Monday, May 31, 2010

अपनत्व (Deewani Series)

# # #

उसके प्यासे शब्द कुछ इस तरहा बातें करते थे:



"अपनत्व चाहिए !

कोहरे भरे
धुंधलेपन में
कुछ भी
दिखाई
नहीं देता....

गली कूंचों में
ढूँढा
महल-बागों में
ढूँढा....

मिल भी जाता
यदि
मैने बाहें
फैला दी होती.

__________________________________________________________________

कैसे समझता उसे कि:

अपनत्व की
नदी
बाँहों से नहीं
ह्रदय से
निकलती है.
सपनों में देखे
संसार को
छुआ है कभी
तू ने ?

अपनापन
'यदि' से
दूर है
बहुत,
मिलना है तो
बाहें नहीं
दिल
खोल के
मिलो
मुझसे.

Sunday, May 30, 2010

मेरे ज़ब्त-ए-ग़म के किस्से....

# # #

मेरे ज़ब्त-ए-ग़म के किस्से, मशहूर हो गये हैं
सुन सुन के चाहने वाले, मगरूर हो गये हैं.

मेरे अंदाज़ जिंदगी के, तबदील हो गये हैं
सितम-ओ-ज़ुल्म उनके, मंज़ूर हो गये हैं.

नज़रें हकीक़तों से, क्यूँ चुरा चुरा रहे हैं
हाथों मोहब्बतों के, मजबूर हो गये हैं.

गम से सहन में बैठे, गीत उनके ही गा रहे हैं
मैदान-ए-इश्क में वो, मंसूर हो गये हैं.

होंशों-हवाश गायब, आँखे किसी की जानिब
लड़खड़ाते हुए लबों पे, मजकूर हो गये हैं.

नींदें उड़ गयी है, रूठे हैं ख्वाब हम से
जब से उस महज़बीं से, महजूर हो गये हैं.

खोये खोये से रहते, हर लम्हे हर घड़ी यूँ
उनके हसीं ख्यालों महसूर हो गये हैं.

रग रग में खून उनका, साँसे हुई अमानत
न जाने क्यूँ मेरे वो, मक्दूर हो गये हैं.

आँखों का रंगी सुरूर, सुकूं दिल का बन गये हैं
मशक्कत किये बिना वो, मय-ए-अंगूर हो गये हैं.

खयालों में गहरे डूबे , होंश गंवाए हुए हैं
ज़ज्बा-ए-तसव्वुर उनके, मख्सूर हो गये हैं.

लाखों ग़मों को सह कर, खुद को मिटा दिए हैं
मेरे यारों सच है फिर भी,मसरूर हो गये हैं.
___________________________________

मशहूर=प्रसिद्ध, मगरूर=अहंकारी, .मंज़ूर=स्वीकार मंसूर=विजेता, मक्दूर=उर्जा,सम्भावना, मजकूर=बयां, महजूर=विरह्ग्रस्त,वियोगी, महसूर=घिराहुआ, मख्सूर=नशीले,मय-ए-अंगूर=द्राक्षासव, मसरूर=खुश,हर्षित

बारिश : चन्द नज़ारे

# # #
शैतान बच्चों का
उछालना पानी को
एक दूजे पर,
शांत बालकों का
कागज़ की
नाव चलाना,
स्कूल का ‘रैनी डे’
घोषित करना...

भीगते भीगते
दोस्त के
घर चले जाना,
उसकी रसोई से
उठती
अजवायन वाले
परांठों की
नथनों में खुशबू,
आम के आचार से
उसके मेल की
परिकल्पना….
दोस्त का इशारा,
और
बात बेबात
वहीँ जम जाना,
नाक की बात
मुंह तक
पहुचने का
सपना
साकार हो जाना,
फिर चची का
प्यार से परोसना,
ना ना करते
पूरी पेट-पूजा कर लेना,
तुष्टि की डकार
फिर गिल्ली डंडा खेलना..


