Tuesday, May 8, 2012

दीजिये और लीजिये : किस्सा मुल्ला नसरुदीन का..

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मुल्ला की जमीनी ज़िहनी रसा का कायल हूँ मैं जनाब. माना कि मुल्ला बहुत बातों में सोफेसटीकेशन में थोड़े कमोबेश हैं मगर जब बात जड़ की आती है तो मैने पाया कि मुल्ला अपने मुद्दे में बड़े सावधान है. चूँकि मैं इस मुआमले में सब जानते समझते भी कमज़ोर पड़ता हूँ, मुल्ला बाज़ वक़्त मुझे सप्लीमेंट करता है. मुझे जब किसी को उसकी 'गन्दगी' की हद तक जानना पहचानना होता है, मैं मुल्ला की मदद लेता हूँ. उसको कहता हूँ मैं अमुक इंसान के साथ इंट्रेक्ट करूँगा तू बस 'पर्यवेक्षक' बन कर देख और मुझे अपनी कीमती राय उस शख्स की फ़ित्रत और नीयत पर दे. यह बात और हैं, मुल्ला खाली देखनेवाले बनकर नहीं रह जाते, उनकी जन्मपत्री निकाल ले आते हैं और अपने सटीक विवेचन एवं घटिया विमर्श से मुझे लाभान्वित करते रहते हैं. हाँ उनकी बात में मुझे, "सार सार को गहि रखे थोथा देई उड़ाई" के फ़ॉर्मूला को लागू कर, अपने मतलब के पॉइंट्स निकाल लेता हूँ.

एक दिन मैने मुल्ला से कहा, यार कल किसी दूकानदार ने मुझे पॉँच सौ का एक नकली नोट थमा दिया, क्या करूँ....मेरे पास कोई प्रूफ भी नहीं कि उसने दिया है..यार खामोखाह पॉँच सौ की चपत लग गयी. मुल्ला ने जेब से तीन सौ के नोट निकले और कहा यार पांच सौ की इस चपत को थोड़ा सा हल्का कर दूँ,दे मास्टर वह नामुराद पॉँच सौ वाला हरियल हम को, ऐ फ्रेंड इन नीड इज ऐ फ्रेंड इनडीड..क्या याद करोगे अमां.
मैने कहा यार क्या करोगे इसका,,,बोला अरे कुछ गलत नहीं करूँगा, खातिर जमा कर रख. मैने कहा यह देश के प्रति दुश्मनी है, मुझे नहीं चलाना यह नोट. मुल्ला लगा कहने अरे तू तो पक्का देशभक्त है मासटर कोई पूछे हम से. चल एक दफा दिखा तो सही क्या दिया मेरे इस पढ़े लिखे मुन्ने को किसी ने. मैने नोट उसके हवाले किया, उसने इधर उधर पलटा, देखा, मुंह बनाया ..और सेंटर टेबल पर रख दिया. गप्पें जारी थी...मैं भूल गया.
.दूसरे दिन मेरे यहाँ चाय सुड़कते हुए मुल्ले ने रहस्योद्घाटन किया..अरे वह नोट मैने चारसौ में बुलाकीदास को बेच दिया. बुलाकी दास दानवीर सेठ राम जीवन जी का मुनीम होता था..सेठजी ह़र पूर्णिमा मंदिरों की हुंडियों में 'माल' चढाते थे...जब सब प्रभु का है..तो असली भी प्रभु का, नकली भी..बुलाकीदास भी तो संत महात्माओं की संगत में रहकर फिलोसोफर हो गए थे.

हाँ तो मुल्ला की जमीनी इंटेलिजेंस का एक और वाकया आप से शेयर करता हूँ.

एक दफा हम लोग नदी किनारे टहल रहे थे. देखा बहुत शोर शराबा है..एक शख्स दरिया के पानी में डूबे जा रहा है. लोग कह रहे हैं, "भाईजान अपना हाथ दीजिये ,भाई जान अपना हाथ दीजिये ." मगर वह है कि ऊपर नीचे आ रहा है पानी के मगर हाथ बाहर नहीं कर रहा. मुल्ला ने माजरा देखा, मैने भी हांक लगायी, "जनाब हम आपको बचाना चाहिते हैं अपना हाथ जरा बाहर करिए तो." मकसद को साफ़ करते हुए मेरे यह जुमला भी बेअसर साबित हुआ. भाईजान बस डूबे जा रहे थे, गठरी की तरह पानी में अन्दर बाहर हुए जा रहे थे लेकिन हाथ जैसे उस गठरी में छुपा रखे हों . मुल्ला ने कहा अमां, तुम लोग नहीं जानते कि इसके हाथ कैसे बाहर हो. मुल्ला चिल्लाया, "भाईजान लीजिये ...भाईजान लीजिये ." और बड़े ही अचम्भे की बात उन ज़नाब ने अपने हाथ को बाहर किया..लोगों ने उन्हें पकड़ बाहर खींचा और उनकी जान बच गयी.

मैने मुल्ला से पूछा, मुल्ले यह क्या नायाब तरीका तुम ने सोचा. मुल्ला कहीं, "मासटर माना कि तेरे पास डिग्रियों का अम्बार है, तुमने ना जाने कितनी किताबें पढ़ी है, बहुत चर्चे भी किये हैं बड़े बड़े ज्ञानी लोगों से, मगर तुम पढ़े लिखे लोग जड़ की बात नहीं जानते..अरे मैने देखा जो डूब रहा था वह घूसखोर फ़ूड इन्स्पेक्टर फज़ल मियाँ था...जिसने ज़िन्दगी में हमेशा बटोरा ही है..उसका हाथ इस हांक से ही बाहर होगा लीजिये ..लीजिये ... दीजिये की जुबान वह क्या जाने."

मैने सोचा मुल्ला ने 'लेने' और 'देने' की फ़ित्रत पर कितनी उम्दा मिसाल प्रेक्टिकल में पेश कर दी है.

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