Monday, February 28, 2011

जी घुटता है......

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परितृप्त हुआ
मैं
पाकर
आनन्द
निर्मल सरित के
अमृत
जल का,
इस ठहरे
दुर्गंधित
नाले में
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

शुद्ध समीर
पुष्पों को
छूकर
मुझ तक रही है
आती जाती,
सड़ांध भरे
चौराहे पर
मित्र
मेरा अब
जी घुटता है...

बैठ किसी
वटवृक्ष तले
शांत
एकांत
घने उपवन में,
हुआ घटित
ध्यान था मेरा,
भीड़ भाड़ के
कोलाहल में
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

मन के स्पंदन
तरंगे तन की
छू छू कर
करती है ताज़ा,
स्पंदन हीन
इस आधिकारिकता से
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

शीतल छाँव
मिली है
हरदम
साथ किसी का
रहा हर कदम,
धूप की
चुभती तीखी
तपिश में
नितान्त अकेला
खुद को पाकर,
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

अनुभूतियों की
पृष्ठभूमि में
पूछ लिया है
आज स्वयं से,
अनुत्तरित पा
निज संवेदन को,
मित्र !
मेरा अब
जी घुटता है...

होगी पूरी
शोध स्वयं की
जिस शुभ पल,
तिरोहित होगा
दुनिया का छल,
करूँगा जब मैं
दर्शन निज के,
जान सकूँगा
तभी
रहस्य यह,
मित्र !
मेरा जी क्यों
घुटता है ?

कहूँगा उस दिन
अगुन्जरित
वीर स्वरों में,
मधुर गीत और
मौन संगीत में,
बिन बोले
बिन जतलाये
जीने की गहरी भाषा में
मित्र !
मेरा जी नहीं
घुटता है...

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