फूट पड़ना
जवान दिलों में
पहली बौछार में
भींगने की तमन्ना,
परदेशिया की
प्रेमिका का
लाखों का सावन
बीते जाना,
भीगी अंगिया
भीगी चादर,
कड़कती
बिजलियों में
घबराहट
और
गर्माहट
भरा आगोश,
आशाओं का
उभर जाना,
मन मयूर का
नाच उठाना,
उमंगों का
अनूठा आलम,
मीठी स़ी
टीस क्यों है
नामालूम,
उसको सोचना
और
उसका सोचना,
होले होले
मन की
गिरहों को
खोलना,
तड़फना …
और
तड़फते हुए
मुस्कुराना...

बाबा का
थम थम के
डरते डरते
चलना
मैया का
टप टप बूंदों को
कोसना,
सावन के झूलों की
धुंधली स़ी यादें,
बरसात की
उस अँधेरी रात को
करना याद
जब मैया
अचानक
प्रसव पीड़ा से
हुई थी व्याकुल,
उस मेह-अँधेरी
रात में
डॉक्टर दीदी का
तकलीफ कर
चले आना
मानो देवी हो,
अब ऐसे लोग कहाँ की
हताशा…,

बरसना
बंद होने पर भी
छाता ताने रहना
ना जाने कब
बरस जाए बादल ,
जोड़ों में बढ़ता दर्द,
दुखते पीड़ते पैर,
घर पहुँचने में हुई देर,
गरमागरम
चाय की प्याली,
दो चार बचे दांतों से
नीवाये पकोड़ों को
कुतरना,
बहु के सिले सिले से
ताने
बचों की
किलकारियां
बेटे का मौन
दृष्टा भाव के संग,
और
यादों में खोकर
सपनों के साथ
हे प्रभु !
कहते सो जाना……

इज्तिरार....

# # #
बुझी हुई अगन में यह कैसा शरार है
जुदा है फिर भी इज्तिरार-ए-दीदार है.

कैसें देखें उनको मिलें उनसे कैसे
फिजाओं में बिखरा धुंए का गुबार है.

उफन रहा है दरिया ये मौजें डराती है हमें
रात है अँधेरी आशियाँ उनका उस पार है

रुसवा किया था ठुकराया था बेदर्दी से उसने
फिर भी ना जाने क्यों उसका इंतजार है.

अपने ज़ब्त पर करते थे यूँ नाज़ हम भी
ना जाने क्यों नहीं आ रहा दिल को करार है.


मायने : इज्तिरार=आतुरता, ज़ब्त=सहनशीलता, करार=चैन, दरिया=नदी, मौजें=लहरें

Saturday, May 29, 2010

रिश्तों का फलसफा.....

शम्मा
बुझी
आग
चली गई,
सुराही
टूटी
पानी
बह गया,
फूल गिरा
महक
रह गयी,
ख्वाब टूटा
एहसास
रह गया;

रिश्तों का
फलसफा
अजीब है
मेरे दोस्त !
कहीं मुंह
मुड़ते ही
भूला
दिया जाता है
कहीं
बिछुड़ने पर
यादों ही
गहरायी में
बसा
लिया
जाता है........

Thursday, May 27, 2010

कृतज्ञ....

कृतज्ञता
होती है
अभिव्यक्ति
संवेदनशीलता की
दूसरे के
अंतर्मन को
छूने की
किसी के
भावों को
समझने की...

कृतज्ञता हेतु
वांछित है
उदारता मन की,
होती है
अनुभव
प्रसन्नता
देने में
बस देने में
क्योंकि :
विस्तार है देना
संकुचन है लेना…

कृतज्ञता ज्ञापन
प्रतिफल है
अताम्विश्वास का
स्वयं-आस्था का
विनम्रता का
अन्तः बाह्य की
एकात्मकता का...

कृतज्ञता है
एक स्थिति
जहाँ नहीं है
अपेक्षा
नहीं है
आसक्ति
नहीं है
विरक्ति
है बस प्रेम
प्रेम ही प्रेम...

मेरे अहंकारी मन !
जो भी हुए हैं
कृतज्ञ,
तर गए,
प्रेम के निशान
कोटि हृदयों में
रख गए,
मेरे ह्रदय में
बसे परमात्मा
दे मुझे
आलोक
कृतज्ञ होने का....

Sunday, May 23, 2010

धम्म : जैसा बुद्ध के अध्ययन से मैंने समझा...


