Tuesday, October 11, 2011

गुज़ारिश (आशु रचना)

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मेरे गुज़रे हुए कल से
की थी
गुज़ारिश मैने,
बीत चुका है तू,
फिर सताता है
तू क्यों
मुझको,
बनकर साया
एक पिशाच सा
क्यों करता है
बैचैन मुझ को ?
बोला था वो
हिस्सा
मेरी ज़मीर और फ़ित्रत का ,
बिन खोले मुंह
मेरी ही जुबाँ से
लिए बिना सहारा
हर्फों और लफ़्ज़ों का,
क्यों फिर रहे हो
चिपकाए खुद से
मेरे बेजान जिस्म को,
रूह छोडे हुए बदन
होते हैं महज़
लाशें ,
होती है जगह जिनकी
कब्र में
डाली जाती है जिन पर
ख़ाक
भर भर मुठ्ठियों में,
की थी गुज़ारिश
मेरी रूह ने
मुझ से ही :
फेंक दो,
फूक दो या
कर दो दफ़न
माजी को,
बचना है गर
तुझ को
होने से घिनौना
उसकी सड़ांध
और
छूत के
असर से.....

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