
जो पढ़ा करती थी
साथ तुम्हारे
जैसा बाप वैसी ही औलाद
बड़का तो बुद्धू है
'आप' की तरहा
और
बेटी काटती है
कान सब के
'बाप' की तरहा,
जब देखो
मांगें तरहा तरहा की,
कभी चाहिए होती है किताब यह,
तो कभी यह पेन-पेंसिल
टिफिन में 'यह' चाहिए या 'वो'
हम को भी देखो
चलाये जा रहे हैं
साल भर से
वो ही शेड
लिपस्टिक के,
क्या हुआ महीने में
दो-चार सूट
उठा लूँ किसी बुटिक से
मांगती तो नहीं तुम से,
बचाती हूँ घर खर्च से
दिन भर लिखना कवितायेँ ,
और करना पोस्ट
किसी 'अभिव्यक्ति' पर,
कहना तरहा तरह की सखियों का
'वाह वाह'
…'बहुत सुन्दर'
क्या यही है नाम क्रियेटिविटी का ?
पढ़े लिखे हो
करलो ना ट्यूशन दो चार
आएगा कुछ तो घर में
आदर्श और संस्कार
जाते हैं बताये सिर्फ़
आस्था और संस्कार चेनल पर,
जिसकी किस्मत में
होता है जो होना
हुआ करता है बस वही,

यह तो मैं हूँ कि
................................

महसूस किया था मैं ने :

काश भाभीजी सोचती कि
पुरुष-स्त्री गृहस्थी-रथ के
दो पहिये होते हैं-समान से
दोनों के संतुलित चलने से ही
गृहस्थी का रथ
बढे जा सकता है
अपनी मंजिल की तरफ,
निकल जाता है वक़्त
रह जाती है बातें...
जिया जा सकता है
पुर सुकून
ज़िन्दगी को,
जिया जा सकता है
कम में भी,
सुकूं और शांति
ले आते हैं
सौहार्द और सम्पन्नता...

भाभीजान मेरी
बन जाए अगर,
साईकल सर्कस की
एक पहिये वाली ,
भाई साब जी को होगा
लगाते रहना लगातार
पैडल....
रुके जहाँ ...
गिरे बस वहीँ पर,
क्या दे सकेगी सुकून यारों
गृहस्थी इस तरहा की....?