# # #
धम्म
नहीं है
नाम
किसी
समूह का
धम्म नहीं है
परिचय
किन्ही शास्त्रों का
धम्म है
व्यक्ति
से जुड़ा हुआ
उसके दुखों से
तरण
का मार्ग
उसका
आत्मिक
ऊँचाइयों को
छूने का
एक
सजग उपक्रम....

किसी के पीछे
चलने
का
नाम नहीं है
धर्म
,
किसी झंडे तले
किन्ही
करमकांडों के तहत
जुट कर
नारे लगाने का नाम
नहीं है धर्म,
वेश के
आवरण
में
लिप्त है जो
वह नहीं है
धर्म....

अपने
दीपक बन
स्वयं को
आलोकित कर
अपना मार्ग
प्रसस्त
करने के
मर्म का नाम है
धर्म...

खुद को पहचान
हर सांस में
उस
पहचान को
भर देने का
नाम
है धर्म
भावना से अधिक
विवेक को
जगाने के
क्रम
का नाम है
धर्म....

Saturday, May 22, 2010

अरके इन्फ़िआल

@ @ @

हर लम्हा उनको तज़िक्रा -ए-गैरों का ख़याल है,
ज़िन्दगी उनके खातिर एक बाज़ीचा-ए-अफ्ताल है.

इस लम्हे और..उस लम्हे कुछ और जलवे उनके
ऐसी सूरत में ऐ दिल कुछ कहना मुहाल है.

इख्तिलात के अन्दाज़ को ना पूछें तो अच्छा
ज्यूँ ज्यूँ जाये बढ़ता के उठते सवाल है.

कहते थे अल्फाज़ हमारे होतें है अन्दोहरुबा
सोज़-ए-निहाँ से माथे पे आरके इनफ़िआल है.

बाज़ आये हम इश्के-पुर-अर्बदा से मेरे मौला
यह कैसी है हकीक़तें है कैसी मिसाल है.

(तज़िक्रा -ए-गैर=दूसरों कि चर्चा. बाज़ीचा-ए-अफ्ताल=बच्चों का खेल. इख्लितात=मेल-जोल
अन्दोहरुबा=पीड़ा दूर करने वाले. सोज़-ए-निहाँ=छुपी हुई जलन. अरके इन्फ़िआल=पश्चाताप रुपी पसीना. इश्के-पुर-अर्बदा=झगडालू प्रेम .)

Friday, May 21, 2010

सनद...

फिर होगी मुलाक़ात एक अहद दे गया
अधूरी बात की अनजानी सी सनद दे गया.

निस्बत-ए-हक़ीक थी उसे और ख्वाब था मैं
बिखरे हुए अरमानों को एक लहद दे गया.

साहिल से देखा किया डूबना मेरा तूफाँ में
रूहानी बातों को तडफता इक जसद दे गया.

खुलते रहे अस्रार रफ्ता रफ्ता मुझ पे
मुत्त्मुइन् था हरसू, गिरहें अशद दे गया.

झूठे थे वादे,और झूठे ही फ़साने उसके
खुद को कायनात, मुझे महद दे गया.

संग बना है तकिया ओ चादर ख्वाबों की
हम को वो जीते जी क्यूँ मरकद दे गया.

जुबान पे ना हर्फ़-ए-तलब ना ज़लाल दीद में
जीने मारने का बहाना एक अदद दे गया।
_______________________________________

(अहद=वादा, सनद=प्रमाण, निस्बत=सम्बन्ध, हक़ीक=वास्तविकता, लहद=कब्र, साहिल=किनारा, रूहानी=आत्मिक, जसद=देह, अस्रार=भेद रफ्ता रफ्ता=धीरे धीरे
मुतमुईन = संतुष्ट, गिरहें=गांठे, अशद=बहुत पक्की, कायनात=विश्व
महद=पलना-cradle, संग=पत्थर, मरकद=कब्र, हर्फ़-ए-तलब=इच्छा कि बात, जलाल=क्रोध, दीद=आँख )

Thursday, May 20, 2010

पूजा मेरे स्वयम की....

सूर्योदय से
सूर्यास्त तक
मेरे प्रयासों में
होती है

शामिल

प्रतीक्षा
रात की...

गुदगुदे
बिस्तर पर
सो जाता हूँ
मूंद कर
कोमलता से
आँखे अपनी,
चले आते हैं
सपने
बन कर
साथी मेरे,
सहलाने
उन पीडाओं को
जो पाई होती है
मैने
जागते हुए
जग के साथ
दिन
बिताते हुए...

