Sunday, June 20, 2010

यादों की सीलन....(दीवानी सीरीज)

एक दिन किसी पत्रिका में उसकी यह कविता पढ़ी थी:

बात दीवानी की

# # #
याद नहीं
मुझे
कब ज्वार
आया था
समुद्र में,
कब पांव के
नीचे से
जमीन
सरक गयी थी
कब सूरज ने
अँधेरे पर
दस्तक दी थी
कब बाँहों में
ले लिया था
रात ने,
किस रास्ते से
निकली
और
कहाँ रुकी,
कुछ याद नहीं.

आज यादों की
सीलन को
धूप लगाऊं
एक एक
लम्हा
उगलने
लगेगा।

बात विनेश की

मेरे दिल, दिमाग और पेन ने भी यह कविता लिख दी थी , उसी पत्रिका के संपादक ने नजाकत को समझते हुए छाप भी दी थी, शायद उसने भी पढ़ी होगी.
______________________________________
# # #
क्यों भूलती हो
जब जब
ज्वार आया था
समंदर में
मेरे साथ खड़ी
अडिग थी
तू जमीं पर.
सुबह का
सूरज सदा
मुस्कुराता था
जब चहकते थे हम
भोर के परिंदों की तरहा,
रात भी हमेशा
साथ थी हमारे
जब जब बहके थे हम.
तू सह ना सकी थी
समय की
करवट को
और
भाग चली थी
उन अनजान
राहों पर
जहाँ मैं नहीं था.

आ लौट आ,
मेरी जान
यादों की यह सीलन
महज़
मेरे
और
तेरे
आंसुओं के
अवशेष है
प्रेम की ऊष्मा
फूँक देगी
प्राण इन में...
और
हर लम्हा
चहकने लगेगा
महकने लगेगा
दहकने लगेगा.

मुझे है
तेरी प्रतीक्षा
आज भी
अब भी.....


Friday, June 18, 2010

भंगित हृदयों के स्पंदन

# # #
भंगित हृदयों के
स्पंदनों पर
लगते
नहीं
विराम कभी,
नहीं होता
उनसे
प्रवाह
रक्त का
प्रत्युत
अनियंत्रित हो
बहतें हैं
अविरल अश्रु,
विचरण
करती है
प्रियों की स्मृतियाँ
गूंजती है
उनकी प्रतिध्वनियाँ
भितिकाओं के मध्य,
सुन सकता
नहीं
कोई भी
उनके रुदन को
जो रहता है
मौन
रहस्यपूर्ण नयनो के
पार्श्व में.......

Friday, June 11, 2010

नदी की लहर या बहता दरिया (दीवानी सीरीज)

नदी की लहर
# # #
जब भी वह भावुक होती कुछ ऐसे उदगार उसकी जिव्हा से प्रस्फुटित होते या उसकी 'बॉडी लैंग्वेज' से अभिव्यक्त होते जिनमें विरोधाभास से परिलक्षित होते.....शायद शब्दों का निर्वचन होता था वह क्योंकि जब भी में मन की आँखों से उन्हें देखता, दिल से सुनकर अंगीकार करता तो मुझे भी ऐसा ही लगता की पूर्ण सत्य वही है. देखिये ना उसकी यह रचना :
________________________________________
"तुम आकर
खड़े हो जाते हो
मेरी राहों में
मैं नदी की
लहर की तरहा
बदलने लगती हूँ
अपना रास्ता.

कितनी शांत थी मैं
तूफानों को
बर्दाश्त करनेवाली
नीरवता की तरहा
और
अब तुम्हारे
आने पर
लगती हूँ
मचलने
जब की
खड़ी रहती हूँ
निस्तब्ध
शिला की तरहा.

पराजित
मुद्रा में
विजय
बोध होने
लगता है
मुझे एक साथ."

बहता दरिया
# # #
मेरी कलम से उन दिनों कुछ ऐसे अल्फाज़ निकल पड़ते थे :

बहते जाना ही
जिंदगी है
बहा लो मुझे
संग अपने
ऐ मौज-ए-दरिया !
हार और जीत का
एहसास तो
गैरों में होता है.

तू ठहरी ठहरी स़ी
ठंडी स़ी
जमी हुई स़ी
बेहोश सी थी
बिलकुल
जमी जमी सी
बर्फ की तरहा.
देकर तपिश
मोहब्बत की
पिघलाया था
तुझको मैने
और
मिलकर हो गए थे
हम एक-मेक,
फिर ना
तेरा वुजूद था
और
ना ही मेरा
बस था
कुछ तो
वह था
हमारा
यंग और येन की
तरहा
जो दीखते हैं
अलग
मगर होतें हैं जुड़े
पूरा करने
'वर्तुल'
जिंदगी का.

मिल कर
बन गए हैं
हम
बहता दरिया
आओ !
बहते रहें हम,
बहते रहें....

Thursday, June 10, 2010

तुलना मूल्यांकन एवम विश्लेषण (दीवानी सीरीज)

फूल...(दीवानी)
अमेरिका
में साया होने वाली एक उर्दू/हिंदी मैगज़ीन में उसका यह कलाम पब्लिश हुआ है, उसकी सहेली ने मुझे भेजा है. आप से शेयर करना लाज़मी है क्योंकि आप सब मेरे हमराज़ और हमदर्द हैं.
____________________________________________________________
# # #
"फूल तुम
क्यों
मुस्कुराते हो
हर सुबह
जीने का
लाते हो
उत्साह !

फूल तुम
क्यों
मुरझा जाते हो
संध्या
समय
निढाल
होने को.

क्या तुम भी
औरत की तरह
दिन भर की
थकन से
हो जाते हो
निढाल.

क्या सच !
तुम वही औरत
तो नहीं
जिसे
हर सुबह
मुस्कुराना पड़ता है
बरबस."


