Thursday, December 19, 2013

पूनम का यह चाँद देखो

# # # # # # 
पूनम का
यह चाँद 
देखो
ले कर आया 
दिव्य चांदनी,
उल्लास का 
प्रसार ऐसा 
कंचन फीका 
मलिन कामिनी...

दिवस मानो 
थम गया हो 
विस्मृत कर 
गति को ही अपनी   ,
विकल चकवी 
भूल गयी ज्यूँ  
आज अपनी 
सतत रागिनी...

स्पर्श कुछ ऐसा हुआ 
है पुलकित 
तन मन स्पन्दनी 
ध्यान ज्यूँ 
हुआ घटित हो.
तिरोहित है 
अंतर सौदामनी ...

बुझा दें हम 
दीप क्यों ना 
सुला कर लौ को 
ए सजनी, 
शीतल इंदु संग 
नहीं रहेगी 
शलभ की वो  
आकुल करनी..

मुग्ध हृदय 
स्वागत पवन का 
खोल कर 
रुद्ध वातायनी 
स्वर्ग धरा पर 
आज उतरा,
है कृपालु 
जगत जननी...

Monday, May 27, 2013

थोथा थूक बिलौना क्या ?

# # # #
दीठ से दोष 
छुपाना क्या ?
नमक की रोटी 
बनाना क्या ?

थोथा थूक
बिलोना क्या ?
भरी लुटिया 
डुबोना क्या ?

औरों के अवगुण
गिनाना क्या ?
लिखे अक्षर
मिटाना क्या ?

बीज बैर के
बोना क्या ?
मैल पराया
धोना क्या ?

दिन में दीया
जलाना क्या ?
बनती बात
बिगाड़ना क्या ?

'मैं का मलबा
ढोना क्या ?
मानव जीवन
खोना क्या ?

जगने की बेला
सोना क्या ?
सपना टूटा
रोना क्या ?

सूखे वस्त्र
निचोड़ना क्या ?
फिर से उन्हें
भिगोना क्या ?

(राजस्थानी बात चीत से प्रेरित)

सजगता छोटी..

# # # #
लबा लब
भरा था 
एक सर, 
उछलती 
कूदती
मण्डूकी 
चंचल, 
चली आई  
बाहर
बेपरवाह 
हो कर
ध्यानी  बगुला 
नज़र 
एकटक,
चोंच में 
लपक कर 
गया था 
गटक,  
अति उच्छ्रंखलता
होती है 
खोटी,
बचाती
विनाश से  
सजगता 
छोटी..

Saturday, April 27, 2013

रख कर बंसरी लबों पर .....

ज़द्दो जेहद
जिंदगी की
दे देती है थकन
रख कर
बंसरी
लबों पर अपने
बन जाता है कोई
किशुन कन्हाई..

बहने लगते हैं
नग्मात के धारे,
चहक उठते हैं
जिस्म औ' ज़ेहन
थके हारे,
बहने लगती है
फिर से जिंदगानी
साथ लिए
हमसफ़र किनारे....

बजने लगता है
रूह में
राग अनहद का.
लगता है जैसे
फिजा अमन की है छाई..

ज़िंदगी मौसिकी का
सज़ीना है
कायनात भी तो
आगाज़ और
अंजाम का ही
करीना है
मांझी हों हम
मुक्कमल जीना
बहर -ए-हयात का
सफीना है

जिंदगी नाम चलने का
बहना है
उसकी फितरत
रुका जो भी
इस सफर में
उसको है मौत आई...

Monday, February 18, 2013

बावरे !


# # #
धोखे है 
तेरी नज़रों के 
क्षितिज के 
इतने छोर,
लौट चला आ
राही पगले
अब तो 
खुद की ओर,

क्या तारेंगे 
सूरज चंदा 
बंधे काल के हाथ,
तेरे दीपक से 
ही होना
तेरा सकल प्रभात,
माने गैरों को 
क्यूँ अपना 
तेरे मन का  
चोर...

अंतर 
अनहद नाद 
समाया
वहीँ तो 
निज आलय को 
पाया 
बाहर में 
कोलाहल भीषण 
कैसा है 
यह शोर...

मिलन 
स्वयं से 
यदि करना है,
तन्द्रा से 
तुझको  
जगना है,
कर ऐसा 
कुछ जतन
बावरे !
जागृत हो 
हर पोर ...