Wednesday, September 21, 2011

विकसित भारत...


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भाव विहीन
चिंताग्रस्त
बूढ़े से बुझे बुझे चेहरे,
आंकिक उम्र का टेग पहने
जवान जिस्म,
कन्धों पर लटकी बेग्ज़,
रोबोट की मानिन्द
बढ़ते कदम,
दैनदिन की मुश्किलें
बंधा बंधाया जीवन,
दूसरों की प्राईवेसी को
सम्मान देने के चक्कर में
ओढी हुई दूरीयां,
वो ही माल्स
वो ही स्टोर्स,
वो ही सड़कें,
वो ही गाड़ियां,
वो ही नियम कानून,
लीक पर चलना,
लीक पर सोचना,
लीक से परे ना हटना,
व्यवस्था की गुलामी,
वो ही घुमने फिरने की जगहें,
वो ही बंधे बंधाये
कार्यक्रम,
पांच दिन काम के
वीक एंड के वो ही प्लान्स,
वो ही भाषा
वो ही शब्द
सब कुछ लगता है
मशीनी सा
जीवन्तता नदारद,
वैशवीकरण
यह सब ला रहा है
पश्चिम से
पूर्व में....
हो रहा है तैय्यार
एक मध्यम वर्ग
जिसे जीने से ज्यादा
कमाने की,
आज से ज्यादा कल की
फ़िक्र करनी होती है,
प्रतिस्पर्धा की अगन में
देनी होती है
आहुति खुद की,
प्लास्टिक में छुपी मुद्रा
परिभाषित जीवन शैली,
कभी ख़त्म ना होने वाला
तनाव,
ह़र रहा है
जीना जीवन से,
मैं देख रहा हूँ ऐसा ही
कुछ होना है
विकसित भारत में,
वैयक्तिकता के नाम पर
बलिदान व्यक्ति का ...

(न्यूयार्क : २१ सितम्बर, २०११.)

Tuesday, September 20, 2011

मुसाफिर...

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कैसे हैं ये रिश्ते,
ह़र कदम जहां
होते हैं इम्तेहान,
किसी को ना है
यहाँ थोड़ा सा इत्मीनान...
पड़ी है सब को साबित
ना जाने क्या करने की
जो ना दिल की है
ना ही कोई बात है
जेहन की,
कहतें हैं ना जाने क्यों
उसको खुद की
है जो मिलकियत रेहन की...
ह़र लफ्ज़ के मायने
निकाले जातें है
खुद के खातिर
खुद को शरीफ और हम को
बताया जाता है शातिर,
कैसे गुज़ारे हम यारों
ये घड़ियाँ उधार की,
हम नहीं है बाशिंदे
हम तो है महज़ मुसाफिर...
बस चुप्पी हो गयी है
हमराज हमारी,
सिले होठों पे है
कशमकश की सवारी,
उड़ने को है पिंजर से,
नाव लड़ रही है
आज भंवर से,
तोबा तोबा कैसी है
ये दुनियादारी,
ज़लील होकर बिक रही है
देखो ये खुद्दारी...