Tuesday, September 20, 2011

मुसाफिर...

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कैसे हैं ये रिश्ते,
ह़र कदम जहां
होते हैं इम्तेहान,
किसी को ना है
यहाँ थोड़ा सा इत्मीनान...
पड़ी है सब को साबित
ना जाने क्या करने की
जो ना दिल की है
ना ही कोई बात है
जेहन की,
कहतें हैं ना जाने क्यों
उसको खुद की
है जो मिलकियत रेहन की...
ह़र लफ्ज़ के मायने
निकाले जातें है
खुद के खातिर
खुद को शरीफ और हम को
बताया जाता है शातिर,
कैसे गुज़ारे हम यारों
ये घड़ियाँ उधार की,
हम नहीं है बाशिंदे
हम तो है महज़ मुसाफिर...
बस चुप्पी हो गयी है
हमराज हमारी,
सिले होठों पे है
कशमकश की सवारी,
उड़ने को है पिंजर से,
नाव लड़ रही है
आज भंवर से,
तोबा तोबा कैसी है
ये दुनियादारी,
ज़लील होकर बिक रही है
देखो ये खुद्दारी...

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