तुलना मूल्यांकन एवम विश्लेषण (विनेश)

प्रत्युत्तर जो मेरे चिंतन में है, कुछ इस प्रकार है:
# # #

प्रिये !
होगा तुम्हारी स्मृति में
आज भी विद्यमान
वह उद्यान का
घटना क्रम
जब फूलों के
सौंदर्य एवम सौरभ से
आनंदित हो
अनायास
तुम पूछ बैठी थी
"कहाँ है
इस फूल की
सुगंध?"
विश्लेषण के
उस प्रयास में
छिन्न भिन्न
कर डाला था
हम ने
उस पुष्प को
तोड़ते हुए
एक एक पंखुड़ी को,
सब बिखर गया था
तब भी बिखरी थी
महक
लेकिन
पा नहीं सके थे
पृथक से
उस
भीनी भीनी
लुभावनी
मनभावन
सुवास को
जो नासिकाओं के मार्ग
समा रही थी
हम में
और थी
प्रसारित
संपूर्ण उद्यान में,
क्या हुआ जो
नयन तुम्हारे
और मेरे
ना देख
पा रहे थे
प्रकृति के उस
सुन्दरतम
रहस्य को.

आज पुनः
तुम कर रही हो
तुलना
अपने जीवन की
उसी पुष्प से
जिसकी
सुगंध
और
उसके स्रोत को
लाख विश्लेषण के
पश्चात भी
नहीं पा सके थे
हम;
या तो
हम कर सकते हैं
विश्लेषण
एवम
तुलनात्मक मूल्यांकन
अथवा
जी सकते हैं
सम्पूर्ण समग्र जीवन,
जो परे है
समस्त
तुलनाओं से
समस्त
मूल्यांकनों से
समत
विश्लेषणों से......

Wednesday, June 9, 2010

अदृश्य दीवारें...

उसने मेरी एक छवि बनायीं थी...एक इमेज को बसाया था अपने जेहन में..मेरा व्यवहार शायद ठीक उसके विपरीत रहा था..मैं उसकी कसौटी पर सोना नहीं पीतल सा लगने लगा था(शायद वह ना माने) और मैं था....मायावी छलिया जिसे आम नज़रें झूठा, धोखेबाज़, दम्भी, पाखंडी, आवारा और ना जाने क्या क्या समझ सकती थी ...वोह खुद भी.....खता उसकी नहीं थी ...वह भी तो ऐसे ही माहौल में सांस लेती थी..बहुत मुश्किल होता है..खुद को अपनी 'conditioning' से आज़ाद करना..
उसके मन का नहीं होता तो वह अस्तव्यस्त हो जाती थी...ना जाने उसके सोच एक अप्रत्याशित आयाम की जानिब बढ़ जाते थे॥और हालात के ऊपर उसके तब्सिरे उसकी सोचों के 'diametrically opposite' नज़र आने लगते थे..उलझ स़ी जाती थी खुद में वो ..केंद्र से हट कर परिधि का भ्रमण करने लगती थी..ऐसे ही किसी दौर में उसने यह लिखा था...

उपालंभ सा उसका ...

# # #
खींचे जा रही हूँ
कुछ
अनगढ़ सी
लकीरे
कागजों पर..
अर्थहीन
तो नहीं पर
शब्दों में
नहीं बदल
पा रहे हैं भाव
कलम भी
जैसे
अवरुद्ध सी
हो गयी है..
उमड़ रहे हैं
प्रश्न अबूझे ..
खोजने को
जिनका उत्तर
टकरा जाता है
मन
अँधेरी गलियों की
उन
अदृश्य दीवारों से
जो लगता है
खड़ी कर रखी हैं
अपने
चारों तरफ
तुमने ...

इतने उपद्रव और नन्ही सी जान

# # #
मैं पढ़ कर मंद मंद मुस्कुरा रहा था, हाँ एक दुःख सा भी महसूस कर रहा था.....क्योंकि बस नज़रिए का ही फर्क था...मैने उसको और उसने मुझको॥एक सार तत्व के रूप में महसूस किया था..मैने भरसक कोशिश की थी दुनियावी परिचय के दौर से हम बचे रहें..क्योंकि बहुत से 'पेन्डोरा बॉक्स' खुल कर उलझा सकते थे उस पावन प्रवाह को..शायद यह अबोला अनाम रिश्ता बेमौत मर सकता था बेज़रूरत वाकयों की घुटन से..

बाप रे !

# # #
जिन दीवारों को
तुम देख पा रही हो
वह हो सकती है
अदृश्य कैसे ?
जरा छूकर देखो
कहीं तेरी नज़रों का
धोखा तो नहीं..

अगर हकीक़त है
ये दीवारें
तो
क्यों होती
मुलाक़ात तुम से...?

जब तक
अपनी
चुनी हुई
दीवारों को
देख कर,
जाने अनजाने
खुद को
रोकती रहोगी तो
पहुँचोगी कैसे
वहां
जहां
मेरा
सार तत्व
अवस्थित है..

इन
दीवारों के
उस तरफ
शायद
तुम्हे नज़र
आ रहा हो
और
कुछ भी
जो वैसा ही तो है
जैसा होता है
कुछ नया दिखे तो
बताना मुझे
ज़रूर,
शायद
खुद का
यह परिचय
मुझे भी
मालूम ना हो....

मत भटकाओ
खुद को
अँधेरी गालियों में
जो अँधेरी ही
नहीं
'डेड एंड' वाली भी है,
और
जहां जाया
जा सकता है
लौटना
हो सकता है
मुश्किल..
और
उस पार जाना
नामुमकिन...

शब्द
भाव
अनगढ़ लकीरें
अबूझे सवाल
टकराते जवाब
अवरुद्ध कलम
अँधेरी गलियाँ
अदृश्य दीवारें
बाप रे !
इतने उपद्रव
और एक नन्ही जान !
तौबा ! तौबा !


