Sunday, September 16, 2012
हाफिज खुदा तुम्हारा ....
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रह रह कर
चली आती है
तेरी कोई सदा ,
याद आ जाती
यकायक
तेरी ह़र इक अदा ,
हां ! यह कैसा
बुलावा है
तेरा है कि वक़्त का
फिर कोई
भुलावा है...
चला आया हूँ
बहोत दूर
अब
आवाज़ ना दे,
दुनिया को
अपने माजी के
भूले बिसरे
राज़ ना दे,
ताश के पत्तों सी
बेगानी ये
महफ़िल है
बेआवाज़ नगमों को
फिर से
कोई साज़ ना दे...
डगमगाती कश्ती को
कब मिल सका
किनारा ,
बनना होता है
आखिर में
खुद ही
खुद का सहारा,
गुज़रा हुआ जमाना
आता नहीं
दोबारा,
हाफिज़ खुदा
तुम्हारा
हाफिज़ खुदा
तुम्हारा...
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उम्दा ।
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