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योगी शिव तपस्या में लीन थे
ध्यान धरे स्वयं में तल्लीन थे...
पर्वत आया
शिव सेवार्थ
लेकर भेंट
पुष्प फलादि,
पुत्री पार्वती
संग पिता के
सौम्य गुणी
अनन्त अनादि .....
आकर्षित
शिव मन हुआ
स्वंग शक्ति पर,
हुआ प्रभाव
सहज घटित
उनकी आसक्ति
अनुरक्ति पर...
भंग हुआ
ध्यान
शिव शंकर का,
चक्षु खुला
भयभीत
अभयकर का,
पर्वत सविनय
विनम्र प्रार्थी,
सेवा प्रतिदिन
हेतु स्वार्थी,
आदेश शम्भू का
था विचित्र
आओ नितान्त
अकेले
मेरे भक्त मित्र,
नहीं लाना तुम
संग
पार्वती को,
बाधक है वह
साधक
व्रती को...
बोली भगवती
गौरी कल्याणी
अधरों पर
पावन स्मित लिए,
तेजोमय ललाट
आलोकित
ह्रदय सुकोमल
प्रीत लिए...
हे शिव
करते प्रयोग
जिस ऊर्जा का
तुम
निज तप
और
साधना में,
सभी क्रियाएं
निहित
शम्भू !
प्रकृति की
अवधारणा में..
अस्तित्व कहाँ
लिंगराज आपका
अपनी प्रतिरूप
प्रकृति से दूर,
व्यर्थ कुपित हो
देव तुम अभी
मिथ्या बनते हो
क्यों क्रूर..
शिव थे प्रसन्न
देवी मेधा से,
किन्तु वचन थे
अति कठोर,
करूँ नियंत्रण
और समापन
मैं प्रकृति का,
तपोबल मेरा
प्रबल है घोर...
मैं स्वयं हूँ
तत्व स्वतंत्र
मैं पृथक सत्व
हूँ ना कदापि
योगित अथवा परतंत्र,
प्रकृति से सुदूर
बहुत हूँ
पृथक सदैव है
मेरे तंत्र,
मैं नहीं निर्भर
तुम पर
स्वतः गुंजरित
मेरे मन्त्र..
है यदि परे
भगवन आप
प्रकृति से,
क्यों करते तप
पर्वत आरूढ़,
जो देख सुन
आप करें
गृहण,
युक्त संयुक्त है
जो कुछ,
विद्यमान
प्रकृति का रूप
है गूढ़...
हैं यदि श्रेष्ठ
शिव आप शक्ति से
क्यों इतने
भयातुर आप,
मेरे सन्निकट
होने की
चिन्ता से
क्यों हैं
आतुर आप ?
शिव शक्ति का स्वरुप अनुपम
इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ,
परम सत्य प्रस्तुत कर मित्रों
मैं भी आज परितृप्त हुआ..
योगी शिव तपस्या में लीन थे
ध्यान धरे स्वयं में तल्लीन थे...
पर्वत आया
शिव सेवार्थ
लेकर भेंट
पुष्प फलादि,
पुत्री पार्वती
संग पिता के
सौम्य गुणी
अनन्त अनादि .....
आकर्षित
शिव मन हुआ
स्वंग शक्ति पर,
हुआ प्रभाव
सहज घटित
उनकी आसक्ति
अनुरक्ति पर...
भंग हुआ
ध्यान
शिव शंकर का,
चक्षु खुला
भयभीत
अभयकर का,
पर्वत सविनय
विनम्र प्रार्थी,
सेवा प्रतिदिन
हेतु स्वार्थी,
आदेश शम्भू का
था विचित्र
आओ नितान्त
अकेले
मेरे भक्त मित्र,
नहीं लाना तुम
संग
पार्वती को,
बाधक है वह
साधक
व्रती को...
बोली भगवती
गौरी कल्याणी
अधरों पर
पावन स्मित लिए,
तेजोमय ललाट
आलोकित
ह्रदय सुकोमल
प्रीत लिए...
हे शिव
करते प्रयोग
जिस ऊर्जा का
तुम
निज तप
और
साधना में,
सभी क्रियाएं
निहित
शम्भू !
प्रकृति की
अवधारणा में..
अस्तित्व कहाँ
लिंगराज आपका
अपनी प्रतिरूप
प्रकृति से दूर,
व्यर्थ कुपित हो
देव तुम अभी
मिथ्या बनते हो
क्यों क्रूर..
शिव थे प्रसन्न
देवी मेधा से,
किन्तु वचन थे
अति कठोर,
करूँ नियंत्रण
और समापन
मैं प्रकृति का,
तपोबल मेरा
प्रबल है घोर...
मैं स्वयं हूँ
तत्व स्वतंत्र
मैं पृथक सत्व
हूँ ना कदापि
योगित अथवा परतंत्र,
प्रकृति से सुदूर
बहुत हूँ
पृथक सदैव है
मेरे तंत्र,
मैं नहीं निर्भर
तुम पर
स्वतः गुंजरित
मेरे मन्त्र..
है यदि परे
भगवन आप
प्रकृति से,
क्यों करते तप
पर्वत आरूढ़,
जो देख सुन
आप करें
गृहण,
युक्त संयुक्त है
जो कुछ,
विद्यमान
प्रकृति का रूप
है गूढ़...
हैं यदि श्रेष्ठ
शिव आप शक्ति से
क्यों इतने
भयातुर आप,
मेरे सन्निकट
होने की
चिन्ता से
क्यों हैं
आतुर आप ?
शिव शक्ति का स्वरुप अनुपम
इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ,
परम सत्य प्रस्तुत कर मित्रों
मैं भी आज परितृप्त हुआ..
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