समाज : भीड़ की नज़रों का अनुमोदन..(दीवानी सीरिज)

समाज (दीवानी की बात)
नारी की सोच ज्यादा 'प्रेक्टिकल' होती है.

उसके व्यवहार में समाज के प्रति आस्था से अधिक भय दृष्टिगोचर होता था, लेकिन अकाट्य तर्क समझती थी वह इसको कि 'आखिर जीना तो इसी समाज में है'.

देखिये उसके शिकवे की एक बानगी.
_________________________________________

# # #

"तुम कहते हो
नहीं करें पर्वाह
हम समाज कि
उन नियमों एवं
परम्पराओं की
जो वर्षों से
बांधे हुए हैं
इस व्यवस्था को.

क्यों नहीं
सोचते
मानव है एक
सामाजिक प्राणी
जिसका
जीना मरना
जुड़ा है
समूह से
समाज से,
पहचान उसकी
अस्तित्व उसका
सब कुछ तो है
समाज से....

राम ने भी
समाज की
सत्ता को
स्वीकार था
असीम प्रेम
होते हुए भी
सीता को नकारा था,
जब तुम्हारे अवतार भी
समाज को
नहीं टाल सके
तुम और
हम तो
सामान्य प्राणी है
इसी समाज में
रहने वाले
समाज के सहारे
जीनेवाले..."

भीड़ कि नज़रों का अनुमोदन (Baat Vinesh Ki)

शब्दों का प्रत्युत्तर शब्दों में ही कुछ इस तरहा होता था:

# # #

मेरी नज़र में
समाज
एक व्यवस्थित
इकाई नहीं
केवल मात्र
भीड़ है एक
उन लोगों की
जिनमें अकेले
जीने का
नहीं है
सामर्थ्य..

बार बार
बोले जाने पर
बन गया है
एक झूठ भी
सत्य सा
और कहतें हैं
हम
उसी को
समाज
और
व्यवस्था उसकी...

भीड़ से बचना है
पहला फ़र्ज़ हमारा,
अर्थ नहीं है
इसका
भाग जाना
जंगल को,
मेरा कहना है
वैचारिक
स्तर पर
समझने हेतु
केवल
यथार्थ को,
छिपा दिया है
समाज ने
जिसको
आवरणों में
उसकी ही
रक्षा के नाम पर,
समाज की
आँखों में
देखना
प्रतिबिम्ब अपना
बंद कर दें हम
बस.....

अपने
कार्य कलापों के लिए
अपनी चेतना से
अधिक
भीड़ के
दर्पण में
झांकना
अनुमोदन के लिए
स्वयं में बसे
प्रभु की है
अवहेलना,
समाज की
आँखें तो
बदलती है
प्रतिपल
और
हर व्यक्ति की
आँख भी
हुआ करती है
पृथक,
कैसे इन
छद्म मापदंड़ो पर
जी सकता है
कोई
जागरूक,
जरा सोचो तो...

Tuesday, June 8, 2010

आश्वासन.....

बात दीवानी की :

उसका सोचने का तरीका कुछ ऐसा हो गया था:

# # #

"तुम्हारा आश्वासन
कई दिनों तक
आशा लगाये
रहता है कि
कोई मोड़,
कोई क्षण,
कोई अनुभव
इस साधारण
भीड़ से
अलग होगा.

लेकिन
समय का
हर पल
मेरे पहले
विश्वाश को
अदना करता
जा रहा है।"

इज़हार विनेश के :

मैंने टुकड़ों टुकड़ों में कुछ ऐसा ज़ाहिर किया था:

# # #

शिकवा है
मुझको कि
मेरा
आश्वासन
पा कर भी
देखती
रहती हो
तुम
भीड़ को....

मिलाती हो
तुलना
करती हो
परखती हो
भीड़ के
हवाले से,
मुझ को
खुद को
और
तेरे मेरे
इस
अबोले रिश्ते को.....

प्रिये ! क्यूँ
अधूरे पैमाने से
माप कर
मुझ को और
खुद को
किये
जा रही हो.
अदना.....

यह लम्हे
यह अनुभव
यह मैं
यह तुम
महज़
अपने हैं
सिर्फ
अपने,
ज़रुरत नहीं
इन्हें
भीड़ में
मिलाने की
भीड़ से
जुदा
करने की.....

हमें बस
जीये
जाना है,
जीये जाना है
भरपूर
खुशबुओं के
जवां लम्स को लिए....

मेरी जान !
क्यों
गिनने लगी हो
हर इक
धड़कन को
हर इक
नफस को....

(नफस=सांस, अदना=तुच्छ, लम्स=स्पर्श)

Monday, June 7, 2010

प्रतिद्वन्द...(आशु रचना)

# # #
अद्भुत है
यह द्वन्द
स्वयं से
स्वयं का
प्रतिद्वन्द...

अंतर
कहता है
यह है
निस्सार,
होता है
तुरंत
बाह्य का
प्रसार...

जीये हैं
जिन
मान्यताओं के
बीच,
खड़ा किया
उद्यान
आग्रहों से
सींच
सींच...

किसको
भुलाएँ
रखें किसको
हम
याद,
द्वन्द के इस
जंजाल से
कैसे हों
आज़ाद...

जो हैं
निस्सार
नहीं पा सकते
उस से पार,
अद्भुत है
मित्रों
यह
परिभाषाओं का
व्यापार...

वैधानिक
चेतावनी
लिख कर
पा लेते हैं
मुक्ति,
तज्य को
अपनाकर
पा लेते हैं
तृप्ति..

चलेंगे
दो कदम
आगे
हटेंगे
पीछे
दो डग,
रहेंगे
डटे वहीँ पर
होगा तय
कैसे मग...