स्वच्छता
सफ़ेद चद्दर
सफ़ेद बिस्तर की
है मंदिर मेरा,
होती है
जिसमें
पूजा
मेरे स्वयम की
द्वारा मेरे ही...

नासूर....

# # #
पाला था
जख्म
ऐसा कि
नासूर
बन गया
रिसने लगा
मवाद
सुकूं
मफ्रूर
हो गया,
इलाज-ए-जख्म में
ज़ज्बा-ए-ताखीर था
शुमार,
तहम्मुल था के
कुछ और
हमें
तह्व्युर
हो गया....

(नासूर=पुराना घाव जिसका इलाज बहुत मुश्किल होता है जो भरता है और फिर हरा होता है, मफ्रूर=भागा हुआ/absconding , ताखीर= ढीलाई/lethargy , तहम्मुल=सहिष्णुता,तह्व्युर=अचम्भा, विस्मय.)

Wednesday, May 19, 2010

प्रेम में विष का अस्तित्व कहाँ ?

# # #
नाग और
नागिन
होते है रत
जब भी
अभिसार में,
आलिंगनबद्ध
चूमते हुए
एक दूजे को,
प्रेम का आवेग
एक होने की
वांछा,
मिट जाते हैं
विभेद समस्त,
होता है उत्सव/
बस उत्सव
करते हुए
तिरोहित
विष को,
विद्यमान है जो
आवययों में;
हर फुफकार
सर्प-सर्पिनी की
मानो हो
संगीत स्वर्ग का;
बरसता है
अमृत/
केवल अमृत
क्यूँ कि
प्रेम मिलन में
सिवा
अमृत-रस के
रिसता नहीं कुछ भी
बहता नहीं कुछ भी,
बन जाता है
विष भी
अमृत,
कहता हूँ
तभी तो :
प्रिये !
प्रेम में
विष का
अस्तित्व कहाँ ?

Tuesday, May 18, 2010

अन्वेषण............


मुस्कुरा रहा है
मानव
विजित कर,
पवन,
अगन,
जलधारा
ज्वारभाटा
समुद्र-तरंगों
चन्द्रमा
अन्तरिक्ष को

करली है रचना
उसने
मस्तिष्क से भी
तीव्र
माईक्रो चिप की,
कर ली है
सृष्टि
अणु शक्ति के
रचनात्मक और
विध्वंसात्मक
उपयोगों की;
जैविक प्रतिकृति
निर्मित कर
चिढ़ा रहा है
वह मुंह
कर्ता का भी...

बहुत कुछ
पाया है और
खोया भी है
बहुत कुछ:
रातों कि नींद
दिन का चैन
विश्वास और मैत्री
स्नेह, प्रेम और वात्सल्य
करुणा और अनुकम्पा
स्वाभाविकता और सहजता
पहचान
पशुओं से
भिन्न होने की
विवेकशीलता.

जुट जाना है
हमें
पुनः
पाने उर्जा

प्रेम की

अंतर्ज्ञान
चेतना व
अनुभूति प्रभु की,
एवं
करना है
अनवेषण
फिर से:
अग्नि का
चक्र का
समय श्रंखला का..

Monday, May 17, 2010

विष-वृक्ष


# # #
मैं था कुपित
अपने मित्र से
कह डाला था
मैने उसको
रोष को अपने
था क्षुब्ध
मैं अपने शत्रु से
किन्तु
नहीं किया था
अभिव्यक्त उसे
कोप को अपने...

और
मैं सींचता रहा था
भय-युक्त हो
उस अंकुर को
रात्रि और प्रातः
अनवरत
अपने शीतोष्ण
अश्रुओं से
देता रहा था
आतप
अपनी मोहक
स्मित
एवम
सुकोमल
धूर्त युक्तियों से...

और
होता रहा था
विकसित
निशिदिन वह
अविराम
एक विशाल
वृक्ष के समान,
हुआ था फिर
फलित
एक रक्तिम अनार
किया था
अवलोकन उसकी
दिप्ती का
मेरे उस
नादान शत्रु ने
चूँकि
उसे था ज्ञात कि
वह फल था मेरा...

