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ह़र शै लगती
अजीब जैसे,
आ गया ऐ दिल
ये मक़ाम कैसे ?
जुबां चुप है
अल्फाज़ बोलते हैं
मुंह में फिर कसैला
जायका कैसे ?
खुशबू भरा है
गुलशन मेरा,
फूल कहीं दूर फिर
खिला कैसे ?
बहता है दरिया
मेरे ही घर से,
मेरा मन फिर भी
प्यासा कैसे ?
एक है या के
दो हैं हम,
अजनबी साया
दरमियां कैसे ?
जल रही शम्माएं
फानूस हैं रोशन
फिर भी मकाँ में मेरे
अँधेरा कैसे ?
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लाजबाव !
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