एक ख्वाब (Deewani Series)

एक दिन उसने मुझे अपने इस ख्वाब के बारे में बताया था:

बात दीवानी के एक ख्वाब की॥

# # #
"पढ़ते पढ़ते
अलसाई स़ी
आँखों में
अचानक
आ गई थी
नींद....
तब मैं
समंदर की
सतह से
ला रही थी
सीपें
बिन कर !
ढूंढ
रही थी
उनमें
मोतियों को.

आँख खुली
तब जाना
वह
मैं नहीं,
मेरी
परछाईं थी
जो
झांक रही थी
जलधि की
गहरायी में
और
पहुँच रही थी
सागर की
सतह तक
समंदर की
तह तक........"

उपहार जीवन की मणि मुक्ताओं का...(विनेश)

(मैं बना था नया नया 'लेक्चरार', रोमांटिक होने की जगह दे डाला था एक भाषण 'स्वपन विज्ञानं' के 'basics' पर :)


# # #
स्वप्न है
हमारी अपनी
रचनाएँ
जिनके
निर्माण की
पृष्ठभूमि में
होती है
हमारी निजता.....

यह हैं प्रतीक
हमारी
सृजनात्मक
शक्ति का
जो रहती है
सुसुप्त
प्रत्येक
व्यक्ति में......

स्वप्न ही
सत्य है
एक मात्र
जीवन का
क्योंकि
वही स्थिति है
मात्र
जिसमें हम होतें हैं
कर्ता
और
दृष्टा दोनों
देख पाते हैं
स्वयं को
नाना उपक्रमों
नाना सोचों
नाना प्रस्तुतियों
नाना प्रवर्तियों में
लीन..
बिना किसी
लाग-लपेट के....

स्वप्न है
नयनों में बसा
एक संसार
जिसे हम
रचतें हैं
स्वयं ही
और
बिताते हैं
कुछ पल
साथ स्वयं के
यह पल जो
चुरातें हैं हम
जीवन के
अनन्त पलों से
और
जी लेते हैं
एक और जीवन.........

प्रिये !
गहरा जल था
द्योतक
तुम्हारे
अवचेतन की
अनजानी
गहराईयों का
और
गोता लगाना
तुम्हारा
था प्रतीक
झांकने का
अपने
अंतर्मन में;
सीपों में
मोतियों की
तलाश
थी तुम्हारी
स्वयं द्वारा
खोज स्वयं की
बस नहीं देखा था
तुमने
न जाने क्यों
मणियों को,
मोतियों को
सतह पर
बिखरे रत्नों को.....

शायद कुछ
सुन्दर विचार
आनेवाले हैं
तुम्हारे
मस्तिष्क में....
सतत रहे
यह शोध
स्वयं की
संभव है
पहुँच सको
गंतव्य को,
एवम हो जाये
प्राप्य
उपहार
जीवन की
मणि मुक्ताओं का.....


अंकुर...

जब हम किसी से जुड़ते हैं तो आपस में ना जाने कितने शब्दों का आदान-प्रदान हो जाता है, कभी कभी शब्द कुछ कहतें हैं और दिल और चेहरा कुछ, बात चीत के दौरान हम कई-एक पहलुओं पर अपनी बिखरी सोचों को भी शब्द देने का प्रयास करते हैं, किसी को जीतने या हराने के लिए नहीं,स्वयं को सच साबित करने के उद्देश्य से नहीं, प्रत्युत कभी तो बस यूँ ही-'फॉर नो रीजन' और कभी स्वयं को स्पष्ट करने के लिए भी। देखिये ना एक दिन उसने कुछ ऐसा कहा था:

बात दीवानी की...

# # #
एक बार
स्वयं
देना
चाहती हूँ
नाम
जीवन को !

बोना
चाहती हूँ
नए बीज
फिर
चाहती हूँ
देखना
नए
अंकुर को
पेड़ का
रूप
लेते हुए.

अपना
अस्तित्व
समझ
पाऊँगी
तभी तो...."

प्रत्युत्तर विनेश का

उस दिन उसने यह बात बहुत ही संजीदगी से कही थी. कुछ भी बोलने से पहले मुझे अपने आप को उसकी जगह रख कर सोचना था, तभी तो उसका नजरिया समझ पा सकता था. मगर ना जाने क्यों उसकी यह 'अस्तित्व' की बात मेरे पुरुष-अहम् को चौट पहुंचा रही थी, मेरी 'possesiveness' मेरे जेहन पर हावी हो रही थी......लेकिन मैने उन 'negative thoughts' को तुरत झटक दिया था और समझने का प्रयास कर रहा था कि वह क्या सोच रही है और क्यों सोच रही है ?

उस पल जो मेरे जेहन में था उसका शाब्दिक अनुवाद कुछ ऐसा सा होगा।

जुडाव स्वयं का सर्व-व्यापी अस्तित्व से

# # #
प्रिये !
तुम्हारे कथन में
बहुत
महत्वपूर्ण है
शब्द
'एक बार'.....

परम्पराएँ
मान्यताएं
जीने में
करती है
जरूर
मुहैया
आसानी,
मगर
छोड़ जाती है
एक खालीपन
एक नीरवता
एक रिक्तता
जो सालती
रहती है
हर पल,
उठाते हुए
कुछ अनबुझ
सवालों को
सोचने
समझने वाले
जेहनों में.

स्वयं के
अनुभव
स्वयं का
दर्शन (देखना)
लाता है
दृढ विश्वास
सत्य के
प्रति
मौलिकता के
प्रति.....

बोना है
अवश्य
नए बीज को
तुम्हे,
दे दो ना मुझे
इज़ाज़त
तुम्हारे साथ
उसे सींचने की
पालने की
एक पेड़ ही क्यों
हमें तो
बनाना है
पूरा
उद्यान
जहाँ खिलतें हो
फूल
कई रंगों के
फैलाते हों
खुशबूएं
कई तरहा की
गाते हो पंछी
तराने
कई सुरों में........
हमारा
यह अस्तित्व
नहीं है भिन्न
उस अस्तित्व से
जिसके हिस्से हैं
हम सब...