तोड़ लिया था उसने
मेरे उद्यान से
उस लुभावने
मनभावन अनार को
जब ध्रुव आच्छादित था
सघन तिमिर से,
हो कर हर्षित
प्रभात बेला में
किया था
मैने परिलक्षित,
तले उस
विष-वृक्ष के
पसरा हुआ था
शत्रु मेरा...

उस पल से हूँ
मैं विक्षिप्त
घोर अपराधबोध से सिक्त
क्या हूँ मैं
वधिक उसका
बन सकता था जो
मित्र मेरा,
ऐसा था वह
भयावह सवेरा
सूर्योदय ने
दे दिया था
मेरे निश्वास को
अँधेरा....

Sunday, May 16, 2010

चाबियों का गुच्छा

मेरे कागजों में अनायास ही उसकी इस कविता कि manuscript मिल गयी है, पुरानी स्मृतियाँ ताज़ा हो रही है, उसके सोचों के दौर सामने आ रहे हैं.......मुझे यह अभिव्यक्ति बहुत अच्छी लग रही है.........यद्यपि आज मैं इसके कंटेंट्स से अपने आपको काफी परे पा रहा हूँ......फिर भी.
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चाबियों के
गुच्छे से
लटका रखी थी
नफ़रत,
संभाल कर
रखी थी
बहुत दिनों
तक,
उन्ही से
खोला करती थी
मैं संबंधों के ताले.

लेकिन जब से
आये हो तुम,
मेरे विस्मृत शब्द !
तब से ना तो
मेरे पास
चाबियों का
गुच्छा है
ना उसमें
लटकने वाली
नफरत.

अब तो
तुम हो
मेरे पास
'मास्टर की'
की
तरहा.




मास्टर की या मास्टर

सोच ने लगा 'विस्मृत शब्द' क्या था............और ख़याल आया कि वह दुनियादारी के झंझटों से दूर जब हुई हर बात पर 'शिव शिव' कहने लगी थी, जप-माला उसकी अभिन्न साथी बन चुकी थी, अधिकांश समय उसका इसी भक्ति भावना व्यतीत होता था, मगर कभी कभी उसको एकांत में आंसू बहाते हुए भी देखता था, और कभी कभी तो उसकी सूनी आँखें भी मुझे आंसुओं से भरी दिखाई देती थी.

मैंने पेज कि बेक-साइड को देखा जहां मेरी यह लिखावट थी.
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यह ताले
यह चाबियाँ
केवल
परिकल्पनाएं थी
तुम्हारे मन की
वास्तविकताओं से
कर के पलायन
आधी कल्पनाओं को रखा (ताले की)
और
आधी के बदले
प्रभु नाम को
अंगीकार कर लिया.
आज भी
संबंधों के ताले
विद्यमान है
तुम्हारे मन में,
खोलने जिन्हें तुम
मास्टर कुंजी बना
कर रही हो उपयोग
शिव नाम का,
जिस शिव ने
नहीं स्वीकारा,
किसी ताले
किसी चाबी
किसी बंधन
किसी परंपरा
किसी विभेद को....

मन में बसी
राग,
द्वेष,
काम,
क्रोध की
चाबियों की जगह
विराजित होंगे शिव
ना ही ताले होंगे
ना ही संबंधों के बंधन
और ना ही छद्म
अनुभव
भक्ति में
ड़ूब जाने के.

शिव 'शब्द' नहीं
नि:शब्द है
स्मृति और
विस्मृति से परे,
मास्टर कुंजी नहीं
मास्टर है....
बहो धारा के संग
जागते हुए
ताकि
नफरतों का बोझ
हल्का हो जाये...

Saturday, May 15, 2010

मुलाकात ना हुई

मंजिल पे गिरी खाक मुलाकात ना हुई
नज़रें तो मिल गयी थी मगर बात ना हुई.

महसूस हुआ हसीँ मंज़र खुद-ब-खुद
देखा किये चमन को महक साथ ना हुई.

आईने में देखा खिलता सा उनका अक्स
रूबरू उनके हो पायें हम औकात ना हुई.

सुनते रहे बादलों की गरज हर इक सांस में
तशनगी की तड़फ थी मगर बरसात ना हुई.

