Tuesday, December 7, 2010

मायने मेरी नज्मों के ...

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मालूम है मुझे,
दौड़ते दौड़ते
ज़माने की
बेमकसद
'मराथन' में,
झेलते निबाहते
रीत माशरे की,
जीते जीते
भाव अपनी असुरक्षा के,
सहते सहते
तकलीफें जिंदगानी की,
देखते समझते
पाखण्ड लोगों के
हो गई है
चेतनाहीन
त्वचा तुम्हारी...

इसी वज़ह से
निकल रहा है क्रंदन
मेरे दिल-ओ-जेहन से,
काट रहा हूँ च्यूंटियां
अपने बदन को,
करते हुए लहूलुहान
खुद के जिस्म को..

शायद मेरे बहते हुए
सुर्ख खून को देख कर
हो जाये
एहसास तुम्हे
मेरे दर्द का,
हो जाये
संप्रेषित तुम तक
स्पंदन मेरी संवेदना के
और
आ जाए तुम को
समझ में,
मायने मेरी नज्मों के...

(यहाँ त्वचा/बदन/जिस्म/वुजूद human-essence के लिए इस्तेमाल हुए हैं)

1 comment:

  1. Bahut khoob, Bahut aacha likha hai aapne...khaas kar antim panktiyan....

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