अस्तित्व का
अर्थ
अलगाव नहीं
जुडाव है
स्वयं का
सर्व-व्यापी
अस्तित्व से........

(यह कह कर मैने बात को अधूरा छोड़ दिया था.... और वह बात अब तक पूरी ना हो सकी है)



अस्तित्व (दीवानी सीरिज)

जब हम किसी से जुड़ते हैं तो आपस में ना जाने कितने शब्दों का आदान-प्रदान हो जाता है, कभी कभी शब्द कुछ कहतें हैं और दिल और चेहरा कुछ, बात चीत के दौरान हम कई-एक पहलुओं पर अपनी बिखरी सोचों को भी शब्द देने का प्रयास करते हैं, किसी को जीतने या हराने के लिए नहीं,स्वयं को सच साबित करने के उद्देश्य से नहीं, प्रत्युत कभी तो बस यूँ ही-'फॉर नो रीजन' और कभी स्वयं को स्पष्ट करने के लिए भी. देखिये ना एक दिन उसने कुछ ऐसा कहा था:
_______________________________________
एक बार

स्वयं
नाम

देना चाहती हूँ
जीवन को !

बोना चाहती हूँ
नए बीज
फिर चाहती हूँ
देखना
नए अंकुर को
पेड़ का रूप
लेते हुए.

अपना अस्तित्व
तभी तो
समझ पाऊँगी. "
__________________________________
प्रत्युत्तर :
उस दिन उसने यह बात बहुत ही संजीदगी से कही थी. कुछ भी बोलने से पहले मुझे अपने आप को उसकी जगह रख कर सोचना था, तभी तो उसका नजरिया समझ पा सकता था. मगर ना जाने क्यों उसकी यह 'अस्तित्व' की बात मेरे पुरुष-अहम् को चौट पहुंचा रही थी, मेरी 'possesiveness' मेरे जेहन पर हावी हो रही थी......लेकिन मैने उन 'negative thoughts' को तुरत झटक दिया था और समझने का प्रयास कर रहा था कि वह क्या सोच रही है, और क्यों सोच रही है. उस पल जो मेरे जेहन में था उसका शाब्दिक अनुवाद कुछ ऐसा सा होगा.
____________________________________________________________________
प्रिये !
तुम्हारे कथन में
'एक बार'
शब्द बहुत
महत्वपूर्ण है.

परम्पराएँ
मान्यताएं
जीने में
आसानी जरूर
करती है
मुहैया,
मगर छोड़ जाती है
एक खालीपन
एक नीरवत
एक रिक्तता
जो सालती रहती है
हर पल......
उठाते हुए
कुछ अनबुझ सवालों को
सोचने समझने वाले
जेहनों में.

स्वयं के अनुभव
स्वयं का दर्शन (देखना)
लाता है दृढ विश्वास
सत्य के प्रति
मौलिकता के प्रति.

अवश्य
बोना है नए बीज को
तुम्हे
बस मुझे दे दो ना इज़ाज़त
तुम्हारे साथ
उसे सींचने की
पालने की
एक पेड़ ही क्यों
हमें तो पूरा
उद्यान बनाना है
जहाँ खिलतें हो फूल
कई रंगों के
फैलाते हों

खुशबूएं

कई तरहा की
गाते हो पंछी तराने
कई सुरों में........
हमारा यह अस्तित्व
नहीं है भिन्न
उस अस्तित्व से
जिसके हम सब
हिस्से हैं...........

अस्तित्व का अर्थ
अलगाव नहीं
जुडाव है
स्वयं का
उस सर्व-व्यापी अस्तित्व से........

(यह कह कर मैने बात को अधूरा छोड़ दिया था.... और वह बात अब तक पूरी ना हो सकी है)


Sunday, June 6, 2010

जंगली फूल (दीवानी सीरीज)

ऑरकुट कि एक कम्युनिटी पर यह रचना पोस्ट हुई, नाम शायद कुछ अटपटा सा लिखा हुआ था, मगर उसकी सहेली ने मुझे खबर दी और कहा कि यह उसका ताज़ा कलाम है, मुझे पढना, समझना और अपनाना चाहिए....खैर यह थी हमारी कोमन फ्रेंड की फ्रेंडली नसीहत, बहरहाल पढ़तें है आपके साथ उसकी नज़्म को:
___________________________________________________________________

"अपने
वुजूद को
एक जंगली फूल का
ज़ज्बा-ओ-शक्ल दे रही हूँ
जो बिना किसी जद्द-ओ-जेहाद के
बिना किसी चाह और उम्मीद के
खिलता भी है
और मुरझा भी जाता है. "
**************************************
प्रत्युत्तर :
बहोत ही उम्दा लगी है मुझे उसकी नज़्म (आपको भी लगी होगी शायद) , मैने पढ़ा और समझा भी मगर अपना नहीं पाया.....क्योंकि मुझे लगा अल्फाज़ बदल गए हैं मगर मायने वही है.....किसी भी प्रेम पर आधिकारिकता (पजेसिवनेस) जब हावी हो जाती है तो इन्सान यह चाहने लगता है कि दूसरा उसकी व्हिम के अनुसार खुद को बदले.....जब दूसरा उम्मीदों को 'कम्प्लाई विद' नहीं कर पाता तो एक अजीब स़ी खीज पैदा होती है और इन्सान फिर खुद को बदलने की घोषणा करने लगता है......या झूठे सच्चे कन्फेसन करने लगता है.....या डिप्रेसन में क्रमशः आने लगता है...उम्रें बीत जाती है...और इन्सान वहीँ का वहीँ खड़ा रहता है....या निकल पड़ता है एक अंतहीन यात्रा पर जिसकी कोई मंजिल नहीं होती....जिसके कोई रास्ते भी नहीं होते.