चाहत में लिखे थे हम ने अल्फाज़ अनगिनत
मना पायें उन्हें यारब नज़्म-ए-करामात ना हुई.

सोचा किये थे कहेंगे और पूछेंगे उनका हाल
दम भर हुए मुखातिब तलब-ए-सवालात ना हुई.

हाल-ए-तंगदिल हमारा वो कहते सुने गए
हो जाये असीर मोहब्बत कोई हवालात ना हुई.

उनके लिए जीते हैं मरते भी हैं उन पर
मौला इलावे हस्ती उनके कायनात ना हुई.

Thursday, May 13, 2010

क्या चाहते हो...

# # #
मालूम है तुम को, क्या चाहते हो
पूछो ना खुद से के, क्या चाहते हो.

तूफाँ सुनाये ना लोरी किसी को
सोने का ज़ज्बा है, क्या चाहते हो.

गाफिल हो पीकर के रिश्तों का गांजा
उन्हें पूछते हो, क्या चाहते हो...

देखते हो सबको सिवा खुद के यारां
मुड़ के तो देखो, क्या चाहते हो.

बहारों में गाते हो नगमे खिजाँ के
मुरझाये हो तुम तो, क्या चाहते हो.

आग में तलाशोगे तासीर-ए-ठंडक
जल के ही जानोगे, क्या चाहते हो.

ज़माने से शिकवे किये जा रहे हो
जरा खुद को देखो, क्या चाहते हो.

भागने हकीक़त से राहत नहीं है
तसव्वुर की दुनिया से, क्या चाहते हो.

साँसों को गिनना ज़िन्दगी नहीं है
जीयो तो जानोगे, क्या चाहते हो...

Monday, May 10, 2010

प्रिये मैं गीत अधूरा हूँ...

# # # # #
प्रिये मैं गीत अधूरा हूँ...

जीवन को परिभाषित कर
पल प्रतिपल मैं जीता हूँ
चूक तनिक स़ी हो जाने से
अंतर अपने में रोता हूँ
वाद्यध्वनी से घिरा हुआ
मैं एक राग बेसुरा हूँ
प्रिये मैं गीत अधूरा हूँ...

झूठ दिखावे की यह दुनिया
मैने सतत बनायीं है
उसके प्रतिफल में ही मैं ने
दौलत शोहरत पाई है
पटल आवरण में लिपटा
एक पाखंडी मैं पूरा हूँ
प्रिये मैं गीत अधूरा हूँ...

मैने अपने जीवन क्रम में
मात्र स्वार्थ से प्यार किया
हेतु विजित करने औरों को
शब्दों का श्रंगार किया
ठोस दिखाई देता मैं,यदि
गिर जाऊँ तो चूरा हूँ
प्रिये मैं गीत अधूरा हूँ...

अट्टालिका जो भव्य दिखती
महल ताश का समझो तुम
स्वविकास के नारों को
जाल नाश का समझो तुम
पवन के झोंके से गिर जाऊँ
मैं नींव नहीं कंगूरा हूँ
प्रिये मैं गीत अधूरा हूँ...

Friday, May 7, 2010

नया इन्सां.......

* * *
आज फिर
होगा पैदा
एक छद्म शहीद,
शमशीर से नहीं
ना ही बन्दूक से,
बनेगा वुजूद उसका
एक
ईमानदार
ज़हीन
जिम्मेदार
कलम से,
जो बनी है
करने
हिफाज़त
आम आदमी की,
जिल्दों में लिखी
कानूनी दफाओं के
सहारे.....

हो गया था
इन्साफ वहीँ
जो मारे गए थे
जुर्म को
अंजाम देते,
बीतें हैं
महीने
एक सच को
सरंजाम देते...

पढ़ी जाएगी
फिर से किताबें
कानून की,
ना ख़त्म होगी
कहानी
इस खौफनाक
जूनून की...

पत्तों का कर के
इलाज़
नहीं बचा सकते हैं
हम शज़र को,
देखना होगा
हमें जड़ों को
मिटाने
नफ़रत के
कहर को....

मैं हूँ
औरों से बेहतर
मैं हूँ
सब से सच्चा
कहेगा जब तक
यह
कोई भी
मज़हब-ओ-फिरका,
नहीं वह दीन
ना है ईमां
वह तो है
महज़ खोखली
इंसानी अना का
चरखा...