हाँ कुछ सोच आये जेहन में जिन्हें आपसे शेयर कर रहा हूँ.
***************************

लोहा पारस से छू जाये...................
क्यों दे रही हो
अपने अस्तित्व को
कोई रूप
मुझे ना बदल पाई
तो खुद को इस तरहा
बदलने का ज़ज्बा
क्यों लिए हुए हो.

फूल कि फ़ित्रत
महज़ खिलना है
अपनी ही मस्ती में
चाहे जंगले हो या
बस्ती........
फूल बस खिलता रहेगा
बेखबर इसके के
उसे मुरझाना भी है.

आगाज़ और अंजाम
दोनों की बातें करनेवाले
खिलने से पहिले ही
मुरझा जाते हैं..........
किसी से उम्मीद ना रखने कि
कसम खानेवाले
खुद से उम्मीदों के
अम्बार लगा लेते हैं.....

चाह को नकारना
बहोत आसान है
मगर खुद को चाह से
करना आज़ाद
असल दरवेशी है
असल फकीरी है............

जब तक वुजूद की बात रहेगी
किसी को भी बदलना नामुमकिन है
खुद को भी
जग को भी;
और जब भुला जाता है वुजूद
कौन हम ?
कौन दुनिया ?
बस एक नशा सा होता है
बेखुदी का
रूहानी........
परे इस दुनिया से
जहाँ किसी को किसी के लिए
बदलने कि ज़रुरत नहीं होती
और ऐसे घटित होता है
एक नैसर्गिक बदलाव............

करदो हवाले खुद को
उस परम अस्तित्व के हाथ
भूल कर हस्ती अपनी
ना जाने कब लोहा
परस से छू जाये.......

शून्यता...(दीवानी सीरिज)

फिलोसोफी में Phd की थी उसने, कभी कभी अन्दाज़ उसका बहोत ही फलसफाना हो जाता था। उस दिन भी क्रिसमस डे था, एक अरसे बाद हम मिले थे उस मगरीफी (western) मुल्क में,जुदाई के एहसासों का असर था और कुछ मेरे साथ होने का... अचानक उस पर पड़ गया था दौरा फलसफे का॥कहने लगी थी:

गणित ज़िन्दगी की (दीवानी रचित)

# # #
"जब एक में से
एक को
घटाया जाता है
तो
बचता है
शून्य
जिसे
हर कोई
देखता और
समझता है.

आज अच्छा
लग रहा है
मगर
अपने
खाली लम्हों में
लगता है
कुछ ऐसा कि
मेरी ज़िन्दगी में से
आहिस्ता आहिस्ता
ज़िन्दगी को
निकाल
लिया गया है
और
मैं हो गई हूँ
तब्दील
एक सिफर में
एक शून्य में.

मगर इस
हादसे को
किसी ने
देखा नहीं
किसी ने
जाना नहीं
किसी ने भी
समझना
चाहा नहीं।"

प्रत्युत्तर : अनावरण होने का (By Vinesh)

उसके एहसासों को महसूस किया मैने, इतनी संजीदा थी उसकी बात कि उसे टाल देना मुनासिब नहीं था, बहुत दिन बाद उससे मेरी मुलाकात मेरे लिए एक जश्न जैसी थी जिसमें फिलोसोफी को कम और हंसी ख़ुशी से उन 'दुर्लभ' लम्हों को भर देने का ज़ज्बा जियादाह था...मगर मुझे भी कुछ पलों के लिए उस जैसे 'मूड' में आना पड़ा। मैने जो पढ़ा, सीखा और देखा था उसे इस हवाले से कुछ इस तरहा कहा था:

कैसी शून्यता...(विनेश द्वारा)

मेरी अज़ीज़ दोस्त !
जिन्दगी की
गणित
शायद
वैसी नहीं
जैसा
तुमने समझा है
जाना है,
देखा है
पहचाना है.

यह सूनापन
उपजा है
तुम्हारे
बहिर देखते रहने की
ना कि
जिन्दगी से जिन्दगी के
निकल जाने की,
फिर भी
मान लेता हूँ कि
हो गई हो
तुम सिफर
या
आ पहुंची हो तुम
शून्य तक...

किसी भी नयी
शुरुआत के लिए
सारे पुरातन से
पा कर मुक्ति
होना पड़ता है
निपट रिक्त
ताकि
हो सके चमत्कार,
बन जाये
कब्र पुरातन की
गर्भस्थल
नवीन का,
प्रिये !
ऐसे होता है
नव्प्ररम्भ
ना कि संशोधन प्राचीन का.
ईशा के शरीर का
सलीब पर
करना
वरण मृत्यु का
और
दिवस त्रय पश्चात
मृत्तोथान उनका.........
प्रतीक है
अनंत ज्ञान
प्राप्ति का
क्रूसारोपित होना है
मृत्यु
मृत्तोथान है
जन्म
और तीन दिवस है
शून्यता
जब वे
न तो जीवित थे
और
न ही मृतक.
ये तीन(दिवस)
प्रतीक है
देह से
मुक्ति के
चित्त से
मुक्ति के
एवम
ह्रदय से
मुक्ति के....
और
उसके पश्चात है
पुनर्जन्म
अनावरण
'होने' का.

उसने सुना था
बहुत ही
ध्यान से
मुझ को
और
कहा था:
"चलो सुगरकेंडी खाएं
और
शांति से हाथ मिलाएं."
चल दिए थे
हम
हाथों में
हाथ लिए
एक-दूजे का,
देते हुए उर्जा
एक-दूजे को.

*********************************
शब्दार्थ :
क्रुसारोपित होना=crucification
मृत्तोथान=resurrection.



Saturday, June 5, 2010

राम मेरे रूं रूं में रम जाये .....

# # #
राम मेरे रूं रूं में रम जाये
स्वभाव सहज हो जाये
चेतनता फल जाये
राम मेरे रूं रूं में रम जाये !! ध्रुव!!

राम नाम कि अगन है ऐसी
भेद विकार बल जाये !! १ !!

राम नाम शीतल जल झरना
जलन शमन हो जाये !!२!!

नहीं चाहत औरन कि रहवे
राम निकट होई जाये !!३!!

नहीं बचे वह मानव जग में
निकल राम जब जाये !!४!!

राम राम कह मिलन करन से
रिपु मित्र-परम हो जाये !!५!!

'रा' ही मुख खुल जाये
बंध 'म' कार लगाये !!६!!

राम राम का जपन करन से
मानव शिव-पद पाए !!७!!

बस चले आओ.

उसका सोच था एक दिन:
# # #
तुम्हारे बिना
खालीपन
खोखलापन
अँधेरा
रुके रुके से
कदम.

क्यूँ ना भर दूँ
आशाओं से
खालीपन को
क्यूँ ना
गिरती दीवारों को
उठाकर
कर दूँ
तामीर
एक पक्की दीवार की.

___________________________________________________________

मेरा सोच था उस दिन:
# # #
मेरे अँधेरे
मेरा खालीपन
समां का
खोखलापन
मेरे थमे थमे से
सांस
कर रहे है
इंतज़ार तुम्हारा.

आओ ना
चले आओ
भरने
अपनी उम्मीदों से
अपनी तवस्सुम से
अपनी मासूमियत से
मेरे खालीपन को,
कर दो ना
रोशन
मेरे अंधेरों को,
चलो ना
कदमों से कदम
मिला कर.

गर देना है साथ
तो
ये उदास उदास से
एहसास क्यूँ
खोये खोये से
अंदाज़ क्यूँ
बुझे बुझे
सवाल क्यूँ ???
चले आओ
बस चले आओ.

राम नाम है महामंत्र.....(

# # #
राम
नाम
प्रभु
एवम्
स्वयं का
सेतु...
बीजाक्षर
'रा'
प्रयुक्त
तत्त्व
'अग्नि' के
हेतु.

'रा' का
उच्चारण
यदि
किया
जाये
बारम्बार
उत्पन्न हो
उत्तरोतर
उर्जा अपार.
यन्त्र हो
क्रमशः
गतिमान
'रा' रा'
ध्वनि
तदर्थ
प्रतिमान.

'र' का
मिलन हो
जब 'आ' से
युक्त
हो जाये
आदित्य
प्रकाश से.

'म' अक्षर
प्रतीक
चन्द्र का
शीतल
सौम्य
एवम्
हिमकर का.

राम में
पाए
उर्जा,
गति को
दे क्षमता,
करे
सुशीतल
मति को.

(मित्रों....राम नाम पर यह रचना थोड़ी अलग सी है...अध्यात्मिक है, meditative है...आशा है आप मेरे अनुरोध पर इस पर गौर करेंगे.)

अलविदा...


# # #
चाहा था
जिन्होंने
तहे
दिल से,
कसमें
खायी थी
साथ
निबाहने की,
समझाये थे
जिन्होंने
रिश्ते
जन्म-जन्मान्तर के,
वक़्त आखरी
किसी ने
दो आंसू थे
टपकाए
चुप रहा था
कोई,
ली थी
सांस चैन की
किसी ने,
और
कहा था
किसी ने
देह का
खोल ही तो
जल रहा है,
आत्मा तो
अजर
अमर है,
तू
तब भी
मेरे
करीब था
आज भी
मेरे
करीब है,
जो है
समाया
मुझ में,
उसे
कहना
'अलविदा'
कितना
अजीब है....

सुरक्षा या साथ... (Deewani Series)


लोजिक विषय में आते हैं :deductive and inductive logic. Deductive में 'general' to 'particular' होता है और inductive में 'particular' to 'general' apply करते हैं. .एक दफा एक तर्क शास्त्री कुछ ज्यादा ही तार्किक थे, inference draw कर बैठे , मुल्ला नसरुद्दीन के भी दाढ़ी है और बकरे के भी दाढ़ी है इसलिए हर बकरा मुल्ला नसरुद्दीन है.इन्हें तर्क शास्त्री कहें, पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति कहें, नादान कहें, अनजान कहें या.....

मगर ऐसा होता है जाने या अनजाने मुझ से भी.... मेरी हम दम दीवानी से भी.

वह भी एक फेज था।

सुरक्षा... (दीवानी की कविता)

# # #
गुलमोहर का
फलों से
लदा वृक्ष
पत्ती
एक नहीं
केवल
टहनियां.

जाना
मैने
बिना
पत्तों के भी
फूल
सुरक्षित
रहतें हैं.

हाँ,
वे अपनी
सुरक्षा
करना
स्वयं
जानते हैं।

साथ... (विनेश की रचना)

ऊपर जो कुछ लोजिक या तर्क शस्त्र की बातें लिखी है वे आज आप से शेयर कर रहा हूँ, उसको कैसे कहता यह बातें। कहीं उसके मन को ठेस लग जाती...परन्तु सहयोग भी करना था ताकि एकांगी सोच को वह संतुलन दे सके....

समन्वय और संतुलन... (Vinesh)

प्रकृति की
हर बात में है
समन्वय
और
संतुलन...

गुलमोहर
जैसे होतें हैं
पेड़ कितने
जिनमें फूल
खिले रहतें है
बिना पत्तियों के भी,
रक्षा और सुरक्षा की
बात
बनायीं हुई है
समाज की
वर्षों से....
कांटे भी
देते है
सौन्दर्य फूलों को
साथ सुमनों को....