फिरकों के
दायरों से
रूहानी बातों को
निकालना होगा
इंसानियत को
बस
इंसानियत के
नाते
संभालना होगा...

करना होगा
खात्मा
तंग
सोचों का,
जलाना होगा
घाव को
छोड़ कर
इलाज़
खरोंचों का...

सियासतदानों और
मज़हबी मक्कारों को
सबक
सिखाना होगा,
धर्म को
बाहिर
इबादतगाहों से
निकाल
दिलों में
लाना होगा...

मज़हब नहीं है
ज़ज्बा सड़क का
इसको
इन्सां का
जाती मसला
बनाना होगा,
नफरत और
बैर कराने वाली
हर किताब से
इन्सां को
आज़ाद
कराना होगा...

दहशत गर्दी के
कारखाने
रहेंगे
बदस्तूर ज़ारी,
किसी एक को
लटका देने से
ना मिट सकेगी
बीमारी...

ना जाने क्यों
हम
भरमा जाते हैं,
भूलाकर
सब कुछ
नादानी से
जश्न
मनाये जाते हैं...

ठप्पे
पैरहन से
नामों के
मिटाने होंगे,
इंसानियत के
हक में
बरसों के
थोथे
रस्म-ओ-रिवाज़
भुलाने होंगे...

पैदा होगा
ज़मीं पर
एक नया इन्सां
जो ना
हिन्दू होगा
ना क्रिस्तान
ना मुसलमाँ.......

Sunday, May 2, 2010

चिर लक्ष्य की यात्रा.....( A Note to Myself)

# # #
ठहर जाता हूँ
चलते चलते
रोक कर
गति को
अपनी.......

देखता हूँ
फिर से
स्वयम को,
झाड़ता हूँ
गर्द
जो जमा दी है
समय ने,
जाँचता हूँ पुनः
पथ को
मानचित्रों से,
कर लेता हूँ
पुनर्विचार
गंतव्य पर भी....

करता हूँ
अनुभव
पवन के प्रवाह,
वनस्पति की
हरितमा,
जल की गहनता,
पर्वत कि दृढ़ता,
सहजीवियों की ऊर्जा
एवं
प्रभु की उदारता का,

घटित होता है
संबोधन
स्वयम को :
जिया जाता नहीं
जीवन समग्र
पूर्वाग्रहों के
सहारे,
देता है
अस्तित्व हमें
अवसर
संशोधन के,
किन्तु
खोये रहते हैं
हम
अहम् पोषण और
अन्यों के
अनुमोदन में,

लेकर
नयी शक्ति
सौल्लास
बढ़ जाता हूँ
फिर से
चिर लक्ष्य की
यात्रा में...

Saturday, May 1, 2010

आईना

अप्सरा कि तरहा है सौंदर्य था उसका. मगर हर वक़्त दूसरों कि नज़रें देखती रहती थी. उसके लिए अपने 'conviction'से अधिक दूसरों कि 'opinion' मायने रखती थी.देखिये कैसे सोचती थी वो :

"अच्छा होता
यदि
आईना
नहीं होता
हम वही
समझते
जो लोग
हमें कहते.

वैसे भी तो
हम
दूसरों की
जिन्दगी ही तो
जीते हैं. "

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ना जाने यह उसकी खीज थी या आत्मस्वीकृति. कुछ भी हो उसका यह कलाम मुझे रास नहीं आया. उसने ना जाने किस अपेक्षा से मुझे मेरी 'opinion' अपनी इस poem पर पूछी थी, मेरी लेखनी ने वही कहा जो मैं सोचता था......

मेरा confession है यह मित्रों कि ना जाने क्यों मुझे उसके सोचों के विपरीत बोलना comfort zone में ले आता था.

अच्छा है जो
आईना है
गर ना होता
आईना
तो हम
खुद को कभी
ना जान पाते.
दूसरों को
वह दिखाते
जो हम नहीं होते.
जीने को
जीते तो हैं
हम अपनी ही
जिन्दगी
मगर चाहतें हैं
हर लम्हे
दूजों कि तरहा
होना
दिखना या
ऐसे ही किसी
भ्रम में
डूबे रहना.