तुम्हारा इशारा
अगर
नर और नारी के
साथ से है,
मेरी मित्र !
आज के युग में

सुरक्षा की बातें
हो गई है बेमानी,
वह जमाना था
जब
मर्द के बाहु-बल से
होता था शिकार,
होती थी खेतियाँ,
हुआ आविष्कार
जब से पहिये का
बाहु-बल की जगह
ले ली थी
यांत्रिक शक्ति ने
और
मर्द बेचारा हो गया था
एक फालतू स़ी वस्तु
इस सन्दर्भ में....

आज बातें करो
साथ की,
पूरक होने की
एक दूसरे के,
एक सम्पूर्ण सौंदर्य की,
जिसमें
पुरुष और प्रकृति
दोनों हो भागीदार.
अकेला रहना
कोई हल नहीं है
साथ रह सृजन
और
सौहार्द का
क्रम कायम रखना ही
सत्व है
नर-नारी
संबंधों का ;
ना नारी को
लाचारी में
निर्भर होना है
नर पर
और
ना ही नर को
एक बेजरूरत की
चीज बन कर
जीना है संसार में....

कोई किसी से
नहीं है कम
प्रकृति ने दी है
भिन्नता
यह अंतर ही तो
सुन्दरता है
सृष्टि की
एक खिली हुई
रौनक है
दृष्टि की
हमें आवश्यकता है
जोड़ने की
ना कि तोड़ने की
और
ना ही एक हिंसक
होड़ की
जिसके नतीजे
इन्सानियत को
तहज़ीब को...
अध्यात्म को
बना देंगे
कमज़ोर...


गुलमोहर है
बहुत ही सुन्दर
और
विलक्षण,
किन्तु
भरा है उद्यान
बहुतेरे
रंग बिरंगे
वृक्षों और पोधों से
जिन पर
पत्तियां भी है
फूल भी,
लताएँ
लिपटी है पेड़ों से
गुंज रहे हैं भंवरे
कलरव कर रहे हैं पखेरू
बस इस उत्सव को
प्रिये !
जरा देखलो
मन की
आँखों से,
कर लो
आत्मसात...

सुरक्षा चाहिए उसे
जिन्हें डर हो
यहाँ तो
गुंजरित है गीत,
भय-मिश्रित
चिल्लाहटें नहीं,
आनन्द है चहुँ ओर,
निर्मल आनन्द.....
निर्मल आनन्द.....

एक बात और...

पहिये के अविष्कार ने यांत्रिक शक्ति को जन्म दिया, बाहुबल की आवश्यकता पर प्रश्न चिन्ह लग गए.....कालांतर में पुरुष-प्रधान समाज ने क्या क्या षड्यंत्र अपने तथाकथित 'बर्चस्व' को कायम रखने के लिए किये, और प्रतिक्रिया-स्वरुप 'नारी-मुक्ति; आन्दोलन का उद्घोष हुआ.....जो घटनाक्रम के अनुसार एक नैसर्गिक घटना थी, लेकिन वह भी समस्या का हल नहीं था /है....नारी ने पुरुष की 'duplicate copy' बन कर अपनी मौलिकता से हाथ धोना शुरू कर दिया, और मानवता वंचित होने लगी उन सुकोमल भावनातमक 'इनपुट्स' से जो कि उसके खिलने के लिए अत्यावश्यक थे.....इत्यादि.... बहुत स़ी बातें हैं...बहुत से मसले है....बहुत से विचार-विमर्श है....सहमतियाँ और असहमतियां भी है...मगर हर रचना कि अपनी एक सीमा होती है...इसलिए फ़िलहाल इतना ही.

यहाँ जो कुछ लिखा है अर्ध-सत्य है...पूर्ण सत्य अभी तक अप्राप्य है.....कम से कम मुझ को तो....और उसकी शोध का एक पिपासु हूँ.




एक दृष्टि...(दीवानी सीरिज)

वो हमेशा 'क्वांटिटी' ज्यादा 'क्वालिटी' पर पकड़ रखती थी. छोटी छोटी बातों
में अप्रतिम प्रसन्नता को खोज निकलना उसकी विशेषता थी. मेरे जैसा व्यक्ति शायद शब्दों में अतिशयोक्ति दर्शाता रहता था अपने संवादों में, अपने पांडित्य का ढोल पीटता हुआ. उसकी एक बहुत ही गहरी रचना मैं यदा कदा पढ़कर स्वयं को संबोधित करता हूँ. बस...आज मात्र उसीको आपसे शेयर करना है.
____________________________________________________________________

"तुम कहते हो कि
तुम सागर हो
मुझे तो एक
बूंद ही काफी है.

तुम कहते हो
मैं तुम्हारी उम्र हूँ
मुझे तो एक
सांस ही काफी है.

तुम कहते हो
देखना चाहते हो
निर्निमेष
मुझे तो एक
द्रिस्टी ही काफी है."


और इसका प्रत्युतर मेरी ओर से मात्र मेरा "मौन" था.....उसको बस एक दृष्टि से देखते हुए, जहां समय थम सा गया था.

Thursday, June 3, 2010

एकाकीपन और स्वतंत्रता...(दीवानी सीरिज)

# # #
उसने लिखा था:

तुम कहते हो
भूल जाने को,
भूल तो
जाउंगी
तुझे
पर
बसे हो
तुम
रौम रौम में
मेरे
दे रहे हो
बाधा
मेरे
एकाकीपन
और
स्वतंत्र
होने के
क्रम में....

____________________________________________________

मेरा ख़त कुछ यूँ था :

मैं मजबूर हूँ
कहने को कि
भूल जाओ
मुझ को,
रौम रौम में
बस कर
और
बसा कर
कहे
जा रही हो
बातें
एकाकी
स्वतंत्रता की
एकाकीपन या
एकाकी अस्तित्व की,
जब
दो नहीं
एक हैं
हम-तुम,
यह कैसा है
दूसरा
एकाकीपन
क्यों
चाहत है
दूसरी
स्वतंत्रता की ????????